पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र
कुछ दिन पहले एक गोष्ठी की पूर्व-सूचना मिली थी। विषय था 'पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र'। आजकल गोष्ठियों में जाना लगभग बंद कर रखा है क्योंकि अधिकांश में सैद्धांतिक विमर्श पूरी तरह नदारद होता है और विमर्श के नाम पर होता है, मंचस्थ वक्ताओं का, आयोजकों की आकांक्षाओं के अनुकूल, एकतरफ़ा संवाद या आपसी आरोप-प्रत्यारोप। और एकाध अपवाद को छोड़कर, श्रोतागण भी आयोजकों तथा वक्ताओं की तर्ज पर ही होते हैं, जिनकी रुचि प्रश्नों के ज़रिए अपनी उपस्थति दर्ज कराने में ही होती है न कि सैद्धांतिक समझ विकसित करने में। विषय के तीनों अवयवों के महत्व को समझते हुए मैंने विचार गोष्ठी में शामिल होने का निर्णय किया पर गोष्ठी के अंत में हताशा के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगा।
सभी वक्ताओं और श्रोताओं का संवाद, किसी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दे सकने में सक्षम होने के लिए एक पार्टी की मूलभूत संरचना के गठन में आवश्यक अभिलक्षणों (Characteristics) की सैद्धांतिक पड़ताल की जगह, पूरी तरह आआ पार्टी के संदर्भ से, राजनैतिक परिवेश पर सतही टिप्पणियों तक ही सीमित था। सभी वक्ताओं का दावा था कि आआपा का गठन जनतांत्रिक और नैतिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले आम कार्यकर्ताओं की पहल व भागीदारी से, आम सहमति के आधार पर हुआ था और पार्टी में निर्णय प्रक्रिया सामूहिक नेतृत्व आधारित थी, पर चुनावी सफलता के बाद, कुछ लोगों की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण पार्टी में संकट पैदा हुआ है और पार्टी विभाजन के कगार पर पहुँची है। प्रमुख अतिथि के रूप में प्रोफ़ेसर आनंद कुमार सहित सभी वक्ताओं का कहना था कि आआपा के गठन का वैचारिक आधार बिल्कुल सही था और पार्टी में आज जो भी संकट है वह अरविंद केजरीवाल की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण है। प्रोफ़ेसर आनंद कुमार का दावा था कि पार्टी की विचारधारा में कोई कमी नहीं है और आंतरिक संघर्ष के ज़रिए पार्टी को सही राह पर लाया जा सकता है। परंतु भ्रष्टाचार तथा सांप्रदायिकता विरोध के अलावा वे आआपा की विचारधारा के विभिन्न आयामों की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर सके, विशेषकर संसाधनों के उपयोग और अर्थव्यवस्था से संबंधित विषयों पर, सिवाय लोहियावादी समाजवाद के नारे के।
प्रश्नोत्तर काल में इस लेखक ने पूछा था, कि सभी वामपंथी, मध्यमार्गीय तथा दक्षिणपंथी पार्टियां संगठन के मार्गदर्शन में अपनी-अपनी विचारधारा का दावा करती हैं, और कार्यप्रणाली में जनवाद की दुहाई देती हैं, पर व्यावहारिक तौर पर सभी किसी न किसी दौर में, नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के विरोध में विखंडन के दौर से गुजरती रही हैं। पर संघ परिवार अपने अनेकों संगठन-सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद और नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के बावजूद, न केवल अपने आप को एकजुट रख सका है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाने में भी सफल रहा है। इसका क्या कारण है। पर किसी भी वक्ता ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास नहीं किया।
कुछ दिन बाद आनंद कुमार का एक लेख ' राजनीति का सत और असत ' जनसत्ता में छपा जिसमें उन्होंने व्यक्ति की राजनैतिक भागीदारी को, विशिष्ट व्यक्ति, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण अथवा विरोध, अर्थात आठ स्वतंत्र प्रेरकों से प्रेरित, पूरी तरह ऐच्छिक कर्म माना है। उनका लेख, दर्शाता है कि वे विचारधारा की संरचना तथा महत्व से अनभिज्ञ हैं। वे इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि विचार किसी एक चीज़ या परिस्थिति पर ही केंद्रित होता है, जब कि विचारधारा कई संबद्ध चीज़ों तथा परिघटनाओं के अपेक्षत: अधिक व्यापक आयाम के बारे में तार्किक रूप से सुसंगठित विचारों की श्रंखला होती है।
निम्न मध्यवर्गीय चेतना व्यक्ति केंद्रित होती है इस कारण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण उसकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा का ही विस्तार होता है और विशिष्ट व्यक्ति के प्रति निष्ठा में वह अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति होते देखता है। इसीलिए आंतरिक जनवादी कार्यशैली के दावे के बावजूद हर संगठन में व्यक्ति ही संगठन का पर्याय बन जाता है। अगर हम कम्युनिस्ट पार्टियों, कांग्रेस पार्टियों तथा सोशलिस्ट पार्टियों के गठन, कार्यशैली तथा विघटन पर नजर डालें तो प्रत्यक्ष में हमें आनंद कुमार का निष्कर्ष ही सही नजर आयेगा। विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण या विरोध की परिणति भी अंततः विशिष्ट व्यक्ति के प्रति आकर्षण या विरोध में ही होती है।
आर्थिक रूप से वर्ग विभाजित समाज में, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक संगठनों में भी, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं तथा आर्थिक हितों की टकराहट के चलते अगर संगठन का सामूहिक नेतृत्व अपने आप को एकजुट नहीं रख पाता है तो सदस्य भी विरोधी गुटों में बंट जाते हैं और अंततः संगठन भी टुकड़ों में बंट जाता है। संघ परिवार की विचारधारा धर्म आधारित है और उसका सामूहिक नेतृत्व निरंतर, आत्म-मंथन के ज़रिए धर्म और विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करता रहता है। धार्मिक आस्था, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में रखने में सहायक होती है, और संघ परिवार का नेतृत्व अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सजगता के साथ, अपने आप को राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मंचों से दूर रख कर, संघ के अंदर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पनपने का मौक़ा नहीं देता है।
व्यक्ति के मस्तिष्क के अंदर होने वाली वैचारिक प्रक्रिया ही व्यक्ति के आचरण को संचालित करती है, और लोग किसी व्यक्ति के विचारों का आंकलन उसके आचरण के आधार पर ही करते हैं। इसी प्रकार संगठन के कार्य-कलाप उसकी विचारधारा से ही संचालित होते हैं और लोग किसी संगठन की विचारधारा का आंकलन उसके कार्य-कलापों के आधार पर ही करते हैं। कांग्रेस तथा भाजपा की पहचान सरमायेदारों की राजनैतिक पार्टियों के रूप में करने के बाद, अटकलों और अनुभव के आधार पर, मेहनतकश जनता, कभी जेपी, कभी वीपी और कभी अन्ना के पीछे चल पड़नेवाली, वामपंथी पार्टियों सहित, क्षेत्रीय पार्टियों के बीच ही एक विकल्प की तलाश में भटकती रहेगी, जब तक की वह इतनी जागरूक नहीं हो जाती है कि सर्वहारा के नेतृत्व में अपनी स्वयं की पार्टी का गठन कर सके। विडंबना है कि 90-95 साल पहले चंद निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने, रूमानियत में, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा की अधकचरी समझ के साथ, एक पार्टी का गठन किया था, जो आज भी अनेकों टुकड़ों में बिखरने के बावजूद विचारधारा की वह सैद्धांतिक समझ विकसित नहीं कर सकी है जो उसे सर्वहारा का नेतृत्व कर सकने की क्षमता प्रदान कर सके। तलाश अभी जारी है।
सुरेश श्रीवास्तव
28 अप्रेल, 2015
कुछ दिन पहले एक गोष्ठी की पूर्व-सूचना मिली थी। विषय था 'पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र'। आजकल गोष्ठियों में जाना लगभग बंद कर रखा है क्योंकि अधिकांश में सैद्धांतिक विमर्श पूरी तरह नदारद होता है और विमर्श के नाम पर होता है, मंचस्थ वक्ताओं का, आयोजकों की आकांक्षाओं के अनुकूल, एकतरफ़ा संवाद या आपसी आरोप-प्रत्यारोप। और एकाध अपवाद को छोड़कर, श्रोतागण भी आयोजकों तथा वक्ताओं की तर्ज पर ही होते हैं, जिनकी रुचि प्रश्नों के ज़रिए अपनी उपस्थति दर्ज कराने में ही होती है न कि सैद्धांतिक समझ विकसित करने में। विषय के तीनों अवयवों के महत्व को समझते हुए मैंने विचार गोष्ठी में शामिल होने का निर्णय किया पर गोष्ठी के अंत में हताशा के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगा।
सभी वक्ताओं और श्रोताओं का संवाद, किसी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दे सकने में सक्षम होने के लिए एक पार्टी की मूलभूत संरचना के गठन में आवश्यक अभिलक्षणों (Characteristics) की सैद्धांतिक पड़ताल की जगह, पूरी तरह आआ पार्टी के संदर्भ से, राजनैतिक परिवेश पर सतही टिप्पणियों तक ही सीमित था। सभी वक्ताओं का दावा था कि आआपा का गठन जनतांत्रिक और नैतिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले आम कार्यकर्ताओं की पहल व भागीदारी से, आम सहमति के आधार पर हुआ था और पार्टी में निर्णय प्रक्रिया सामूहिक नेतृत्व आधारित थी, पर चुनावी सफलता के बाद, कुछ लोगों की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण पार्टी में संकट पैदा हुआ है और पार्टी विभाजन के कगार पर पहुँची है। प्रमुख अतिथि के रूप में प्रोफ़ेसर आनंद कुमार सहित सभी वक्ताओं का कहना था कि आआपा के गठन का वैचारिक आधार बिल्कुल सही था और पार्टी में आज जो भी संकट है वह अरविंद केजरीवाल की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण है। प्रोफ़ेसर आनंद कुमार का दावा था कि पार्टी की विचारधारा में कोई कमी नहीं है और आंतरिक संघर्ष के ज़रिए पार्टी को सही राह पर लाया जा सकता है। परंतु भ्रष्टाचार तथा सांप्रदायिकता विरोध के अलावा वे आआपा की विचारधारा के विभिन्न आयामों की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर सके, विशेषकर संसाधनों के उपयोग और अर्थव्यवस्था से संबंधित विषयों पर, सिवाय लोहियावादी समाजवाद के नारे के।
प्रश्नोत्तर काल में इस लेखक ने पूछा था, कि सभी वामपंथी, मध्यमार्गीय तथा दक्षिणपंथी पार्टियां संगठन के मार्गदर्शन में अपनी-अपनी विचारधारा का दावा करती हैं, और कार्यप्रणाली में जनवाद की दुहाई देती हैं, पर व्यावहारिक तौर पर सभी किसी न किसी दौर में, नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के विरोध में विखंडन के दौर से गुजरती रही हैं। पर संघ परिवार अपने अनेकों संगठन-सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद और नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के बावजूद, न केवल अपने आप को एकजुट रख सका है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाने में भी सफल रहा है। इसका क्या कारण है। पर किसी भी वक्ता ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास नहीं किया।
कुछ दिन बाद आनंद कुमार का एक लेख ' राजनीति का सत और असत ' जनसत्ता में छपा जिसमें उन्होंने व्यक्ति की राजनैतिक भागीदारी को, विशिष्ट व्यक्ति, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण अथवा विरोध, अर्थात आठ स्वतंत्र प्रेरकों से प्रेरित, पूरी तरह ऐच्छिक कर्म माना है। उनका लेख, दर्शाता है कि वे विचारधारा की संरचना तथा महत्व से अनभिज्ञ हैं। वे इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि विचार किसी एक चीज़ या परिस्थिति पर ही केंद्रित होता है, जब कि विचारधारा कई संबद्ध चीज़ों तथा परिघटनाओं के अपेक्षत: अधिक व्यापक आयाम के बारे में तार्किक रूप से सुसंगठित विचारों की श्रंखला होती है।
निम्न मध्यवर्गीय चेतना व्यक्ति केंद्रित होती है इस कारण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण उसकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा का ही विस्तार होता है और विशिष्ट व्यक्ति के प्रति निष्ठा में वह अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति होते देखता है। इसीलिए आंतरिक जनवादी कार्यशैली के दावे के बावजूद हर संगठन में व्यक्ति ही संगठन का पर्याय बन जाता है। अगर हम कम्युनिस्ट पार्टियों, कांग्रेस पार्टियों तथा सोशलिस्ट पार्टियों के गठन, कार्यशैली तथा विघटन पर नजर डालें तो प्रत्यक्ष में हमें आनंद कुमार का निष्कर्ष ही सही नजर आयेगा। विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण या विरोध की परिणति भी अंततः विशिष्ट व्यक्ति के प्रति आकर्षण या विरोध में ही होती है।
आर्थिक रूप से वर्ग विभाजित समाज में, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक संगठनों में भी, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं तथा आर्थिक हितों की टकराहट के चलते अगर संगठन का सामूहिक नेतृत्व अपने आप को एकजुट नहीं रख पाता है तो सदस्य भी विरोधी गुटों में बंट जाते हैं और अंततः संगठन भी टुकड़ों में बंट जाता है। संघ परिवार की विचारधारा धर्म आधारित है और उसका सामूहिक नेतृत्व निरंतर, आत्म-मंथन के ज़रिए धर्म और विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करता रहता है। धार्मिक आस्था, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में रखने में सहायक होती है, और संघ परिवार का नेतृत्व अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सजगता के साथ, अपने आप को राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मंचों से दूर रख कर, संघ के अंदर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पनपने का मौक़ा नहीं देता है।
व्यक्ति के मस्तिष्क के अंदर होने वाली वैचारिक प्रक्रिया ही व्यक्ति के आचरण को संचालित करती है, और लोग किसी व्यक्ति के विचारों का आंकलन उसके आचरण के आधार पर ही करते हैं। इसी प्रकार संगठन के कार्य-कलाप उसकी विचारधारा से ही संचालित होते हैं और लोग किसी संगठन की विचारधारा का आंकलन उसके कार्य-कलापों के आधार पर ही करते हैं। कांग्रेस तथा भाजपा की पहचान सरमायेदारों की राजनैतिक पार्टियों के रूप में करने के बाद, अटकलों और अनुभव के आधार पर, मेहनतकश जनता, कभी जेपी, कभी वीपी और कभी अन्ना के पीछे चल पड़नेवाली, वामपंथी पार्टियों सहित, क्षेत्रीय पार्टियों के बीच ही एक विकल्प की तलाश में भटकती रहेगी, जब तक की वह इतनी जागरूक नहीं हो जाती है कि सर्वहारा के नेतृत्व में अपनी स्वयं की पार्टी का गठन कर सके। विडंबना है कि 90-95 साल पहले चंद निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने, रूमानियत में, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा की अधकचरी समझ के साथ, एक पार्टी का गठन किया था, जो आज भी अनेकों टुकड़ों में बिखरने के बावजूद विचारधारा की वह सैद्धांतिक समझ विकसित नहीं कर सकी है जो उसे सर्वहारा का नेतृत्व कर सकने की क्षमता प्रदान कर सके। तलाश अभी जारी है।
सुरेश श्रीवास्तव
28 अप्रेल, 2015
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