सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में, उन्मादकों, उन्माद तथा संशोधनवाद की भूमिका
( 2014 के सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों का मेरा पूर्वानुमान गलत साबित हुआ था और आत्मालोचना के रूप में मैंने मार्क्स दर्शन के ब्लॉग पर लेख लिखा था ‘सोलहवीं लोकसभा में प्रत्याशित जनादेश’ जिसमें मैंने रेखांकित किया था कि ‘इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी में जनता ने अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायन और वी.पी. सिंह जैसों को मसीहा बनाया, और फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में उनको असफल पाकर उनको नकार कर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। मौजूदा दौर में भी जनता ने अन्ना हजारे, फिर अरविंद केजरीवाल और अंत में मोदी को अपना मसीहा बनाया है। जनता मसीहा ढूंढ रही थी, भाजपा अपनी आंतरिक कलह के बीच राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए पार्टी के लिए नया चेहरा ढूंढ रही थी। नरेंद्र मोदी में भाजपा को अपना चेहरा मिल गया और जनता को अपना मसीहा। हाल फिलहाल जनता खुशफहमी में है कि नया मसीहा उसे निजात दिलायेगा। हमें वक्त का इंतजार करना होगा और नये मसीहा को समय देना होगा कि इतिहास उसका मूल्यांकन करे।’ http://marx-darshan.blogspot.com/2014/05/blog-post.html)
सत्रहवीं लोकसभा के नतीजों से पहले भी मैं मानकर चल रहा था कि जिस परिपक्वता का परिचय राहुल गांधी दे रहे हैं तथा उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही, उससे लगता था कि कांग्रेस गठबंधन सरकार बनाने में सफल होगी, पर इस बार भी मेरा अनुमान गलत साबित हुआ। लेकिन इस बार ग़लती के कारण पिछली बार के मुकाबले में भिन्न हैं।
महान दार्शनिक हेगेल का कहना था कि एक राजा, राजा इसलिए होता है क्योंकि प्रजा ऐसा सोचती है, और राजा यह जानता है। राजा की व्यक्तिगत चेतना तथा प्रजा की सामूहिक चेतना का यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
बुर्जुआ जनवाद में एक नेता, नेता इसलिए होता है क्योंकि जनता ऐसा सोचती है, और नेता यह जानता है। नेता के लिए यह जानना जरूरी है कि जनता किस तरह सोचती है तथा उसके लिए यह भी जरूरी है कि वह इस प्रकार आचरण करे कि जनता सोचने लगे कि एकमात्र वही नेता होने योग्य है।
मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को 2019 के चुनाव में भारी बहुमत से दोबारा सरकार की बागडोर सौंपी है क्योंकि इस समय भारतीय मतदाताओं की नजरों में वे सरकार को नेतृत्व प्रदान करने के लिए सबसे अधिक सक्षम तथा योग्य व्यक्ति हैं। दर्जनों राजनीतिक पार्टियों तथा अस्मिता की राजनीति के चलते छोटे छोटे समूहों में विभाजित मतदाताओं ने, किस मानसिकता के कारण एकमत से निर्णय लिया कि नरेंद्र मोदी ही सरकार की बागडोर संभालने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हैं, इसकी पड़ताल जरूरी है।
भारतीय अर्थव्यवस्था सामंतवाद तथा पूँजीवाद के जिस संक्रमण काल में है तथा संशोधनवादियों ने राजनीतिक-अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांत (मार्क्सवाद) के बारे में जिस प्रकार का भ्रम फैला रखा है, उसमें समाजवाद की दुहाई देनेवाली अनेकों पार्टियों की मौजूदगी तथा उनका अस्मिता की राजनीति करना स्वभाविक है। स्वभाविक रूप से आम आदमी के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं की उपलब्धता सबसे अहम मसला होता है जिसके आधार पर व्यक्ति की अनभिज्ञ-चेतना तथा समूह की भौतिक-सामाजिक-चेतना का निर्माण होता है। तार्किक रूप से व्यक्ति का दीर्घकालिक आचरण मूल रूप से उसके अस्तित्व से जुड़ी गतिविधियों अर्थात उसके आर्थिक हितों की पूर्ति से निर्धारित होता है। पर तीव्र उन्माद की स्थिति में व्यक्ति की तर्कबुद्धि जड़ हो जाती है और व्यक्ति का आचरण नियमित न होकर अनियमित हो जाता है। जो बात व्यक्ति पर लागू होती है वही समूह पर भी लागू होती है।
घरेलू अर्थव्यवस्था के स्तर पर पिछले साढ़े चार साल में नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसी कोई सफलता हासिल नहीं कर सकी जिसके आधार पर उन्हें 2019 के चुनाव में बहुमत हासिल हो पाता। बल्कि जनवरी आते आते सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा प्राप्त ख़बरों से भाजपा को समझ आ गया था कि अगर जल्दी ही जनता को उन्माद की हद तक उत्तेजित नहीं किया गया तथा शांत चित्त के साथ वोट देने दिया गया तो कॉंग्रेस के मुकाबले में भाजपा की हार निश्चित है। संघ परिवार हिंदु-मुसलमान वैमनस्य, लव जिहाद, गोहत्या, बाबरी मस्जिद, असम में नागरिक पंजीकरण आदि के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण कराने तथा उत्तेजना को उन्माद के स्तर तक भड़काने में नाकाम हो रहा था। सर्वधर्म समभाव की मानसिकता वाले व्यापक हिंदु समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करके उन्माद की हद तक उत्तेजित कर पाना असंभव है। धार्मिक कट्टरपन के आधार पर मध्यवर्ग के एक हिस्से को दंगे करने की हद तक उत्तेजित कर पाना तो संभव है, पर व्यापक हिंदु समाज को लंबे समय तक उन्मादित रख पाना असंभव था।
और अर्थव्यवस्था तथा सांप्रदायिक सौहार्द के मामले में विपक्ष काफी हद तक भाजपा सरकार को घेर पाने में कामयाब नजर आ रहा था। नरेंद्र मोदी के मुकाबले में राहुल गांधी की जनप्रियता भी बढ़ती जा रही थी। राहुल गांधी परिपक्वता दिखाते हुए क्षेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ कर पाने में भी कामयाबी की तरफ बढ़ते नजर आ रहे थे।
अस्मिता की राजनीति के चलते अनेकों समूहों में बंटा भारतीय मतदाता मानसिक संतुलन की स्थिति में, नोटबंदी के कारण जीडीपी में हुई गिरावट, जीएसटी की उँची दरों तथा काग़ज़ी कार्यवाही के झमेलों के कारण होनेवाली परेशानी तथा बेरोज़गारी जैसे अहम मसलों को नजरंदाज करते हुए, विवेकपूर्ण निर्णय के साथ भाजपा को वोट देगा ये कल्पनातीत था। खंडित जनादेश की दशा में भाजपा के लिए फिर से सरकार बना पाना असंभव होता। ऐसे में कट्टर राष्ट्रवाद ही एक ऐसा विचार हो सकता था जिसके आधार पर व्यापक मतदाता को कुछ समय तक तीव्र उन्माद की मनःस्थिति में रखा जा सकता था। और फरवरी से चुनाव होने तक इस उन्माद को हवा देने तथा बरक़रार रखने के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में सारे अवयव मौजूद थे।
पिछले तीन साल से जेएनयू के कुछ छात्रों के खिलाफ टुकड़े टुकड़े गैंग के आरोप लग ही रहे थे, ऐसे में वामपंथ ने अपनी अवसरवादी नीति के चलते कन्हैया कुमार को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। कश्मीर में आतंकवाद तथा धारा 370 से संबंधित उन्माद का उत्पादन करने वाले उत्पादक निरंतर उन्माद पैदा करने के लिए मीडिया में अंतहीन बहसें चला ही रहे थे। वामपंथ द्वारा जितना ही ज्यादा कन्हैया कुमार के नारे ‘आजादी लेके रहेंगे’ को प्रचारित प्रसारित किया जा रहा था उतना ही संघ परिवार का राष्ट्रवाद के नाम पर खड़ा किया गया विभाजन तीव्र होता जा रहा था। इस माहौल में राहुल गांधी के रोजगार तथा आर्थिक उत्पादन के तर्कपूर्ण बयानों की प्रत्यक्षता आच्छादित होते जाना स्वाभाविक था, जबकि कांग्रेस के अपने दिग्गज नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ने के अति उत्साह में, अपने रणक्षेत्र को छोड़ कर, भाजपा द्वारा रचे जा रहे चक्रव्यूह में जा कर लड़ने पर आमादा थे।
आंतरिक अर्थव्यवस्था तथा मध्य एशिया तथा सुदूर पूर्व की राजनीतिक व्यवस्था के मोर्चे पर असफलता के कारण अमेरिकी प्रशासन कट्टर राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारकर जनमत अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहा था।अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन के द्वारा पेश चुनौतियों के कारण भारत तथा अमेरिका दोनों के हित में था कि अंधराष्ट्रवाद के उन्माद को ज्यादा से ज्यादा हवा दी जाये।
मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने का मसला कई महीनों से सुलग रहा था। ऐसे में पुलवामा पर हमले ने उचित माहौल तैयार कर पर्याप्त विस्फोटक सामग्री भी मुहैया करा दी थी। बस जरूरत थी पलीत लगाने की जिसके लिए अमेरिकी सहयोग तथा सहमति पहली शर्त थी। पटकथा तैयार की गई कि घटनाक्रम को इस प्रकार अंजाम दिया जाय कि यह दर्शाया जा सके कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की नकेल कसने के लिए जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है वह केवल नरेंद्र मोदी के पास ही है और चीन तथा पाकिस्तान के गठजोड़ के खिलाफ भारत की संप्रभुता तथा अखंडता को बचा कर रखने की क्षमता लौह पुरुष नरेंद्र मोदी के अलावा और किसी में नहीं है। इसके लिए पुलवामा पर हुए हमले का बदला लेने के लिए पाकिस्तान के बालाकोट स्थित आतंकी शिवर पर हमला कर सकने के लिए अमेरिका की सहमति तथा मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने के लिए चीन की सहमति आवश्यक थी। पटकथा के सफल मंचन के लिए अमेरिका तथा चीन की सहमति तथा सहयोग आवश्यक था, पर सहयोग हासिल करने के लिए कुछ न कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ती।
मध्य एशिया में अमेरिका अपना रणनीतिक बर्चस्व बरक़रार रखना चाहता है और उसकी मांग थी कि ईरान के खिलाफ अमेरिका द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों को प्रभावी बनाने के लिए भारत को ईरान से तेल लेना बंद कर अमेरिका से तेल लेना होगा। चीन मध्य एशिया से लेकर दक्षिणपूर्व एशिया तक शांति तथा सहयोग के लिए गंभीरता से प्रयास करता रहा है, क्योंकि यह उसकी महत्वाकांक्षी ओबीओआर सिल्क रूट योजना की सफलता के लिए बहुत जरूरी है। चीन की मांग थी कि दोनों ओर से कोई भी सामरिक कार्यवाही करते समय संयम बरता जाय तथा पुलवामा पर हुए हमले के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार न ठहराया जाय। अपने अपने हितों के मद्दे नजर, अमेरिका, चीन तथा पाकिस्तान तीनों ही चाहते थे कि भारत में एक स्थिर सरकार हो। वामपंथियों तथा तृणमूल के अपने अपने पूर्वाग्रहों के तथा सपा-बसपा के गठजोड़ के चलते, कांग्रेस के लिए स्थिर सरकार का गठन कर पाना असंभव था।
ऐसे में अमेरिका तथा चीन की मांग को मानते हुए, तैयार की गई पटकथा के मंचन में चारों किरदारों के हितों की पूर्ति हो रही थी इसलिए मंचन के लिए हरी झंडी दे दी गई। पत्रकारों, एंकरों, रिटायर्ड जनरलों तथा नौकरशाहों, लेखकों तथा कलाकारों की पूरी फ़ौज, उन्मादकों के रूप में उन्माद पैदा करने के लिए तैयार बैठी थी। खाये-पिये-अघाये निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की फ़ौज भी, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि प्लेटफ़ॉर्म के जरिए, पैदा किये गये उन्माद को आम मतदाताओं तक पहुँचाने के लिए तैयार बैठी थी। उन्माद के उत्पादन-वितरण के लिए आवश्यक पूंजी का निवेश करने के लिए भाजपा ने चुनावी बॉंड के जरिए पर्याप्त धनराशि पहले ही जमा कर रखी थी। हरी झंडी मिलते ही, वैचारिक उत्पाद के प्रचार प्रसार के लिए सभी जी जान से जुट गये व तीन महीने में ही राष्ट्रवाद का उन्माद मतदाताओं के सर चढ़कर बोलने लगा और सारे बुनियादी मुद्दों की मांग नेपथ्य में चली गई।
(18 फरवरी, 2019, फेसबुक ग्रुप पर मैंने लिखा था - पुलवामा में सीआरपीएफ़ के क़ाफ़िले पर हुए आतंकी हमले के संदर्भ से, 17 फरवरी 2019 रविवार को असम के लखीमपुर में भारतीय जनता युवा मोर्चा की रैली को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि ‘सीआरपीएफ़ के चालीस जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी क्योंकि केंद्र में अब भाजपा की सरकार है’। उन्हें शायद याद नहीं रहा कि 2016 में पठानकोट में एयरफ़ोर्स बेस पर तथा उरी में सेना के ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर आतंकी हमले के समय भी भाजपा की ही सरकार थी। या शायद उनकी शहादत इसलिए याद नहीं रही क्योंकि उनमें मारे गये जवानों तथा मारे गये आतंकियों का अनुपात अधिक नहीं था। या फिर शायद वे जानते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और उन्माद बढ़ जाने पर तर्कबुद्धि के साथ साथ स्मृति का ह्रास भी होता है।) और 26 फरवरी 2019 को बालाकोट पर सीमित हवाई हमला हो गया, अभिनंदन का हवाई जहाज़ मार गिराया गया तथा उन्हें बंदी बना लिया गया और फिर उसके बाद राष्ट्रवादी उन्माद की कोई सीमा न रही।
नतीजे के रूप में पाँच साल के लिए चुनी गई स्थिर सरकार सामने है। पर उन्माद की परिणति स्खलन में होना एक प्राकृतिक नियम है, और फिर सामने मुँह बाये खड़े होंगे रोज़ी, रोटी, शिक्षा तथा स्वास्थ्य से जुड़े मूल मसले। आगे का रास्ता क्या होगा ये जानने के लिए दो साल इंतज़ार करना होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
4 जून 2019
"This universe is made up of smallest possible particles of matter, always in motion since eternity till eternity. When large number of particles are involved in anything or process, various permutations and combinations are possible. This is how law of probability and certainty works. This is part of dialects of nature."
ReplyDeleteWhen the above mentioned facts are what that has been observed in various natural phenomena (both physical and social ) isn't it imperative to draw the following conclusion
1) It is not possible to make excact predictions and forecasts with respect to any phenomena or thing in this universe and those who venture to do so will be doing so at the peril of loosing ones credibility .The maximum that is possible is to forecast about the probable outcomes .
2) The extrapolation into future, on the basis of observed facts in the past , regarding a phenomenon is not a fool proof method of analysis.
3) Those who are interested in developing the correct scientific temper and temperament ,based on objective world outlook, should focus more on objective observation of phenomenon made to draw conclusions and inferences
4) The analysis of the phenomenon ,as mentioned in the above mentioned point, can be done only in hindsight ,post facto .
5) Even the most elaborate and minutely detailed future course of action based on a priori analysis has a great chance of error .
6) Theoretical thinking (abstract thinking ) as a tool should be used to review and analyse a situation a posteriori also so as to draw the inferences and conclusions based on observed facts .
All are requested to point out the errors and flaws in the conclusions drawn above.(The same are publicised to enable others to point out the draw backs of the method of analysis so that the same can be rectified and the correct understanding can be developed)
ReplyDeleteBased on the above conclusions , in fact as a corollary,the below listed queries arise in inquisitive minds
1) Should conscious intellectuals devote most of their time and efforts to understand the past observations of various phenomena properly or should they devote more time in planning and detailing the future course of action .
2) Due to the complexity of various phenomenon , especially social phenomenon ,it is possible to convinently choose facts and prove anything .The same can lead to self deceptive optimism and over confidence many a times .It is quiet natural that one can easily become a victim of ,what behavioural economists call, the confirmation bias. As Richard Thaler, who won the Nobel Prize in economics in 2017, writes in Misbehaving: The Making of Behavioural Economics: “People have a natural tendency to search for confirming rather than disconfirming evidence … This tendency is called the confirmation bias … People become overconfident because … they only look for evidence that confirms their preconceived hypotheses.”
Are there methods and safeguards to overcome such a pitfall(which are more often than not non intentional and more often times happening unconsciously ) for conscious intellectuals .
3) Shouldn't socially conscious intellectuals start from understanding the natural phenomenon including the social phenomenon objectively and dispassionately before setting targets and aims like ' creation of an egalitarian,exploitation free ,equitable and just world order ' .In other words shouldn't such targets be the outcome of the correct understanding of the universe and its various phenomenon rather than trying to understand the universe and its various phenomenon as a tool to establish and accomplish the preconceived aims and objectives .
4) Shouldn't conscious intellectuals be neutral in their outlook towards future rather than becoming optimistic and confident about the same as the line of difference between self deceptive optimism and optimism and the differences between confidence and overconfidence is too blurred .(In fact using the analogy of factor of saftey which ,is used in engineering design of various engineered products ,given the subconscious bias of the human mind to become over confident and self deceptively optimistic , isn't it prudent to consciously temper our outlook for future with the prospect of worst case scenarios, as a counter to the natural tendency of the brain to pull to the other end )
The above post/ comment should not be interpreted as an attempt to belittle and scoff at those who are involved in planning and detailing the future course of action .Neither shall it be taken as an alibi to drive home the point that continuous praxis (practical & social intervention ) devoid of much detailing and complex planning is the only way forward (the preference for changing the world than for interpreting it) ,nor shall it be used as a justification for resorting to fatalism and resignation by pointing to the futility of human agency .Both the above mentioned line of thoughts (antagonistic in their aims and objectives )emerge from the common understanding that planning and detailing for future course of action is futile .
ReplyDeleteThe significance of human agency in effecting the changes in nature and its various phenomenon is an observed fact .It can either be unintentional and unconscious interventions and acts of human society or it can be planned and forethought actions that have led to changes . Attention is invited to the recognition of Anthropocene as a geological epoch by Anthropocene Working Group in May 2019 (Naming of the Anthropocene epoch: move is a caution to humanity: https://www.thehindu.com/opinion/editorial/naming-of-the-anthropocene-epoch-move-is-a-caution-to-humanity/article27356314.ece)
Stressing the importance of observation in developing the correct understanding and pointing the limits of detailed planning and forecasts into future is one thing and asking for the complete neglect and arguing for the complete irrelevance of the 'practical activity 'of planning is quite another .It is like chalk and cheese and akin to throwing the baby along with with bathwater .Analysing the outcomes with respect to the plan and the execution of the same and in comparison to the desired and targeted outcomes is essential to improve the efficiency and accuracy in the planning the future course of action and making forecasts based on the same .To throw in the towel on planning and forecasting ,based on the observed fact that there are limits and restrictions to the same is like interpreting the Uncertainty Principle (applicable to particles in the atomic and subatomic level ) as absence of any degree of certainty for the position and velocity (and hence momentum) of such a particle .The observed fact is the absence of cent percent certainty with regards to the parameters mentioned above and same is what that has been stated in the principle but in the vulgur popular conception the uncertainty principle is understood as lack of any degree of certainty (or total uncertainty)