Sunday, 5 November 2017

The Three Sources and Three Component Parts of Marxism

  

(यह वक्तव्य सुरेश श्रीवास्तव द्वारा 5 नवंबर, 2017 को
 सोसायटी फ़ॉर साइंस की गोष्ठी में दिया गया था।)  
        
             सोसायटी फ़ॉर साइंस के आयोजकों ने आज विमर्श के लिए जो विषय चुना है वह भारत की राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था की वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में अत्याधिक महत्वपूर्ण है। मुख्यधारा की दोनों पार्टियों के पास आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक संकट से निपटने के लिए कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं है, क्षेत्रीय दलों के पास समाजवाद के नाम पर व्यक्तिवाद के अलावा कुछ नहीं है और भारतीय वामपंथ हाशिये पर है। मेहनतकश जनता हमेशा की तरह विकल्प के लिए निम्न मध्यवर्ग के नौजवानों की ओर ताक रही है, और नौजवान एक ओर अपने स्वयं के भविष्य के प्रति आशंकित हैं तो दूसरी ओर मार्क्सवाद के नाम से फैले संशोधनवाद से भ्रमित हैं। किसी को सूझ ही नहीं रहा है कि चक्रव्यूह को तोड़ा कैसे जाये।

जो नौजवान बिना किसी पूर्वाग्रह के मार्क्सवाद को समझने के इच्छुक हैं, उम्मीद है उन्हें आज के विमर्श में आशा की नई किरण नजर आयेगी। मार्क्सवाद को, राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप के एक औजार के रूप में देखने समझने के लिए, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को ठीक से समझना जरूरी है और मैं समझता हूँ कि आज इस विमर्श में शामिल होने वाले सभी लोग मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ नहीं होंगे, विशेषकर वे लोग जो सोसायटी फ़ॉर साइंस के ब्लॉग तथा सोशल मीडिया पर टिप्पणियों को तथा प्रकाशित लेखों को पढ़ते रहे हैं।

मार्क्सवाद के बारे में लेनिन ने लिखा था, ‘उनका सिद्धांत, दर्शन, राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था तथा समाजवाद के महानतम नुमाइंदों की स्थापनाओं की निरंतरता की अगली कड़ी के रूप में उभर कर आया है। मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है। वह सर्वव्यापी तथा समदर्शी है और मानव को एक सर्वांगींण वैश्विक दृष्टिकोण प्रदान करता है जो किसी भी अंधविश्वास, प्रतिक्रियावादिता या बुर्जुआ उत्पीड़न से पूरी तरह असंगत है। वह उन्नीसवीं सदी में मानव-जनित सर्वश्रेष्ठ, जिसका प्रतिनिधित्व जर्मन दर्शन, अंग्रेजी राजनैतिक-अर्थव्यवस्था तथा फ्रांसीसी समाजवाद करते हैं, का वैध उत्तराधिकारी है।’

वे आगे लिखते हैं, ‘मार्क्स का दर्शन एक संपूर्ण दार्शनिक भौतिकवाद है जिसने मानवजाति को, और विशेष तौर पर मजदूर वर्ग को ज्ञान का शक्तिशाली औजार प्रदान किया है।……..जब सामंतवाद उखाड़ फेंका गया था और आजाद पूंजीवादी समाज का इस दुनिया में पदार्पण हुआ था तभी यह साफ हो गया था कि इस आजादी का मतलब था कामगरों के दमन तथा शोषण का एक नया निजाम। तुरंत ही अनेकों समाजवादी सिद्धांत उभर आये, इस दमन के प्रतिबिंब स्वरूप तथा उसके प्रतिरोध के रूप में। पर पिछला समाजवाद कल्पनालोकी समाजवाद ही था। वह पूंजीवादी समाज की आलोचना तो करता था, उसको धिक्कारता था तथा खारिज करता था, वह उसके विनाश का सपना देखता था, उसके पास एक बेहतर निजाम की कल्पना थी और वह संपन्नों को शोषण की अनैतिकता के बारे में विश्वास दिलाने का प्रयास करता था।…... पर कल्पनालोकी समाजवाद वास्तविक समाधान से नावाकिफ़ था। वह पूंजीवाद के तहत मजदूरी की गुलामी के वास्तविक चरित्र को नहीं समझा सकता था, वह पूंजीवादी विकास के नियमों को उजागर नहीं कर सकता था, और न ही समझा सकता था कि किस सामाजिक शक्ति में नये समाज का निर्माता बन सकने की क्षमता है।’

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ चिंतन, मनन तथा व्यवहार की पद्धति के द्वारा प्रकृति के विभिन्न आयामों का सही-सही ज्ञान हासिल करने के लिए, तथा इस प्रकार अर्जित सामूहिक ज्ञान के आधार पर मानव जीवन को बेहतर बनाने हेतु, जीवनोपयोगी भौतिक साधनों के उत्पादन-वितरण तथा अन्य सामाजिक कार्य कलापों में सजग सार्थक योजनाबद्ध हस्तक्षेप के लिए, एक औजार के रूप में मार्क्सवाद एक वैचारिक तंत्र अर्थात एक उन्नत सामाजिक चेतना है। अपनी संपूर्णता में मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु मूल रूप से, प्रकृति के किसी भी आयाम को समझने के लिए, विश्लेषण की द्वंद्वात्मक पद्धति तथा भौतिकवाद के आधार पर उसकी व्याख्या करना है। और अधिरचना है, उस पद्धति तथा व्याख्या के आधार पर संग्रहीत किया हुआ तथा निरंतर संग्रहीत होता ज्ञान। मानव समाज, असीमित प्रकृति का एक बहुत सीमित आयाम है और ऐतिहासिक भौतिकवाद उस सीमित आयाम की मार्क्सवादी पड़ताल तथा व्याख्या है। वर्ग विभाजित समाज का समय, हजारों साल के मानव समाज के इतिहास का बहुत छोटा सा अंश है और सामंतवाद से पूँजीवाद का संक्रमणकाल उस छोटे से अंश का भी छोटा सा भाग है। समाजवाद की अवधारणा, सामंतवाद से पूँजीवाद के संक्रमणकाल में, शोषण के बदले स्वरूप के कारण उपजी निम्न बुर्जुआ वर्ग की चेतना का हिस्सा है। अत्याधिक उन्नत पूंजीवाद के दौर में अत्याधिक उन्नत सर्वहारा वर्ग की चेतना ही आधुनिक समाजवाद या वैज्ञानिक समाजवाद है।

आधुनिक समाजवाद मूलत:, आधुनिक समाज में धनिकों तथा निर्धनों के, पूँजीपतियों तथा मजूरों के बीच वर्ग संघर्ष की, और उत्पादन में अराजकता की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सही-सही समझ की उपज है। वैचारिक स्वरूप में वह अठारहवीं सदी में फ़्रांसीसी दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित समाजवाद का ही विस्तार दिखाई देता है, और किसी भी नये विचार की तरह, आधुनिक समाजवाद भी अपने आप को पुरातन विचारकों के उत्पाद के विस्तार के रूप में ही देखता है, परंतु वास्तव में हर विचार का मूल, अर्थव्यवस्था के भौतिक आधार में ही होता है और इस रूप में आधुनिक समाजवाद अत्याधिक जागरूक सर्वहारा वर्ग की चेतना है। जैसा लेनिन ने समझाया था सामंतवाद से पूँजीवाद के संक्रमणकाल में दमन की बदली हुई प्रक्रिया के प्रतिबिंब स्वरूप तथा उसके प्रतिरोध के रूप में अनेकों समाजवादी सिद्धांत उभर आये थे, पर उन्नत सर्वहारा की वर्गचेतना को समझने के लिए मार्क्सवाद के तीनों आयामों को समझना होगा।

व्यक्तिगत मानवीय चेतना के तीन आयामों - अनभिज्ञ चेतना या अवचेतना, तर्कबुद्धि तथा सजग चेतना - के अनुरूप; सामूहिक चेतना या सामाजिक चेतना के भी तीन आयाम हैं - भौतिक-सामाजिक-चेतना, दर्शन तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना। सामाजिक चेतना के रूप में मार्क्सवाद के तीनों आयामों की पड़ताल करते हुए, आगे हम मान कर चलेंगे कि यहाँ मौजूद विमर्शकों को अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की मूलभूत सही-सही समझ हासिल है।

उत्पादक शक्तियों के बदलाव के साथ-साथ उत्पादन संबंधों में भी बदलाव होता है और समाज की चेतना भी उसी के अनुसार विकसित होती है। भौतिक-सामाजिक-चेतना मूलत: उत्पादन संबंधों पर निर्भर करती है। बौद्धिकों तथा दार्शनिकों का सजग हस्तक्षेप वैचारिक-सामाजिक-चेतना को तो सीधे-सीधे प्रभावित करता है पर भौतिक-सामाजिक-चेतना को, बौद्धिकों तथा दार्शनिकों का सजग हस्तक्षेप उत्पादन संबंबधों के रूप में अप्रत्यक्ष रुप से ही प्रभावित करता है। ब्रिटिश पूँजी द्वारा औपनिवेशिक शोषण से बटोरी गई दौलत में निम्न भागीदार के रूप में, ब्रिटेन का मजदूर, सर्वहारा होने के बावजूद, बुर्जुआ वर्ग का दुमछल्ला बना रहा और ब्रिटेन में वर्ग संघर्ष की जगह शेखचिल्ली समाजवाद का वाहक बन गया।

नवजागरण काल के शुरुआती दौर में सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभानेवाले ब्रिटिश बुर्जुआ वर्ग ने शीघ्र ही शोषित जनता के साथ ग़द्दारी करते हुए सामंतवादी अभिजात्य वर्ग तथा राजशाही के साथ समझौता कर लिया और ब्रिटिश कॉमनवेल्थ बना कर (1649) प्रतीकात्मक राजशाही तथा अभिजात्य वर्ग के साथ सत्ता में भागीदारी स्वीकार कर ली थी। 18वीं सदी के मध्य तक ब्रिटेन ने, उत्तरी अमेरिका तथा अफ़्रीका के उपनिवेशों तथा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनैतिक प्रभाव के चलते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर पूरी तरह नियंत्रण कर लिया था। व्यापारिक पूँजी के एकत्रीकरण ने, 18वीं सदी में औद्योगिक क्रांति के जरिए ब्रिटेन को वैश्विक पूँजी के केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया। आगे आनेवाले समय में ब्रिटेन पूँजी और औद्योगिक उत्पादन का केंद्र बन गया और, बढ़ते पूँजीवाद के साथ-साथ सर्वहारा के विस्तार तथा जागरूकता के कारण बुर्जुआ जनवाद का भी केंद्र बन गया। ब्रिटेन के अंदर पूँजी के, व्यापारिक स्वरूप से औद्योगिक स्वरूप में रूपांतरण के साथ-साथ उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों में हुए गुणात्मक परिवर्तन का प्रभाव ब्रिटेन की भौगोलिक सीमाओं तक बद्ध न था।

अठारहवीं सदी में प्रकृति विज्ञान में हुई क्रांतिकारी खोजों ने, अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में सारे यूरोप में शुरू होने वाली औद्योगिक क्रांति ने ज्ञानोदय काल (Age of Enlightenment या Age of Reasoning) में पारंपरिक दर्शन में भौतिकवाद तथा तर्कशक्ति की फ्रांसीसी अवधारणाओं के साथ की गुणात्मक परिवर्तन की आधारशिला रखी थी। जिन फ़्रांसीसी चिंतकों तथा विचारकों ने फ़्रांसीसी जनता को वैचारिक स्तर पर क्रांति के लिए तैयार किया था वे स्वयं भी वैचारिक रूप से क्रांतिकारी थे। फ्रांस की पहली क्रांति और कम्यून आधारित व्यवस्था के दौरान नारा था Liberté, égalité, fraternité स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा। फ़्रांसीसी दार्शनिक किसी भी प्रकार से किसी भी बाहरी अलौकिक सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। धर्म, प्रकृति विज्ञान, समाज, राजनैतिक संस्थाएँ, हर किसी को तीखी आलोचना से गुज़रना पड़ा, हर चीज को तर्क के सामने अपने अस्तित्व के औचित्य को सिद्ध करना था अन्यथा उसके अस्तित्व को ही नकार दिया जाना था। तर्क हर चीज का मानक हो गया। इसी के आधार पर हेगेल ने कहा था कि प्रज्ञा या तर्कबुद्धि द्वारा घढ़े गये नियम ही सारे मानवीय व्यवहार तथा समाज का आधार हैं। उस काल से पहले तक जो कुछ होता रहा था वह सब कुछ पूर्वाग्रह से ग्रसित था और इन नियमों के विरुद्ध होता रहा था। वही सब समस्याओं का कारण था और उसे मानव के हित में अब जाना होगा। रूढ़ियों, अन्याय, विशेषाधिकारों, शोषण आदि का स्थान प्रकृति प्रदत्त समानता तथा शाश्वत दैवीय जन्मसिद्ध समान अधिकारों को लेना होगा। पर हम जानते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकार का अर्थ था संपत्ति के निजी स्वामित्व का अधिकार, और समानता का अर्थ था राजनैतिक समानता न कि आर्थिक समानता। और उस दौर में यह व्यवस्था केवल बुर्जुआ जनवादी गणतंत्र का रूप ही ले सकती थी और अठारहवीं सदी के चिंतक या उनके पूर्वज भी, समय द्वारा निर्धारित की गई सीमा से आगे नहीं जा सकते थे। राजशाही को, जनवादी गणतंत्र के द्वारा विस्थापित कर, राजनैतिक हस्तक्षेप के जरिए समता समानता आधारित समाज की स्थापना की अवधारणा ही समाजवाद था। इस पूरी काल्पनिक योजना में उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों की कोई भूमिका नहीं थी। यही बुर्जुआ वर्ग की वैचारिक-सामाजिक-चेतना अर्थात शेखचिल्ली समाजवाद है। फ्रांस की 1789 की क्रांति जिसमें राजशाही का अंत कर गणतंत्र की स्थापना की गई थी और जिसने अगले सौ सालों तक सारी दुनिया में होने वाली जनवादी क्रांतियों के लिए प्रकाश स्तंभ का काम किया था, फ्रांसीसी बुर्जुआ वर्ग की वैचारिक-सामाजिक-चेतना अर्थात समाजवाद पर आधारित थी।

प्रत्यक्ष में विशेषाधिकारों तथा समानता के बीच के वैचारिक संघर्ष के परोक्ष में संघर्ष था संपत्ति के अधिकार का, सामंतवादी राजशाही तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों और बुर्जुआ संपन्नवर्ग तथा उत्पादकों के गठजोड़ के बीच का। पर यह अंतर्विरोध दो संपन्न वर्गों के बीच तक सीमित नहीं था, व्यापक तौर पर यह अंतर्विरोध शोषकों तथा शोषितों के बीच का अंतर्विरोध था। संपन्न परजीवियों तथा विपन्न कामगारों के बीच का अंतर्विरोध। उन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण ही बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधियों के लिए यह संभव हो सका कि वे अपने आपको एक वर्ग विशेष के प्रतिनिधि की जगह, सारी शोषित पीड़ित जनता के प्रतिनिधि के रूप में पेश कर सकें। परंतु बुर्जुआजी के जन्म से ही उसके निषेध का तत्त्व - सर्वहारा - उसमें अंतर्निहित था। पूँजीपति का, मजूरी आधारित श्रमिक या सर्वहारा के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। जैसे जैसे मध्यवर्गीय बुर्जुआ का, पूँजीपति के रूप में विस्तार होता है, वैसे वैसे उसी अनुपात में सर्वहारा का भी विस्तार होता है। और सामंतवादी संपन्नों के विरुद्ध संघर्ष के बीच, बुर्जुआजी द्वारा स्वयं को अन्य शोषितों के पैरोकार होने का दावा करने के बावजूद, मजदूर और किसानों की बढ़ती जागरूकता के साथ शोषित जनता के शोषण के विरुद्ध उनके अपने संघर्ष भी नजर आने लगे थे।

उन्नीसवाँ सदी के पूर्वार्ध तक आते आते, उद्योग, परिवहन तथा संचार की प्रगति के चलते वैश्विक व्यापार उस स्तर पर पहुँच चुका था जहां सामाजिक चेतना के लिए भौगोलिक सीमाएं बेमानी हो गई थीं। मार्क्स ने जिंस को पूँजीवाद की भाषा कहा था और इस भाषा के विकास तथा विस्तार के साथ पूँजीवादी चेतना, अत्याधिक उन्नत यूरोपीय तथा उत्तरी अमरीकी औद्योगिक राष्ट्रों की सामाजिक चेतना से ले कर, अत्याधिक पिछड़े औपनिवेशिक राज्यों की सामाजिक चेतना के भीतर तक रिस चुकी थी। लेनिन लिखते हैं, ‘जहां बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की नजर वस्तुओं के अंतर्संबंधों (एक उत्पाद का दूसरे उत्पाद के साथ विनिमय) पर टिकी वहीं मार्क्स ने मानवीय अंतर्संबंधों को उजागर किया। उत्पादों का विनिमय, बाजार के माध्यम से, व्यक्तिगत उत्पादकों के बीच के रिश्ते को ही अभिव्यक्त करता है। मुद्रा व्यक्त करती है कि रिश्ता नजदीक से नजदीकतर होता जा रहा है, उत्पादकों के संपूर्ण आर्थिक जीवन को अविच्छिन्न रूप से एक संपूर्ण में एकीकृत कर रहा है।’ पूँजीवाद अपने उच्चतम स्तर, साम्राज्यवाद में प्रवेश कर चुका था। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के चरित्र के अनुसार अर्थव्यवस्थाएँ बार बार संकट से गुज़र रही थीं, और मजदूर तथा किसान जगह जगह अधिक राजनैतिक तथा आर्थिक अधिकारों के लिए आंदोलन करने लगे थे, उन्नत राष्ट्रों के बीच बाजार तथा उपनिवेशों के बंटवारे के लिए जगह जगह युद्ध होने लगे थे, उपनिवेशों में राष्ट्रीय आजादी के संघर्ष भड़कने लगे थे। इस धरती पर रहने वाली भौतिक स्तर ,पर अलग अलग नस्लों में बंटी होने के बावजूद, मानव प्रजाति वैचारिक स्तर पर एक ही सामाजिक-आर्थिक संरचना में रूपांतरित हो चुकी थी। कहा जाता था कि अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंदर सूर्य कभी अस्त नहीं होता था।

सामाजिक-चेतना के तीनों आयामों के वाहक चिंतक विचारक, समान रूप से अनेकों देशों में वितरित न होकर, ब्रिटेन, जर्मनी तथा फ्रांस में केंद्रित हो गये थे। ऐतिहासिक कारणों से, ब्रिटेन उत्पादन प्रणाली तथा न्याय प्रणाली अर्थात राजनैतिक-अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधि केंद्र बन गया था, फ्रांस समता समानता के लिए सजग राजनैतिक हस्तक्षेप अर्थात समाजवाद का प्रतिनिधि केंद्र बन गया था और जर्मनी चिंतन और विमर्श अर्थात दर्शन का केंद्र बन गया था। जिन्होंने व्यक्तिगत अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध के संदर्भ से सामाजिक चेतना को समझा है उनके लिए समझना मुश्किल नहीं होगा कि भौतिक-सामाजिक-चेतना, उत्पादन व्यवस्था तथा उत्पादन संबंधों के भौतिक आधार पर विकसित होती है और परोक्ष में सामाजिक चेतना तथा व्यवहार को प्रभावित करती है, जब कि वैचारिक-सामाजिक-चेतना, वर्गहितों से प्रभावित तर्कशक्ति के वैचारिक आधार पर विकसित होती है और प्रत्यक्ष में सामाजिक व्यवहार को तय करती है।

अठारहवीं सदी के मध्य से लेकर उन्नीसवीं सदी तक के सौ साल भारी उथल पुथल के रहे जिसमें विज्ञान तथा उत्पादक शक्तियों के विकास में गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। विज्ञान में परमाणु की खोज 1805, ऊर्जा अविनाशिता नियम 1789,  कोशिका सिद्धांत 1839, डारविन का विकास का सिद्धांत 1858, तथा उद्योग में भाप का इंजन, लोहा तथा स्टील बनाने की आधुनिक तकनीक, मशीनी औजार, सोडा ऐश, पोटाश, ब्लीचिंग पाउडर, सीमेंट, कंटीन्यूअस पेपर मेकिंग, रेलवे आदि। उत्पादक शक्तियों के अभूतपूर्व विकास के आधार पर पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था ने, सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के खिलाफ मुकम्मल जीत हासिल कर ली जिसने पूँजीवाद को उसकी उच्चतम अवस्था, साम्राज्यवाद में पहुंचा दिया। पूँजी की सत्ता विश्वव्यापी हो गई, किसी राज्य की राजसत्ता से भी अधिक शक्तिशाली। पूरे एशिया महाद्वीप के सभी देशों की शासन व्यवस्थाएँ, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा फ़्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे कारपोरेट्स के नियंत्रण में आ गई थीं। पूँजी के स्वरूप में गुणात्मक परिवर्तन हो गया था। स्थानीय औद्योगिक पूंजी ने नया वैश्विक वित्तीय पूँजी का स्वरूप धारण कर लिया। पूँजी, व्यक्तिगत पूँजीपति के निजी स्वामित्व में सेविका की भूमिका से निकल कर, आम निवेशकों के सामूहिक स्वामित्व में आकर पूँजीपति के स्वामी की भूमिका में आ गई।

सभ्यता के शुरू के दौर में दर्शन अर्थात तर्कबुद्धि आधारित पड़ताल के दायरे में सृष्टि का वह सब कुछ था जिसका संज्ञान इंद्रियों द्वारा नहीं हो सकता था; सूर्य, पृथ्वी, आग, आकाशीय विद्युत, जीवन, मृत्यु, संवेदना, भावना, चेतना, नैतिकता, आचार विचार आदि सभी कुछ। जैसे जैसे मानव की तर्कशक्ति तथा ज्ञान का विकास होता गया, दर्शन की पड़ताल का दायरा सिमटता गया, विज्ञान का विस्तृत होता गया। दर्शन के सामने मुख्य प्रश्न चेतना तथा अस्तित्व के संबंध का रह गया। ज्ञानोदय काल की एक सदी में समाज की तर्कशक्ति, चिंतन, विमर्श अर्थात दर्शन में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। अठारहवीं-उन्नीसवाँ सदी के संक्रमणकाल में  जर्मनी में पारंपरिक दर्शन की भाववादी धारा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी। फ्रांसीसी भौतिकवादी धारा भी जर्मनी में कांत के संदर्भ से अपने चरम पर पहुँच गई थी। सृष्टि में मानव सहित सभी कुछ पदार्थ है, और अनुभव बाहरी जगत का मस्तिष्क में प्रतिबिंब है, या सृष्टि में सभी कुछ चेतनशक्ति या पवित्र विचार का प्रकटीकरण है, एक असमाधेय अंतर्विरोध था। यहाँ आकर ज्ञान का विकास ठहर गया प्रतीत होता था मानो मानव इतिहास का अंत हो गया था।

पर उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास तो प्रकृति का नियम है। पूंजी विश्वव्यापी हो गई थी, मुद्रा स्वयं उत्पाद बन गई थी, जिंसों के व्यापार में भौगोलिक सीमाएं बेमानी हो गई थीं और इसके साथ ही सर्वहारा की चेतना भी विश्वव्यापी हो गई थी। पूँजी के सामूहिक स्वामित्व और मुनाफे के व्यक्तिगत बँटवारे के बीच एक असमाधेय अंतर्विरोध था जो नये नये संकटों को जन्म दे रहा था। नये उत्पादन संबंधों तथा नई सर्वहारा चेतना के कारण दर्शन में गुणात्मक परिवर्तन के साथ ही अंतर्विरोधों का समाधान संभव था।

क्या मानव की तर्कशक्ति के पास संकटों के समाधान का कोई रास्ता नहीं था? असमाधेय अंतर्विरोधों का समाधान तो विपर्ययों के विलयन या संश्लेषण में ही प्रकट होता है। समाधान थीसिस और एंटीथीसिस के सिंथेसिस से ही होता है। वैश्विक पूंजी तथा उत्पादक शक्तियों का विकास, जिस समाधान की ओर इशारा कर रहा था उसको पहचानने का श्रेय जाता है कार्ल मार्क्स को जिन्होंने चालीस के दशक की शुरुआत में कहा था, ‘दार्शनिकों ने अनेकों तरह से विश्व की व्याख्या की है, सवाल है बदलने का।’ ‘हर प्रकार से लगता है कि ऐतिहासिक घटनाएँ अनायास ही होती हैं। परंतु जहाँ प्रत्यक्ष में अनिश्चय का नियम लागू होता नजर आता है, वहाँ वास्तव में आंतरिक रूप से परोक्ष में चीज़ें अदृश्य नियमों से ही संचालित होती हैं, और जरूरत है केवल इन नियमों को उजागर करने की।’ और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा चेतना तथा अस्तित्व की सही समझ के आधार पर मार्क्स उन नियमों को उजागर कर सके जिन्हें उनके समकालीन, सिवाय एंगेल्स के, समझने में नाकाम थे।

जहाँ अन्य दार्शनिक बुर्जुआ चेतना के कारण चीज़ों को तात्त्विक नजरिये से देखने के आदी होते हैं, परिवेश से काट कर स्वतंत्र अस्तित्व में जड़ स्थिर पदार्थ के रूप में देखने के आदी होते हैं, वहीं मार्क्स ने प्रकृति के शाश्वत नियम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को पहचान कर, चीज़ों को समस्त परिवेश के साथ द्वंद्वात्मक संबंध के साथ निरंतर परिवर्तित होते अभिन्न अंग के रूप में देखा।

बुर्जुआ चिंतक इतिहास को विशिष्ट कालखंड में विशिष्ट व्यक्तियों के उद्देश्य प्राप्ति के रूप में देखते हैं; मार्क्स इतिहास को, भौतिक जीवन के साधन उत्पन्न करने में मानव समाज के प्रकृति के साथ द्वंद्वात्मक संबंध के अनुरूप निरंतर विकसित होती जैविक संरचना के रूप में देखते हैं।

बुर्जुआ चिंतक विशिष्ट व्यक्तियों की सनक को इतिहास की चालक शक्ति मानते है; मार्क्स के अनुसार इतिहास की चालक शक्ति है, भौतिक जीवन का निर्माण श्रम के साथ उत्पादन के द्वारा और नवजीवन का निर्माण प्रजनन के द्वारा - व्यक्तिगत तथा सामूहिक - तौर पर।

बुर्जुआ चिंतक, अतिरिक्त मूल्य को कामगार द्वारा अतिरिक्त समय में व्यक्तिगत तौर पर पैदा किये गये मूल्य के रूप में देखते हैं, अतिरिक्त समय अर्थात चुकाई गई मजदूरी के बराबर मूल्य पैदा कर लेने के बाद भी उत्पादन करते रहने वाला समय। वे मुनाफे को पूँजीपति द्वारा व्यक्तिगत तौर पर हड़पे गये अतिरिक्त मूल्य के रूप में देखते हैं और कामगार के व्यक्तिगत शोषण के रूप में देखते हैं। मार्क्स अतिरिक्त मूल्य को सामूहिक उत्पादक शक्तियों द्वारा पैदा किये गये कुल मूल्य में से सारी उत्पादन लागत, कामगारों की श्रमशक्ति के मूल्य सहित, को चुकता करने के बाद बचे हुए अधिशेष के रूप में देखते हैं। सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का बँटवारा अलग-अलग लोगों के बीच उनकी पूर्व सहमति के आधार पर होता है। इसीलिये कामगार, अपनी श्रमशक्ति का बाजार मूल्य पूर्व सहमति के आधार पर मिल जाने के बाद अपने आपको शोषित मानने के लिए तैयार नहीं होता है।

बुर्जुआ चिंतक शेखचिल्ली समाजवाद की अवधारणा के अनुसार मानते हैं कि सजग हस्तक्षेप के जरिए पूँजीपति को मनाया जा सकता है कि वह अतिरिक्त मूल्य व्यक्तिगत रूप से कामगारों के बीच बांट दे।

वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणा के अनुसार उत्पादक शक्तियों के विकास के जरिए सामूहिक रूप से पैदा किये अतिरिक्त मूल्य का इस्तेमाल सामूहिक जीवन स्तर उन्नत करने के लिए किया जाना ही अंतर्विरोध का समाधान है।


सुरेश श्रीवास्तव

5 नवंबर, 2017

( सोसायटी फ़ॉर साइंस की गोष्ठी में दिया गया वक्तव्य)

No comments:

Post a Comment