महान शिक्षक को गुरुदक्षिणा
(भाग 1)
SFS की मेरी गतिविधियों के लिए मेरे आलोचक मेरे ऊपर छद्म-मार्क्सवादी होने का तथा नई पीढ़ी को गुमराह करने का आरोप लगाते हैं। मार्क्स ने समझाया था कि सिद्धांत पूर्वाग्रहों को बेनकाब तब करता है जब वह चीज़ों को उनके मूल से पकड़ता है, और मनुष्य के लिए तो मनुष्य ही मूल है। इसलिए मार्क्स के जन्मदिवस पर श्रद्धांजली के रूप में आत्मालोचना के जरिए स्वयं के पूर्वाग्रहों को साथियों के साथ साझा करना ही मेरी महान शिक्षक को गुरुदक्षिणा है।
1930 के दशक में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की गतिविधियां रोमांटिक युवाओं के लिए स्वराज के लिए आजादी की लड़ाई थी तो बर्तानवी सरकार की नजरों में वह देशद्रोह था। 1970 के दशक में रोमांटिक वामपंथी युवाओं के लिए नक्सलबाड़ी आंदोलन शोषण से आजादी की लड़ाई थी तो कॉंग्रेसी सरकार के लिए वह देशद्रोह था। और 2010 के दशक में रोमांटिक युवाओं के लिए धर्मनिरपेक्षता तथा अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष समाजवादी क्रांति का पर्याय है तो भाजपा सरकार के लिए वह आतंकवाद तथा देशद्रोह का पर्याय है। 1930 के दशक का नारा ‘इंक़लाब ज़िदाबाद’ था तो 1970 के दशक का नारा ‘तेरा नाम, मेरा नाम, वियतनाम’ होता था, और आज 2010 के दशक में नारा लगाया जा रहा है ‘ले के रहेंगे आजादी’।
रोहित वेमुला की आत्महत्या तथा अफ़ज़ल गुरु की बरसी के आधार पर पैदा किये उन्माद के साथ, जेएनयू ने निम्न मध्यवर्गीयों की नई पीढ़ी को कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद तथा शेहला रशीद के रूप में नये नायक दे दिये थे। मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ से महरूम नये नायकों ने ‘ले के रहेंगे आजादी’ और ‘जय भीम लाल सलाम’ के नारे गढ़ कर, मेहनतकश जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिए उत्पादक शक्तियों के विकास के मुद्दे को नेपथ्य में धकेल दिया और बुर्जुआजी को, अवाम के रोज़ी रोटी के मसले को दरकिनार करते हुए, राष्ट्रवाद के मुद्दे को बहस के केंद्र में लाने का अवसर दे दिया था। राष्ट्रवाद के उन्माद पर सवार होकर एनडीए ने दूसरी बार सरकार बनाने का जनादेश हासिल कर लिया। उन्माद तर्कबुद्धि को हर लेता है, जिसे अंग्रेज़ी में Amygdala Hijack कहते हैं, शुद्ध आधिकारिक हिंदी में ‘प्रमस्तिष्कखंड अपहरण’ कहते हैं।
नई सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में धारा 370 तथा 35-A हटाये जाने के विरोध में किये गये आंदोलनों के ठंडा पड़ने के बाद वामपंथियों को आंदोलन के लिए कोई बड़ा मुद्दा चाहिये था जो उनके पीछे चलने वाली युवा पीढ़ी को आवश्यक उत्तेजना प्रदान कर सके, क्योंकि भारतीय वामपंथ के लिए तो ‘आंदोलन ही सब कुछ है’। लेनिन ने बर्न्स्टाइन के इसी फिकरे को संशोधनवाद की मुख्य पहचान के रूप में रेखांकित किया था। और सरकार ने जेऐनयू में फीस में बढ़ोतरी कर भारतीय वामपंथ को वह मुद्दा थमा दिया जिसकी उसे इस समय सख़्त जरूरत थी। फिर क्या था न केवल जेऐनयू के विद्यार्थी बल्कि और अन्य संस्थानों के विद्यार्थी भी आंदोलन में शामिल हो गये। ‘औकुपाई वॉल स्ट्रीट’ तथा मिस्र के 2011 के आंदोलन की तर्ज़ पर ही, चार साल पहले, रोहित वेमुला की आत्महत्या तथा ‘ले के रहेंगे आजादी’ के नारे के साथ शुरू हुए, सिद्धांतहीन लक्ष्यविहीन आंदोलन ने, युवा पीढ़ी को बरसों से पनप रहे अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त मंच प्रदान कर दिया और इसीलिए संशोधनवादियों के अलावा अतिवामपंथी तथा दक्षिणपंथी समूह भी इससे जुड़ गये थे। इस आंदोलन से क्या जेऐनयू में कुछ बदलेगा और क्या यह आंदोलन भारतीय वामपंथी आंदोलन के लिये मील का पत्थर साबित होगा, इसको समझने के लिए जेऐनयू के इतिहास में जाना होगा।
‘क्योंकि मैं दलित नहीं हूं इसलिए दलितों की समस्या को नहीं समझ सकता हूं’, और ‘मैं मार्क्सवाद तथा वामपंथी आंदोलनों को नहीं समझ सकता हूं क्योंकि मैं बंद कमरों में बैठ कर मार्क्सवाद पर चर्चा करता रहता हूं जब कि मार्क्स ने कहा था कि दार्शनिकों ने अनेकों प्रकार से विश्व की व्याख्या की है, सवाल बदलने का है’, कहते हुए मेरे वामपंथी साथी मेरे हर विचार को सिरे से खारिज कर देते हैं। पर इस आधार पर उनकी आलोचना बेबुनियाद है क्योंकि मैं न केवल जेऐनयू की स्थापना के आरंभिक वर्षों में उससे जुड़ रहा हूं बल्कि उस समय के वामपंथी आंदोलनों में सक्रिय भागीदार भी रहा हूं।
पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण शैशवकाल से समाजवाद और सोवियत यूनियन, चीन तथा क्यूबा की क्रांतियों तथा प्रगति से अभिभूत था। मेरे पिता जी गणितज्ञ, दार्शनिक तथा वक़ील थे। बचपन से गणित तथा अंग्रेज़ी विषय उन्होंने ही मुझे पढ़ाये थे और वैचारिक विमर्श के लिए मुझे पूरा अवसर देते थे। कभी कभी पेचीदा मुक़दमों के उदाहरणों से समझाते थे कि पेचीदगियों को कैसे टुकड़ों में बांट कर आसानी से समझा जा सकता है। तर्क की कसौटी पर अच्छी तरह से परखे बिना किसी दावे को स्वीकार न करने की मानसिकता के विकास के लिए पिता जी ने पूरा अवसर दिया था।
मेरी रुचि गणित तथा भौतिक विज्ञान में थी और नाभिकीय भौतिकी के क्षेत्र में शोधकर्ता बनने की आकांक्षा थी पर परिवेश ने कब इंजीनियर बनने की ओर धकेल दिया पता ही नहीं चला। 1964 में जब मैंने आईआईटी दिल्ली में दाख़िला लिया तब अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और उसके साथ साथ भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन भी दो फाड़ हो चुका था। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सोवियत संघ तथा चीन के बीच चल रही महान सैद्धांतिक बहस के बीच कौन सही है तथा कौन गलत है ये तय कर पाने में, वामपंथी आंदोलनों के नायकों की तरह, मेरी अपरिपक्व बुद्धि भी नाकाम थी।
1965 में दिल्ली में रूसी भाषा अध्ययन केंद्र की स्थापना हुई थी। आईआईटी दिल्ली के परिसर में केंद्रीय विद्यालय के भवन में ही अस्थायी रूप से कक्षाओं की शुरूआत की गई थी तथा नये बन रहे कराकोरम छात्रावास के एक विंग में ही उसके छात्रों के रहने की व्यवस्था की गई थी। बग़ल में ही अरावली छात्रावास में मेरा कमरा था। रूसी अध्ययन केंद्र में अधिकांश छात्र दूर दराज़ के इलाक़ों से आये हुए थे उनमें से कई के साथ जल्दी ही दोस्ती हो गई थी। कुछ के साथ वैचारिक निकटता के कारण जल्दी ही घनिष्ठता भी हो गई थी।
अगले साल छात्रावास के पीछे बेरसराय के सामने सड़क पार नये परिसर, जो अब विदेश मंत्रालय परिसर है, में रूसी भाषा अध्ययन केंद्र तथा छात्रावास को स्थानांतरित कर दिया गया था। दोस्तों के कारण आना जाना बना रहा। एक साल के अंदर ही जेएनयू की स्थापना के लिए लोकसभा में बिल पास कर दिया गया था तथा 1969 में इसी परिसर से जेऐनयू की नींव रखी गई थी और रूसी भाषा केंद्र को जेऐनयू के विदेशी भाषा विभाग में समाहित कर दिया गया था। अगले दो तीन सालों में जेएनयू के अन्य स्कूलों की कक्षाएं भी यहीं शुरू हो गई थीं और आगे चल कर जेऐनयू के वामपंथी आंदोलन की नींव भी इसी परिसर में रखी गई थी।
आईआईटी परिसर में व्यापक निर्माण कार्य चल रहा था और निर्माण मजदूरों ने अपनी झुग्गी-बस्ती हमारे हॉस्टल के पीछे बेर सराय के इलाक़े में बना रखीं थीं। मैंने इन्हीं झुग्गियों के बीच मजदूरों को शाम में पढ़ाना शुरू कर दिया था। साक्षरता के साथ साथ गोर्की की माँ तथा शिववर्मा की संस्मृतियाँ भी पढ़ते थे और इसी के साथ पावेल तथा भगत सिंह की भांति क्रांतिकारी बनने का शेखचिल्ली सपना भी देखते थे। मैं हॉस्टल में रात में मेस के कर्मचारियों को भी साक्षर बनाने के लिए क्लास चलाता था। सड़क के साथ वाली झुग्गियों के बीच ही ढाबा भी बन गया था जहाँ जेऐनयू के छात्र छात्राओं की शामें गुज़रती थीं और सभी तरह की चर्चाएँ होती थीं। दोस्तों के कारण मेरा अस्थाई जेऐनयू परिसर में आना जाना बना रहा। यहीं प्रकाश करात,, सुनीत चोपड़ा तथा इंद्राणी मजूमदार, जो जेऐनयू में एसऐफआई के आधार स्तंभ बने और बाद में सीपीऐम के शीर्ष पर पहुँचे, से दोस्ती हुई थी।
वामपंथी वैज्ञानिक मानसिकता के कारण मेरा मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण स्वभाविक था तथा वामपंथी परिवेश के कारण जेऐनयू के परिसर में स्थित किताबों की दुकान में मार्क्सवादी साहित्य आसानी से मिल जाता था इस कारण इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम के साथ साथ मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन भी होता रहता था। अरुणा आसफ अली द्वारा चलाया जा रहा पैट्रियट, प्रगतिशील दैनिक समाचारपत्र माना जाता था और लिंक हाउस में ही कुछ युवाओं के साथ मिल कर हम ने पैट्रियट युवक मंच की स्थापना की थी जो कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी की मिलीजुली विचारधारा वाले वामपंथियों का ही जमावड़ा था।। वामपंथी पूर्वाग्रहों के कारण वामपंथ से जुड़ी हर चीज रोमांचित करती थी और अनजाने ही चेतना में घर कर लेती थी। हमारे लिए माओ के अलावा हो ची मिन्ह, फ़िदेल कास्त्रो, चे ग्वेवारा, यसीर अराफ़ात आदि क्रांति के प्रतीक चिन्ह थे। गोर्की की ‘मां’ के साथ साथ शिववर्मा की ‘संस्मृतियां’ भी बार बार पढ़ना रोमांचित करता था और शेखचिल्ली समाजवाद के सपनों के साथ आत्म तुष्टि करता था।
कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में थियेटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग में स्थित इंडियन कॉफ़ी हाउस प्रगतिशील कहे जाने वालों के लिए बहस का मुख्य अड्डा था। यहीं पर इंदिरा कॉंग्रेस के युवा तुर्कों के नाम से जाने जानेवाले चंद्रशेखर, शशिभूषण, चंद्रजीत यादव तथा मोहन धारिया से परिचय हुआ था। यहीं तेलंगाना के विद्रोह में सक्रिय भागीदारी करने वाले शायर चचा नियाज़ हैदर से मुलाक़ात हुई थी और जल्दी ही आत्मीयता हो गई थी। उन्हें रम पीने का शौक़ था और मुझे उनकी शायरी और तेलंगाना के संस्मरण सुनने की उत्सुकता।
1967-72 के पांच साल में घटनाचक्र इतनी तेजी से चला था कि अपनी वैचारिक यात्रा के विकास की प्रक्रिया को समझ पाना तथा नियंत्रण में रख पाना मेरी अपरिपक्व तर्क बुद्धि के लिए असंभव हो गया था। आईआईटी तथा जेएनयू के बुर्जुआ परिवेश में, व्यक्तिगत संपन्नता के लिए विज्ञान तथा तकनीकी की उपयोगिता की व्यावहारिक समझ, और समाजवाद के प्रति भावनात्मक लगाव के साथ सिद्धांतहीन आंदोलनों के प्रति आसक्ति, के आंतरिक अंतर्द्वंद्व को समझने में असमर्थ, अपनी वैचारिक विकास यात्रा के प्रति अनभिज्ञ, वामपंथी आंदोलन के संदर्भ में, मैं जहाँ था वहीं जड़वत खड़ा रह गया। इंजीनियरिंग के आख़िरी दो साल में सभी सहपाठी, या तो अमेरिका जाने के लिए योजनाएँ बनाने लगे थे और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ साथ जीआरई की तैयारी में जुट गये थे, या फिर कॉरपोरेट सेक्टर की कंपनियों के बारे में जानकारियाँ जुटाने में लग गये थे। पर अपनी मानसिकता के अनुरूप मैं अपने आप को ऐमटैक तथा पीएचडी करके आईआईटी में अध्यापक के रूप में देखने लगा था।
1969 में बी.टेक. पूरा करने के साथ ही एम.टेक. में दाख़िला हो गया था। अपनी रुचि के विषय के साथ इंजीनियरिंग की पढ़ाई सुचारू रूप से चल रही थी। रूसी भाषा में बी.ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरा एक मित्र रूसी भाषा केंद्र में ही डिप्लोमा की सांयकालीन कक्षा में पढ़ाने लगा था। उसके कहने से मैं अनाधिकृत रूप से उसकी कक्षा में रूसी भाषा भी पढ़ने लगा। आई.आई.टी. में तीसरे वर्ष में जर्मन भाषा का डिप्लोमा कर ही चुका था। सोचा लगे हाथ रूसी भाषा भी सीख लेते हैं। एम.टेक. में स्कॉलरशिप मिलता था इसलिए माँ-बाप पर आर्थिक बोझ कम हो गया था और कहने के लिए मैं अब पूरी तरह इंजीनियर भी बन गया था, इसलिए पिता जी ने मोटर साइकिल की मांग भी पूरी कर दी थी। मेरे लिए जावा मोटर साइकिल जरूरत से ज्यादा प्रतिष्ठा का प्रतीक थी। मेरी मोटरसाइकिल मेरे दोस्त अक्सर ही मांग कर ले जाते थे और मैं मना भी नहीं करता था। मोटर साइकिल होने के कारण कैंपस के बाहर की वामपंथी राजनीतिक गतिविधियाँ भी बढ़ गई थीं, पर एम.टेक. की पढ़ाई भी ठीक चल रही थी। गैस टर्बाइन पढ़ानेवाले मेरे प्रोफ़ेसर मेरी प्रगति से संतुष्ट थे। वे रेडियल फ्लो गैस टर्बाइन के बिल्कुल नये क्षेत्र में रिसर्च कर रहे थे और एम.टेक. के दूसरे वर्ष में प्रोजेक्ट वर्क के लिए उन्होंने मुझे रेडियल फ्लो गैस टर्बाइन पर काम करने की स्वीकृति दे दी। भविष्य में इसी क्षेत्र में पी.एचडी. कर के आई.आई.टी. में अध्यापन कार्य करने के प्रति मैं पूरी तरह आश्वस्त हो गया था।
यही वह दौर था जब रूस की कम्युनिस्ट पार्टी तथा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चली महान बहस के बाद अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन हो गया था। और इसके साथ ही , वैचारिक रूप से पूरी तरह भारतीय जन मानस से कटी हुई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी विभाजन हो गया था। अमेरिका को वियतनाम युद्ध में हार का मुँह देखना पड़ा था तथा, चीन को परमाणु शस्त्र संपन्न राष्ट्र स्वीकार करते हुए ताइवान के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में मान्यता प्रदान करनी पड़ी थी। यही वह दौर था जब इंडोनेशिया में सुकार्नो को अपदस्थ कर कम्युनिस्ट पार्टी के लाखों सदस्यों को क़त्ल कर दिया गया था और बोलीविया में चे ग्वेवारा की हत्या कर दी गई थी। यही वह दौर था जब इज़राइल ने फिलिस्तीनियों को वतन से बेवतन कर दिया था तथा फिलिस्तीनियों ने पीएलओ का गठन कर छापामार युद्ध की राह पकड़ ली थी।
हब्बास के नेतृत्व में पीएलओ का एक प्रतिनिधि मंडल फ़िलिस्तीन मुक्ति आंदोलन के लिए जनमत जुटाने हेतु भारत आया हुआ था। प्रतिनिधि मंडल में महिला गोरिल्ला जिआन हेलू भी थी। प्रतिनिधि मंडल के दिल्ली प्रवास के दौरान हर कार्यक्रम में शामिल होना मेरी वामपंथी गतिविधि में शामिल था। जिआन हेलू के जनपथ होटल के कमरे में मुक्ति आंदोलन के इतिहास और कार्यक्रमों पर घंटों चर्चा करने के बाद लगता था कि भारतीय वामपंथी आंदोलन को भी क्रांति की यही राह पकड़ना होगी।
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर मची उथल पुथल के बीच, अपने बर्चस्व को बचाये रखने के लिए सोवियत संघ ने चेकोस्लोवाकिया में उदारीकरण के लिए चलाये जा रहे आंदोलन को दबाने के लिए वॉरसा संधि की आड़ में सैन्य हस्तक्षेप कर दिया था। झांसी के हमारे पारिवारिक मित्र राजीव सक्सेना चेकोस्लोवाकिया दूतावास में प्रेस विभाग में कार्यरत थे। राजीव सक्सेना के साथ उनके सुंदर नगर के दफ़्तर में और प्रकाश करात के साथ उनके सप्रू हाउस के कमरे में, जहाँ वे स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के छात्र के रूप में रह रहे थे, सोवियत संघ के सैनिक हस्तक्षेप के औचित्य पर मेरी कई बार बहस हुई थी। स्वभाविक रूप से राजीव सक्सेना के लिए हस्तक्षेप संप्रभु राष्ट्र के ऊपर हमला था जब कि प्रकाश करात की नजरों में, अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के खिलाफ साम्राज्यवादी साज़िश को नाकाम करने के लिए हस्तक्षेप आवश्यक था। मुझे दोनों की दलीलें प्रभावित करती थीं तथा दोनों में दम नजर आता था और निर्णय करना मुश्किल था कि कौन सही है। इस तरह की बहसों के जरिए किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोई अहमियत नहीं थी पर उनमें भाग लेना किसी न किसी रूप में रोमांचित भी करता था और दंभ को तुष्ट भी करता था।
इसी समय चीन में भी सांस्कृतिक क्रांति के साथ ही संशोधनवादियों तथा अतिवामपंथियों के बीच सत्ता संघर्ष ने गृह युद्ध का रूप ले लिया था, और मौलिक चिंतन से महरूम भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भी नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम पर एक और विभाजन हो गया था। अनेक राज्यों में कांग्रेस की हार और मिली जुली सरकारें बनने के साथ ही कांग्रेस में भी विघटन हो गया था। राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पटल पर मची उथल पुथल के बीच, तीन हिस्सों में बंट चुका भारतीय वामपंथी आंदोलन पूरी तरह दिशा हीन था। शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर तक के कार्यकर्ता तक हर किसी के लिए आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी ही सब कुछ था, उद्देश्य कुछ भी नहीं।
रोमांचकारी नक्सलवादी आंदोलन ने जल्दी ही नई पीढ़ी की चेतना को अपने तिलस्म के मोहपाश में जकड़ लिया था। नक्सलवादी आंदोलन की आंधी अनेकों वामपंथी साथियों को उड़ा ले गई पर तार्किकता के प्रति मेरे पूर्वाग्रह ने मुझे तुलनात्मक रूप से जड़ बना दिया था। शायद गणित तथा विज्ञान की औपचारिक शिक्षा के दौरान विकसित हुई मानसिकता, कि किसी प्रश्न के सभी आयामों के आपसी संबंधों को तथा उनको नियंत्रित करने वाले नियमों को ठीक ठीक समझे बिना प्रश्न को हल करने की हिमाक़त न करना, ही थी जिसके कारण सभी गुटों में साथियों के होने के बावजूद मैं किसी भी राजनीतिक संगठन का सदस्य न बन पाया। पर आंदोलनों में शामिल होना तथा उद्देश्यहीन बहसों में भाग लेना उत्तेजित तथा तुष्ट करता था इसलिए सभी प्रकार के आंदोलनों में निरंतर भागीदारी बनी रही। व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह ही क्रांति का पर्याय होता था। बीटल गायकों की तरह वेश-भूषा धारण करना तथा चे ग्वेवारा की फ़ोटो वाली टी शर्ट पहनना परंपरा के खिलाफ विद्रोह का तथा क्रांतिकारी होने का द्योतक होता था।
1965 के भारत-पाक युद्ध के तुरंत बाद लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया था तथा गिरती अर्थव्यवस्था और कांग्रेस की अंतर्कलह के कारण 1967 के आमचुनावों में कांग्रेस को छह राज्यों में हार का मुँह देखना पड़ा था और वह बमुश्किल केंद्र में नाममात्र के बहुमत के साथ सरकार बना पाई थी। पुरानी और नई पीढ़ी के बीच नेतृत्व की लड़ाई में इंदिरा गांधी के खेमे की बागडोर युवा तुर्कों ने संभाल रखी जिनके साथ मेरे नज़दीकी संपर्क थे। 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके तथा कांग्रेस के आधिकारिक राष्ट्रपति उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ, वामपंथियों की मदद से वीवी गिरि को जितवा कर इंदिरा गांधी ने सरकार पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी पर इसके साथ ही कांग्रेस की अंतर्कलह चरम पर पहुँच गई थी और कांग्रेस में औपचारिक विभाजन हो गया। कृषि, छोटे उद्योगों तथा व्यापारियों को आसान बैंक ऋण व अन्य सुविधाएँ देकर और रियासतों के प्रिवी पर्स समाप्त कर इंदिरा गांधी ने जनता के बीच अपनी छवि जनहितकारी नेता के रूप में स्थापित कर ली थी। चौथी लोकसभा के कार्यकाल का एक साल बाकी रहते, 1971 के मार्च में मध्यावधि चुनाव करवा कर, ग़रीबी हटाओ के नारे के साथ कांग्रेस(इ) ने दो तिहाई बहुमत हासिल कर के, भारत में समाजवाद के निर्माण का ठेका अपने नाम कर लिया था और वामपंथी पार्टियां एक बार फिर भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों का सही विश्लेषण करने में नाकाम रही थीं और पहलकदमी का अवसर गँवा कर समय के साथ अप्रासंगिक हो गई थीं।
सोवियत संघ के साथ नज़दीकी बढ़ा कर कांग्रेस ने वामपंथ को कमजोर करने के लिए, नक्सलपंथियों के दमन के साथ साथ, भाकपा तथा माकपा के अंदर उग्र वामपंथियों को भी ठिकाने लगाना शुरू कर दिया था। मेरे एक रिश्तेदार जो रॉ में काम करते थे, ने एक दिन मुझे आगाह किया कि मेरी मोटर साइकिल रॉ के सर्विलेंस पर है क्योंकि वह कई बार चीन के तथा नॉर्थ कोरिया के दूतावासों के बाहर देखी गई और कि मैं अपने वामपंथी साथियों और अपनी वामपंथी गतिविधियों के बारे में सतर्क रहूँ। 1969 की उथल-पुथल के बीच आईआईटी में भी उग्र वामपंथ ने पैर पसारना शुरू कर दिये थे। 1970-71 के सत्र के दौरान पहले और दूसरे वर्ष के कुछ छात्र डायरेक्टर के ऑफ़िस के सामने भूख हड़ताल पर भी बैठे थे जिनमें से कुछ, कैंपस के बाहर के एआरएसडी कालेज, हिंदू कालेज तथा सेंट स्टीफ़ेन कालेज के नक्सलवादी छात्रों संपर्क में भी थे। मैं सभी के संपर्क में था लेकिन आंदोलन के उनके तौर तरीक़ों से सहमत नहीं था। आईआईटी के डायरेक्टर प्रो. आर. एन. डोगरा एक कुशल कठोर प्रशासक थे तथा इंदिरा गांधी के बहुत क़रीबियों में से थे। 1971 के चुनाव के बाद के बदले परिवेश में उन्होंने उन छात्रों को जो भूख हड़ताल के साथ अतिवामपंथियों के रूप में चिन्हित कर दिये गये थे, को आई. आई. टी. से निष्काषित करने में ज़रा भी देर नहीं की।
अप्रैल के अंत तक ऐम.टेक. की लिखित परीक्षाएँ समाप्त हो गई थीं पर मेरा प्रोजेक्ट का काम पूरा नहीं हुआ था। मैंने अपने प्रोफेसर से पी.एचडी. के रजिस्ट्रेशन के लिए बात की हुई थी इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने मेरे प्रोजेक्ट में ही कुछ और चीज़ें जोड़ दी थीं। इसलिए मेरा ऐमटेक का रिजल्ट डिले हो गया था। जुलाई में स्कॉलरशिप के लिए CSIR को आवेदन करने पर भी दिसंबर तक ही रजिस्ट्रेशन की उम्मीद की जा सकती थी। पी.एचडी. के रजिस्ट्रेशन के इंतज़ार के बीच सोचा जर्मन तथा रूसी भाषा के अलावा स्पेनिश भाषा भी सीख ली जाये, सो जे.एन.यू. के विदेशी भाषा स्कूल में स्पेनिश भाषा में दाख़िला ले लिया और आधिकारिक तौर पर जे.एन.यू. का विद्यार्थी भी बन गया।
सुरेश श्रीवास्तव
5 मई, 2020
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