रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजा उन्माद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि अफ़ज़ल गुरू की बरसी ने बुद्धिजीवियों की भावनाओं को भड़काये रखने के लिए नये ईंधन का काम कर दिया और उसका असर तीन दिन में ही कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी के रूप में नजर आ गया। तीनों मसलों में युवा छात्रों से लेकर परिपक्व बुद्धिजीवियों सहित पूरा बौद्धिक जगत, राष्ट्रभक्ति तथा राष्ट्रद्रोह के बीच दो फाड़ नजर आता है। प्रत्यक्ष में दोनों पक्ष, दो विपरीत ध्रुवीय विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। दोनों पक्ष आमतौर पर स्वीकार्य एक जैसे नैतिक मानवीय मूल्यों से प्रतिबद्धता का दावा करने के साथ ही एक दूसरे पर उन्हीं मूल्यों के खिलाफ आचरण करने का आरोप भी लगाते हैं। दो ध्रुवीय नजर आने के बावजूद दोनों पक्षों की विचारधारा में परोक्ष में एक ही मूल विचार नजर आता है - विशिष्ट व्यक्ति ही इतिहास रचते हैं और उनका अनुगमन सफलता के लिए महत्वपूर्ण है - भाववादी दर्शन आधारित दृष्टिकोण की उपज। दोनों ही धाराओं के अनुयायी, विशिष्ट व्यक्तियों के आचरण के संदर्भ से ही अपनी-अपनी विचारधारा और आचरण को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं, गांधी, नेहरू, पटेल, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर, हेडगेवार, विवेकानंद, लोहिया, जेपी, इंदिरा या बाबा साहब भीमराव अंबेडकर आदि सभी नामों का, अपनी-अपनी सुविधानुसार उपयोग कर के । (क्या बी. आर. अंबेडकर के साथ साहब जोड़ने से औपनिवेशिक मानसिकता की झलक नहीं मिलती है?)
मैं व्यक्तिगत तौर से कन्हैया से परिचित हूँ। एआईपीएफ की मीटिंग्स में उससे मिलना होता था। 27-30 दिसंबर 2011 हैदराबाद में सीआरआर फाउंडेशन में 'भारत की समाजवाद की राह' कार्यशाला में हम चार दिन साथ रहे और मैंने उसके साथ बहुत से विषयों पर चर्चा की थी। मैंने उसे अन्य युवाओं की तरह, कर्मठ, महत्वाकांक्षी, अपने आदर्श के प्रति समर्पित पाया था, पर साथ ही क्रांति करने की हड़बड़ी में भी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि उसे मुख्य धारा में सक्रिय होने से पहले मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ पुख्ता करनी चाहिए। दिल्ली आने के बाद भी उससे जेएनयू में संपर्क किया था कि स्टडी सर्किल शुरू किया जाय। पर वह जिस तरह के वामपंथी वातावरण में रह रहा था, उसके लिए उससे अलग सोच पाना शायद संभव नहीं हो पाया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ के बिना अति-सक्रियता में उसने अपने आप को उस चक्रव्यूह में फँसा लिया है जो उसके तथा उसके सामाजिक उद्देश्य के लिए घातक हो सकता है। इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसके समर्थन में जितना व्यापक प्रचार हो रहा है उसके कारण उसे अगली पेशी पर ज़मानत मिल जाय, पर व्यवस्था का दमनचक्र शुरू हुआ है तो वह अपनी संतुष्टि के लिए किसी की आहुति तो लेगा। बाकी जिन विद्यार्थियों के नाम आगे आये हैं उनकी गिरफ़्तारी के बिना कन्हैया को ज़मानत मिलना मुश्किल है। मेरी सहानुभूति उन सभी विद्यार्थियों के साथ है क्योंकि मैं जानता हूँ कि उन सब का जज्बा केवल कमजोर के प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ है न कि किसी व्यक्ति, समूह या राष्ट्र के खिलाफ है। पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ न होने के कारण, न तो वे यह समझते हैं कि अन्याय की प्रक्रिया का मूल क्या है और न ये समझते हैं कि मनुष्य अपनी स्वयं की चेतना के अलावा सामूहिक चेतना का भी वाहक होता है, और वह समझ ही नहीं पाता है कि वर्ग विभाजित समाज में अनेकों समूहों के बीच संघर्ष में, वह अनजाने ही कब किस समूह की चेतना के नियंत्रण में पहुँच गया है। मैं केवल कामना कर सकता हूँ, और करता हूँ कि वे सब जल्दी ही इस विकट परिस्थिति से बाहर निकल आयें।
मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत तथा चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाया था कि व्यक्तिगत मानवीय-चेतना और सामूहिक सामाजिक-चेतना के बीच के संबंध में, संख्या बढ़ने के साथ गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। संख्या कम होने पर व्यक्ति विशेष की चेतना सामूहिक चेतना पर हावी होती है, पर संख्या बढ़ने के साथ सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना को नियंत्रित करने लगती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि उत्पादक शक्तियों का विकास करना मानव समाज का प्राकृतिक गुण है और पूँजी-मजूरी आधारित बड़े स्तर की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था, निम्न स्तर की बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था तथा स्वरोज़गार आधारित सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से अधिक उन्नत होती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि मानवीय श्रमशक्ति का उपभोग कर स्वविस्तार करना पूँजी का चरित्र है और उसका अंतर्विरोध है, सामूहिक श्रम द्वारा सामूहिक उत्पादन के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का सृजन, लेकिन निजी स्वामित्व के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत अंतरण और इस अंतर्विरोध का समाधान होता है समाजवादी व्यवस्था में जिसमें उत्पादन की प्रक्रिया वही रहती है पर अतिरिक्त मूल्य का अंतरण व्यक्तिगत की जगह सामूहिक होता है।
पिछली शताब्दी के अंत तक, सामंतवादी उत्पादक शक्तिओं और निम्न पूँजीवादी उत्पादक शक्तिओं की बीच होने वाले वर्ग संघर्ष में, निम्न मध्यवर्गीय अपने हितों के अनुरूप अपनी चेतना के अनुसार निम्न पूंजीवादी विकास के साथ एकजुट था इसलिए संघर्ष इतना तीव्र नहीं था। पर अब पूँजीवाद द्वारा अपना निम्नतम स्तर पार कर लेने बाद निम्न मध्यवर्गीय हितों और पूँजीवादी हितों की टकराहट के कारण संघर्ष अधिक तीव्र और हिंसक हो चले हैं।
नई पीढ़ी को मेरा सुझाव है कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी से पहले वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हासिल करें, पूँजीवाद के अंतर्गत अतिरिक्त मूल्य के सामूहिक उत्पादन की प्रक्रिया और, अतिरिक्त मूल्य के व्यक्तिगत अंतरण के भेद को समझें और अपने अस्तित्व की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने के लिए सजग होकर अपने लिए उचित भूमिका चुनें। बड़े स्तर पर पूँजी निवेश के जरिए उत्पादक शक्तिओं को बढ़ाना और उसके जरिए लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना समाज की नैसर्गिक प्रवृत्ति है, उसका समर्थन करना क्रांतिकारी क़दम है, उसका विरोध करना प्रतिक्रांतिकारी क़दम है।
सुरेश श्रीवास्तव
16 फ़रवरी 2016
मैं व्यक्तिगत तौर से कन्हैया से परिचित हूँ। एआईपीएफ की मीटिंग्स में उससे मिलना होता था। 27-30 दिसंबर 2011 हैदराबाद में सीआरआर फाउंडेशन में 'भारत की समाजवाद की राह' कार्यशाला में हम चार दिन साथ रहे और मैंने उसके साथ बहुत से विषयों पर चर्चा की थी। मैंने उसे अन्य युवाओं की तरह, कर्मठ, महत्वाकांक्षी, अपने आदर्श के प्रति समर्पित पाया था, पर साथ ही क्रांति करने की हड़बड़ी में भी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि उसे मुख्य धारा में सक्रिय होने से पहले मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ पुख्ता करनी चाहिए। दिल्ली आने के बाद भी उससे जेएनयू में संपर्क किया था कि स्टडी सर्किल शुरू किया जाय। पर वह जिस तरह के वामपंथी वातावरण में रह रहा था, उसके लिए उससे अलग सोच पाना शायद संभव नहीं हो पाया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ के बिना अति-सक्रियता में उसने अपने आप को उस चक्रव्यूह में फँसा लिया है जो उसके तथा उसके सामाजिक उद्देश्य के लिए घातक हो सकता है। इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसके समर्थन में जितना व्यापक प्रचार हो रहा है उसके कारण उसे अगली पेशी पर ज़मानत मिल जाय, पर व्यवस्था का दमनचक्र शुरू हुआ है तो वह अपनी संतुष्टि के लिए किसी की आहुति तो लेगा। बाकी जिन विद्यार्थियों के नाम आगे आये हैं उनकी गिरफ़्तारी के बिना कन्हैया को ज़मानत मिलना मुश्किल है। मेरी सहानुभूति उन सभी विद्यार्थियों के साथ है क्योंकि मैं जानता हूँ कि उन सब का जज्बा केवल कमजोर के प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ है न कि किसी व्यक्ति, समूह या राष्ट्र के खिलाफ है। पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ न होने के कारण, न तो वे यह समझते हैं कि अन्याय की प्रक्रिया का मूल क्या है और न ये समझते हैं कि मनुष्य अपनी स्वयं की चेतना के अलावा सामूहिक चेतना का भी वाहक होता है, और वह समझ ही नहीं पाता है कि वर्ग विभाजित समाज में अनेकों समूहों के बीच संघर्ष में, वह अनजाने ही कब किस समूह की चेतना के नियंत्रण में पहुँच गया है। मैं केवल कामना कर सकता हूँ, और करता हूँ कि वे सब जल्दी ही इस विकट परिस्थिति से बाहर निकल आयें।
मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत तथा चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाया था कि व्यक्तिगत मानवीय-चेतना और सामूहिक सामाजिक-चेतना के बीच के संबंध में, संख्या बढ़ने के साथ गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। संख्या कम होने पर व्यक्ति विशेष की चेतना सामूहिक चेतना पर हावी होती है, पर संख्या बढ़ने के साथ सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना को नियंत्रित करने लगती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि उत्पादक शक्तियों का विकास करना मानव समाज का प्राकृतिक गुण है और पूँजी-मजूरी आधारित बड़े स्तर की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था, निम्न स्तर की बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था तथा स्वरोज़गार आधारित सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से अधिक उन्नत होती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि मानवीय श्रमशक्ति का उपभोग कर स्वविस्तार करना पूँजी का चरित्र है और उसका अंतर्विरोध है, सामूहिक श्रम द्वारा सामूहिक उत्पादन के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का सृजन, लेकिन निजी स्वामित्व के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत अंतरण और इस अंतर्विरोध का समाधान होता है समाजवादी व्यवस्था में जिसमें उत्पादन की प्रक्रिया वही रहती है पर अतिरिक्त मूल्य का अंतरण व्यक्तिगत की जगह सामूहिक होता है।
पिछली शताब्दी के अंत तक, सामंतवादी उत्पादक शक्तिओं और निम्न पूँजीवादी उत्पादक शक्तिओं की बीच होने वाले वर्ग संघर्ष में, निम्न मध्यवर्गीय अपने हितों के अनुरूप अपनी चेतना के अनुसार निम्न पूंजीवादी विकास के साथ एकजुट था इसलिए संघर्ष इतना तीव्र नहीं था। पर अब पूँजीवाद द्वारा अपना निम्नतम स्तर पार कर लेने बाद निम्न मध्यवर्गीय हितों और पूँजीवादी हितों की टकराहट के कारण संघर्ष अधिक तीव्र और हिंसक हो चले हैं।
नई पीढ़ी को मेरा सुझाव है कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी से पहले वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हासिल करें, पूँजीवाद के अंतर्गत अतिरिक्त मूल्य के सामूहिक उत्पादन की प्रक्रिया और, अतिरिक्त मूल्य के व्यक्तिगत अंतरण के भेद को समझें और अपने अस्तित्व की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने के लिए सजग होकर अपने लिए उचित भूमिका चुनें। बड़े स्तर पर पूँजी निवेश के जरिए उत्पादक शक्तिओं को बढ़ाना और उसके जरिए लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना समाज की नैसर्गिक प्रवृत्ति है, उसका समर्थन करना क्रांतिकारी क़दम है, उसका विरोध करना प्रतिक्रांतिकारी क़दम है।
सुरेश श्रीवास्तव
16 फ़रवरी 2016