हिंदी
साहित्य का संकट – जनमानस से असंबद्धता
नवंबर 2007
के
पहले
सप्ताह
में
धनबाद
में
जलेस
के
राष्ट्रीय
सम्मेलन
में
मंच
से
बोलते
हुए
एक
लेखक
ने
दावा
किया
था
कि
आज
की
देश
की
परिस्थितियों
से
जूझने
के
लिए
पश्चिमी
विचारधारा
की
ओर
ताकने
की
अपेक्षा
भक्तिकाल
के
कवियों
कबीर
और
तुलसी
के
लेखन
से
प्रेरणा
लेना
अधिक
सार्थक
होगा।
उस
पर
अपनी
तीखी
प्रतिक्रिया
व्यक्त
करते
हुए
वरिष्ठ
आलोचक
मुरली
मनोहर
प्रसाद
सिंह
ने
कहा
था
कि
विचारधारा
का
विकास
आवश्यक
है
और
आज
के
संदर्भ
में
कबीर
और
तुलसी
ने
जो
स्त्रियों
और
दलितों
के
बारे
में
लिखा
है
वह
रूढ़िवादी
और
प्रतिगामी
सोच
है।
इस
लेखक
ने
भी
मुरली
बाबू
से
सहमति
जताते
हुए
आगाह
किया
था
कि
विचारधारा
के
विकास
और
विचारधारा
के
आधार
में
फर्क
समझना
होगा।
सही
विचारधारा
का
आधार
तो
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
आधारित
प्रकृति
की
मूलभूत
समझ
ही
हो
सकता
है।
अवैज्ञानिक
दृष्टिकोण
आधारित
प्रकृति
की
आधारभूत
समझ
भी
गलत
होगी
और
उस
पर
आधारित
विचारधारा
में
त्रुटियों
का
भी
अभाव
नहीं
होगा।
इस
लेखक
का
आग्रह
था
कि
कुछ
भी
लिखते
समय
लेखक
को
ईमानदारी
से
अपने
आप
से
पूछना
चाहिए
कि
वह
किस
उद्देश्य
से
लिख
रहा
है
तथा
किस
विचारधारा
का
पोषण
कर
रहा
है।
क्यों
कि
उसका
लिखा
सैकड़ों
पाठक
पढ़ते
हैं
जो
उनके
विचारों
को
प्रभावित
करता
है।
जाहिर
है
इस
लेख
पर
आगे
बढ़ने
से
पहले
इस
लेखक
को
यही
प्रश्न
अपने
आप
से
भी
पूछना
चाहिए।
पिछले
दिनों
हिंदी
भाषा
तथा
साहित्य
के
गिरते
स्तर
के
बारे
में
बहुत
से
स्थापित
लेखकों
की
टिप्पणियां
पढ़ने
को
मिलीं।
एक
लेखिका
के
साक्षात्कार
के
बारे
में
आरोप
प्रत्यारोप
की
श्रंखला
देखने
को
मिली।
एक
और
लेखिका
के
स्त्री
विमर्श
तथा
देह
की
आजादी
पर
आधारित
उपन्यास
पर
एक
अन्य
लेखक
की
कुछ
कम
शिष्ट
आलोचना
से
भी
सामना
हुआ।
मन
में
प्रश्न
उठा
कि
एक
ओर
तो
हिंदी
साहित्य
क्षेत्र
के
गण्यमान्य
श्रेष्ठि
हिंदी
साहित्य
के
क्षेत्र
में
गिरावट
का
स्यापा
डालते
हैं
व
मीडिया
पर
बाजारवाद
से
प्रेरित
क्रिया-कलापों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं और दूसरी ओर स्वयं ऐसी बातों से कागद कारे करते रहते हैं जिनका आमजन के एक सामाजिक प्राणी के रूप में जी सकने के संघर्ष से दूर-दूर
का
भी
सरोकार
नहीं
होता
है।
उनका
अधिकांश
लेखन
अपने
आर्थिक
हित
या
अहं
का
पोषण
करना
ही
होता
है।
इस लेखक का उद्देश्य साहित्य बिरादरी के लोगों की आलोचना करना नहीं है बल्कि उनके द्वारा हिंदी भाषा तथा साहित्य की दुर्दशा पर व्यक्त चिंता का ईमानदारी से विश्लेषण कर समाधान ढूंढने की कोशिश करना है।
प्रकृति के किसी भी दृग्विषय और उसके लिए उत्तरदायी प्रक्रियाओं
को
ठीक-ठीक समझने के लिए उनकी अंतर्वस्तु
तथा
अधिरचना
तथा
उनके
बीच
के
द्वंद्वात्मत्क
अंतर्व्यवहार
को
समझना
आवश्यक
है।
अंतर्वस्तु
तथा
अधिरचना
के
आधार
पर
समझा
जाय
तो
साहित्य
विचारों,
जिनका
संप्रेषण
साहित्यकार
तथा
पाठक
के
बीच
होता
है,
का
एक
दस्तावेज़
है।
साहित्य
की
अंतर्वस्तु
है
वे
विचार
जिनका
आदान
प्रदान
साहित्यकार
तथा
पाठक
के
बीच
होता
है
और
साहित्य
की
अधिरचना
है
उसकी
विधा,
संप्रेषण
का
माध्यम
और
दस्तावेज़
का
स्वरूप।
शुरुआती
दौर
में
संप्रेषण
के
माध्यम
का
स्वरूप
हस्तलिखित
और
फिर
मुद्रित
दस्तावेज़
होता
था,
इस
कारण
मुद्रित
दस्तावेज़
ही
साहित्य
का
पर्याय
बन
गया
है।
तकनीकी
विकास
के
साथ
संप्रेषण
का
माध्यम
दृश्य-श्रव्य और इलेक्ट्रोनिक
हो
गया
है
पर
उसे
साहित्य
की
श्रेणी
में
शामिल
करने
में
साहित्यकारों
को
हिचकिचाहट
है।
साहित्य को मुख्यतया दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है, रचनात्मक तथा आलोचनात्मक।
रचनात्मक
साहित्य
में
रचनाकार
किसी
विषयवस्तु
को
लेकर
अपनी
कल्पना
के
अनुसार
परिस्थितियों
की
आभासी
रचना
करता
है
और
विभिन्न
आयामों
का
विश्लेषण
और
उनके
अच्छे-बुरे का आंकलन पात्रों के ज़रिए प्रस्तुत करता है। पाठक के लिए ऐसे साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होता है पर परोक्ष में वह पाठक को सामाजिक सरोकारों में अपनी काल्पनिक भागीदारी के ज़रिए आत्मतुष्टि
प्रदान
करता
है।
आलोचनात्मक
साहित्य
में
आलोचक
अपनी
रुचि
के
अनुसार
विषयवस्तु
को
लेकर
सुविधानुसार
तथ्यों
को
चुनकर
उसके
विभिन्न
आयामों
का
विश्लेषण
और
उनके
अच्छे
बुरे
का
आंकलन
स्वयं
प्रस्तुत
करता
है।
ऐसे
साहित्य
का
मुख्य
उद्देश्य
पाठक
को
सामाजिक
सरोकारों
में
उसकी
वैचारिक
भागीदारी
के
ज़रिए
आत्मतुष्टि
प्रदान
करना
होता
है,
पर
परोक्ष
में
वह
केवल
मनोरंजन
तक
सीमित
रह
जाता
है
या
सक्रिय
भागीदारी
के
लिए
प्रेरित
करता
है
यह
पाठक
की
मानसिकता
पर
निर्भर
करता
है।
आम
तौर
पर
हर
साहित्यकार
अपने
लेखन
के
निरपेक्ष
सामाजिक
सरोकार
का
दावा
करता
है।
वह
यह
स्वीकार
करने
के
लिए
तैयार
नहीं
होता
है
कि
आर्थिक
हितों
की
टकराहट
के
कारण
समाज
अनेकों
समूहों
में
विभाजित
होता
है
तथा
उसकी
स्वयं
की
मानसिकता
किसी
एक
समूह
के
हित
का
प्रतिबिंब
होती
है।
आम
तौर
पर
लेखन
सापेक्ष
होता
है
और
किसी
एक
वर्ग
के
सरोकार
को
प्रतिबिंबित
करता
है
जो
किसी
और
वर्ग
के
सरोकार
को
ख़ारिज
कर
रहा
होता
है।
हर
साहित्यकार
एक
विशेष
पाठकवर्ग
की
मानसिकता
तथा
रुचि
का
अपनी
मानसिकता,
जो
उसके
आर्थिक
हितों
तथा
वर्ग
संबद्धता
पर
निर्भर
करती
है,
के
अनुसार
आंकलन
करता
है
और
उसी
के
अनुसार
रचना
करता
है।
भिज्ञ
स्तर
पर
वह
स्वांतःसुखाय
रचना
का
दावा
करता
है
पर
अनभिज्ञ
स्तर
पर
उसकी
रचनाधर्मिता
उसके
पाठकवर्ग
की
रुचि
से
नियंत्रित
होती
है।
किसी
लेखक
की
रचनात्मकता
उसके
विशिष्ट
पाठकवर्ग
की
रुचि
का
ही
प्रतिबिंब
होती
है।
रचनाकार
तथा
पाठक
निरंतर
एक
दूसरे
की
रुचि
को
प्रभावित
करते
रहते
हैं।
साधारणतया सामाजिक-सरोकार
साहित्य
के
नाम
पर
पाठकों
को
परोसी
जाने
वाली
खिचड़ी
के
मूल
अवयव
स्वयं
के
आर्थिक
हित
एवं
अहं
होते
हैं, बेशक आत्मतुष्टि
करने
तथा
पाठकों
को
लुभाने
के
लिए
आत्महत्या
करते
किसानों, विस्थापित आदिवासियों, दलितों के सामाजिक बहिष्कार तथा स्त्रियों के दैहिक शोषण के संदर्भों की छौंक भी होती है। ऐसे साहित्य की विषय-वस्तु
और
संदर्भ
सामाजिक
और
सामूहिक
कम
तथा
व्यक्तिगत
तथा
व्यक्तिपरक
अधिक
होते
हैं।
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
के
अभाव
तथा
व्यक्तिपरक
सोच
के
कारण
ऐसे
लेखन
में
किसी
भी
समस्या
के
समाधान
के
लिए
जो
सुझाव
होते
हैं
वे
मूलतः
उन
लोगों
तथा
समूहों
के
लिए
नसीहतें
तथा
हृदय
परिवर्तन
के
आह्वान
होते
हैं
जो
आधारभूत
रूप
में
स्वयं
उस
समस्या
का
मूल
कारण
तथा
उसका
निराकरण
न
हो
सकने
के
लिए
उत्तरदायी
हैं।
जाहिर
है
इस
तरह
के
सुझाव
न
केवल
भटकाव
पैदा
करते
हैं
बल्कि
समस्या
के
समाधान
में
रुकावट
भी
पैदा
करते
हैं।
अपने लेखन को जस्टीफाई करने के लिए सबसे बड़ा तर्क है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है सो जो दिखाई देता है लेखक वही लिखता है। अरे भाई हाथ कंगन को आरसी की क्या जरूरत। जो आप दिखाने की कोशिश कर रहे हैं वह तो पहले ही उन सबको जो सामाजिक सरोकार के प्रति जागरूक हैं साफ-साफ
नजर
आ
रहा
है।
स्टिंग
आपरेशन
नई
तकनीक
का
इस्तेमाल
कर
रिश्वत
लेते
या
नरसंहार
स्वीकारते
हुए
दिखाता
है
तो
नया
क्या
दिखाता
है।
वह
सब
तो
सभी
को
स्टिंग
आपरेशन
के
बिना
भी
पता
था।
बंद
कमरे
में
प्रेमी
युगल
क्या
कर
रहे
होंगे
यह
सब
को
पता
है
उसे
कैमरे
की
या
लेखनी
की
आंख
से
दिखाकर
आप
दर्शक
या
पाठक
को
कुछ
उत्तेजना
के
अलावा
क्या
कुछ
नया
प्रदान
करते
हैं? व्यक्तिगत संबंधों में अनेकों संभावनाएं होती हैं उनमें से कुछ के विस्तृत चित्रण से अगर समाजिक संरचना और सामाजिक संबंधों पर रोशनी नहीं पड़ती है और वह केवल दो व्यक्तियों
के
आपसी
संबंधों
तक
सीमित
है
तो
ऐसा
साहित्य
समाज
का
दर्पण
न
होकर
व्यक्तिगत
मनोरंजन
तक
सीमित
रह
जाता
है।
एक
दूसरा
दावा
है
कि
रचनात्मक
लेखन
चेतना
का
विस्तार
करता
है।
इससे
असहमत
नहीं
हुआ
जा
सकता
है
पर
साथ
ही
यह
भी
ध्यान
रखना
होगा
कि
चैतन्य
की
चेतना
का
ही
विस्तार
किया
जा
सकता
है, जो जड़ होने के लिए प्रतिबद्ध है उसकी चेतना का क्या विस्तार होगा। मंटो के खिड़की खोलने से मोदी की चेतना का विस्तार तो होने से रहा। जो मध्य वर्ग अपने निजी स्वार्थ के लिए प्रतिबद्ध है और जिसे अपना स्वार्थ साधते समय सामूहिक अहित करने में कोई गुरेज नहीं है वह किसी के लेखन से अपनी सामूहिक चेतना का विस्तार क्योंकर होने देगा। अगर किसी पाठक की चेतना किन्हीं और कारणों से जागृत हो गयी है तो उसकी चेतना के विस्तार में ऐसा साहित्य अवश्य कुछ सीमित मदद कर सकता है।
साहित्य
मनोरंजन
तथा
चेतना
के
विस्तार
के
अलावा
मार्गदर्शन
भी
कर
सकता
है।
हर
लेखक
जो
भी
लिखता
है
वह
उसके
अपने
अनुभवों
तथा
कल्पना
पर
आधारित
होता
है।
समाज
के
बीच
रहने
के
कारण
समाज
के
बारे
में
उसकी
अपनी
कुछ
आशाएं
तथा
आकांक्षाएं
भी
होती
हैं
जो
उसके
लेखन
में
परिलक्षित
होती
हैं।
समाज
के
भावी
स्वरूप
को
हासिल
कर
सकने
के
बारे
में
उसकी
जो
चेतन
और
अवचेतन
धारणाएं
होती
है
वह
उन्हें
सीधे-सीधे या अपने पात्रों के माध्यम से सुझावों के रूप में प्रकट करता है और उम्मीद करता है कि उनसे उसका पाठक मार्गदर्शन
प्राप्त
करेगा।
आम
तौर
पर
एक
पाठक
साहित्य
में
मानसिक
संतुष्टि
के
लिए
तीन
चीजें
ढूंढता
है
- मनोरंजन, अपने
आस-पास के समाज में घट रही घटनाओं में अपनी स्वयं की मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति
तथा
सामाजिक
परिवर्तन
में
अपनी
भूमिका।
कौन
सा
आयाम
उसे
कितनी
मानसिक
संतुष्टि
प्रदान
करता
है
यह
उसकी
अपनी
परिस्थिति
तथा
मानसिकता
पर
निर्भर
करता
है। अधिकांश
लेखन
कुछ
हद
तक
तीनों
उद्देश्यों
की
पूर्ति
करता
है।
भाषा
व्यक्तियों
के
बीच
विचारों
का
आदान
प्रदान
का
माध्यम
है
और
भाषा
का
विकास
समूह
विशेष
के
सदस्यों
के
बीच
विचारों
के
आदान
प्रदान
की
आवश्यकता
के
अनुसार
ही
होता
है।
विचारों
के
आदान
प्रदान
की
जरूरतों
को
नजर
अंदाज
कर
भाषा
के
विकास
की
कृत्रिम
कोशिश
से
जो
भाषा
विकसित
की
जाती
है
उसका
महत्व
केवल
इतिहास
के
संग्रहालय
में
ही
रह
जाता
वह
आमजन
का
न
आदर
पा
पाती
है
न
और
न
ही
प्यार।
आमजन
के
प्यार
और
आदर
से
वंचित
भाषा
जीवंत
नही
हो
सकती
है।
भारतीय समाज में पूंजीवादी व्यवस्था के चलते अंग्रेजी
उच्च
वर्ग
की
भाषा
है
और
हिंदी
मध्य
तथा
निम्न
वर्ग
की
जिनके
पास
मनोरंजन
पर
खर्च
कर
सकने
के
लिए
उच्च
वर्ग
की
तरह
पैसा
नहीं
है।
कोई
भी
लेखन
मूलतः
लेखक
द्वारा
अपने
विचार
विशेष
को
पाठकों
तक
पहुंचाने
का
प्रयास
होता
है।
अगर
अपने
विचारों
को
सीधी
सपाट
भाषा
में
व्यक्त
करने
में
लेखक
सहज
महसूस
करता
है
तो
आलोचना
साहित्य
के
रूप
में
लिख
कर
अपनी
जुबान
से
अपना
विचार
व्यक्त
कर
पाठकों
के
सामने
रख
देता
है
अगर
असहज
महसूस
करता
है
तो
रचनात्मक
साहित्य
के
रूप
में
उपन्यास
या
कहानी
के
पात्रों
की
जुबान
से
वही
सब
कुछ
कहलवाता
है
जो
उसका
अपना
स्वयं
का
विचार
होता
है
और
जिसे
वह
सीधे-साधे पाठकों के सामने रखने में हिचकिचाता है।
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
आधारित
विचारधारा
के
चलते
इस
लेखक
की
इस
बात
से
सहमति
है
कि
पूंजीवादी
व्यवस्था
में
समाज
वर्ग
विभाजित
समाज
होता
है।
और
इसी
के
चलते
लेखक
के
सामने
दो
पाठक
वर्ग
होते
हैं
एक
संपन्न
दूसरा
विपन्न।
संपन्न
वर्ग
समाज
की
मौजूदा
राजनैतिक-आर्थिक स्थिति के ज़रिए ही अपने जीवन के साधन पाता है और इस कारण यथास्थितिवादी
होता
है।
उसके
लिए
साहित्य
मनोविनोद
(Entertainment) का एक साधन होता है। संपन्न वर्ग के पास भौतिक विलासिता के साधन पर्याप्त होते हैं और मानसिक विलासिता के लिए उसे ऐसे साहित्य की आवश्यकता होती है जिसमें संपन्न वर्ग की विलासिता तथा चकाचौंध परिलक्षित होती हो। भारत में ऐसा साहित्य अंग्रेज़ी भाषा में ही रचा जाता है।
विपन्न वर्ग समाज की राजनैतिक-आर्थिक स्थिति से असंतुष्ट होता है और साहित्य में अपनी विपन्नता से निजात पाने का रास्ता ढूंढता है। पर उसकी क्रयशक्ति कम होने के कारण ऐसा साहित्य कम ही नज़र आता है और अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओं में ही होता है।
विपन्न तथा संपन्न वर्ग के बीच मध्यवर्ग ऐसा है जो अपनी सामाजिक स्थिति के कारण एक ओर तो संपन्नों की विलासिता से चुँधियाया होता है तो दूसरी ओर विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी होता है। अनभिज्ञ स्तर पर यह वर्ग विलासिता के भौतिक साधनों की प्राप्ति की अंधी दौड़ में शामिल होता है और यथास्थितिवादी
होता
है।
पर
सजग
स्तर
पर
वह
विपन्न
वर्ग
के
प्रति
संवेदना
दिखाने
के
अवसरों
की
तलाश
में
रहता
है।
किसी
लेखक
ने
इसके
लिए
सटीक
वाक्यांश
"बौद्धिक स्वमैथुन" (Intellectual Masturbation) प्रयोग किया है। इस वर्ग को ऐसा साहित्य चाहिए जो उसे मानसिक रूप से उत्तेजित करे और मानसिक स्खलन का अवसर प्रदान कर उत्तेजना शांत कर संतुष्टि प्रदान करे। जो लेखक इस वर्ग को ध्यान में रखकर रचना करता है उसकी रचना में सामाजिक सरोकारों से अधिक महत्व व्यक्तिगत सरोकारों का होता है़। हिंदी संपर्क भाषा होने और इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के कारण, इस वर्ग के लिए और इस वर्ग द्वारा रचा जाने वाला साहित्य ही मुख्य तौर पर हिंदी साहित्य है। व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप,
व्यक्तिगत
महिमामंडन,
भाषा
को
अलंकृत
करने
के
नाम
पर
क्लिष्टतम
शब्दों
तथा
वाक्यों
की
संरचना,
आदर्शवादिता,
नैतिकवादिता
आदि
हिंदी
साहित्य
की
कुछ
विशिष्टताएं
हैं।
अपनी निम्नमध्यवर्गीय
मानसिकता
के
कारण
हिंदी
के
पाठक
और
लेखक
अपने
निजी
स्वार्थों
की
पूर्ति
के
लिए
अनजाने
ही
सामूहिक
हितों
को
ख़ारिज
करते
जाते
हैं
और
यही
हिंदी
की
अवनति
का
कारण
है।
हिंदी
में
जो
कुछ
भी
सार्थक
हो
रहा
है
वह
उन
पाठकों
तथा
लेखकों
के
कारण
हो
रहा
है
जिन्होंने
अपनी
मध्यवर्गीय
मानसिकता
से
किनारा
कर
लिया
है।
सुरेश श्रीवास्तव
12
नवंबर,
2013
नोएडा
(हिंदी के मूर्धन्यों
पर
टिप्पणी
करने
में
अपनी
हिचकिचाहट
के
चलते,
लेखक
ने
यह
लेख
2007 में
अधूरा
छोड़
दिया
था।)