Monday, 9 January 2017

शेखचिल्ली समाजवाद और नोटबंदी

शेखचिल्ली समाजवाद और नोटबंदी

भौतिक सामाजिक-चेतना का आधार है उत्पादन-वितरण के दौरान लोगों के बीच उपजने वाले संबंध। विमर्श का आधार है चिंतकों तथा विचारकों के बीच समाज को प्रभावित करने वाले विचारों का आदान प्रदान। वैचारिक सामाजिक-चेतना का आधार है, वे सजग विचार जो सांस्कृतिक सामाजिक संबंधों तथा व्यक्तिगत क्रिया कलापों को सामूहिक रूप से नियंत्रित करते हैं।
व्यक्तिगत-चेतना तथा सामाजिक-चेतना का एक दूसरे को प्रभावित करने का यही द्वंद्वात्मक संबंध है जो दोनों के निरंतर, अनवरत, अंतहीन विकास को संभव बनाता है। उत्पादक-शक्तियाँ उत्पादन-संबंधों को प्रभावित करती हैं,  -उत्पादन-संबंध भौतिक-सामाजिक-चेतना को प्रभावित करते हैं, - भौतिक-सामाजिक-चेतना विमर्श को प्रभावित करती है, - विमर्श वैचारिक-सामाजिक-चेतना को प्रभावित करता है, - वैचारिक-सामाजिक-चेतना उत्पादक-शक्तियों को प्रभावित करती है। विकास का यह चक्र वापस उसी जगह नहीं पहुँचाता है बल्कि एक ऊँचे स्तर पर ले जाता है। इस प्रकार विकास की यह गति चक्राकार न हो कर सर्पिलाकार होती है। थोड़े समय के लिए गति की दिशा उल्टी प्रतीत हो सकती है पर वास्तव में चक्राकार ऊर्ध्व गति की दिशा अपरिवर्तनीय है और मानव प्रजाति तथा मानव समाज के लिए यही प्रकृति का शाश्वत नियम है। जो लोग सोचते हैं कि सजग प्रयास से काल-चक्र की इस दिशा को उलट कर, उत्पादक-शक्तियों को विकसित किये बिना, केवल विमर्श के जरिए, उत्पादन संबंधों तथा भौतिक-सामाजिक-चेतना को बदला जा सकता है, उनकी इस सोच को शेखचिल्ली सपनों के अलावा और क्या कहा जा सकता है।
सहयोग तथा सहिष्णु मानवीय संबंधों के बीच, ईर्ष्या, द्वेष, असहिष्णुता, घृणा, असंवेदना जैसी भावनाओं की मौजूदगी, अनेकों समूहों के बीच हिंसक संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के लिए घातक है। चिंतक विचारक हमेशा से इस समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास करते रहे हैं। उन्होंने ऐसे समतामूलक समावेशी समाज की कल्पना की जो सहयोग तथा सहिष्णु मानवीय संबंधों पर आधारित हो और ऐसे समाज की वैचारिक सामाजिक-चेतना को समाजवाद का नाम दिया। पर,  ईर्ष्या, द्वेष, असहिष्णुता, घृणा, असंवेदना जैसी भावनाओं से रहित, सहयोग तथा सहिष्णु मानवीय संबंधों पर आधारित समाज के गठन का, चिंतकों विचारकों का पिछले पांच सौ साल का सजग प्रयास, सपनों की उड़ान बन कर रह गया क्योंकि भाववादी चिंतक विचारक, अपनी निम्न मध्यवर्गीय अवैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित मानसिकता के कारण, मानव-चेतना तथा सामाजिक-चेतना के सर्पिलाकार विकास के द्वंद्वात्मक संबंध को पहचानने में असमर्थ थे। वे उत्पादक-शक्तियों तथा उत्पादन-संबंधों को नजरंदाज करते हुए, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक दायरे में सजग हस्तक्षेप के जरिए सामाजिक चेतना को बदलने का असफल प्रयास करते रहे हैं।
तीन सौ साल पहले हुई औद्योगिक क्रांति ने उत्पादक शक्तियों को उस स्तर पर ला दिया जहाँ समाज के भौतिक आधार में मानवीय श्रम की अनन्य भूमिका स्पष्ट नजर आने लगी तथा चिंतकों विचारकों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित मानसिकता का विकास संभव हो सका। एक सौ पचहत्तर साल पहले कुछ चिंतकों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित मानसिकता के साथ प्रकृति के शाश्वत नियम, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ हासिल कर, और मानव-चेतना तथा सामाजिक-चेतना के सर्पिलाकार विकास के द्वंद्वात्मक संबंध को पहचान कर, ऐतिहासिक भौतिकवाद के शाश्वत सिद्धांत को प्रतिपादित किया जिसके आधार पर अगले पचास साल में, उचित हस्तक्षेप के साथ उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ उत्पादन संबंधों को भी समाजवाद की ओर मोड़ने में सफलता हासिल की जा सकी। निम्न मध्यवर्गीय दृष्टिकोण आधारित वैचारि-सामाजिक-चेतना की अव्यावहारिक कल्पना, तथा, सर्वहारा दृष्टिकोण आधारित वैचारिक-सामाजिक-चेतना की व्यावहारिक स्पष्ट योजना, के बीच भेद करने के लिए, पहली को काल्पनिक समाजवाद तथा दूसरी को वैज्ञानिक समाजवाद का नाम दिया गया है।
व्यापक तौर पर एक दूसरे से अनजान, उत्पादक तथा उत्पादकों के बीच उत्पादों के विनिमय के लिए सर्वमान्य विनिमय माध्यम एक व्यावहारिक आवश्यकता है और राज्य द्वारा प्रत्याभूत मुद्रा तथा करेंसी इसी आवश्यकता से उपजी हैं। विनिमय माध्यम के रूप में, भौतिक सामाजिक-चेतना में सोने चाँदी तथा अन्य बहुमूल्य धातुओं जैसी स्वीकार्यता हासिल करने में करेंसी नोटों को, बावजूद राज्य के कानूनी तथा हिंसक हस्तक्षेप के, सदियों का सफ़र तय करना पड़ा है। उत्पादों को संपत्ति के रूप में संचयन करने का भौतिक आधार, उनमें निहित संचित मानवीय श्रम का दोहरा चरित्र है - उपभोग योग्य वस्तु के रूप में उपयोगी मूल्य तथा विनिमय वस्तु के रूप में विनिमय मूल्य। करेंसी का उपयोगी मूल्य शून्य है इस कारण उसका लंबे समय तक संचयन व्यावहारिक नहीं है। करेंसी नोटों को, विनिमय के द्वारा जल्दी से जल्दी, उपभोग योग्य वस्तुओं के साथ बदलने की प्रवृत्ति, करेंसी नोटों की मूल प्रकृति में ही निहित है। कितने मूल्य की करेंसी बाजार में होगी, यह करेंसी को मूल्य के रूप में प्रतिभूत करने वाले किसी राज्य की सीमाओं के भीतर रहने वाली आबादी की संख्या से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि, उस करेंसी के माध्यम से कितने सकल उत्पाद मूल्य का व्यापार किया जाता है, तथा विनिमय की गति क्या है, अर्थात उत्पादों को उत्पादन से उपभोग तक का सफ़र पूरा करने में कितना समय लगता है। करेंसी उत्पादन से उपभोग तक का चक्र पूरा कर पुन: नया चक्र शुरू कर देती है। अगर चक्र दो महीने में पूरा होता है तो, वार्षिक सकल उत्पाद के विनिमय मूल्य, के छठवें हिस्से के बराबर मूल्य की करेंसी की आवश्यकता होगी। अगर यही चक्र एक महीने में पूरा हो जाता है करेंसी की आवश्यकता आधी रह जायेगी।                
जो उत्पादन वितरण संघटित क्षेत्र में होता है अर्थात एकीकृत पूँजी के नियंत्रण में होता है, उसमें करेंसी की आवश्यकता नहीं होती है। संगठित क्षेत्र में करेंसी की भूमिका बैंकों द्वारा प्रत्याभूत चेक, बिल, पी नोट जैसे दस्तावेज़ स्वत: ही अदा करने लगते हैं, पर असंगठित क्षेत्र की सामाजिक चेतना में बैंकों द्वारा प्रत्याभूत विनिमय माध्यमों को, आधारभूत ढांचा खड़ा कर देने के बाद भी, सरकार द्वारा प्रत्याभूत करेंसी जैसी स्वीकार्यता पाने में दशकों का समय लगता है।
भरतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादक शक्तियाँ अभी भी मुख्य रूप से सामंतवादी तथा बुर्जुआ उत्पादन के दौर में हैं। सकल घरेलू उत्पाद (150 लाख करोड़ रुपये) का लगभग आधा अभी भी निम्न स्तर के असंगठित क्षेत्र से आता है जिसमें उत्पादन, कुशलता आधारित श्रम के विभाजन पर आधारित है। श्रमिकों के संख्या बल के रूप में  90% रोजगार असंगठित क्षेत्र से आता है और संगठित क्षेत्र से केवल10%।  बाजार व्यवस्था में उत्पाद विनिमय के लिए किया जाता है, और जाहिर है भारतीय अर्थव्यवस्था में 75 लाख करोड़ रुपये सालाना का विनिमय 75 करोड़ की आबादी के बीच असंगठित रूप में होता है।
असंगठित क्षेत्र में उत्पादन वितरण का चक्र दो से तीन महीने का होता है जिसका अर्थ है कि भारतीय अर्थ व्यवस्था में कुल करेंसी की आवश्यकता लगभग 20-25 %  अर्थात 15-18 लाख करोड़ रुपये है। इतनी करेंसी लगभग हर दो से तीन महीनों में अनेकों हाथों से गुज़रती हुई अपना चक्र पूरा करती है। यह सोचना कि इस मूल्य की करेंसी का एक बड़ा हिस्सा संपत्ति के रूप में रखा रहेगा, तार्किक निष्कर्ष नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि असंगठित क्षेत्र का बहुत छोटा हिस्सा ही टैक्स के दायरे में आता है इसलिए यह सोचना भी गलत है कि असंगठित क्षेत्र में होने वाले विनिमय का एक बड़ा हिस्सा गैर कानूनी तरीके से होता है तथा काले धन को पैदा करता है। अर्थव्यवस्था में विनिमय की रफ़्तार उत्पादक शक्तियों के स्वरूप तथा प्रकृति पर निर्भर करती है और विनिमय के लिए आवश्यक करेंसी नोटों की मात्रा तथा मूल्य भी उसी से स्वत: निर्धारित होता है। अगर राज्य कृत्रिम रूप से एक सीमा से अधिक करेंसी जारी कर दे तो मुद्रा स्फीति पैदा हो जाती है जो अर्थव्यवस्था को मंहगाई की ओर धकेलती है, और अगर एक सीमा से कम करेंसी जारी करे तो मुद्रा संकट पैदा हो जाता है जो अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर धकेलता है। दोनों ही स्थितियाँ अर्थव्यवस्था के लिए घातक होती हैं।  
भारतीय अर्थव्यवस्था की उत्पादक शक्तियों का वस्तुपरक विश्लेषण किये बिना, काले धन को रोकने तथा डिजिटल इकॉनोमी को बढ़ावा देने के अव्यावहारिक उद्देश्य के लिए, 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को बंद करने तथा कैशलेस विनिमय के लिए लोगों को मजबूर करने की नीति और उस पर अमल की मोदी सरकार की शेखचिल्ली उड़ान काल्पनिक-समाजवाद का ही एक हिस्सा है।

सुरेश श्रीवास्तव
1 जनवरी, 2017

 


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