Thursday, 26 September 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ मार्क्सवाद को समझने में नाकाम क्यों हैं?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ मार्क्सवाद को समझने में नाकाम क्यों हैं?
मार्क्स की मृत्यु के बाद किसी ने एंगेल्स से पूछा, "आप मार्क्सवादी किसे कहेंगे?" एंगेल्स ने उत्तर दिया, "मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके। मार्क्सवादी वह है जो हर परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता।" एंगेल्स द्वारा दी गई मार्क्सवादी की परिभाषा को पूरी तरह समझने के लिए यह समझना पड़ेगा कि वह क्या 'तरीका' है जो मार्क्स अपने सोचने में अपनाते थे, और कि दो व्यक्ति, अपनी मानसिकता के अनुरूप किसी एक परिस्थिति में एक ही तरह सोच सकते हैं पर किसी दूसरी परिस्थिति में भिन्न-भिन्न तरीक़े से सोच सकते हैं। किसी व्यक्ति की मानसिकता उसकी विचार प्रक्रिया के ऐतिहासिक विकास का परिणाम होती है, और निरंतर परिवर्तनशील है। इस प्रकार एक व्यक्ति किसी एक समय पर मार्क्सवादी हो सकता है और किसी और समय पर मार्क्सवादी नहीं भी हो सकता है। इसलिए कोई भी मार्क्सवादी अपने व्यक्तित्व के कारण नहीं होता है, बल्कि किसी एक समय पर किसी एक परिस्थिति में अपनी सोच के कारण होता है। ऐंटी ड्यूहरिंग की अपनी प्रस्तावना में एंगेल्स ने लिखा था, ‘लेकिन सैद्धांतिक चिंतन एक जन्मजात गुण है केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित तथा परिष्कृत किया जाना चाहिए, और इसमें सुधार का अभी तक और कोई तरीक़ा नहीं है सिवाय इसके कि पिछले दर्शन को पढ़ा जाय।
क्योंकि लोग मार्क्सवाद के दार्शनिक आधार को नहीं समझते हैं इस कारण किसी और के कुछ विचारों के आधार पर उसके मार्क्सवादी होने के दावे को स्वीकार कर लेते हैं, और फिर जब व्यक्ति की पहचान मार्क्सवादी के रूप में हो जाती है तो लोग उसके सभी विचारों को सतही तौर पर मार्क्सवाद के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तथा उसके विचारों की अंतर्वस्तु में निहित अंतर्विरोध को पहचानने में नाकामयाब रहते हैं। जब ऐसा व्यक्ति ओहदे पर होता है और लोगों के भौतिक जीवन को प्रभावित करने की स्थिति में होता है, तो वह गैर-मार्क्सवाद को मार्क्सवाद समझने वाले पिछलग्गुओं की एक दब्बू जमात खड़ी कर लेता है।
यहाँ उठाये गये प्रश्न का सही उत्तर पाने के लिए, हमें पूरी तरह समझना होगा कि 'सोचने का मार्क्सवादी तरीक़ा' क्या है और लोगों का नज़रिया ऐसा कैसे बन जाता है कि वे मार्क्सवाद को पूरी तरह समझने में नाकाम रहते हैं।
मानवीय मस्तिष्क की सोचने की प्रक्रिया दो प्रकार की सूचनाओं का प्रक्रम करना है, एक तो इन्द्रियों से प्राप्त सूचना और दूसरी पुराने प्रक्रम के फलस्वरूप ज्ञान के रूप में पहले से मस्तिष्क में जमा सूचना। प्रक्रम भी दो स्तरों पर होता है - ऐच्छिक या साभिप्राय  तथा स्वतः या अनभिज्ञ। मस्तिष्क में पहले से जमा सूचना तय करती है कि नई सूचना का प्रक्रम और भंडारण किस प्रकार होगा। प्राकृतिक रूप से प्रक्रम के बाद नई सूचना जमा सूचना का ही हिस्सा बन जाती और भविष्य में बाद में आने वाली सूचना के प्रक्रम में भूमिका निभाती है। यह एक अनवरत प्रक्रिया है जो मानवीय मस्तिष्क के जन्म से लेकर मस्तिष्क का जीवन समाप्त होने तक चलती रहती है।
शुरुआत में पहले से जमा कोई भी सूचना नहीं होती है और कुछ वर्षों तक प्रक्रम केवल अनभिज्ञ स्तर पर ही होता है, एक स्वतः प्रवृत्त प्रक्रिया जो न सिर्फ़ जैविक है बल्कि सामाजिक भी है क्योंकि मस्तिष्क निरंतर उस सामाजिक परिवेश से सूचना पा रहा होता है जिसमें व्यक्ति पल और बढ़ रहा होता है। कालांतर में जैसे ही मस्तिष्क का स्नायु तंत्र विकसित होता है सूचना का प्रक्रम ऐच्छिक स्तर पर भी काम करने लगता है और व्यक्ति अपने विचारों तथा धारणाओं का संज्ञान लेने लगता है। अब सूचना के ऐच्छिक प्रक्रम के बीच में आ जाने के कारण अभी तक की सीधी-सादी चिंतन प्रक्रिया अधिक क्लिष्ट हो जाती है, और चिंतन प्रक्रिया केवल एक साभिप्राय दृग्विषय (जैसा कि आम तौर पर लोग सोचते हैं) नहीं रह जाता है बल्कि साभिप्राय तथा स्वतः दृग्विषयों का संयोजन हो जाता है।
आगत तथा पहले से मौजूद सूचनाओं की प्राप्ति, छँटनी तथा प्रक्रम अनभिज्ञ स्तर पर होना ही दिमाग़ की आदत या व्यक्ति की मानसिकता होती है। सोद्देश्य ऐच्छिक प्रयास की ग़ैरमौजूदगी में मानसिकता ही चिंतन प्रक्रिया तय करती है और यही व्यक्ति की मानसिकता की जड़ता का कारण होता है। केवल व्यक्ति स्वयं का सोद्देश्य ऐच्छिक प्रयास ही इस जड़ता से पार पाकर उसकी मानसिकता में बदलाव ला सकता है।
जीवन के साधनों के व्यक्तिगत तथा सामूहिक उत्पादन के द्वारा अपने जीवन की निरंतरता, और प्रजनन तथा सामाजिक परवरिश की मिली-जुली प्रक्रिया के द्वारा अपनी प्रजाति की निरंतरता, के सहजबोध से उपजे लोगों के जुड़ाव से निर्मित, मानव समाज एक 'सामाजिक-आर्थिक संरचना है। चेतना से लैस मानवों, जो कि भौतिक रूप से नहीं वैचारिक रूप से जुड़े होते हैं, से गठित मानव समाज एक जैविक संरचना है जो केवल चेतना है, एक वैचारिक स्वरूप अपने स्वयं के भौतिक स्वरूप के बिना। (आम तौर पर सैद्धांतिक चिंतन में नाकाबिल होने के कारण लोग यह समझने में नाकाम रहते हैं कि चेतना इस जैविक संरचना की अंतर्वस्तु है और लोगों का समूह केवल उसकी अधिरचना है। यह जैविक संरचना भौतिक नहीं है, वैचारिक संरचना है।) मानवीय चेतना के अवचेतन तथा चेतन पहलुओं की भाँति ही सामाजिक-चेतना के भी दो पहलू होते हैं, भौतिक-सामाजिक-चेतना तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना।
मानवीय-चेतना तथा सामाजिक-चेतना एक दूसरे का पूरकीकरण (complementing) करते हुए निरंतर एक दूसरे के ज्ञान को विकसित तथा समृद्ध करते रहते हैं। अनवरत बढ़ता ज्ञान निरंतर उत्पादक शक्तियों में इज़ाफ़ा करता रहता है और बढ़ी हुई उत्पादकता के साथ व्यक्तिगत माँगें भी द्विगुणित (multiply) होती जाती हैं, शारीरिक तथा वैचारिक दोनों स्तरों पर। पर इन माँगों का आधार भौतिक परिस्थितियाँ ही होता है, सामाजिक भी उतनी ही जितनी कि व्यक्तिगत। ऐतिहासिक कारणों से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की भौतिक परिस्थितियां अलग-अलग हो जाती हैं और इसीलिए माँगें भी। इन माँगों की पूर्ति के लिए साधन जुटाने के प्रयास में लोग अपने आप को गुटों तथा समूहों के रूप में चाहे-अनचाहे संगठित करना शुरु कर देते हैं। वृहत्तर समाज के अंदर ही ये समूह भी जैविक संरचना ही हैं। यहाँ भी साझा उद्देश्य हासिल करने का विचार ही समूह या संगठन की चेतना का आधार होता है और सभी चेतन ऐच्छिक प्रयास इसी साझा उद्देश्य को हासिल करने के लिए होते हैं।
कोई भी व्यक्ति जाने-अनजाने अनेकों समूहों तथा संगठनों का हिस्सा होता है जिनमें अनेकों के परस्पर विरोधी हित हो सकते हैं। एक व्यक्ति ऐच्छिक रूप से अलग-अलग समय पर अलग-अलग कार्य चुन सकता है, पर अपने किसी भी कार्य के बावजूद अवचेतन स्तर पर वह संगठन का हिस्सा बना रहता है जो मूलभूत साझा उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यरत रहता है। इस रूप में संगठन किसी भी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहते हैं, नेताओं पर भी नहीं जैसा कि आम तौर पर विश्वास किया जाता है। संगठन अपनी ज़रूरतों के अनुसार अपने नेता स्वयं पैदा करते हैं, चुनते हैं और ख़ारिज करते हैं।
समाज की उत्पादकता बढ़ने के साथ लोग उससे अधिक पैदा करने लगे जितना कि उनकी जरूरतें पूरा करने के लिए चाहिए था। दूसरे शब्दों में वे अतिरिक्त उत्पादन करने लगे। अतिरिक्त उत्पादन के साथ, सामूहिक उत्पादन की प्रक्रिया और अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उत्पाद के आपस में बँटवारे में, लोगों के परस्पर विरोधी हित पैदा हो गये। एक था अपने लगाये हुए श्रम के अनुसार हिस्सा प्राप्त करना और दूसरा था औरों के द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त उत्पाद को हड़पना। लोगों के व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व से संबंधित होने के कारण ये परस्पर विरोधी हित, व्यक्ति की चेतना को चेतन स्तर की तुलना में अवचेतन स्तर पर कहीं अधिक प्रभावित करते हैं। इन परस्पर विरोधी हितों ने समाज को दो वर्गों में बाँट दिया है, एक कामगारों का वर्ग, उत्पादन के लिए श्रम मुहैया कराने वाला, और दूसरा परजीवियों का वर्ग, अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने वाला। दो परस्पर विरोधी भौतिक-सामाजिक चेतना के आधार पर दोनों वर्ग विचारों तथा तिलस्मों की अपनी-अपनी वैचारिक-सामाजिक-चेतनाएँ  विकसित कर लेते हैं जो उनके वर्ग हितों से असंबद्ध नज़र आती हैं। अलग-अलग उत्पादन के तरीक़ों की वजह से दोनों वर्ग अनेकों अलग-अलग समुच्चयों तथा समूहों में बंट जाते हैं। इन अलग-अलग समुच्चयों तथा समूहों की वैचारिक-सामाजिक-चेतनाओं में फर्क नज़र आ सकता है पर उनका आधार हमेशा ही दो वर्गों में से किसी एक वर्ग की भौतिक-सामाजिक-चेतना ही होता है। भौतिक उत्पादन में परस्पर विरोधी हितों के कारण, दोनों वर्गों की गतिविधियाँ वर्ग संघर्ष का रूप ले लेती हैं। एंगेल्स ने लिखा था, "इस समाज ने अपने आप को न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोधों में उलझा दिया है और असंगत अंतर्विरोधों के बीच दो फाड़ हो गया है जिन पर पार पाने में वह असमर्थ है। पर कहीं ये अंतर्विरोध, विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्ग अपने आप को तथा समाज को एक निष्कर्षहीन संघर्ष में न झोंक दें, संघर्ष को हल्का करने और 'व्यवस्थित' रखने के लिए एक ऐसी शक्ति आवश्यक हो गई जो समाज से ऊपर नज़र आए, और समाज में से उभरी लेकिन अपने आप को समाज के ऊपर स्थापित करती और निरंतर अपने आपको समाज से बेगाना करती हुई, यह शक्ति ही 'राज्य' है। इस तरह राज्य अस्तित्व में आया। समय के साथ, न्यायिक की भूमिका निभाते निभाते राज्य, सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था बन कर उभरा है, और वर्गसंघर्ष में राज्य पर नियंत्रण करना सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य बन गया है।
मध्यकाल में परजीवियों (मध्य वर्ग) की आर्थिक गतिविधि उत्पादों का व्यापार करने तक सीमित थी, लेकिन उत्पादक शक्तियों के आगे विकास के साथ, इस वर्ग ने उत्पादन के साधनों को भी हासिल करना और उत्पादन बड़े स्तर पर करना शुरु कर दिया। हस्तशिल्पियों का छोटे स्तर का उत्पादन बुर्जुआ वर्ग के बड़े स्तर के उत्पादन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता था और हस्तशिल्पियों को जीवित रहने के लिये अंततः अपने उत्पादन के औज़ारों को बेचना पड़ा। इसने हस्तशिल्पियों को उत्पादन तथा जीविका के साधनों से महरूम कर दिया और उनके पास बची थी केवल उनकी श्रम शक्ति जो उत्पाद की तरह बेची जा सकती थी। यह मानवजाति के इतिहास में एक गुणात्मक परिवर्तन था जिसने दो नये वर्गों को जन्म दिया, पूँजीपति और सर्वहारा।
श्रमशक्ति की ख़रीद के ज़रिए अतिरिक्त उत्पाद को हथियाने में रुचि रखने के कारण पूँजीपति वर्ग ने अपनी भौतिक तथा वैचारिक चेतना विकसित की, सच्चाई को मिथकों का जामा पहनाने के लिए,- 'क़ानून के सामने सब की बराबरी' सबसे प्रमुख मिथक।
सर्वहारा अपनी भौतिक परिस्थितियों के कारण इस सच को समझ जाता है कि समाज का भौतिक जीवन केवल सामूहिक मानवीय श्रम के द्वारा ही पैदा होता है और एक नई भौतिक-सामाजिक-चेतना पैदा होती है - सभी मिथकों के बिना सत्य को देखने की, 'वैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण'।
दोनों परस्पर विरोधी वर्गों के वर्ण-संकर के रूप में और उनके बीच प्रतिरोधक की स्थिति में निम्न-मध्य वर्ग अपनी भौतिक-सामाजिक-चेतना के साथ एक लंबे समय तक अस्तित्व में बना रहता है। निरंतर विस्तृत होती पूँजी अनेकों निम्न-मध्य वर्गीयों को सर्वहारा की पाँतों में धकेलती रहती है। इस वर्ग के लोग निरंतर पूँजीपति या सर्वहारा वर्गों में छितराते रहते हैं और दोनों वर्गों की संकर वैचारिक-सामाजिक-चेतना, 'काल्पनिक समाजवाद' के वाहक होते हैं।
  मार्क्स का अवतरण तब हुआ जब पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था और सारी उत्पादन व्यवस्थाओं के ऊपर हावी हो चुकी थी, पूंजी राज्य की सीमाएँ लाँघ रही थी तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी का रूप ग्रहण कर रही थी और पूँजीवाद साम्राज्यवाद के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच रहा था। निम्न-मध्यवर्गीय-चेतना में पगे हुए मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, मानवजाति के क्लेशों के कारणों को समझने तथा उनसे निजात पाने के रास्तों की तलाश में दर्शन तथा राजनैतिक-अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में विचारों को खंगाल कर नये-नये विचारों को प्रस्तुत कर रहे थे। दर्शन की अपनी वैज्ञानिक समझ के कारण मार्क्स प्रकृति के द्वंद्वों को सही-सही पहचान सके और मानव समाज रूपी सामाजिक-आर्थिक-संरचना की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना की सही समझ ग्रहण कर सके। उन्होंने सर्वहारा वर्ग की भौतिक तथा वैचारिक सामाजिक-चेतना का सारांश 'वैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण' के रूप में निकाला और लिपिबद्ध किया। मार्क्स सर्वहारा वर्ग की इस चेतना को 'मार्कसवाद' का नाम दिये जाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे और 30 सालों तक विरोध करते रहे पर अंततः 1872 में इंटरनेशनल की हेग कांग्रेस से पहले उसे 'मार्क्सवाद' नाम दिये जाने पर सहमत हो गये।
पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था में वयस्क मताधिकार आधारित जनवादी-जनतंत्र राजसत्ता का उच्चतम स्वरूप बन कर उभरा है क्योंकि यह इस मिथक, कि सभी बराबर हैं, को सर्वमान्य बनाता है। लोकसभा के नियंत्रण के जरिए राजसत्ता पर नियंत्रण पाने के लिए अनेकों समूह अपने आप को राजनैतिक पार्टियों के रूप में गठित करते हैं।
किसी राजनैतिक पार्टी के गठन तथा कार्यप्रणाली के सही विश्लेषण तथा समझ के लिए इस संरचना की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना को ठीक-ठीक समझना होगा। यह आवश्यक है कि संरचना को व्यक्तियों के भौतिक जमावड़े के रूप में न देखा जाय, बल्कि सामाजिक-संरचना, एक चेतना जो उसके सदस्यों के चेतन तथा अवचेतन दिमागों में बसती है, के रूप में देखा जाय।। वह एक संगठन है जो उसके सदस्यों, जो राजनैतिक संस्थानों पर क़ब्ज़ा कर शासनतंत्र पर नियंत्रण हासिल करने के साझा उद्देश्य से बँधे होते हैं, के सजग प्रयास द्वारा गठित किया जाता है। क्योंकि सदस्य व्यक्ति होते हैं जिनकी चेतना चेतन और अवचेतन दोनों स्तरों पर काम करती है, इस कारण संगठन की चेतना भी दो स्तरों पर कार्यरत होती है। सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के अपने प्रयास में सदस्य अपनी रणनीति उस विचारधारा के अनुसार बनाते हैं जिसमें वे विश्वास करते हैं। क्योंकि विश्वास सदस्य के अवचेतन स्तर पर सक्रिय होता है, इस कारण विचारधारा संगठन की चेतना के अवचेतन भाग या अंतर्वस्तु का निर्माण करती है, और सभी सायश प्रयास संगठन की चेतना के चेतन भाग या अधिरचना का निर्माण करते हैं।
पूँजीपति वर्ग का हित पूँजी तथा मजूरी-श्रम के बीच उत्पादन संबंधों की निरंतरता में होता है और वह बाज़ार-अर्थव्यवस्था में किसी भी प्रकार की दख़लंदाज़ी नहीं चाहता है। इसलिए पूँजीपतियों की राजनैतिक पार्टियों की मार्गदर्शक विचारधारा है मुक्त व्यापार और अपनी कार्यप्रणाली वे संपूर्ण आज़ादी की नीति का अनुकरण करते हैं। निम्न-मध्यवर्गीय अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण एक साथ ही समाजवादी भी होता है और अर्थवादी भी। इसी लिए निम्न-मध्यवर्गीय पार्टियाँ 'काल्पनिक समाजवाद' स्थापित करना चाहती हैं और हितकारी राज्य की अवधारणा 'गरीबों की सहायता करने के लिए अमीरों से कर वसूलना, उत्पादन संबंधों को बदले बिना' उनका मार्गदर्शन करती है। अपनी निम्न-मध्यवर्गीय विचारधारा के अनुरूप उनकी पार्टियाँ अपनी कार्यप्रणाली में नियंत्रित आज़ादी, दूसरे शब्दों में आज़ादी नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप, की नीति का अनुसरण करती हैं
सर्वहारा वर्ग की रुचि अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण, उत्पादन संबंधों को बदल कर वैज्ञानिक समाजवाद के रास्ते से वर्गहीन समाज बनाने में होती है। इसलिए सर्वहारा की पार्टी का मार्ग दर्शक सिद्धांत है मार्क्सवाद और अपनी कार्य प्रणाली में सर्वहारा की पार्टी को स्पष्ट विचार और विचार तथा व्यवहार में पूर्ण समन्वय के साथ एक संरचना की तरह व्यवहार करना चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक संरचना है जिसके सदस्य शासनतंत्र पर नियंत्रण करने, ताकि भौतिक परिस्थितियां पैदा की जा सकें जो एक वर्ग विहीन समाज की ओर ले जायें, के सामूहिक उद्देश्य से बँधे होते हैं। मार्क्सवादी अवधारणाओं के अनुसार एक कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग के संघर्ष में उसका हरावल दस्ता समझी जाती है, और उसे मज़दूर वर्ग की जागरूकता विकसित करने तथा उनके संघर्ष में उनकी सफलता के लिए निरंतर आंदोलन चलाना चाहिए।
अपने उद्देश्य तथा भूमिका के अनुरूप फ़ीडबैक हासिल करने के लिए, रणनीति बनाने के लिए और जन-आंदोलनों का संचालन करने के लिए, कम्युनिस्ट पार्टी को कामगारों की पाँतों और व्यापक समाज के साथ जीवंत रूप से अंतर्व्यवहार करना चाहिए। अपने वर्ग-संघर्ष में शत्रुतापूर्ण वातावरण के कारण यह अत्यंत आवश्यक है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य पूरे तारतम्य और एकजुटता के साथ सोचें और कार्य करें। यह तभी संभव है जब सदस्यों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो और उनका पथप्रदर्शक हो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा अर्थात मार्क्सवाद। लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी का गठन करते समय मार्क्सवाद के पुख़्ता ज्ञान तथा समझ के आधार पर 'जनवादी केंद्रीयता' की नीति और रीति विकसित की जिसमें पार्टी के सदस्य मार्क्सवादी विचारधारा से अच्छी तरह परिचित होते हैं, पार्टी के अंदर अधिकार तथा कर्त्तव्य के केंद्र समन्वित होते हैं और विभिन्न केंद्रों के बीच संबंध जनवादी होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण न होने पर न तो नीति निर्धारण और अधिकार वितरण में जनवाद हो सकता है और न ही सदस्यों में आत्मानुशासन।
भारत में 1857 के विद्रोह के कुचल दिये जाने के बाद, पूरे 50 साल तक कोई हलचल नहीं थी, और बीसवीं सदी के आरंभ में अंग्रेज़ी राज से छुटकारा पाने की ज़रूरत ने भारतीय नौजवानों की कल्पना में घर करना शुरु कर दिया था। भारत में औद्योगिक विकास तथा पूँजीवाद शैशवकाल में थे। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वर्चस्व तथा उसका नियंत्रण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के हाथ में था। भारत में यह वह काल था जब निम्न मध्य वर्गीय युवा, काल्पनिक समाजवाद से रुमानी तौर पर प्रभावित और विश्व भर के राष्ट्रीय क्रांतिकारी शहीदों की कहानियों से  अभिभूत, अपने आप को मजलूमों के मसीहा और मुक्तिदाता के रूप में देख रहा था।
प्रथम विश्व युद्ध तक भारतीय बुर्जुआ बुद्धिजीवी यूरोप तथा अमेरिका के अनेकों आंदोलनों से प्रेरित थे, और शुरु में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में, भारतीय समाज की द्वंद्वात्मक समझ के बिना, व्यक्तित्व पूजा से उपजीं, दो मुख्य धाराएँ थीं। एक प्रेरित थी अब्राहम लिंकन और प्रजातंत्र की अवधारणा से और राज के साथ शांतिपूर्ण समझौते की नीति का अनुकरण करती थी। दूसरी गैरीबाल्डी और मेजिनी जैसे राष्ट्रवादियों से प्रभावित थी और नये राष्ट्र राज्य की किसी भी अवधारणा के बिना राज को हिंसक तरीक़े से उखाड़ फेंकने में विश्वास करते थे।
प्रूधों की पुस्तक 'दरिद्रता का दर्शन' के ऊपर टिप्पणी करते हुए पी अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र, में मार्क्स ने रेखांकित किया था कि, 'एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर अर्थवादी, दूसरे शब्दों में वह उच्च मध्य वर्ग की संपन्नता से चुंधियाया होता है और विपन्नों के दुखों से द्रवित होता है।' ' वह एक ही समय पर सरमायेदार और आमजन दोनों होता है।'
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।'
प्रथम विश्व युद्ध के बाद रूस में समाजवादी क्रांति की सफलता के साथ, निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने आदर्श के रूप में सोवियत यूनियन की ओर देखना शुरू कर दिया था जैसा कि भगत सिंह के लेखन से स्पष्ट है, और काल्पनिक समाजवाद के विचार, जैसा कि 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोशिएशन' का नाम बदल कर 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपबब्लिकन आर्मी' करने से ज़ाहिर है, के साथ एक तीसरी धारा भी उभरने लगी थी। अक्टूबर क्रांति की सफलता से अभिभूत और काल्पनिक समाजवाद से रोमांचित, मध्यवर्गीय कुछ बुद्धिजीवियों के समूह ने अंग्रेज़ी राज्य को उखाड़ने और भारत में सोवियत क्रांति करने के उद्देश्य से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखने का फ़ैसला किया और 1920 में  ताशकंद में अपने आप को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में (CPM के अनुसार) गठित किया। CPI का दावा है कि 1925 के कानपुर सम्मेलन से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव पड़ी। इन बुद्धिजीवियों की मानसिकता का सही चित्रण मार्क्स तथा लेनिन के अवलोकन से, तथा पुष्टि भगत सिंह की अपनी शहादत से ठीक पहले की गई स्वीकारोक्ति ('उस समय तक मैं केवल एक रूमानी भाववादी क्रांतिकारी था' और 'मैंने अॅनार्किस्ट नेता बाकुनिन का अध्ययन किया था, कुछ थोड़ा कम्युनिज्म के प्रणेता मार्क्स का पढ़ा था') से होता है। इन मध्यम वर्गीय बुद्धीजीवियों ने मार्क्सवादी सिद्धांत की सतही या नगण्य समझ के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया था और इस कारण जीवन के अंतिम दौर में उनमें से अधिकांश मार्क्सवाद से भटक गये।
यह समूह उन सदस्यों से बना था जो काल्पनिक समाजवाद की स्थापना के लिए राजसत्ता हासिल करने के मक़सद से एकजुट हुए थे और जिनका मार्ग दर्शन उनकी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता करती थी। दुर्भाग्यवश दुनिया भर में कम्युनिस्ट आंदोलन में हमेशा ही संशोधनवाद व्याप्त रहा है और दूसरे विश्वयुद्ध के छह सालों ने संशोधनवाद को पनपने तथा जड़ पकड़ने के लिए पर्याप्त आधार और समय प्रदान किया। CPI भी अपनी संशोधनवादी समझ को सही मार्क्सवादी सिद्धांत होने के दावे के साथ बेझिझक कामगारों और किसानों को संगठित करने में लगी रही। उस गलत समझ को ठीक करने के किसी भी चेतन प्रयास के अभाव में, संशोधनवाद अधिक से अधिक पुख़्ता तौर पर पाँतों-क़तारों की चेतना में घर कर गया, जिससे, निम्न मध्यवर्गीय चेतना के पूरी तरह अनुरूप, व्यक्ति-पूजा को बढ़ावा मिला।
साठ के दशक में अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन के बाद, तथा नेहरूवादी समाजवाद के साथ, CPI को आंतरिक तथा बाहरी दोनों माहौल ऐसे मिल गये जो उसकी निम्न मध्यवर्गीय चेतना और व्यक्ति पूजा की निरंतरता के लिए उपयुक्त थे। साठ के दशक में और उसके बाद CPI तथा कम्युनिस्ट आंदोलन में अनेकों विभाजन हुए, लेकिन सभी केवल अहं तथा नेतृत्त्व के लोगों के आपसी मनमुटाव के कारण हुए न कि सैद्धांतिक मतभेदों के कारण और इसी कारण वे 50 साल बाद भी अपने मतभेदों को दूर नहीं कर पाये हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि दो मुख्य गुट, CPI तथा CPM राजनैतिक ताक़त के लिए लड़ाई तथा सभी संघर्ष वाममोर्चे के तौर पर एक साथ करते आ रहे हैं पर वे एक पार्टी के तौर नहीं जुटना चाहते हैं।
बिलकुल शुरु से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्त्व मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के हाथ में रहा है जिनकी मार्क्सवाद की समझ में दार्शनिक अवयव पूरी तरह नदारद था। दावों के विपरीत पार्टी की सैद्धांतिक समझ मध्य वर्गीय चेतना पर आधारित है और आचरण सिद्धांतहीन कार्यशीलता पर। चाहे मज़दूर वर्ग के आंदोलनों को चलाने में हो या पार्टी के आंतरिक ढांचे की बात हो, उसका ज़ोर हमेशा केवल कार्यक्रम पर रहा है न कि मार्क्सवाद की सही समझ विकसित करने पर। बुर्जुआ प्रभावों के कारण 'जनवादी केंद्रीयता' की नीति व्यवहार में जड़ अनुशासन बन कर रह गई है। पार्टी के सदस्यों से अपेक्षा की जाती थी कि वे केंद्रीय नेतृत्त्व के आदेश को बिना पूछे स्वीकार लें। समय के साथ पार्टी एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस कर रह गई है जिससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा है।
जब कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गई थी, पूँजीवाद भारत में अपने शैशवकाल में था और मज़दूर वर्ग की चेतना पर सामंती तथा निम्न मध्य वर्गीय चेतना हावी थी। पार्टी निम्न मध्य वर्ग से सदस्यों को शामिल करती थी जिनके लिए नेताओं का मार्क्सवादी होना मानी हुई बात थी। आगे चल कर पार्टी ने पिछलग्गुओं की जमात पैदा की जिन्होंने चापलूसी को पुख़्ता किया। आज़ादी के पचास साल बाद भी 80% से अधिक आबादी सामंतवादी या निम्न मध्यवर्गीय आर्थिक वातावरण में रह रही है। इसने पार्टी या उससे निकले गुटों को, मज़दूर वर्ग के हरावल दस्ते यानि अत्याधिक प्रबुद्ध तथा राजनैतिक तौर पर जागरूक मार्क्सवादियों की कम्युनिस्ट पार्टी की जगह चापलूस अनुयायियों तथा अहंकारी नेताओं के संगठन में बदलने के लिए पूरी तरह माक़ूल आंतरिक था बाहरी वातावरण मुहैया कराया।
150 साल पहले एंगेल्स ने लिखा था, 'राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र, .........  राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है - जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है।' 'और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।'
इस प्रकार, मार्क्सवाद का दम भरनेवाले सभी गुटों की मूल चेतना निम्न मध्यवर्गीय है और इसीलिए व्यवहार में वे सभी 'राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला, उसका अतिवाम पक्ष' बने रहेंगे और सर्वहारा वर्ग को अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होने में मदद नहीं कर सकेंगे।
रूस के कम्युनिस्ट आंदोलन में व्याप्त संशोधनवादी रुझानों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लेनिन ने अपने मशहूर पर्चे 'क्या किया जाय' में रेखांकित किया था, 'लेकिन विभ्रम तथा ढुलमुलपन जो रूस के पूरे समाजवादी जनवाद  के इतिहास के इस सारे दौर का विशिष्ट  लक्षण है ............. और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हम कोई भी प्रगति नहीं कर सकते हैं जब तक हम इस पूरे दौर का अंत नहीं कर देते हैं।' उनका आंकलन आज भारतवर्ष के 90 साल के कम्युनिस्ट आंदोलन, जो शुरु से ही दक्षिणपंथी तथा वामपंथी संशोधनवाद में फँसा हुआ है, के लिए उतना ही प्रासंगिक है, और कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक इसका पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।
समय की मांग है एक ऐसे समूह की जिसका एकमात्र उद्देश्य मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच पहुँचाने के लिए प्रबुद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को एकजुट करना हो। मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुरूप इस समूह का एकमात्र काम होगा मार्क्सवाद की सही समझ विकसित करना और फैलाना। इससे अधिक यह समूह न कुछ कर सकेगा न उसे करना चाहिए। एक बार मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच व्याप्त हो जायेगी, तो सर्वहारा चेतना को धारण करने वाले काफ़ी तादाद में हासिल होंगे और वह होगा मज़दूर वर्ग के मुक्तिदायक हरावल दस्ते का प्रस्थान बिंदु।

Suresh Srivastava

15 June 2013

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