विद्यामंदिरों से मार्क्सवाद का निर्वासन
यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के दर्शनशास्त्र विभाग ने कार्ल मार्क्स को पाठ्यक्रम से निकाल बाहर किया है। (जनसत्ता, 8 मई 2015, आज
की
दुनिया में
मार्क्स,
अपूर्वानंद)।
हर
दौर
में
विश्वविद्यालयों में पढ़ानेवाले प्राध्यापकों तथा साहित्यकारों ने मार्क्सवाद के बारे में इतना अधिक भ्रम फैलाया है कि नई पीढ़ी समझ ही नहीं पाती
है कि मार्क्सवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो, प्रकृति में होने वाले या हो सकने वाले सभी परिवर्तनों को सही-सही समझ सकने और उनमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता प्रदान करता है। जो लोग मार्क्सवाद को केवल समाजवादी क्रांति के लिए एक विचारधारा के रूप में देखते हैं वे अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को समझने में नाकाम हैं। वे मार्क्सवाद की अधिरचना के एक सूक्ष्म आयाम तक ही सीमित रह जाते हैं। अपूर्वानंद जी से क्षमा याचना के साथ कहना चाहूँगा कि उनकी टिप्पणियाँ इसकी पुष्टि करती हैं। लेख के अंत में संदर्भ से काट कर की गई उनकी टिप्पणी, 'और उसके लिए तो पढ़ना पड़ेगा ही। जितना बुद्ध को, उतना ही मार्क्स को। लेकिन बिना बौद्ध हुए या बिना मार्क्सवादी हुए। आख़िर यह मार्क्स ने ही कहा था कि एक बात जो तय है, वह यह है कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ', भ्रामक है। 1870 के दशक में फ़्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी में व्याप्त संशोधनवाद की आलोचना करते हुए मार्क्स
ने लिखा था ' अगर
वे
मार्क्सवादी हैं तो एक बात तय है कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।' और मार्क्स को पढ़ने से पहले मार्क्सवादी होना ज़रूरी है। मार्क्स की मृत्यु के बाद किसी ने एंगेल्स से पूछा
था कि आप
मार्क्सवादी किसे कहेंगे, तो एंगेल्स का उत्तर था, "मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी भी परिस्थिति में उसी प्रकार सोचे जिस प्रकार उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता।" और मार्क्स के सोचने का तरीक़ा क्या था इसको समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि, मार्क्स अपने द्वारा
प्रतिपादित किये गये सिद्धांत को मार्क्सवाद नाम दिये जाने का तीस साल तक विरोध करते रहे।
उनका कहना था कि जो कुछ मैंने लिखा है वह तो सर्वहारा-वर्गचेतना पर आधारित समाज का
ज्ञान है। पर अंत में 1872 में कम्युनिस्ट
इंटरनेशनल की हेग कांग्रेस की पूर्व संध्या पर अपने साथियों के आग्रह पर, अपने
सिद्धांत तथा संशोधनवादियों द्वारा फैलाये जा रहे भ्रामक प्रचार के बीच भेद करने
के लिए, उन्होंने मार्क्सवाद नाम को स्वीकार किया था।
अपूर्वानंद
जी की यह टिप्पणी, ‘लेकिन यह भी मार्क्स का
ही कहना है कि एक समय आकर विचार खुद भौतिक शक्ति में बदल जाते हैं ’ भी भ्रामक है। हेगेल के अधिकार के दर्शन की आलोचना करते हुए मार्क्स
ने लिखा था, “आलोचना का हथियार, जाहिर है, हथियार की आलोचना
का स्थान नहीं ले सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति द्वारा ही विस्थापित किया
जा सकता है; लेकिन सिद्धांत भी जनता
के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के
मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है, और
वह पूर्वाग्रहों को तब बेनकाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का
मतलब है चीजों को उनके मूल के जरिए समझना ” जो लोग मार्क्स पर हिंसा की वकालत करने का आरोप लगाते
हैं वे सरासर झूठ बोलते हैं। हिंसा के लिए प्रतिगामी शक्तियां उत्तरदायी होती हैं,
जब वे प्रगति के रास्ते में व्यवधान पैदा करती हैं और प्रगतिशील शक्तियों के हाथों
में परिवर्तन की कमान शांतिपूर्वक सौंपने से इनकार करती हैं।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, पूँजी
के 1867 के जर्मन संस्करण की प्रस्तावना
में,
मार्क्स लिखते हैं, 'विनिमय-मूल्य, जिसका
पूर्ण विकसित स्वरूप मुद्रा है, प्रारंभिक
तथा अत्याधिक सरल स्वरूप है। फिर भी मानव मस्तिष्क, 2000 साल तक उसकी तह में पहुँचने के लिए असफल प्रयास करता
रहा है,
जब कि दूसरी ओर, वह
और अधिक संयोजित तथा क्लिष्ट स्वरूपों को समझने में कुछ
हद तक कामयाब रहा है।' जिस चीज को अनेकों दार्शनिक और चिंतक 2000 साल तक नहीं समझ सके उसे
मार्क्स किस सिद्धांत के आधार पर, और कैसे समझ सके, इसे समझने के लिए यह समझना
जरूरी है कि मार्क्स ने सर्वहारा-वर्गचेतना में क्या पाया जिसके कारण वे सोचने का
वह तरीका हासिल कर सके जो मार्क्सवादी बनने की अनिवार्य शर्त है। लेनिन ने 100 साल
पहले लिखा था, “कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी प्रोफेसरों द्वारा आधिकारिक
तौर पर पढ़ाया जाने वाला, बुर्जुआ विज्ञान तथा दर्शन, सरमायेदारों की युवा पीढ़ी
को बहकाने तथा उन्हें बाहरी तथा अंदरूनी दुश्मनों के खिलाफ तैयार करने के उद्देश्य
से पढ़ाया जाता है।” सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के लिए यह एक
अच्छा समाचार है कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम से मार्क्सवाद को
निकाल बाहर किया जा रहा। युवा पीढ़ी, विश्वविद्यालयों में फैले भ्रम जाल से बाहर
निकल कर, सर्वहारा-वर्गचेतना की उस अंतर्वस्तु की पहचान, जो मार्क्सवादी बनने की
अनिवार्य शर्त है, हासिल करने के लिए, जब अपने मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों को छोड़कर
मेहनतकश जनता के साथ एकजुट होगी, वह भारत में वामपंथी आंदोलन के लिए प्रस्थानबिंदु
होगा।
सुरेश
श्रीवास्तव
15
मई 2015
मो.
9810128813