Sunday, 7 February 2016

रोहत वेमुला की आत्महत्या से सबक़

रोहत वेमुला की आत्महत्या से सबक़

व्यक्तियों द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली असहिष्णुता, यथार्थ में उस समूह की चेतना का मूर्त रूप होती है जिस समूह के वे सदस्य होते हैं। जिस प्रकार व्यक्तियों की चेतना समूह की चेतना का हिस्सा होती है उसी प्रकार किसी समूह की चेतना, उस व्यापक समाज की चेतना का हिस्सा होती है जिस व्यापक समाज का हिस्सा वह समूह होता है। असहिष्णुता का स्वरूप मतभेद, रंगभेद, नस्लभेद, लिंगभेद, धर्मभेद, पंथभेद कुछ भी हो सकता है पर उनका मूल उद्गम हमारी वही व्यापक सामाजिक चेतना है जो व्यक्तिगत हितों की टकराहट से लबरेज़ है। रोहित की आत्महत्या, नवकरण की आत्महत्या, प्रकाश साव की आत्महत्या, तंज़ानिया की महिला को नग्न करना, कलबुर्गी की हत्या, अख़लाक़ की हत्या, गुजरात नरसंहार, सिखों का नरसंहार, बंबई धमाके या बंबई के होटलों में दहशतगर्दी, सब उसी व्यापक सामाजिक असहिष्णु चेतना की अभिव्यक्ति हैं जो आये दिन हड़तालों और धरनों में नजर आती है।
मार्क्स ने चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाया था कि हर वर्ग अपने आर्थिक आधार पर विचारों का एक तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आधार से असंबद्ध नजर आता है। गैरमार्क्सवादी, विचार और चेतना को भौतिक जगत से अलग, दैवीय मानते हैं जिसके कारण वे असहिष्णुता का कारण व्यक्तिगत असंवेदना में ढूँढते हैं और इसीलिए सामाजिक या व्यक्तिगत हिंसा के कारण और निदान ढूँढने में असमर्थ हैं। पर जब नवयुवकों के बीच पुख्ता मार्क्सवादी छवि रखने वाले, मार्क्सवादी संगठनों तथा आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले, समस्या का कारण, द्वंद्वात्मक पद्धति द्वारा विश्लेषण के आधार पर न कर तात्त्विक पद्धति के आधार पर करते हैं तो मामला थोड़ा गंभीर हो जाता है और मार्क्सवाद में रुचि रखने वालों को ख़तरे का संकेत देता है।
हमारी आबादी के बहुत बड़े हिस्से का दैनिक जीवन धार्मिक आस्था के प्रभाव में है इसलिए राजनीति भी दो खेमों में बंटी हुई है, धार्मिक कट्टरवादी और धार्मिक उदारवादी। अगर किसी व्यक्ति या समूह का किसी भी मसले पर सीधा-सीधा टकराव प्रशासन से होता है तो उसे सांप्रदायिकतावादी-गैरसांप्रदायिकतावादी या ब्राह्मणवादी-जातिवादी शोषण या दमन के रंग में रंग कर प्रचारित करना, चुनावी दृष्टि से हितकर होता है। ऐसे मसले लंबे अरसे तक सार्वजनिक बहस में नजर आते हैं, अन्य सभी एक ख़बर बन कर रह जाते हैं।
रोहित और नवकरण दोनों के, आत्महत्या से पहले लिखे गये पत्र दर्शाते हैं को दोनों आत्महत्या के समय मानसिक रूप से संतुलित थे और उनकी आत्महत्या के कारण व्यक्तिगत नहीं थे। उन दोनों की समतामूलक सामाजिक मूल्यों में आस्था थी और वे इन मूल्यों के लिए लड़ रहे संगठनों के सक्रिय सदस्य थे। उनकी लड़ाई व्यक्तिगत न हो कर सामूहिक थी। अपने संघर्ष के दौरान किन्हीं कारणों से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि, उन आदर्शों तथा मूल्यों को, जिनके लिए वे जी रहे थे, हासिल करना उनके लिए असंभव हो गया था और इस कारण उनके जीवन का कोई मूल्य भी नहीं रह गया था और उनके लिए आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह गया था।
रोहित के मामले में, कांग्रेस सहित सभी वामपंथी पार्टियां इस बात पर एकमत हैं कि रोहित की अत्महत्या के लिए, हिंदुत्ववादी भाजपा की केंद्रीय सरकार के दो मंत्री तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति जिम्मेदार हैं। उनके लिए राजनैतिक रूप से यही व्यावहारिक है, और उनसे संबद्ध विद्यार्थी संगठन अपने अपने अपने बैनर तले या फिर साझा तौर पर प्रदर्शन, धरने तथा आंदोलन कर रहे हैं कि रोहित का मसला जातिभेद का मसला है। पर नवकरण का मामला दूसरा है। उसके मामले में किसी सरकारी संस्था को दोष देना संभव नहीं है इस कारण वामपंथी आपस में एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं कि उसके संगठन में उसके दलित होने के नाते भेदभाव किया जाता था जिसके कारण वह अवसादग्रस्त हो गया था।
रोहित और नवकरण का मसला, मार्क्सवादी होने के नाते इस लेखक के लिए इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों ही विज्ञान के विद्यार्थी रहे थे और मार्क्सवादी विद्यार्थी संगठनों जुड़े रहे थे। दोनों ही होनहार विद्यार्थी थे, शोषण के खिलाफ संघर्ष की भावना से ओतप्रोत, मार्क्सवाद से प्रभावित और मार्क्सवादी संगठनों के जुझारू कार्यकर्ता। परिस्थितियों के कारण रोहित की आत्महत्या को, मौजूदा सरकार तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा दलित उत्पीड़न का परिणाम दर्शाने के लिए पर्याप्त सामग्री हासिल थी इसलिए उसको व्यापक प्रचार मिल रहा है जब कि नवकरण की आत्महत्या की चर्चा कुछ वामपंथी संगठनों के बीच सिमट कर रह गयी है।
इस लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद की सही समझ, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध की सही-सही समझ पर आधारित होती है, इस कारण एक, शारीरिक रूप से स्वस्थ नौजवान मार्क्सवादी, आत्महत्या करने का निर्णय कभी नहीं ले सकता है। संघर्ष के दौरान वह ऐसी कोई ग़लती तो कर सकता है जो उसकी मौत का सबब बन जाये, पर वह आत्महत्या नहीं होती है। वह यथार्थ के धरातल पर ही रह कर अपनी क्षमता और आकांक्षाओं को विकसित होने देगा और सजग रूप से अपने लिए वे ही लक्ष्य निर्धारित करेगा जिन्हें हासिल करना उसके जैसे व्यक्ति के लिए संभव हो। वह काल्पनिक रूप से ऐसे लक्ष्य निर्धारित नहीं करेगा जो एक मुक़ाम पर जा कर उसे असंभव नजर आने लगें। रोहित और नवकरण की आत्महत्याएँ दर्शाती हैं कि उनका मार्क्सवाद से लगाव रूमानियत थी, उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ हासिल नहीं थी। उनका समाजवाद काल्पनिक था, उन्हें काल्पनिक समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के बीच के अंतर का का पता नहीं था। उन्होंने सैद्धांतिक समझ विकसित किए बिना, अति सक्रियता में अपनी व्यक्तिगत क्षमता से कहीं अधिक बड़ी भूमिका अपने लिए निर्धारित कर ली थी। उन्हें अपने अपने संगठनों और साथियों की समझ और ईमानदारी में अटूट आस्था थी, पर शीघ्र ही उनका मोह भंग हो गया जब उन्होंने पाया कि संगठन के अंदर उनके साथी उसी सामंतवादी और निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ मानसिकता में जकड़े हुए हैं, जिसमें व्यापक समाज जकड़ा हुआ है, और उसी मानसिकता के अनुरूप उनकी कथनी और करनी में दो ध्रुवीय अंतर है।जाहिर है जिन वामपंथी संगठनों से वे जुड़े रहे थे उन संगठनों की चेतना में भी न तो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ मौजूद थी और न ही वैज्ञानिक समाजवाद की।
नवकरण अतिवामपंथी सक्रियता के कारण अपने अस्तित्व की सुरक्षा मौजूदा व्यवस्था के अंतर्गत न देखकर संगठन के अंतर्गत देखने लगा था। वह संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बन गया था और पूरी ईमानदारी और लगन के साथ संगठन के घोषित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम कर रहा था। धीरे-धीरे उसका मोह भंग हो गया जब उसने पाया कि संगठन जिस जनवादी संवैधानिक व्यवस्था को शोषण के लिए उत्तरदायी ठहराता है, उसी व्यवस्था से अपनी जीवनशक्ति हासिल करता है।  शीघ्र ही वह अपने आपको संगठन में अपेक्षित और अवांछित महसूस करने लगा। अपनी नैतिक ईमानदारी के साथ अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
रोहित उस मधमार्गी वामपंथी धारा से जुड़ा था जो मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण स्पष्ट नहीं कर पाती है कि शोषण का आधार आर्थिक है या सामाजिक है। इसी कारण मध्यमार्गी पार्टियाँ मार्क्स और अंबेडकर की राजनीति को एक ही खाँचे में फ़िट कर देती हैं। अपनी अस्पष्ट रणनीति के कारण वे कभी आर्थिक मोर्चे पर एक क़दम आगे बढ़ाती हैं, फिर दो क़दम पीछे खींच कर सामाजिक मोर्चे पर सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ लड़ने लगती हैं। इसी एक क़दम आगे दो क़दम पीछे की रणनीति ने रोहित को ऐसऐफआई के खेमे से निकालकर एऐसए के खेमे में पहुँचा दिया। अपने जुझारूपन और अतिसक्रियता में रोहित उसी तरह की ग़लती कर बैठा जिस तरह की ग़लती भगत सिंह ने सॉंडर्स को मार कर की थी। रोहित ने रात में अभाविप के छात्र के कमरे पर जा कर और धमकी के द्वारा माफ़ीनामा लिखवाकर, व्यवस्था को मौक़ा दे दिया कि वह रोहित को राजनैतिक दायरे से बाहर खींच कर क़ानूनी दायरे में सबसे अलग-थलग कर उसके अस्तित्व पर हमला करे। रोहित ने पाया कि वह बिना किसी राजनैतिक संरक्षण, व्यवस्था के सामने अकेला है। याकूब मेमन और राजेश तलवार के मामले उसके सामने थे कि बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है व्यक्ति की आजादी छीन लेना। 18 जनवरी को हाईकोर्ट में ऐफआईआर दर्ज करने के मामले में सुनवाई के बाद अंतहीन बंदीजीवन के मुक़ाबले, 17 जनवरी की शाम जीवन समाप्त करने का विकल्प रोहित को बेहतर लगा।
मार्क्सवादियों का नैतिक दायित्व है कि वे नई पीढ़ी को, इससे पहले कि वह अतिसक्रियता के रोमांस में मुख्यधारा की राजनीतिक भँवर में फँस जाय, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की सही समझ से लैस करें ताकि नौजवान अंधानुकरण की प्रवृत्ति को छोड़ कर वैज्ञानिक मानसिकता के साथ परिस्थितिओं का विश्लेषण कर हर क़दम पर सही निर्णय ले सकें।            
सुरेश श्रीवास्तव
7 फ़रवरी, 2016

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