Monday, 8 December 2025

कॉंग्रेस और राहुल गांधी की चेतना का विकास

(SFS के 14 दिसंबर 2025 के आगामी वेबीनार-विमर्श का विषय है ‘क्या किया जाय’। आज के एक ध्रुवीय राजनीतिक परिवेश में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस की, और कांग्रेस के खोई हुई ज़मीन वापस पाने के संघर्ष में राहुल गांधी की, भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों, जो इस विमर्श में भाग लेंगे, को अपनी भूमिका को चुनने के लिए, कांग्रेस के आंतरिक अंतर्विरोधों के द्वंद्वात्मक संबंध, और राहुल गांधी के LOP और कांग्रेस के नेता के रूप में अस्तित्व, और नेहरू गांधी परिवार के वारिस के रूप में चेतना, के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना भी जरूरी है। SFS के कार्यवाहक अध्यक्ष श्री अनूप नोबर्ट ने मुझ से आग्रह किया है कि इस विषय से संबंधित अपने लेख को मैं लोगों के साथ साझा करूँ। यह लेख मेरी अप्रकाशित पुस्तिका ‘कश्मीर फ़ाइल्स के नजरंदाज सफ़े’ का एक अध्याय है।) कॉंग्रेस और राहुल गांधी की चेतना का विकास ब्रिटिश इंडिया तथा रियासतों में विकसित हो रहे आजादी के आंदोलनों की परिणति, उपमहाद्वीप के बंटवारे के साथ दो राष्ट्र-राज्यों के रूप में भारत और पाकिस्तान की आजादी के साथ हुई। जम्मू तथा कश्मीर को छोड़कर अन्य रियासतों के बिना शर्त परंतु मुआवज़े (प्रिवी पर्स) के साथ, तथा जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 370 के अंतर्गत स्वायत्तता की गारंटी सहित विलय के साथ, ब्रिटिश इंडिया को मिला कर भारतीय राष्ट्र के गठन को, घाटी में पाकिस्तान समर्थक आतंकवाद के विस्तार को, और कश्मीरी पंडितों के पलायन के इतिहास को समझने के लिए कांग्रेस के मूल वर्ग चरित्र को समझना आवश्यक है। 28 दिसंबर 1885 को गठित की गई, 1905 से स्वतंत्रता आंदोलन में पदार्पण करने वाली, 1920 से स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालने वाली और 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के भविष्य की जिम्मेदारी संभालने वाली कॉंग्रेस की सामूहिक चेतना के आंतरिक अंतर्विरोधों को और स्थानीय तथा वैश्विक परिवेश के साथ उसके द्वंद्वात्मक संबंध को समझना भी जरूरी है। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन एलन ऑक्टेवियन ह्यूम के नेतृत्व में किया गया था। 1857 के विद्रोह के समय वे इटावा के प्रशासक थे और कुशल प्रशासनिक अधिकारी की तरह विद्रोह को दबाने में सफल रहे थे पर उसके बाद अनेकों जनहितकारी कार्यों के जरिए जनता का विश्वास हासिल करने में भी सफल रहे थे। 1858 के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने, बुर्जुआ सोच के अनुसार, ब्रिटिश इंडिया का शासन जनता की सीमित भागीदारी के साथ चलाने का निर्णय किया था। आर्थिक नीति स्पष्ट थी - भारतीय उपमहाद्वीप के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उसके अनुषांगिक सीमित स्थानीय औद्योगीकरण। इसी सोच के अंतर्गत ह्यूम ने कुछ प्रतिष्ठित भारतीयों के साथ मिल कर कांग्रेस का गठन किया था। इसलिए कांग्रेस की मूलविचारधारा ‘सामंतवादी-बुर्जुआ’ विचारों का समन्वय है और राजनीतिक विचारधारा ‘अधिनायकवाद-जनवाद’ का संतुलन। स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती दौर में भारतीय सामाजिक चेतना में उपमहाद्वीप की आर्थिक शक्तियों के विकास के तथा धार्मिक व सांस्कृतिक रूढ़ियों तथा परंपराओं के अनुरूप बुर्जुआ और सामंतवादी दोनों चेतनाओं का समन्वय था और अखिल भारतीय राजनीतिक पार्टी के रूप में, कांग्रेस के अंदर, सभी वर्गों तथा समुदायों का प्रतिनिधित्व था। एक राष्ट्रीय संगठन के रूप में कॉंग्रेस की मूलभूत चेतना उस दौर की उत्पादन व्यवस्था - सामंतवादी बुर्जुआ - के अनुरूप थी। कांग्रेस की राजनीतिक विचारधारा में व्यक्तिवादी तथा जनवादी, और धार्मिक रूढ़िवादी तथा सहिष्णु प्रगतिशील विचारों की मौजूदगी बराबर से रही है, और रणनीति प्रगतिशील से अधिक यथास्थितिवादी रही है। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा प्रत्यक्ष रूप में बुर्जुआ जनवाद के अनुरूप संघीय गणराज्य की थी, पर परोक्ष में सामंती अधिनायकवाद के अनुरूप एकलस्वरूपी गणराज्य की थी। बुर्जुआ जनवादी धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील धारा का प्रतिनिधित्व करनेवालों में मुहम्मद अली जिन्ना, पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस तथा जयप्रकाश जैसे नेता थे। सामंती अधिनायकवादी कट्टर धार्मिक रूढ़िवादी धारा का प्रतिनिधित्व करनेवालों में सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, गोविंद बल्लभ पंत जैसे नेता थे। अत्याधिक पिछड़ी पारंपरिक कृषि प्रधान सामंतवादी अर्थव्यवस्था वाले और रूढ़िवादी धार्मिक हिंदू बहुल आबादी वाले देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले एक संगठन के रूप में आंतरिक अंतर्विरोधी दोनों धाराओं के बीच संतुलन रखने तथा ब्रिटिश बुर्जुआ जनवाद के साथ सामंजस्य रखते हुए आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने की अत्याधिक क्लिष्ट क्षमता रखने वाली कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए, धार्मिक महात्मा गांधी सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति थे जो निजी जीवन में कट्टर धार्मिक सनातनी हिंदू थे पर राजनीतिक जीवन में सुविधानुसार धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ जनवादी यथास्थितिवादी व्यक्ति थे। देश में फैलाये जा रहे धार्मिक उन्माद और हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच बढ़ती वैमनस्यता से कांग्रेस की वैचारिक-सामाजिक-चेतना अछूती नहीं रह सकती थी। ऐसे में व्यक्तिगत रूप से पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष तथा राजनीतिक जीवन में स्पष्ट रूप से बुर्जुआ जनवादी प्रगतिशील मुहम्मदअली जिन्ना के लिए कांग्रेस में बने रह पाना असंभव था, और 1920 में उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। जैसे जैसे उपमहाद्वीप में आर्थिक रूप से संपन्नों तथा विपन्नों के बीच अंतर्विरोध तीव्र होता गया, ब्रिटिश साम्राज्य तथा भारतीय उपनिवेश के बीच अंतर्विरोध भी तीक्ष्ण होता गया और राजनीतिक रूप से आजादी की मांग भी मुखर होती गई। इसके साथ ही कॉंग्रेस के आंतरिक अंतर्विरोध भी तीव्र होते गये। बीसवीं सदी के बीस के दशक तक आते आते कांग्रेस के अंदर तीन विचारधाराओं - कट्टर हिंदू सामंती अधिनायकवादी, उदार धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ जनवादी और रूसी समाजवाद से अधिक फ़्रांसीसी समाजवाद से प्रभावित समाजवादी - के बीच वर्चस्व का संघर्ष अपने चरम पर पहुंच चुका था। तीस के दशक तक आते आते स्वभाविक रूप से, मुखर मुसलमानों ने मुस्लिम लीग से तथा मुखर समाजवादियों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से नाता जोड़ लिया और कांग्रेस से बाहर हो गये। तीनों धाराओं के मध्यमार्गीय कांग्रेस में ही रह गये। कांग्रेस में हिंदुओं के बहुमत के कारण, कट्टर हिंदूवादियों के द्वारा हिंदूमहासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गठन के बावजूद कट्टर हिंदूवादी कांग्रेस में ही बने रहे। सौ साल के इतिहास में कांग्रेस सुविधानुसार अलग अलग समय पर तीनों धाराओं के प्रतिनिधियों को संतुष्ट करने के लिए निर्णय लेती रही है पर राजसत्ता के अधिनायकवादी चरित्र के अनुरूप, सत्ता के विकेंद्रीकरण से अधिक केंद्रीकरण के लिए, और राष्ट्र के गठन में संघीय (Federal) से अधिक एकल स्वरूप (Unitary) के लिए प्रयासरत रही है। नेहरू पिता-पुत्र की आजादी के आंदोलन में सक्रिय सहभागिता और पिता-पुत्री की आजादी के आंदोलन में तथा भारतीय गणराज्य के गठन व आर्थिक विकास में सहभागिता के कारण, नेहरू-गांधी परिवार की पारिवारिक चेतना कांग्रेस की सामूहिक चेतना के साथ एकीकृत हो गई है। परिवार और पार्टी की बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता निर्विवाद है। यदा-कदा अनेकों भटकावों के बावजूद, नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों का परिवार के साथ द्वंद्वात्मक संबंध तथा परिवार का कांग्रेस के साथ द्वंद्वात्मक संबंध इस प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करता रहता है। अनेकों बार नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के बावजूद कांग्रेस के अंदर मौजूद सामंतवादी अधिनायकवादी चेतना के दबाव में कुछ प्रतिगामी फ़ैसले लिए गये पर पर अंतत: दिशा बुर्जुआ जनवादी प्रगतिशील ही रही। ब्रिटिश इंडिया के समानांतर जम्मू-कश्मीर की रियासत में भी नेशनल कॉंफ़्रेंस के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन विकसित हो रहा था और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तरह ही नेशनल कांफ्रेंस में भी सामंती अधिनायकवादियों तथा बुर्जुआ जनवादियों की मौजूदगी बराबर से थी और शेख़ अब्दुल्ला बुर्जुआ जनवादियों का प्रतिनिधित्व करते थे। नेहरू तथा शेख़ अब्दुल्ला के बीच घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंधों के साथ-साथ बुर्जुआ जनवादी विचारधारा की भी एकता थी जिसके चलते राजा हरीसिंह की अनिच्छा के बावजूद जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय सुगमता से हो सका। संविधान लागू होने के तुरंत बाद भारत और जम्मू कश्मीर में ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन दोनों की वैचारिक एकता को दर्शाता है। शेख़ अब्दुल्ला की सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर में ज़मींदारी प्रथा ख़त्म करने से नाराज़ सामंतवादी ताक़तें शेख़ अब्दुल्ला के खिलाफ एकजुट हो गईं और सदर-ए-रियासत करन सिंह ने अगस्त 1953 में शेख़ अब्दुल्ला पर देशद्रोह का आरोप लगा कर उन्हें बर्खास्त कर क़ैद कर लिया। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तथा गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के रहते हुए चाह कर भी नेहरू कुछ न कर सके। 1949 में बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियाँ रखे जाने के समय राजेंद्र प्रसाद संविधानसभा के अध्यक्ष थे, सरदार पटेल गृह मंत्री थे और गोविंद वल्लभ पंत यूनाइटेड प्रॉविंस के प्रधानमंत्री थे। पंडित नेहरू चाह कर भी मूर्तियों को नहीं हटवा पाये थे। 1960 में जब चाउ एन लाई सीमा विवाद पर समझौते के लिए दिल्ली आये थे तब राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे और गोविंद वल्लभ पंत गृहमंत्री थे जिन्होंने किसी भी प्रकार की बातचीत से पूरी तरह मना कर दिया था और पंडित नेहरू पंचशील समझौते तथा चाउ एन लाई के साथ व्यक्तिगत संबंधों के बावजूद सीमा विवाद के शांतिपूर्ण समझौते के लिए कुछ नहीं कर पाये। 11 साल बाद अप्रैल 1964 के शुरू में शेख़ अब्दुल्ला को सभी आरोपों से मुक्त कर रिहा कर दिया गया। कश्मीर समस्या का पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण हल निकालने के लिए नेहरू ने शेख़ अब्दुल्ला को पाकिस्तान भेजा पर दुर्भाग्यवश नेहरू की 27 मई 1964 को मृत्यु हो गई। जिस समय नेहरू की मृत्यु हुई, शेख़ अब्दुल्ला मुज़फ्फराबाद (पीओके) में थे। राष्ट्रपति अयूब खां की ओर से ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो नेहरू की अंत्येष्टि में शामिल हुए। नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस में सामंतवादियों का पलड़ा भारी हो गया और नये प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने शेख़ अब्दुल्ला को पुन: गिरफ़्तार कर लिया। जम्मू कश्मीर में भी सामंतवादी अधिनायकवादियों का पलड़ा भारी हो गया। सदर-ए-रियासत के पद को गवर्नर के पद में बदल दिया गया। 1967-69 के बीच कॉंग्रेस के आंतरिक संघर्ष में वामपंथियों द्वारा बाहर से किये गये समर्थन के कारण बुर्जुआ जनवादियों का पलड़ा भारी हो गया और सामंतवादियों का एक बड़ा हिस्सा कॉंग्रेस से बाहर हो गया। बैंकों के राष्ट्रीकरण तथा प्रिवी पर्स उन्मूलन के निर्णयों के कारण इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1970 के चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत हासिल किया। और इसके साथ ही कांग्रेस ने बुर्जुआ वर्ग के हितों के अनुरूप उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए नीतियां लागू करना शुरू कर दिया। 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद कांग्रेस में इंदिरा गांधी का बर्चस्व स्थापित हो गया। कम्युनिस्ट अपनी संशोधनवादी समझ के कारण समझने में नाकाम थे कि 1969 के विभाजन के बावजूद कांग्रेस की अनभिज्ञ चेतना उस समय भी प्रमुख रूप से सामंती अधिनायकवादी थी और देश में उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए और बुर्जुआ जनवाद को सुदृढ़ करने के लिए इंदिरा गांधी को अभी भी बाहर से वामपंथियों के समर्थन की जरूरत थी, और शेखचिल्ली समाजवाद की अवधारणा के अनुरूप उन्होंने पूँजीपतियों के विरोध के नाम पर इंदिरा गांधी का विरोध करना शुरू कर दिया जिसने इंदिरा गांधी को कांग्रेस में मौजूद अवसरवादी तत्वों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर कर दिया। इंदिरा गांधी के लिए कांग्रेस के अंदर तथा बाहर सामंतवादी ताकतों से लड़ने के साथ साथ कम्युनिस्टों से लड़ना भारी पड़ने लगा। बुर्जुआ जनवाद के लिए अपनी प्रतिबद्धता के चलते इंदिरा गांधी ने फरवरी 1975 में शेख़-इंदिरा समझौते के जरिए जम्मू-कश्मीर को पुन: बुर्जुआ जनवाद की राह पर ला दिया। व्यक्ति पूजा सामंतवादी चेतना और बुर्जुआ चेतना का एक प्रमुख लक्षण है। भारत में हिंदू धर्म प्रमुख है जिसके चलते किसी व्यक्ति को देवता की तरह स्थापित कर देना बहुत आसान है। अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ और इंदिरा विरोध के कारण कम्युनिस्ट अनजाने ही अराजक तत्वों के और जयप्रकाश नारायन के साथ खड़े हो गये जिसने भाजपा को वह अवसर प्रदान किया जिसके चलते भाजपा भविष्य में अपने आप को कांग्रेस के विकल्प के रूप में खड़ा कर सकी। जय प्रकाश नारायन द्वारा भारतीय फ़ौज को विद्रोह के लिए उकसाने और संसद भवन को घेरने की धमकी देने के बाद कांग्रेस के बाहर के विरोधियों के एकजुट हमले से मुक़ाबला करने के लिए जून 1975 में इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लागू कर दी। डेढ़ साल बाद, कांग्रेस के अंदर मौजूद अधिनायकवादियों, जो आपतकाल को जारी रखना चाहते थे, के विरोध के बावजूद इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी ख़त्म करने की घोषणा कर बुर्जुआ जनवाद को पुन: पटरी पर ला दिया। यह नेहरू-गांधी परिवार की जनवाद के लिए प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इंदिरा के विरोध के नाम पर जनता पार्टी के रूप में एकजुट हुए अराजक तत्वों के लिए, इंदिरा के सत्ता से बाहर हो जाने के बाद एकजुट रह पाना असंभव था। राजनीतिक ध्रुवीकरण त्रिकोणीय हो गया। कांग्रेस के रूप में बुर्जुआ जनवादी, भाजपा के रूप में सामंती अधिनायकवादी और क्षेत्रीय पार्टियों के रूप में शेखचिल्ली समाजवादी। 28 महीने के जनता पार्टी के शासन की समाप्ति के साथ इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पुन: सत्ता में वापस आ गई। राजीव गांधी तथा सोनिया गांधी की राजनीति में कोई रुचि नहीं थी और वे 1980 तक कांग्रेस की सभी गतिविधियों से पूरी तरह विलग रहे। पर 1980 में संजय गांधी की मृत्यु के बाद परिवार के प्रति निष्ठा तथा बुर्जुआ जनवाद के प्रति प्रतिबद्धता के चलते राजीव गांधी तथा सोनिया गांधी, राजीव गांधी के अमेठी से चुनाव लड़ने पर सहमत हो गये। संसद सदस्य बनने के बाद सरकार में कोई पद लेने की जगह राजीव गांधी ने अपने लिए आगामी एशियन गेम्स 82 को सफल बनाने का कार्यभार चुना जिसमें वे पूरी तरह सफल रहे। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत सुरक्षा कर्मियों में से सिख सुरक्षा कर्मियों को हटाने की सलाह दी गई थी, पर धर्म निरपेक्षता के लिए प्रतिबद्धता के चलते उन्होंने सिख सुरक्षा कर्मियों को हटाने से मना कर दिया, और बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता की कीमत उन्होंने अपनी जान दे कर चुकाई। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या होने पर कांग्रेस के अंदर सामंतवादी समूह प्रणव मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था पर बुर्जुआ समूह राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था। उस समय वे राजनीति के दाँव-पेंच से पूरी तरह अनभिज्ञ थे और सोनिया गांधी उनकी सुरक्षा के को लेकर अत्याधिक भयभीत थीं पर परिवार की कांग्रेस के प्रति निष्ठा और बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता के चलते अंतत: दोनों ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने को स्वीकृति प्रदान कर दी थी। राजीव गांधी द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही देश भर में कट्टर हिंदुओं द्वारा सिख समुदाय के जान-माल पर हमला शुरू हो चुका था। राजीव गांधी दो सिख रक्षाकर्मियों द्वारा माँ की हत्या के सदमे से उबर भी नहीं पाये थे कि प्रधानमंत्री के रूप में उन पर सिखों के खिलाफ किये जा रहे नरसंहार को रोकने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी आन पड़ी थी। पद की शपथ लेने के साथ ही सबसे पहला काम उन्होंने किया वह था सेना को बुला कर सिखों के खिलाफ हो रही हिंसा को रोकना। राजीव एक सीधे-सादे ईमानदार व्यक्ति थे जो दलगत राजनीति के लिए नहीं बने थे। उन पर राजनीति थोपी गई थी और पीएम पद भी। 1984 में जब वे प्रधान मंत्री बने तो उन्हें संजय गांधी की मंडली के सबसे चतुर और अवसरवादी राजनेताओं, जैसे जगमोहन, अरुण नेहरू, फारूक अब्दुल्ला, वी.पी. सिंह, आरिफ़ मुहम्मद खाँ आदि जिनके पास नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं थी और व्यक्तिगत लाभ के लिए वे किसी भी स्तर तक गिर सकते थे और जिन्होंने आगे चल कर भाजपा का दामन थाम लिया था, पर निर्भर रहना पड़ा। मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण कम्युनिस्ट पार्टियाँ समझने में नाकाम हैं कि भारतीय राजनीति में, उत्पादक शक्तियों के विकास के अनुरूप, मुख्य अंतर्विरोध सामंती अधिनायकवाद जिसका प्रतिनिधित्व भाजपा करती है, और बुर्जुआ जनवाद जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती है, के बीच है। शेखचिल्ली समाजवाद जिसका प्रतिनिधित्व क्षेत्रीय पार्टियाँ और कम्युनिस्ट पार्टियाँ करती हैं, दोनों मुख्य पार्टियों के संघर्ष में संतुलन बल का काम करती हैं। जिसके साथ वे खड़ी हो जाती हैं उसी का पलड़ा भारी हो जाता है। यहाँ भी कम्युनिस्ट पार्टियों ने वही ग़लती की जो उन्होंने 1977 में की थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के नाम पर वे राजीव गांधी के खिलाफ वीपी सिंह, जो वैचारिक रूप से भाजपा के ज्यादा क़रीब थे, के साथ खड़े हो गये। 40 साल तक राजनीति से पूरी तरह विलग रहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, कांग्रेस के अंदर की दो धाराओं के तीव्र अंतर्विरोध के बीच संतुलन क़ायम रख पाना संभव नहीं हो सकता था। पर दोनों धाराओं के बीच संतुलन रख पाने की कोशिश में परस्पर विरोधाभासी निर्णयों के बावजूद उनकी अपने परिवार के नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता स्पष्ट नजर आती है जिसके चलते श्रीलंका की राजनीति में सक्रिय दोनों गुट उनके दुश्मन हो गये थे। एक गुट ने उन पर जानलेवा हमला किया तो दूसरे गुट ने उनकी जान ले ली। अप्रैल 1984 से जुलाई 1989 तक गवर्नर रहे जगमोहन, जो वैचारिक रूप से सामंतवादी अधिनायकवादी थे, को राजीव गांधी द्वारा सेवा विस्तार नहीं दिया गया। राजीव गांधी के हारने और वी.पी. सिंह के प्रधान मंत्री बनने के बाद, तथा रुबइया सईद के अपहरण के बाद आतंकवादियों को रिहा करने के प्रकरण पर 18 जनवरी 1990 को फारुख अब्दुल्ला के इस्तीफा देने और राष्ट्रपति शासन लगाये जाने के बाद, 19 जनवरी 1990 को जगमोहन को फिर से राज्यपाल नियुक्त किया गया था, जिन्होंने सेना बुलाने के बजाय, पंडितों को जम्मू पलायन के लिए प्रेरित किया और पलायन के लिए सुविधा प्रदान की। विपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सेना को तैनात करने की मांग के साथ संसद का घेराव किया। मई 1990 में जगमोहन को हटाए जाने के बाद ही सेना को तैनात किया गया था और जून 1990 में ऑपरेशन रक्षक शुरू किया गया था। राज्यपाल के पद से हटाये जाने के दूसरे दिन ही भाजपा ने जगमोहन को राज्यसभा का सदस्य बना दिया। 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति से दूर रहने का फ़ैसला कर लिया था। कांग्रेस के अंदर बुर्जुआ जनवादियों के बीच हताशा का माहौल था और सामंतवादी अधिनायकवादियों ने नरसिंहराव के नेतृत्व में पार्टी पर मज़बूत पकड़ बना ली थी। नरसिंह राव की सरकार ने सितंबर 1991 में पूजा स्थलों से संबंधित कानून में परिवर्तन कर बाबरी मस्जिद को गिराने और उसकी जगह राममंदिर बनाने का मार्ग सुगम किया। 1998 में देश की सामंतवादी अधिनायकवादी ताकतों के प्रतिनिधि के रूप में भाजपा द्वारा केंद्र में सत्ता पर क़ाबिज़ होने के बाद, अपने परिवार की नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा तथा बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता का आदर करते हुए सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने तथा कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय किया। कांग्रेस में बुर्जुआ जनवादी चेतना को सुदृढ़ करने और सामूहिक नेतृत्व की परंपरा को स्थापित करने के लिए, 2004 में यूपीए की सरकार का नेतृत्व संभालने से इनकार करना उनकी अपने परिवार की नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा तथा बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता के ही अनुरूप था। 1998 में सोनिया गांधी द्वारा काँग्रेस की बागडोर संभालने से लेकर, 2004 में स्वयं सक्रिय राजनीति में आने का निर्णय लेने के बीच राहुल गांधी ने नेपथ्य में रहकर भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था और उसके अंतर्विरोधों का, तथा कांग्रेस पार्टी के विचार और व्यवहार के अंतर्द्वंद्व का गहन अध्ययन किया और अपनी समझ विकसित तथा पुख्ता की। भारत भूगोल, जलवायु, भाषा, धर्म, संस्कृति तथा आचार-विचार की विविधताओं तथा अंतर्विरोधों का देश है। परस्पर विरोधी विभिन्न समूहों तथा समाजों के अंतर्विरोधों के समाधान के बिना तथा उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के बिना भारत की एकता तथा अखंडता को बरक़रार रखना संभव नहीं होगा। शासन व्यवस्था का सार्विक मताधिकार आधारित जनवादी स्वरूप, जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने चुना है, ही इस महती कार्य को पूरा कर सकता है, न कि व्यक्ति केंद्रित अधिनायकवादी स्वरूप। हर पाँच साल में चुनी जानेवाली लोकसभा में बहुमत के आधार पर सरकार का गठन होता है इसलिए राष्ट्रीय स्तर की किसी भी राजनैतिक पार्टी जो बिना किसी भेद-भाव के जनमानस की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार को नियंत्रित करना चाहती है, के लिए जरूरी है कि उसकी कथनी-करनी में अंतर न हो, आचार व्यवहार में अंतर्विरोध न हो। इस कारण पार्टी का गठन तथा संचालन जनवादी केंद्रीयता के आधार पर होना आवश्यक है न कि अधिनायकवादी केंद्रीयता के आधार पर। और जनवादी विचारधारा वाली पार्टी के सदस्यों में पार्टी की विचारधारा की स्पष्ट समझ जनवादी केंद्रीयता की अनिवार्य शर्त है। जिस प्रकार उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति के पूर्वाग्रह जड़ हो जाते हैं उसी तरह पार्टी की सोच में जड़ता आ जाती है और उसके लिए नई पीढ़ी की बदलती हुई आकांक्षाओं के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल होता जाता है। इस कारण जरूरी है कि पार्टी की बागडोर संभालने के लिए नई पीढ़ी को निरंतर तैयार करते रहा जाय। इसी समझ के साथ, 2004 में संसद सदस्य बनने के बाद राहुल गांधी ने यूपीए सरकार में शामिल न होकर ऐनऐसयूआई, यूथ कॉंग्रेस तथा कॉंग्रेस पार्टी में संगठन के लिए काम करने का निर्णय किया। 2009 में भी यूपीए की सरकार बनी पर राहुल गांधी ने सरकारी पद नहीं लिया और पार्टी में नई पीढ़ी को तैयार करने पर ध्यान केंद्रित किया। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में औद्योगिक पूँजी तथा क्रोनी वाणिज्यिक पूँजी के बीच का अंतर्विरोध तीक्ष्ण होता जा रहा है और उसी के अनुरूप बुर्जुआ जनवादी चेतना तथा सामंती अधिनायकवादी चेतना के बीच अंतर्विरोध तीक्ष्ण होता जा रहा है और राजनीतिक विचारधाराओं के प्रतिनिधियों के रूप में कांग्रेस तथा भाजपा के बीच ध्रुवीकरण तेज़ होता जा रहा है। कांग्रेस के अंदर भी दोनों धाराओं के बीच ध्रुवीकरण तेज़ होता जा रहा है और कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन कमजोर होती नजर आ रही है। राहुल गांधी इस सबसे बेख़बर नहीं रहे हैं, पर वे जानते हैं कि अंतत: कांग्रेस को जड़ हो चुके अधिनायकवादी क्षत्रपों से छुटकारा पाना होगा और जनवादी मूल्यों में आस्था के साथ नई पीढ़ी को सामूहिक नेतृत्व संभालना होगा। बड़े उद्योगों के साथ-साथ छोटे उद्योगों तथा छोटे व्यापारियों के जरिए औद्योगिक पूँजी को मज़बूत करना होगा। आजादी के बाद भारतीय राजनीतिक-अर्थव्यवस्था और कॉंग्रेस की विचारधारा, आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि के कारण, द्वंद्वात्मक संबंध के साथ एक दूसरे के पर्याय के रूप में विकसित होते रहे हैं। आजादी के बाद अगले सत्तर साल में भारत की अर्थव्यवस्था सामन्तवाद और पूँजीवाद के अंतर्विरोध के साथ विकसित होती रही है और इसके साथ ही राजनीतिक व्यवस्था सामंतवादी-अधिनायकवाद तथा बुर्जुआ-जनवाद के अंतर्विरोध के साथ विकसित होती रही है। स्वभाविक रूप से मुख्य केंद्रीय पार्टी के रूप में कॉंग्रेस भी सामंतवादी और बुर्जुआ विचारधाराओं के आंतरिक अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य के साथ आगे बढ़ती रही है। धर्मनिरपेक्ष संविधान की स्वीकृति के साथ ही बाबरी मस्जिद के अंदर रामलला की मूर्तियाँ रखना, ज़मींदारी उन्मूलन के साथ साथ राजे-रजवाड़ों के प्रिवी पर्स तथा विशेषाधिकार बरक़रार रखना, शाहबानो मामले में संविधान संशोधन के साथ अयोध्या में पूजा के लिए ताला खुलवाना, आर्थिक उदारीकरण के साथ धार्मिक स्थलों के बारे में संविधान संशोधन इसी संतुलन को दर्शाते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व की राजनीतिक अर्थव्यवस्था एकध्रुवीय हो गई थी और माना जाने लगा था कि पूंजीवाद अंतिम सत्य के रूप में स्थापित हो गया है पर इक्कीसवीं सदी के आते आते चीन की समाजवादी व्यवस्था ने वैश्विक राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पुन: बहुध्रुवीय बना दिया। विश्व पटल पर जैस-जैसे पूँजीवाद और समाजवाद के बीच ध्रुवीकरण तीव्र होता गया, वैसे-वैसे भारतीय अर्थव्यवस्था में वाणिज्यिक पूंजी (क्रोनी कैपिटल वाणिज्यिक पूंजी का ही संशोधित स्वरूप है) तथा औद्योगिक पूंजी के बीच भी ध्रुवीकरण तेज़ होता गया है। और उसी के अनुरूप राजनीतिक पटल पर सामंतवादी एकाधिकारवाद और बुर्जुआ जनवाद के बीच ध्रुवीकरण भी तीव्र होता गया है। सामंतवादी अधिनायकत्व के प्रतिनिधि के रूप में भाजपा केंद्र में आ गई है और बुर्जुआ जनवाद के प्रतिनिधित्व के लिए कॉंग्रेस भी और ज्यादा मुखर होती गई है। सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वे, कांग्रेस के नेता तथा जननेता के रूप में, राहुल गांधी की भूमिकाओं का आंकलन करने में राहुल गांधी की विरासत को ‘संपत्ति के निजी स्वामित्व और विरासत’ के चश्मे से न देख कर ‘व्यक्तिगत चेतना और सामूहिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध’ के आधार पर देखें। सुरेश श्रीवास्तव 8 दिसंबर, 2025