सोसायटी फ़ॉर साइंस की सदस्यता के लिए आवेदन करने वालों से अपील
फेसबुक पर ‘सिफालिन’ की मित्र-सूची में 266 हैं, रिक्वेस्ट सूची में 4 हैं ; ‘सोसायटी फ़ॉर साइंस’ ग्रुप की सदस्य सूची में 399 हैं और सदस्यता निवेदकों की संख्या 66 है। मित्र-सूची तथा सदस्य-सूची में कुल मिला कर 15-20 लोग ही ऐसे होंगे, जो सोसायटी की वाल पर सैद्धांतिक विमर्श के लिए पोस्ट किये गये प्रारंभिक वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते हों, लगभग 5%, बावजूद इसके कि वे अपनी व्यक्तिगत वाल पर दिन में औसतन तीन चार पोस्ट तो डालते ही हैं। उस पर गंभीर टिप्पणी तो एकाध ही कोई करता है, अधिकांश तो लाइक बटन से काम चलाते हैं। ऐसी स्थिति में क्या मुझे इन निवेदनों को स्वीकार करना चाहिए या नहीं, यह मेरे लिए एक गंभीर प्रश्न है। क्योंकि ‘सिफालिन’ का प्रोफ़ाइल तथा ‘सोसायटी फ़ॉर साइंस’ का ग्रुप एक सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाया गया था, न कि व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए, इसलिए इस प्रश्न का उत्तर भी सामूहिक स्तर पर ही तलाशा जाना चाहिए।
सिफालिन तथा सोसायटी ग्रुप के प्रोफाइल पर स्पष्ट किया गया है कि ‘यह मंच सोसायटी फॉर साइंस के लिए बनाया गया है। (यहाँ SCIENCE एक परिवर्णी शब्द है जो Socially Conscious Intellectuals' ENlightenment & CEphalisation से लिया गया है।) सोसायटी का उद्देश्य मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम और उसकी व्यावहारिक प्रासंगिकता पर रोशनी डालने वाले लेखों के ज़रिए जागरूक बुद्धिजीवियों को सैद्धांतिक चिंतन तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के अवसर प्रदान करना है।’ उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मंच पर पोस्ट किये गये लेखों या टिप्पणियों के प्रति अधिकांश सदस्यों की उदासीनता से प्रतीत होता है कि वे अपनी-अपनी मित्र-सूची बढ़ाने के लिए ग्रुप से जुड़े हैं न कि सोसायटी के उद्देश्य से प्रभावित होकर। सोसायटी के सदस्यों की सोसायटी के उद्देश्य के लिए प्रतिबद्धता के अभाव में सोसायटी के लिए सामूहिक रूप से एक संगठन की भाँति काम कर पाना असंभव है।
मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम और उसकी व्यावहारिक प्रासंगिकता की समझ के उद्देश्य से गठित किये जाने वाले संगठन के लिए जरूरी है कि वह अपने कार्यकलापों में मार्क्सवाद से मार्गदर्शन ले।
70 साल में भारत राष्ट्र जिस मुक़ाम पर जा पहुँचा है वह अत्याधिक त्रासद स्थिति है। लेनिन ने आगाह किया था कि, ‘आर्थिक भेदभाव कम नहीं होते हैं बल्कि ‘प्रजातांत्रिक’ पूंजीवाद के तहत और अधिक तीव्र तथा विकराल हो जाते हैं। अत्याधिक प्रजातांत्रिक बुर्जुआ गणतंत्रों में भी, लोकतंत्रवाद, वर्गीय दमन के एक अनुभाग के रूप में, अंतर्निहित चरित्र को समाप्त नहीं करता है बल्कि उजागर करता है। पहले जनता का जितना हिस्सा राजनैतिक घटनाओं में भाग लेता था उसके मुकाबले में जनता के कहीं व्यापक हिस्से को जागरूक तथा संगठित करने में सहायता कर, लोकतंत्रवाद संकट को दूर करने तथा राजनैतिक क्रांति के लिए नहीं बल्कि ऐसी क्रांतियों की दशा में गृह युद्ध को अत्याधिक प्रचंड करने के लिए भूमि तैयार करता है।’ और कामगारों की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद के विस्तार के बिना बुर्जुआ-जनवाद का, नव-जनवाद (सर्वहारा जनवाद) में संक्रमण असंभव है। पर कामगारों की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद लाने का काम निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों में से ही कुछ को करना होता है, जिन का ख़ुद का दृष्टिकोण पूरी तरह वैज्ञानिक, पूर्वाग्रहों से मुक्त हो और जिन्हें संशोधनवाद के प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हो।
भारत में पिछले सौ साल में, ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूल को संशोधनवाद से प्रदूषित कर, तथा समाज को बदलने की अति महत्वाकांक्षी सक्रियता के कारण आंदोलन को ही सब कुछ मानते हुए, जिस विचारधारा को मार्क्सवाद के नाम से प्रचारित किया गया है, उसका सामाजिक चेतना में इतना व्यापक प्रसार हो गया है कि आज युवा पीढ़ी पूरी तरह भ्रमित है और समझ ही नहीं पाती है कि करना क्या है।। बुर्जुआ जनवाद के तहत मिलने वाली राजनैतिक आजादी के कारण तथा आर्थिक महत्वाकंक्षाओं के विस्तार और आपूर्ति के बीच बढ़ती खाई के कारण वैमनस्य तथा बढ़ती अस्मिता की राजनीति तथा टकराहट ने समाज को खंड खंड कर दिया है। ऐसे वैमनस्य तथा द्वेषपूर्ण सामाजिक माहौल में, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों, जिनमें विज्ञान के दुर्गम थकाने वाले पथ पर चलने की उत्कट इच्छा हो, को ढूँढना भूसे के ढेर में सुई को ढूंढने के समान है और उन्हें एकजुट करना तो और भी दुसाध्य कार्य है। पर ढूंढने तथा एकजुट करने के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा अर्थात मार्क्सवाद के आधार पर ही भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना के मौजूदा संकट को ठीक-ठीक समझा जा सकता है और उसी के आधार पर राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन की योजना बनाने तथा कार्यान्वित करने में सक्षम ताक़तों को पहचाना और संगठित किया जा सकता है।
इसलिए पहले क़दम के रूप में सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों को एक मंच पर लाकर, सामूहिक विचार विमर्श के अवसर प्रदान करना है ताकि वे पूरी तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर सकें और स्वयं को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर सकें, और मार्क्सवाद की सही समझ हासिल करके समाज के बीच बिखरी हुई उन ताक़तों को संगठित कर सकें जो व्यवस्था परिवर्तन करने में सक्षम हैं, और उन्हें उचित मार्गदर्शन दे सकें। सामूहिक समझ हासिल करने का अर्थ है सामूहिक चेतना का विकास।
मार्क्सवाद का दार्शनिक आयाम, अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाता है कि सजग सामूहिक चेतना के विकास के लिए, समूह की इकाइयों के बीच उद्देश्य की स्पष्ट समझ तथा प्रतिबद्धता अनिवार्य शर्त है, और विचारों के विकास की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के अनुरूप, मतभेदों के समाधान के लिए केंद्रित विमर्श ही उचित पद्धति है। इन्हें सुनिश्चित करने के लिए मंच को एक संगठित स्वरूप प्रदान करना आवश्यक है ताकि समाज में, उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध साथियों के समूह के, तथा उसके परिवेश के बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट नजर आये। सोसायटी फ़ॉर साइंस की सामूहिक चेतना की वाहक इकाइयाँ जीवित मानव संरचनाएँ हैं जो अन्य अनेकों समूहों की विभिन्न सामूहिक चेतनाओं की भी वाहक होती हैं जिनके हितों के बीच प्रतिस्पर्धा या टकराहट भी हो सकती है। वैमनस्य तथा द्वेषपूर्ण सामाजिक माहौल में, संगठन की चेतना तथा रणनीति को प्रदूषित तथा भ्रष्ट कर सकने वाले विचारों की घुस पैठ से बचाने के लिए, लेनिन ने मार्क्सवाद के आधार पर ‘जनवादी केंद्रीयता’ के जिस सिद्धांत तथा पद्धति को विकसित किया था, सोसायटी फ़ॉर साइंस को संगठन का रूप देते समय उस जनवादी केंद्रीयता का अनुकरण आवश्यक है।
संगठन के सदस्यों का, वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना, संगठन के उद्देश्य की स्पष्ट समझ तथा उसके लिए प्रतिबद्धता होना और सामूहिक विवेक तथा निर्णय के प्रति पूर्ण आदर तथा समर्पण होना जनवादी केंद्रीयता की पद्धति की अनिवार्य शर्तें हैं। संगठन के सदस्यों का व्यक्तिगत तथा सामूहिक दायित्व होता है कि किसी भी नये सदस्य को शामिल करने से पहले ये सुनिश्चित करें कि नया सदस्य इन अनिवार्य शर्तों को पूरा करता हो। उनका यह भी दायित्व होता है कि समय समय पर आत्म मंथन कर यह सुनिश्चित करते रहें कि इन शर्तों में किसी तरह की ढील या विचलन तो नहीं हो रहा है।
पिछले पंद्रह सालों से सोसायटी फ़ॉर साइंस एक मंच के रूप में एक ही व्यक्ति की समझ तथा विवेक के अनुसार चलती रही है और आज उस पड़ाव पर आ पहुँची है जहाँ मंच की एक संगठन में रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। सोसायटी की, सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक अनेकों बुद्धिजीवियों के बीच पहचान बन चुकी है, सोसायटी के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से दर्शाने वाली भरपूर सामग्री लिखित में व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर मौजूद है, पिछले कुछ महीनों से कुछ सदस्यों के बीच संगठन की बागडोर संभालने के लिए आपसी विचार विमर्श चल रहा है और संगठन की कार्य प्रणाली को ऐम.ओ.यू. का रूप देने की औपचारिकता पर काम चल रहा है। मैं उम्मीद करता हूँ कि अगले कुछ महीनों में संगठन की बागडोर व्यक्तिगत नियंत्रण से निकल कर सामूहिक नियंत्रण में पहुँच जायेगी। इस संक्रमण काल में मेरी भूमिका नियंत्रक की जगह मार्गदर्शक की होगी।
मौजूदा सदस्य सूची में से या आवेदकों में से किसको संगठन के सदस्य के रूप में शामिल किया जायेगा वह इस पर निर्भर करेगा कि उसकी जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत तथा पद्धति की कितनी पुख्ता समझ है, और इसका निर्णय सामूहिक रूप से तदर्थ समिति के सामूहिक विवेक पर निर्भर करेगा। मेरा सुझाव है कि जो सजग बुद्धिजीवी सोसायटी फ़ॉर साइंस के सदस्य बनना चाहते हैं वे MarxDarshan के ब्लॉग पर Democratic Centralism – A Marxist View (http://marxdarshan.blogspot.in/2013/06/democratic-centralism-marxist-view.html) अवश्य पढ़ें। हिंदी में इसका अनुवाद त्रैमासिक पत्रिका मार्क्स दर्शन के वर्ष1 : अंक2, जनवरी-मार्च 2011 में भी छपा था।
आने वाले नववर्ष के लिए शुभ कामनाओं के साथ
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
16 दिसंबर, 2017
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