ज्ञानोदय
युवावस्था आते-आते
मार्क्सवाद की तार्किकता का क़ायल हो चुका था। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, थीसिस-एंटीथीसिस,
यूनिटी एंड स्ट्रगल ऑफ अपोज़िट्स, मात्रात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन
जैसे शब्दों से भी अच्छी तरह परिचित हो चुका था पर इन शब्दों की व्यावहारिक उपयोगिता
क्या है, इससे पूरी तरह अनभिज्ञ था। निम्न-मध्यवर्गीय मानसिकता और आधे-अधूरे ज्ञान
के साथ बहसों में हिस्सा लेने और अपनी बात पर अंत तक डटे रहने में ही इन शब्दों का
उपयोग हो़ता था।
जीवन के अगले
तीस साल, स्वयं की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना और विकास प्रक्रिया से पूरी तरह अनभिज्ञ,
कब कैसे गुज़ार दिये पता ही नहीं चला। सामाजिक समस्याओं पर वामपंथी दोस्तों के साथ
होने वाली बहसों में तथा निजी समस्याओं का
हल ढूंढने में मार्क्सवादी तार्किकता की उपयोगिता के कारण मार्क्सवाद के साथ जीवंत
संबंध बना रहा। दोनों बच्चों की शादी कर देने के बाद लगा जैसे अपने दायित्व का निर्वाह
पूरा हो गया है। व्यावसायिक कामों से निवृत्त हो चुका था, निजी जरूरतों और नाते-रिश्तेदारों
के प्रति सारी जिम्मेवारियों के लिए पिछले तीस सालों में पूरी तरह पूनम पर निर्भर रहा
था और वह इन सबको इतनी बख़ूबी निभाती रही थी कि लगता था जैसे व्यक्तिगत दायरे में मेरे
लिए कहीं भी कुछ भी करने के लिए नहीं बचा है।
पर गुज़रे पचपन
सालों के लेखे पर नज़र डाली तो तर्क बुद्धि ने कचोटा, 'जीवन क्या जिया, बहुत बहुत लिया,
दिया बहुत कम।' अपने आस-पास के आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक परिवेश का जायज़ा लिया तो पाया
कि हालात से हर कोई परेशान है पर विकल्प किसी को नज़र नहीं आता है। विद्यार्थी जीवन
से जिस मार्क्सवादी सिद्धांत से इतना प्रभावित रहा हूं और जिसे व्यक्तिगत समस्याओं
को सुलझाने में हमेशा सार्थक पाया, वह आम आदमी को विकल्प क्यों नहीं दे पा रहा है?
समझने की कोशिश की तो पाया कि उस विचारधारा का दम भरनेवाली कम्युनिस्ट पार्टी अनेकों
रूपों में विखंडित हो चुकी है और चालीस से अधिक गुटों में बँटे नेताओं या कार्यकर्ताओं
को पता ही नहीं है कि मार्क्सवाद या समाजवाद का कौन सा रूप सही
है। आम जनता को विकल्प कौन सुझाएगा? मार्क्सवाद के दक्षिणपंथी तथा वामपंथी अनेकों संशोधित
रूप वामपंथी चेतना में इस कदर व्याप्त हैं कि सर्वहारा की चेतना के विकास के लिए कहीं
ज़मीन ही नजर नहीं आती है। ऐसे परिवेश में अपने लिए कोई भूमिका तलाशते हुए लेनिन के
आलेख 'क्या करना है' (What is to be done) की याद आई जिसकी भूमिका में उन्होंने रूस
के वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवादी प्रवृत्तियों से आगाह करते हुए लिखा था,
'कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक इस पूरे दौर का अंत नहीं कर दिया जाता है।'
लेनिन की नसीहत
से प्रेरित हो कर सोसायटी फ़ार साइंस का गठन किया ताकि सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग
बुद्धिजीवियों के बीच विचार-विमर्श के ज़रिए मार्क्सवाद की सही समझ विकसित की जा सके।
इन विमर्शों के दौरान समझ आया कि मार्क्सवाद की समझ का दावा करने वाले सभी वामपंथी
मूर्धन्य विचारकों, अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा लेखकों के बीच मार्क्सवाद के दार्शनिक
आयाम की समझ पूरी तरह नदारद है। उन्होंने अंतर्वस्तु की समझ से पूरी तरह अनजान, अधिरचना
को ही सारतत्त्व समझ रखा है और आधुनिकतावाद तथा उत्तर-आधुनिकतावाद के नाम पर जो मार्क्सवादी
साहित्य रचा जा रहा है उसमें सारा विमर्श क्रांतिकारी व्यावहारिकता तक सीमित है, सैद्धांतिक
सारतत्त्व पर विमर्श ढूँढने से भी नहीं मिलता है। इस नासमझी के साथ न सर्वहारा की वर्ग-चेतना को समझा जा सकता है और न ही कोई विकल्प तलाशा जा सकता है। इस
अहसास के साथ, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ को विकसित तथा साझा करने के उद्देश्य
से तीन साल पहले 'मार्क्स दर्शन' का प्रकाशन शुरू किया था। मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन
के अनेकों लेखों के अनुवाद करने, उनकी व्याख्या पर विचार-विमर्श करने तथा अपने अनेकों
लेख लिखने के बाद लगने लगा कि मार्क्सवाद की मेरी समझ पुख़्ता हो चुकी है।
जिस सिद्धांत
के बारे में लेनिन ने लिखा था, 'मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह
सत्य है। वह सर्वव्यापी तथा समदर्शी है और मानव को एक सर्वांगीण वैश्विक दृष्टि प्रदान
करता है' और जिस सिद्धांत और उस पर आधारित ज्ञान के बारे में स्वयं मार्क्स का कहना
था कि 'जो कुछ मैंने लिपिबद्ध किया है उसमें नया कुछ भी नहीं है, वह तो मानव समाज का
सदियों में अर्जित किया गया सामूहिक ज्ञान है', उस ज्ञान का आधार है वह 'वैज्ञानिक
वैश्विक-दृष्टिकोण' जिसकी पहचान मार्क्स ने सर्वहारा-चेतना के प्राकृतिक गुण अर्थात
सर्वहारा वर्ग की भौतिक-सामाजिक-चेतना के रूप में की थी। पिछले दस साल में अपने पुनर्जागरण
के बाद उस सिद्धांत और ज्ञान की सर्वव्यापकता तथा सार्थकता के बारे में पूरी तरह आश्वस्त
हो चुका था, पर उसके बारे में एक शंका थी जिसका समाधान नज़र नहीं
आ रहा था। अपने जैसे बौद्धिकों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का स्रोत तो समझ आता था पर सर्वहारा
कामगार के पास वह चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहाँ से आता होगा यह समझ से परे था,
और इसके लिए मन में छटपटाहट भी थी।
9 मई 2013 को
40 दिन की लंबी विदेश यात्रा से लौटा हूँ तो अंतर्मन ज्ञान की नई रोशनी से आलोकित है।
यात्रा का खाका तो पिछले साल पूनम की भतीजी की शादी के आमंत्रण के साथ ही तय हो गया
था। अमरीका, कनाडा, इंगलैंड, जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया में बसे अनेकों
परिवारजनों, तथा मित्रों का आग्रह था कि पूनम और मैं उनके साथ कुछ वक़्त बिताएं। (कितना
भी दूर का रिश्तेदार क्यों न हो पूनम के लिए परिवार का ही सदस्य होता था और पूनम के
आत्मीय व्यवहार के कारण रिश्तेदार के लिए इस भावना से अछूता रह पाना असंभव था)। अधिकांश
से मिले हुए कई साल हो गये थे और कुछएक से तो दशकों से मुलाक़ात नहीं हुई थी। पर हर
किसी के पास कुछ न कुछ यादें थीं उन कुछ लमहों की जो उन्होंने पूनम के साथ सालों या
दशकों पहले कभी गुज़ारे थे। इन चालीस दिनों में जो कुछ देखने, सुनने और महसूस करने
को मिला, उसने जैसे अज्ञान के उन बादलों को तिरोहित कर दिया जिन्होंने नवजागरण के ज्ञानोदय
से वंचित कर रखा था।
बुंदेलखंड की
सामंतवादी अर्थव्यवस्था और पितृसत्तात्मक समाज के बीच, झाँसी जैसे पिछड़े शहर में हमारे
संपन्न परिवार का परिवेश अन्य सभी रिश्तेदारों तथा मित्रों के पारिवारिक परिवेश से
बिलकुल अलग था। घर में अनेकों नौकरों के रहते हुए भी माँ न केवल अपना सारा काम स्वयं
करती थीं बल्कि चौका-बर्तन और ऊपरी कामों में नौकरों का भी हाथ बँटाती थीं और सभी नौकरों
को खाना खिलाने के बाद या उनके साथ ही भोजन करती थीं। सारी संपन्नता के बावजूद मां
की निजी ज़रूरतें बहुत सीमित होती थीं और वे थोड़े में ही संतुष्ट रहती थीं; तन,मन,धन
से दूसरों की सेवा के लिए हमेशा तत्पर। और पिताजी के लिए माँ की इच्छा सर्वोपरि होती
थी। कभी पुरुष प्रवृत्ति तथा अहं के वशीभूत माँ की सही समझ के विपरीत निर्णय ले भी
लेते थे तो कुछ ही देर बाद अपनी ग़लती स्वीकार करने में हिचक करते मैंने उन्हें कभी
नहीं देखा। गणितज्ञ तथा दर्शनशास्त्री होने के साथ सफल वक़ील भी थे और मुझे अपनी बात
रखने तथा तर्क करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे। व्यावहारिक रूप से प्रगतिशील
माँ-बाप की परवरिश ने समाजवाद तथा मार्क्सवाद के बारे में पढ़ने तथा समझने की ललक पैदा
कर दी थी।
आई.आई.टी. दिल्ली
से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद आकांक्षा के अनुरूप पूनम के रूप में अत्याधिक
सुंदर और शिक्षित पत्नी पाकर मन बहुत प्रफुल्लित था। सभी उसकी नैसर्गिक सुंदरता से
अभिभूत थे। कुछ ही दिनों में पूनम ने अपने मृदु व्यवहार से सभी का मन मोह लिया था।
पारिवारिक जमावड़ों में पूनम की सूरत और सीरत दोनों का बखान होता था और लोग मेरी माँ
को अपनी कामना के अनुरूप बहू पाने के लिए बधाई देते थे।
पर एक इच्छा
पूरी होने पर नई इच्छा जागृत होती है तो मैं भी चाहने लगा कि पूनम भी मेरी तरह मार्क्सवाद
के बारे में पढ़े और मेरे साथ मार्क्सवाद पर विचार-विमर्श में भाग ले जैसे कि जेएनयू
तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में लड़कियाँ करती थीं। पर पूनम की इसमें कोई रुचि नहीं थी।
उसका आदर्श मेरी माँ थीं और झाँसी से दिल्ली कूच करने के बीच के दस साल पूनम ने माँ
के साथ रह कर माँ के सभी गुणों को आत्मसात करने में ही लगाये।
उच्च शिक्षा,
सुशिक्षित वर्ग के बीच मौजूदगी तथा पूनम जैसी सुघड़ पत्नी के रहते जीवन सुचारू रूप
से चलता रहा और तीस साल दोनों बच्चों की परवरिश में कैसे गुज़र गये पता ही नहीं चला।
मैं और पूनम, विपर्यय की एकता और संघर्ष (Unity and struggle of Opposites) का अनूठा
उदाहरण थे। मैं था घोषित नास्तिक और पूनम की दिनचर्या शुरू होती थी नहा-धोकर घर में
ही बनाए हुए मंदिर में पूजा करने के साथ। सभी धार्मिक अनुष्ठानों में मुझे पूनम के
साथ पति के रूप में शामिल होना पड़ता था जो मैं सहर्ष कर देता था और पूनम के लिए यही
काफ़ी था। श्रम का विभाजन भी बिल्कुल स्पष्ट था। मित्र-मंडली हो या पारिवारिक जमावड़ा,
सामाजिक समस्याओं पर वाद-विवाद मेरे लिये अनिवार्य होता था और उस दौरान पूनम की रुचि
होती थी तरह-तरह के व्यंजनों से मेहमानों के आस्वाद की संतुष्टि करना। अगर कभी मैं
पूनम से शिकायत करता कि नौकरों के रहते क्यों चौके में ही सीमित हो तो पूनम का जवाब
होता था, "बहस के लिए तुम हो ना, और खाना अपने आप तो बन नहीं जायेगा।" और
अगर मैं कहता कि नौकर तो हैं तो पूनम का उत्तर होता था, "मेहमान हमारे हैं न कि
नौकरों के।" ( उस समय इन शब्दों का गूढार्थ नहीं समझ पाता था जिसे अब जा कर समझा
हूँ।)
पारिवारिक तथा
सामाजिक परिवेश में पूनम और मेरे बीच पूर्ण सामंजस्य था और हम दोनों एक दूसरे से और
अपनी-अपनी जीवन पद्धति से पूरी तरह संतुष्ट थे। अगर किसी बात पर कभी कोई मतभेद होता
था तो पूनम अपनी बात पर अड़े बिना मसले के हल को पूरी तरह मेरे विवेक पर छोड़ देती
थी और इस विश्वास के साथ इंतज़ार करती कि अंततः मैं जो भी करूँगा वह सबके हित में ही
होगा। और हमेशा ही अंत में मैं पाता कि पूनम का ही मत सही था। हर मसले पर मैं पूनम
को अपने साथ पाता था। सभी मित्रों और रिश्तेदारों के बीच, मेरी इंजीनियरिंग शिक्षा,
क्षमता और ईमानदारी के साथ व्यावसायिक और सामाजिक रूप से सफल व्यक्ति के रूप में पहचान
से हम दोनों ख़ुश थे। जीवन यात्रा में कभी ऐसे मौके भी आये जब मैं अनजाने ही संपन्नता
की अंधी दौड़ की तरफ बहकने लगता था तो पूनम मुझे टोकती नहीं थी। पर पूनम के व्यवहार
में आये बदलाव से कुछ अरसे बाद मुझे लगता जैसे पूनम ने पकड़ी हुई मेरी बांह धीमे से
छोड़ दी हो और कह रही हो, "ये रास्ता हमारा नहीं है। इस दौड़ में मैं तुम्हारे
साथ शामिल नहीं हो पाउंगी।" और पूनम बिना कुछ कहे मुझे पिताजी की नसीहत याद दिला
देती कि जो थोड़े में संतुष्ट नहीं रह सकता है वह अधिक में भी संतुष्ट नहीं हो सकता
है। और हमारी जीवन पद्धति के लिए यह सबसे बड़ा संबल था।
सभी मित्रों
तथा रिश्तेदारों के बीच पूनम अत्याधिक लोकप्रिय थी और मेहमाननवाज़ी पूनम का जिन्दगी
जीने का तरीका था। दिल्ली में बसे भाई-बहनों (विश्लेषण के रूप में हम चचेरे शब्द का
प्रयोग नहीं करते हैं) को अपने यहाँ बुलाकर सामूहिक तौर पर राखी बांधने की परंपरा पूनम
ने तीस साल पहले दिल्ली आने के साथ ही शुरू कर दी थी। शुरू में दो पीढ़ी के दस बारह
भाई बहनों की संख्या बढ़कर आज तीन पीढ़ी के तीस चालीस सदस्यों तक पहुँच गई है। पूनम
के द्वारा शुरु की गई परंपरा को एक सामूहिक उत्सव के रूप में हमारे घर में मनाने के
लिए हर सदस्य साल भर उत्सुकता से इंतज़ार करता है। दर्जनों रिश्तेदारों तथा मित्रों
के जन्मदिन और शादी की सालगिरह पूनम को याद थीं और वह उन्हें समय से फ़ोन कर शुभकामनाएँ
देना कभी नहीं भूलती थी। बच्चों के जन्मदिन पर तो केक काटा ही जाता था, हर नौकर के
जन्मदिन पर घर में केक काटने की परंपरा भी पूनम ने बना रखी थी।
हर आगंतुक और
अतिथि पूनम के लिए परिवार का ही सदस्य होता था। अचानक आ गये आगंतुक की रुचि का पूनम
उतना ही ध्यान रखती थी जितना मेरी या अपने बच्चों की रुचि का। सालों में कभी कभार आने
वाले मेहमान को खाने में क्या पसंद है और किस चीज़ से परहेज़ है यह पूनम को अच्छी तरह
याद होता था। किसी चीज़ के सीमित होने की स्थिति में बिना झिझक
अपने, मेरे या बच्चों के हिस्से में कटौती कर सबके साथ साझा करना पूनम के लिए श्वांस
प्रक्रिया की तरह सहज होता था। अतिथि बच्चों को अपने बच्चों की चाकलेट निकाल कर पकड़ा
देना पूनम के लिए इतना ही आसान था जितना कि अपने एक बच्चे की चीज़ को अपने दूसरे बच्चे
के साथ साझा करना। शुरुआती दौर में जब अलग से गेस्टरूम या उसमें एसी न था, पूनम सहर्ष
अपना शयन कक्ष अतिथि के लिए छोड़ देती थी। यह बात मुझे नागवार गुज़रती थी, पर पूनम
समझाती, "मेहमान हमारे प्यार और इज़्ज़त का भूखा होता है न कि खाने का। हम जो
कुछ करते हैं वह हमारी भावनाओं कि अभिव्यक्ति भर है।"
पूनम को तरह-तरह
के व्यंजन, पकवान तथा मिठाइयाँ बनाने का शौक़ था। इडली, डोसा, ऊतप्पम, गट्टे, रसांजे,
फले, कढ़ी, ढोकला, छोले-भटूरे, पाव-भाजी, चाट-पापड़ी, दही-भल्ले, आलू टिक्की, गोल-गप्पे,
समोसे, कचौड़ी, गुझिया, मालपुआ, गुलाब जामुन,
रसमलाई, गाजर हलुआ, मेवालड्डू, गोंद का लड्डू, बेसनलड्डू, ठिकुआ, गुलगुले, पुआ, चिल्ला,
केक, कैरामल पुडिंग, सूफले, सभी कुछ हम पूनम के हाथ का बना हुआ ही खाते थे, नौकरों
के हाथ का बना या बाज़ार का खाने का मौक़ा कम ही मिलता था। अक्सर ही नया मेहमान और
नई फ़रमाइश, और पूनम पूरी शिद्दत के साथ सब कुछ अपने हाथ से बनाती, और पंद्रह-बीस लोगों
के लिए। न केवल मेहमानों और घर के सदस्यों के लिए बल्कि घर के सभी नौकरों के लिए भी।
सभी पूनम की पाक-कला की तारीफ़ करते और आश्चर्य प्रकट करते कि सालों साल बाद भी हर
बार वही स्वाद तथा रंगत, और आकार तथा साइज एक सा, चाहे डोसा हो या गट्टे या कढ़ी की
पकौड़ी, गुझिया हो या मालपुआ या गुलाबजामुन या मेवा लड्डू। मुझे हमेशा आश्चर्य होता
कि पूनम बिना नाप-तौल के, अंदाज के साथ ही सब कुछ करती है फिर कैसे इतने परफ़ेक्शन
के साथ सब कुछ कर लेती है।
छोटी-से-छोटी
चीज़ पर पूनम की पैनी नज़र होती थी और छोटी-बड़ी हर बात पूनम के संज्ञान में होती थी।
फ्रिज में अंडों या नीबुओं की गिनती या कौन सी सब्ज़ी कितनी मात्रा में है पूनम को
हमेशा ठीक-ठीक पता होता था। भंडार में किस समय कितने गुलाबजामुन या लड्डू कितनी संख्या
में हैं, पूनम की सूचना में कभी ग़लती नहीं होती थी। यहाँ तक कि मेरी शेविंग क्रीम
या रेज़र ब्लेड या अंतर्वस्त्र कब समाप्त होने जा रहे हैं, पूनम को पता होता था और
मेरे बोलने से पहले हर चीज़ उसकी अपनी जगह रख दी जाती थी।
ख़ान-पान में,
पहनने-ओढ़ने में, रहन-सहन में, सामाजिक व्यवहार में, हर चीज़ में पूनम की सुरुचि तथा
दक्षता की हर कोई सराहना करता था। पर एक बात थी जिससे पूनम को परेशानी होती थी, वह
थी, उसके सामने उसकी पाक-कला, अतिथि सत्कार या व्यवहार की तारीफ़ किया जाना या किसी
और की व्यक्तिगत आलोचना किया जाना। और ऐसी किसी भी स्थिति में वह किसी भी बहाने से
महफ़िल छोड़कर किसी और काम में लग जाती थी। अगर कभी मेरे या बच्चों के साथ इस बात पर
चर्चा होती तो पूनम कहती, "मुँह पर तारीफ़ तो चापलूसी कहलाती है, तारीफ़ तो तब
है जब तारीफ़ पीठ पीछे हो।" और, "देवता धरती पर नहीं रहते हैं। पैदा हर कोई
अच्छा होता है, आगे अच्छा बुरा तो माहौल से होता है। हमें तो लोगों का शुक्रगुज़ार
होना चाहिए कि उन्होंने हमें अच्छा बनने का मौक़ा दिया।"
जब से सोसायटी फॉर साइंस का गठन किया था, कभी-कभी
मैं पूनम की धार्मिक आस्थाओं की आलोचना करता (जो पूनम को पसंद नहीं था), और कहता कि
उसे अंध आस्थाओं को छोड़कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तो पूनम चुटकी लेती,
"रहने तो दो! तुम और तुम्हारा साइंटिफ़िक आउटलुक! मिक्सी का ब्लेड पकड़ कर स्विच
ऑन कर दोगे, या इमर्सन रॉड बालटी के बाहर
लटका दोगे।" छोटी-बड़ी सभी चीजें हमेशा पूनम के संज्ञान में होती थीं और उनकी अपनी-अपनी अहमियत के प्रति पूनम पूरी तरह
जागरूक होती थी। ऐसी किसी भी प्रकार की बहस, जिसमें लोगों के पूर्वाग्रहों की
टकराहट हो, से पूनम कतराती थी। पर आस-पास की व्यक्तिगत या सामाजिक परिस्थितियों
तथा प्रक्रियाओं के तार्किक विश्लेषण की पूनम में गजब की क्षमता थी और उसके
विश्लेषण से आम तौर पर सभी सहमत होते थे।
घर में इस्तेमाल
होने वाले उपकरणों का छोटा-मोटा रख-रखाव मैं स्वयं ही करता था। कई बार होता था कि मैं
किसी छोटी सी चीज़ पर उलझ जाता था और काफ़ी देर तक निकल नहीं पाता था, तो पूनम जिसे इन उपकरणों की संरचना या आंतरिक
कार्यप्रणाली के बारे में कुछ पता नहीं होता था, मुझे टोकती,
"पेचकस उल्टा घुमा रहे हो। उस तरफ खुलेगा।" या " पहले उसे लगाओ फिर
ही तो यह लग पायेगा।" समझ आने पर अपनी लापरवाही पर झुँझलाहट होती थी कि इतनी साधारण
सी चीज़ इतनी देर से क्यों समझ नहीं आ रही थी, और पूनम जिसे उपकरणों की बनावट तथा रख-रखाव के बारे में कुछ भी नहीं पता नहीं होता है, को कैसे समझ आ जाती
है। एक और चीज़ थी जिसने मुझे अत्याधिक प्रभावित किया था वह थी पूनम का सुई में धागा
पिरोना, बिना धागे के सिरे को या सुई के छेद को देखे।। उस तरह से धागा पिरोते मैंने
आज तक किसी को नहीं देखा है। पता नहीं उसने किसी से सीखा था या उसकी अपनी ईजाद थी।
तर्जनी और अंगूठे के बीच में धागे के सिरे को और साथ ही सुई के छेद वाले सिरे को दबाती,
न सिरा दिख रहा होता और न सुई का छेद। और फिर अंदर-अंदर सुई को दूसरी ओर खिसकाती और
सुई बाहर निकलती तो धागा सुई के छेद के पार होता। सब कुछ पलक झपकते होता और पहली बार
में ही। कभी भी उसे दूसरी बार कोशिश करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
पूनम को मधुमेह
की बीमारी ने युवावस्था में ही पकड़ लिया था। शुरू में दवा की गोलियों से काम चल जाता
था परंतु लगभग बीस साल से इंसुलिन लेना शुरू कर दिया था। लेकिन पूनम की दिनचर्या में
कहीं कोई बदलाव नहीं आया था। आतिथि सत्कार, मित्रों रिश्तेदारों की आव-भगत, तीज-त्योहार,
मित्रों तथा रिश्तेदारों के यहां शादी-विवाह सभी में भागीदारी में पूनम इस तरह खो जाती
थी मानो उसका अपना कोई स्वतंत्र वजूद ही न हो, पूरी तरह भूल जाती थी कि उसे मधुमेह की बीमारी है और डाक्टरों
ने उसे खाने-पीने के समय के बारे में पूरी तरह अनुशासित रहने की सख़्त हिदायत दी है।
हर रस्मो-रिवाज के केंद्र में पूनम होती और हर कोई हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए पूनम को
जोहता। अगर मैं कभी ऐतराज़ करता और कहता कि मेहमानों की खातिरदारी भूलकर पहले उसे अपनी
बीमारी का ध्यान रखना चाहिए तो पूनम का जवाब होता था, "अमर होकर कौन आया है?"
और कभी मैं अपना दूसरा हथियार इस्तेमाल करता, "मेहमानों का ख्याल रखने के बीच
तुम्हारे पास मेरे लिए वक़्त ही नहीं होता है" तो पूनम पलटकर सवाल करती,
"तो बताओ क्या करूँ?" और मैं निरुत्तर हो जाता था। ढूँढने पर भी ऐसा कुछ
नहीं पाता था जिसका इंतज़ाम पूनम ने मेरे लिए पहले से न कर रखा हो या मेरी हर मांग
समय से पहली पूरी न कर दी हो।
पिछले दो-तीन
साल से पूनम का स्वास्थ्य तेज़ी से गिरने लगा था जिससे सुबह की सैर और पेड़ों में पानी
डालने की दिनचर्या में व्यवधान आने लगा था। थकान भी जल्दी होने लगी थी। चौके में भी
पहले जितनी देर तक खड़े रह कर काम नहीं कर पाती थी। डायबिटीज़ ने सभी अंगों को प्रभावित
करना शुरू कर दिया था पर पूनम की सोच, जीवन प्रणाली या उत्साह में कोई बदलाव नहीं आया
था। पूनम के व्यवहार ने मुझे सोचने का अवसर ही नहीं दिया कि पूनम का जीवन तेज़ी से हाथ से फिसलता जा रहा है।
मैं मार्क्स दर्शन के लिए सामग्री जुटाने में या गोष्ठियों में शिरकत करने में व्यस्त
रहता था और पूनम की ओर से लगभग निश्चिंत।
नवंबर 2011
के तीसरे सप्ताह में तीन रिश्तेदारों के बच्चों की शादियाँ आ गईं और पूनम लगातार सात
दिन तक विभिन्न कार्यक्रमों में दिन रात बढ़-चढ़ कर शिरकत करती रही। पूरे उत्साह के
साथ मानो उसके अपने बच्चों की शादी हो। अपने गिरते स्वास्थ्य का किसी को अहसास भी नहीं
होने दिया। शादी से फ़ुरसत पा कर गुजरात जाने का कार्यक्रम पहले ही बना लिया था। पूनम
की बहुत दिनों से द्वारकाधीश जाने की इच्छा थी और मैं गिर के शेर देखना चाहता था सो
दिसंबर के तीसरे सप्ताह में वह कार्यक्रम भी पूरा कर लिया।
लौटने पर पाया
कि पूनम का रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ है। जनवरी के तीसरे सप्ताह में थाइलैंड घूमने जाने
का प्रोग्राम था तो सोचा जाने से पहले पूनम का पूरा चेकअप करा लिया जाय। आगे जाँच की
तो पाया कि शुरू अक्टूबर के मुक़ाबले क्रिएटिनिन का स्तर काफ़ी बढ़ गया है और गुर्दे
फ़ेल होने की परिस्थिति के लिए हमने अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करना शुरू कर दिया।
डायलिसिस या प्रत्यारोपण, दोनों विकल्पों पर विचार किया गया। प्रत्यारोपण की परेशानियाँ,
क़ानूनी अड़चनें तथा ख़तरे के बावजूद हमने प्रत्यारोपण का विकल्प चुना क्योंकि हर दो
दिन पर होने वाले डायलिसिस में दिनचर्या तथा भ्रमण जिस प्रकार बाधित होता वह पूनम की
जीवन पद्धति से क़तई मेल नहीं खाता था। थाइलैंड का कार्यक्रम रद्द कर पूनम को अस्पताल
में भरती कराया गया और आपरेशन कर बाँए हाथ में फिश्चुला बना दिया गया ताकि आपत्कालीन
स्थिति में आवश्यकता पड़ने पर डायलिसिस करने में आसानी हो।
आपरेशन के बाद
पूनम काफ़ी कमज़ोर हो गई थी। खान-पान पर बंदिशें बढ़ा दी गई थीं। पर पूनम की सुबह नहा-धोकर
पूजा करने और चौके में कुछ देर काम करने की दिनचर्या में कोई कमी नहीं आई थी। चौके
में रसद की स्थिति क्या है, यह पूनम के संज्ञान में हर समय होता था। अचानक आ गये मेहमानों
की खातिरदारी अभी भी उसी तरह होती थी, फर्क इतना हुआ था कि पूनम अब नौकरों पर अधिक
निर्भर रहने लगी थी।। अपने लिए सब्ज़ी स्वयं बनाना और कुछ विशिष्ट पकवान या मिष्ठान्न
अपने ही हाथों से बनाना अभी भी जारी था।
हर सप्ताह पूनम
के ख़ून की जाँच की जाने लगी। गुर्दा-प्रत्यारोपण के लिए दानकर्ता के चयन तथा क़ानूनी
अनुमति की प्रक्रिया भी शुरु कर दी गई। फ़रवरी 2012 के अंत में अचानक पूनम के सोडियम
तथा पोटेशियम के स्तर में बदलाव के कारण डायलिसिस अनिवार्य हो गया और 28 फ़रवरी को
पूनम का पहला डायलिसिस किया गया। सप्ताह में दो बार होने वाले डायलिसिस को पूनम ने
अपनी दिनचर्या के एक हिस्से के रूप में सहज स्वीकार कर लिया। कुछ ही दिनों में डायलिसिस
सेंटर में भी पूनम की पहचान सबसे अधिक हँसमुख, मिलनसार, शांत और अनुशासित मरीज़ के
रूप में हो गई।
कहते हैं कि
मुसीबतें कभी अकेले नहीं आती हैं तो पूनम के साथ भी यही हुआ। 1 मार्च को मेरी तबियत
अचानक बिगड़ी और जाँच के बाद पता लगा कि मेरे पित्ताशय और बाएँ गुर्दे में समस्याएँ
हैं और दोनों को ही निकालना पड़ेगा। मैं भी उसी अस्पताल में भरती हुआ जिसमें पूनम का
इलाज चल रहा था। मार्च का महीना अनेकों जाँचों, छोटे बड़े तीन ऑपरेशनों
के साथ पित्ताशय निकालने में निकल गया। अप्रैल का महीना चार छोटे बड़े ऑपरेशनों के साथ बायां गुर्दा निकालने में और
संक्रमण से जूझने में निकल गया। डायलिसिस के बाद अस्पताल में ही रुके रहकर या बाद में
घर पर मेरे स्वास्थ्य की देखभाल करना पूनम की पहली प्राथमिकता बन गई थी। पर सुबह नहा-धोकर
पूजा करना और उसके बाद चौके में कुछ वक़्त गुज़ारना अभी भी जारी था। कुछ महीनों में
क़ानूनी प्रक्रिया पूरी हो गई और इसी सब में नवम्बर का महीना आ गया। दिवाली के बाद
की तारीख़ मिली थी। पूनम का स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था पर फिर भी दो दिन चौके में
लगकर पूनम ने हर बार की तरह दिवाली के लिए सभी पकवान अपने हाथ से ही बनाये।
19 नवंबर
2012 को प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक हो गया और 6 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई
और हम ख़ुश थे कि पूनम के शरीर ने नये गुर्दे
को स्वीकार कर लिया है। डाक्टरों की संतुष्टि के साथ पूनम भी जीवन के प्रति
आश्वस्त हो गई थी। पर कुछ दिन बाद हल्के से बुखार के कारण अस्पताल में फिर भरती होना
पड़ा, जाँच में पता लगा कि पेशाब में संक्रमण है परंतु प्रत्यारोपण सुचारू रूप से काम
कर रहा था और चिकित्सकों ने आश्वस्त किया कि संक्रमण काबू में आ गया है। संक्रमण से
बचाने के लिए 10 दिसंबर से पूनम को आईसीयू में ही रखा गया था। तेरह तारीख़ को सुबह
बेटी के हाथ से नाश्ता खाने के तुरंत बाद अचानक दौरा पड़ा और पूनम कोमा में चली गई।
गहन जाँच के बाद पता लगा कि सीएमवी का संक्रमण हुआ है और स्थिति नाज़ुक हो गई है। और
तीन दिन कोमा में रहने के बाद पूनम ने शरीर त्याग दिया। सभी परिजन तथा मित्र सदमे में
थे। धीमे-धीमे सभी ने पूनम के अब हमारे बीच न होने के सत्य को स्वीकार कर लिया।
मेरे लिए पूनम
से बिछोह को स्वीकार कर पाना बड़ा मुश्किल हो रहा था। हर चीज से विरक्ति हो रही थी।
जीने का कोई सबब नजर नहीं आ रहा था। मार्क्स दर्शन के दूसरे वर्ष के तीसरे अंक (जुलाई-सितंबर
2012) के लिए सामग्री पूनम की बीमारी के दौरान जैसे तैसे तैयार कर ली थी, प्रूफ़रीडिंग
भी लगभग हो ही चुकी थी पर सामग्री को प्रकाशन के लिए जनवरी में ही भेज सका। मार्क्स
दर्शन के प्रकाशन को बंद करने का निर्णय तो लिया ही जा चुका था और सोसायटी फॉर साइंस में भी कुछ करने लायक नज़र नहीं आ रहा था। विदेश यात्रा जिस
पर पूनम के साथ ही जाने की योजना बनाई थी उसे भी रद्द कर दिया। अहमदाबाद में जनवरी
के अंत में प्रस्तावित एक पारिवारिक शादी में शामिल होने का निर्णय भी जून में ही कर
लिया था, वहाँ जाना भी रद्द कर दिया।
बच्चों ने बहुत
समझाया कि मेरे अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है कि मैं घर से बाहर
निकलूँ और दोनों शादियों में शामिल होउं। देश और विदेश से सभी रिश्तेदारों का भी आग्रह
था कि मैं कार्यक्रम रद्द न करूँ। सभी इतने दिनों से मुझसे और पूनम से मिलने की राह
देख रहे थे और अब बदली हुई परिस्थिति में सभी की मुझसे मिलने की हार्दिक इच्छा थी।
सभी की इच्छा को देखते हुए मुझे अहसास हुआ कि पूनम का जीने का तरीक़ा था ही सामूहिक
न कि व्यक्तिगत और अगर मेरी जगह पूनम होती तो शादियों में शामिल होने के कार्यक्रम
कभी रद्द न करती। मैं देख चुका था कि अपने पिता, मेरी माँ, मेरे पिता जी तथा मेरे छोटे
भाई (इन सभी से उसका अत्याधिक लगाव था) की मृत्यु के एकदम बाद होने वाली पारिवारिक
शादियों में कैसे अपने ग़म को छुपाकर हमेशा की तरह शामिल हुई थी। सो जनवरी में अहमदाबाद
में और अप्रैल में अमेरिका में दोनों शादियों में शामिल हुआ और हर जगह अनेकों रिश्तेदारों
तथा मित्रों से मिलना हुआ। छोटे बड़े हर किसी के पास पूनम के व्यवहार तथा ज़िंदगी जीने
के तौर-तरीक़े के बारे में कहने के लिए कुछ न कुछ था, जिसने मानव और मानव समाज की मेरी
समझ को नई रोशनी प्रदान की।
जिनको पूनम के साथ थोड़ा भी वक़्त गुज़ारने का मौक़ा
मिला था, उन्हें सालों बाद भी हर बात याद थी कि किस आत्मीयता के साथ पूनम ने उनकी छोटी-से-छोटी
पसंद का ध्यान रखा था। जिन्हें ऐसा मौक़ा नहीं मिला था, औरों से पूनम के व्यवहार के
बारे में सुनकर, उनके मन में भी पूनम की छवि एक अनुकरणीय गृहिणी की बनी हुई थी। उन
सभी के मन में पूनम की छवि, एक परिपूर्ण व्यक्ति के रूप में, पूनम के उस व्यवहार के
कारण थी जिसे वे सभी मानवीय संबंधों तथा समाज के लिए बहुमूल्य मानते हैं चाहे वे स्वयं
उस तरह का आचरण न कर पाते हों। "पूनम के मुँह से जाने-अनजाने कभी निगेटिव बात
नहीं सुनी" या "पूनम जितनी ख़ूबसूरत बाहर से थी उतनी ही ख़ूबसूरत अंदर से
भी थी" ये शब्द अनेकों लोगों से अनेकों बार सुनने को मिले।। पूनम भौतिक स्वरूप
में चाहे मौजूद नहीं है पर वैचारिक रूप में अनेकों लोगों के मन में हर जगह मौजूद थी।
पूनम ने चालीस
साल के वैवाहिक जीवन में मुझे हर तरह की ख़ुशी दी और जाने के बाद भी मुझे ज़िंदगी का
सबसे बड़ा तौहफा दे गई है। पूनम के प्रति लोगों की भावनाओं और उद्गारों के रूप में
जो कुछ मुझे इन चालीस दिनों में देखने-सुनने को मिला उसने मार्क्सवाद के बारे में मेरी
उस शंका का समाधान कर दिया है जिसके लिए मन में छटपटाहट थी और जिसको मैं अपने वर्षों
के किताबी ज्ञान के आधार पर हासिल नहीं कर पा रहा था। लोगों के उद्गारों में मैं पूनम
के प्रति लोगों की उन भावनाओं को देख सका जिनकी रोशनी में मुझे पूनम की चेतना की वह
अंतर्वस्तु नज़र आई जिसे मैं चालीस साल पूनम के साथ रहने पर भी नहीं देख पाया था। सभी
का कहना था कि पूनम के व्यवहार में कहीं कोई दिखावा नहीं था, वह जो कुछ करती थी सहज
और स्वभाविक तौर पर करती थी, उसका व्यवहार ही उसका स्वभाव था, उसके विचार और व्यवहार
में कोई अंतर्विरोध नहीं था। मैं पूनम के व्यवहार से पूरी तरह संतुष्ट था पर कभी समझ
नहीं पाया कि पूनम का व्यवहार साभिप्राय न होकर उसकी अवचेतना की अभिव्यक्ति है। उसका
व्यवहार उसकी आदत है, उसकी आधारभूत चेतना का मूर्त रूप। अब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि
कभी-कभी जब पूनम किसी रिश्तेदार या मित्र के घर किसी कार्यक्रम में बिना संकोच काम-काज
में इस तरह जुट जाती थी जैसे उसका अपना काम हो और उसे अधिकार भी हो, तो मुझे आशंका
होती थी कि मेज़बान या उनके नज़दीक़ी पूनम की इस बेतकल्लुफ़ पहल को अस्वीकार न कर दें
और पूनम को अपमानित होना पड़े, पर पूनम के मन के किसी कोने में भी ऐसा ख्याल नहीं आता
था।
मार्क्स ने
लिखा था, " आप मानव और जानवर के बीच, चेतना, धर्म या ऐसा ही कुछ जो आपको ठीक लगे,
के आधार पर भेद कर सकते हैं। पर स्वयं वे अपने आपको उसी क्षण जानवर से अलग समझना शुरू
कर देते हैं जिस क्षण वे अपने अस्तित्व के लिए साधन स्वयं उत्पन्न करना शुरू कर देते
हैं, एक ऐसा कदम जिसका कारण उनकी शारीरिक संरचना में निहित है। अस्तित्व के साधन उत्पन्न
कर मनुष्य अप्रत्यक्ष रूप से वास्तव में अपने भौतिक जीवन का निर्माण करते हैं।"
"जीवन का निर्माण, अपने स्वयं का श्रम में तथा नवजीवन का प्रजनन में, दोनों ही,
अब एक दोहरे संबंध के रूप में उजागर होता है : एक ओर तो प्राकृतिक, और दूसरी ओर सामाजिक
संबंध में।"
मार्क्स ने
मानव समाज की पहचान मनुष्यों के एक समूह के रूप में न कर एक चेतन जैविक संरचना के रूप
में की थी जिसका स्वरूप वैचारिक है और जिसका प्रकटीकरण मानव समूह के ज़रिए होता है।
मार्क्सवाद के अनुसार मानवीय-चेतना और सामाजिक-चेतना को ठीक-ठीक समझने के लिए उनकी
अंतर्वस्तु (Content) तथा अभिरूप (Form) को
अलग-अलग और उनके द्वंद्वात्मक संबंधों को समझना होगा। मानव की अनभिज्ञ-चेतना
(Sub-consciousness) तथा समाज की भौतिक-सामाजिक-चेतना
(Material-social-consciousness) अंतर्वस्तु हैं, और मानव की भिज्ञ-चेतना तथा समाज
की वैचारिक-सामाजिक-चेतना (Ideological-social-consciousness) अधिरचना हैं।
मार्क्सवाद
के अनुसार सर्वहारा-वर्ग समाज का सबसे अधिक विकसित वर्ग होता है क्योंकि उसकी भौतिक-सामाजिक-चेतना
(Material-social-consciousness) वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है।। पहले मुझे समझ
नहीं आता था कि सर्वहारा के पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहां से आता है? सब कुछ खोने के
बाद कामगारों का अवैज्ञानिक-दृष्टिकोण क्यों और कैसे वैज्ञानिक-दृष्टिकोण में बदल जाता है? व्यक्तिगत
रूप से अधिकांश सर्वहारा अत्याधिक अज्ञानी, अंधविश्वासी, रूढ़िवादी, धर्मभीरु, मूर्तिपूजक
तथा व्यक्तिपूजक होते हैं, तो फिर एक वर्ग के रूप में सर्वहारा की भौतिक-सामाजिक-चेतना
को वैज्ञानिक दृष्टिकोण कौन मुहैया कराता है?
विदेश यात्रा
के बाद पूनम के प्रति मेरा नज़रिया पूरी तरह बदल गया है और इस बदले हुए नजरिये की नई
रोशनी में पूनम के व्यवहार में मुझे सारे प्रश्नों का उत्तर मिल गया है। पहले पूनम
को लेकर मेरे मन के किसी कोने में एक प्रकार का अहं था, एक अत्याधिक सुंदर, सुघड़,
दक्ष तथा लोकप्रिय पत्नी का पति होने का अहं, यह सोच कि पूनम के सभी कुछ का श्रेय मुझे
ही जाता है और पति के रूप में मेरा उस पर एकाधिकार है। और शायद पूनम भी ऐसा ही सोचती
है तभी तो पूनम के लिए वरीयता क्रम में मैं सबसे ऊपर हूं। पर अब जान गया हूँ कि मैं
ग़लत था। पूनम के लिए मैं विशिष्ट था, पर एक बहुत सीमित दायरे में, पूनम के पति और
बच्चों के पिता के रूप में। पर ज़िंदगी का आयाम बहुत विस्तृत होता है। न पूनम की और
न ही मेरी ज़िंदगी उस सीमित दायरे में समेटी जा सकती थी। पूनम ने अपने व्यक्तिगत तथा
सामूहिक हितों को एकीकृत कर अपने व्यवहार को इतना व्यापक बना दिया था कि उसके दायरे
में पति या बच्चों के पिता की विशिष्टता का कोई अर्थ नहीं रह गया था। उसके व्यवहार
में हर किसी को संतुष्ट करने की क्षमता थी। उसके दायरे में निजी हितों की टकराहट के
लिए कोई जगह नहीं थी। लोगों के उ़द्गार इसका प्रमाण हैं। सभी कहते हैं, " पूनम
के मुंह से कभी निगेटिव बात नहीं सुनी और न ही उसके पास ऐसी बातें सुनने के लिए वक़्त
होता था।"
'मानव-जीवन
की सुरक्षा तथा निरंतरता के लिए व्यक्तिगत तथा सामाजिक हितों की एकात्मता अपरिहार्य
है, और मानवीय जीवन का आधार है मानवीय श्रम-शक्ति द्वारा उत्पादन' इस मानवीय चेतना
का पूनम मूर्त रूप थी। प्रकृति के इसी सत्य पर आधारित है वैज्ञानिक मानसिकता तथा वैज्ञानिक
दृष्टिकोण। व्यक्तिगत स्तर पर यह सत्य उत्पादन प्रक्रिया के दौरान निरंतर उद्घाटित
होता रहता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित इसी सामूहिक चेतना को मार्क्स ने सर्वहारा
की चेतना नाम दिया।
उत्पादक शक्तियों
के बढ़ने के साथ मानव उपभोग से अधिक उत्पादन और संचयन करने लगता है और इसके साथ अस्तित्व
में आती है निजी संपत्ति और परिवार। परिवार के गठन के साथ ही शुरू होती है स्त्री की
ग़ुलामी। जीवन के साधनों के आधिपत्य के साथ ही पुरुष का आधिपत्य स्त्री की श्रम-शक्ति
पर भी हो जाता है। और एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति की श्रम-शक्ति पर अधिकार ही ग़ुलामी
का आधार है। निजी संपत्ति के साथ जन्म लेता है यह विचार कि मानवीय जीवन का आधार है
उत्पादन-साधन न कि श्रम-शक्ति और इसी मिथक से शुरू होता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण का
प्रदूषण। व्यापक स्तर पर यही विचार सामाजिक चेतना का आधार बन जाता है और फिर यही लाखों
करोड़ों स्त्री पुरुषों की अवैज्ञानिक मानसिकता का कारण बनता है। दास, किसान, हस्तशिल्पी
यहां तक कि प्रकृति वैज्ञानिक भी इसी ग़लत अवधारणा के वाहक बने रहते हैं क्योंकि वे
निजी स्वार्थ के कारण किसी न किसी रूप में निजी संपत्ति को उत्पादन तथा जीवन के साधनों
का आधार मानते हैं।
विशिष्ट पारिवारिक
परिस्थितियों के कारण पूनम जैसी हज़ारों स्त्रियाँ, अपवाद के रूप में, अपने चौके में
खाना पकाने की सर्वाधिक मौलिक उत्पादन प्रक्रिया के कारण सदियों से जिस
अवधारणा, कि मानव जीवन का आधार मानवीय-श्रम और सामूहिक सहयोग है, न कि संपत्ति का निजी स्वामित्व, की वाहक बनी हुई हैं, उस अवधारणा का संज्ञान
कामगार को तब होता है जब वह पूँजीवादी व्यवस्था में सब कुछ खोकर सर्वहारा बन जाता है
और ज़िंदा रहने के लिए उसके पास अपनी श्रम-शक्ति को बेचने के अलावा कुछ नहीं बचता है।
मैं अपने आप
को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन जीने का मौक़ा मिला जो निस्स्वार्थ भाव से जीवन भर दूसरों के लिए ख़ुशियाँ लुटाता रहा और मरने
के बाद मुझे ज्ञान का वह तोहफा दे गया जिसके लिये मैं सालों से छटपटा रहा था। सभी के
साथ इस ज्ञान को साझा करने का मेरा यह प्रयास ही पूनम के प्रति मेरी श्रद्धांजलि है।
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
15, जुलाई 2013
(लेखक सोसायटी फॉर साइंस
का अध्यक्ष और त्रैमासिक मार्क्स दर्शन का प्रधान संपादक है।)
No comments:
Post a Comment