Thursday, 19 December 2013

'कम्युनिस्ट एकीकरण केंद्र की पहल पर एक प्रतिक्रिया

(बिहार के कुछ कम्युनिस्ट साथियों के द्वारा शुरू की गयी एकीकरण की पहल के रूप में बांटे गये पर्चे पर एक प्रतिक्रिया।)

प्रिय साथियो रामाशीष, आर.पी. वर्मा, भगवती भाई, रवींद्र कुमार, मोहन प्रसाद, कामेश्वर, रघुनाथ प्रसाद, चन्द्रमा प्रसाद तथा दिव्य प्रकाश; बिहार

'कम्युनिस्ट पार्टियाँ एक हों' शीर्षक से 'कम्युनिस्ट एकीकरण केंद्र' की ओर छपी आपकी अपील पढ़ने को मिली। आपकी सदिच्छा तथा प्रयास के लिए बधाई।
भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास से तो सभी परिचित हैं और नौ दशक पहले गठित की गई एक कम्युनिस्ट पार्टी के विखंडन से उपजे अनेकों स्वयंभू तथाकथित कम्युनिस्ट गुटों से भ्रमित भी हैं। आपने अपने सहित सभी भारतीय कम्युनिस्टों के वैज्ञानिक दर्शन के अनुगामी होने के दावे के साथ उनसे सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर कम्युनिस्ट एकीकरण के लिए दबाव बनाने की अपील की है। पर साथ ही आपने भारतीय राजसत्ता के चरित्र के विश्लेषण तथा समाजवाद के रास्ते की पड़ताल पर होने वाली अंतहीन बहस को सैद्धांतिक भटकाव का लक्षण न मान कर मनभेद मानते हुए सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से एकीकरण का आह्वान किया है। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में व्याप्त बिखराव के कारणों को सैद्धांतिक संशोधनवाद के रूप में न देख कर आप रणनीतिक सामयिक असहमति के रूप में देखने की ग़लती कर रहे हैं।
आप शायद लेनिन की नसीहत भूल गये हैं जिसमें वे कहते हैं, "जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुक़ाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मक़सद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।" और "क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है। इस दौर में, जब अवसरवाद के प्रवचन का रिवाज तथा अति संकीर्ण व्यावहारिक सक्रियता के प्रति आसक्ति, का चोली दामन का साथ है, इस विचार का आग्रह, बार-बार जितना भी किया जाये, कम है।" और उन्होंने आगाह किया था, "जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ-साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट उनकी नज़रों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफ़ी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं।" तथा "परिस्थिति-दर-परिस्थिति आचरण तय करना, प्रतिदिन की घटनाओं तथा क़तर-ब्योंत की ओछी राजनीति के अनुरूप अपने को ढालना, सर्वहारा के प्राथमिक हितों तथा सारी पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीवादी विकास के आधारभूत लक्षणों को नज़रअंदाज़ करना, फ़ौरी हासिल या संभावित फ़ायदों के लिए इन प्राथमिक हितों की तिलांजलि - ऐसी है संशोधनवाद की नीति।"
मार्क्स की सीख "सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है" का अनुकरण करते हुए और रूस के कम्युनिस्ट आंदोलन में व्याप्त संशोधनवादी रुझानों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लेनिन ने अपने मशहूर पर्चे 'क्या किया जाय' में रेखांकित किया था, 'लेकिन विभ्रम तथा ढुलमुलपन जो रूस के पूरे समाजवादी जनवाद  के इतिहास के इस सारे दौर का विशिष्ट  लक्षण है ............. और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हम कोई भी प्रगति नहीं कर सकते हैं जब तक हम इस पूरे दौर का अंत नहीं कर देते हैं।' उनका आंकलन आज भारतवर्ष के 90 साल के कम्युनिस्ट आंदोलन, जो शुरु से ही दक्षिणपंथी तथा वामपंथी संशोधनवाद में फँसा हुआ है, के लिए उतना ही प्रासंगिक है, और कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक इसका पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।
समय की मांग है एक ऐसे समूह की जिसका एकमात्र उद्देश्य मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच पहुँचाने के लिए प्रबुद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को एकजुट करना हो। मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुरूप इस समूह का एकमात्र काम होगा मार्क्सवाद की सही समझ विकसित करना और फैलाना। इससे अधिक यह समूह न कुछ कर सकेगा न उसे करना चाहिए। एक बार मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच व्याप्त हो जायेगी, तो सर्वहारा चेतना को धारण करने वाले काफ़ी तादाद में हासिल होंगे और वह होगा मज़दूर वर्ग के मुक्तिदायक हरावल दस्ते का प्रस्थान बिंदु।

सुरेश श्रीवास्तव
सोसायटी फ़ार साइंस
19 दिसम्बर 2013
9810128813
suresh_stva@hotmail.com





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