आआप परिघटना के सबक़
सुरेश श्रीवास्तव
पाँच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजों, तथा कांग्रेस तथा
भाजपा के विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी के उभरने से क्या सबक़ लिए जा सकते हैं?
हर कोई अपनी-अपनी मानसिकता तथा पूर्वाग्रहों के आधार पर अपने-अपने तरीक़े
से विश्लेषण करेगा और निष्कर्ष निकालेगा। द्वंद्वात्मत्क पद्धति, तात्त्विक (मेटाफिजिकल)
पद्धति से भिन्न होगी। केवल विशिष्ट व्यक्तियों के या साधारण आमजनों की आकांक्षाओं
तथा कार्यकलापों का ही संज्ञान लेते हुए, तथा समूहों तथा संगठनों की वर्ग-चेतनाओं के अमूर्त रूप को नजरंदाज करते
हुए, अल्पावधि के आधार पर, परिघटनाओं
की श्रंखला का विश्लेषण करना गैर-द्वंद्वात्मत्क पद्धति है। दूसरी ओर, व्यक्तियों की
निजी तथा उनके वर्ग की सामूहिक, दोनों ही की महत्वाकांक्षाओं तथा चेतना को उनके व्यक्तिगत
तथा सामूहिक दोनों तरह के कार्यकलापों की चालक शक्ति मानते हुए किसी परिघटना को मानव
समाज की अनवरत विकास प्रक्रिया के एक चरण के रूप में समन्वित
(इंटीग्रेटेड) दृष्टि के साथ देखना द्वंद्वातमक पद्धति है।
गैर-द्वंद्वात्मत्क पद्धति अपनाकर, सुविधानुसार तथ्यों तथा
आँकड़ों को चुनकर कुछ भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है। क्योंकि निम्नमध्यवर्गीय आलोचक
तो द्वंद्वात्मत्क पद्धति के क़ायल ही नहीं हैं, इस कारण यह आलेख, प्रमुख कम्युनिस्ट
पार्टी सीपीएम, जो भारत में वामपंथी आंदोलन की अगुआ मानी जाती है तथा जिसका मार्क्सवाद
और इसी कारण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाता है, के द्वारा निकाले
गये निष्कर्षों की विवेचना तक ही सीमित रहेगा।
मार्क्सवाद, मानव समाज या किसी संगठन को, जैविक प्रक्रिया
तथा चेतना संपन्न एक जैविक अस्तित्व के रूप में देखता है, न कि व्यक्तियों के एक साधारण
झुंड के रूप में जैसा कि बुर्जुआ विचारक करते हैं। एंगेल्स समझाते हैं, "यह आगे
का विकास, उस समय, जब मनुष्य अंतिम रूप से वानर से भिन्न हो गया, अपने चरम पर नहीं
पहुँचा, बल्कि संपूर्ण तौर पर निरंतर अतीव प्रगति करता रहा ................ एक नये
तत्त्व के कारण, जो पूर्णत्व प्राप्त मानव के आने के साथ ही क्रियाशील हुआ, अर्थात
समाज। (बंदर से मानव के संक्रमण में श्रम
की भूमिका, प्रकृति के द्वंद्व)। समाज मनुष्य की तरह की भौतिक-जैविक संरचना नहीं है,
बल्कि चेतना तथा और भी दूसरी जैविक विशिष्टताओं से संपन्न एक सामाजिक-आर्थिक संरचना
है। जब से समाज की उत्पत्ति हुई है मानव तथा समाज साथ-साथ विकसित होते रहे हैं। मार्क्स
जर्मन आइडियोलाजी में रेखांकित करते हैं, “जीवन का उत्पादन, दोनों प्रकार से, अपना
स्वयं का श्रम में तथा नये जीवन का संत्तानेत्पत्ति के रूप में, अब एक दोहरे संबंध
के रूप में प्रकट होता है : एक ओर प्राकृतिक रूप में और दूसरी ओर सामाजिक संबंध के
रूप में।“ बुर्जुआ चिंतक इतिहास को कुछ व्यक्तियों के विचारों तथा क्रिया कलापों के
फल स्वरूप होने वाली असंबंद्ध परिघटनाओं की श्रंखला के रूप में देखते हैं, जब कि मार्क्सवाद
इतिहास के बारे में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नज़रिया अपनाता है, जो कि ऐतिहासिक भौतिकवाद
है। जे. बाख को लिखे अपने पत्र में एंगेल्स इसे निम्न शब्दों में समझाते हैं, 'इतिहास
की भौतिकवादी अवधारणा के अनुसार, वास्तविक जीवन का उत्पादन तथा पुनरुत्पादन ही इतिहास
में अंतिम निर्णयकारी तत्त्व है।'
मार्क्स ने अठारहवाँ ब्रुमेयर में लिखा है, “संपत्ति के विभिन्न
रूपों के ऊपर, अस्तित्व की सामाजिक परिस्थितियों के ऊपर, स्पष्ट तथा विशिष्ट रूप से
निर्मित भावनाओं, भ्रांतियाँ, वैचारिक
पद्धति और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की संपूर्ण अधिरचना खड़ी हो जाती है। पूरा वर्ग
इसकी, अपनी भौतिक बुनियाद तथा उसके अनुरूप सामाजिक संबंधों के आधार पर, संरचना तथा
निर्माण करता है।” इस कारण विभिन्न
वर्गों की उनकी अपनी अपनी राजनैतिक गतिविधियों का विश्लेषण करते समय, इन वर्गों के
भौतिक आधार को, ख़ासकर भौतिक वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण के दायरे में उनकी सामाजिक
स्थिति को, नज़रअंदाज़ करना भयंकर भूल होगी। अर्थव्यवस्था में विभिन्न वर्गों की तुलनात्मक
स्थिति को ध्यान में रखे बिना, किसी राजनैतिक गतिविधि तथा ऐतिहासिक घटनाक्रम को समझने
तथा उससे सबक़ हासिल करने के किसी भी प्रयास का नतीजा ग़लत ही निकलेगा। हर वर्ग अपनी
वर्ग चेतना के अनुसार काम करता है तथा वर्ग चेतना की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना और उनके
बीच के द्वंद्वात्मत्क संबंध की स्पष्ट समझ के बिना, कोई भी न तो ऐतिहासिक घटनाओं को
ठीक तरह से समझ सकता है और न ही सही सबक़ हासिल कर सकता है। मार्क्सवाद भावनाओं, भ्रांतियों,
वैचारिक पद्धतियों तथा जीवन के प्रति नज़रियों को वैचारिक-सामाजिक-चेतना मानता है यानि
सामाजिक-चेतना की अधिरचना, और संपत्ति के रूपों तथा अस्तित्व की सामाजिक परिस्थितियों
को भौतिक-सामाजिक-चेतना यानि सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु। इसका सार लेनिन ने इस तरह
व्यक्त किया है, 'अर्थव्यवस्था आधार है और राजनीति अर्थव्यवस्था की संगठित अभिव्यक्ति।'
एंगेल्स ने रेखांकित किया है, “अर्थशास्त्रियों का दावा है
कि श्रम ही सारी संपत्ति का स्रोत है। श्रम जिसे संपत्ति में परिवर्तित करता है उस कच्चे माल को मुहैया कराने
वाली प्रकृति के बाद श्रम का ही नंबर आता है।” मानव अपनी श्रमशक्ति के द्वारा, औज़ारों के ज़रिए प्रकृति
द्वारा मुहैया कराये गये पदार्थों में परिवर्तन कर उत्पादन करता है। जबसे समाज अस्तित्व
में आया है, सारा उत्पादन सामाजिक है न कि व्यक्तिगत। निरंतर विकसित होते जानेवाले
सामूहिक तथा व्यक्तिगत ज्ञान के साथ मनुष्य सामूहिक तौर पर, उत्पादन के दौरान ख़र्च
की गई श्रमशक्ति को पुनर्जीवित करने के लिए जो आवश्यक होता है उससे अधिक उत्पादन अर्थात,
अतिरिक्त उत्पादन करने लगते हैं। अतिरिक्त उत्पादन के गैरबराबर वितरण ने समाज को दो
वर्गों में बाँट दिया है, उत्पादक-उपभोक्ता वर्ग तथा अतिरिक्त-उत्पादन-भक्षी वर्ग।
उत्पादक शक्तियों के तथा उत्पादकता के बढ़ने और श्रम के विभाजन, के कारण सामाजिक उत्पादन
के बँटवारे में अलग-अलग अपेक्षाओं की वजह ने विभिन्न प्रकार के अंतर्विरोधों को जन्म
दिया, और पहले का वर्ग-विहीन समाज अब वर्ग-विभाजित समाज में बदल गया जिसमें विभिन्न
वर्गों का सामाजिक उत्पाद में हिस्सा, संपत्ति के नाना प्रकार के स्वामित्व के आधार
पर होने लगा।
उत्पादन प्रक्रिया के तीन अवयवों, श्रम-कर्म अर्थात परिवर्तित
किये जाने वाले अवयव, श्रम के औज़ार तथा श्रम शक्ति, के निजी स्वामित्व के आधार पर
मार्क्स ने तीन अलग-अलग प्रकार की उत्पादन व्यवस्थाओं - ग़ुलामी, सामंती तथा पूंजीवादी,
की पहचान की थी। बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था, जहां छोटे-छोटे समाजों के बड़े समाजों में
विलय को अनिवार्य कर रही थी वहीं अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने की हवस, वर्गों के बीच
न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोधों को और अधिक तीक्ष्ण कर रही थी। एंगेल्स लिखते हैं, “परंतु ये विरोध, परस्पर विरोधी आर्थिक हितों वाले
ये वर्ग, व्यर्थ के संघर्ष में अपने को और पूरे समाज को नष्ट न कर डालें, इसलिए एक
ऐसी शक्ति, जो मालूम पड़े कि समाज के ऊपर खड़ी है, आवश्यक बन गयी ताकि इस संघर्ष
को हलका किया जा सके। यही शक्ति, जो समाज से पैदा होती है, पर जो समाजोपरि स्थान
ग्रहण कर लेती है और उससे अधिकाधिक पृथक होती जाती है, राज्य है।” वे आगे लिखते हैं, “राज्य चूंकि वर्ग-विरोध पर अंकुश रखने की
आवश्यकता से पैदा हुआ था, लेकिन वह वर्गों के आपसी संघर्षों के ऐन बीच में पैदा
हुआ था, इस कारण आम तौर पर वह सर्वाधिक शक्तिशाली, आर्थिक तौर पर सत्तावान वर्ग जो
अपने साधनों के कारण राजनैतिक रूप से शासक वर्ग बन जाता है, का राज्य होता है।” विभाजित मानव समाज का इतिहास, राजसत्ता की मशीनरी
पर अधिकार के द्वारा उत्पादन के साधनों को क़ब्ज़ाने के लिए होने वाले वर्ग संघर्ष का इतिहास है।
मार्क्स ने पी. अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में लिखा था,
“……निम्न मध्यवर्गीय आनेवाली सभी
सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।” तथा “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-मध्यवर्गीय एक ओर तो
समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च वर्ग के ऐश्वर्य से
चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी।” केवल इसी द्वंद्वात्मत्क भौतिकवादी पद्धति के आधार
पर, विभिन्न सामाजिक आंदोलनों की प्रकृति का तथा उनमें विभिन्न समूहों की भूमिका का
ठीक-ठीक विश्लेषण कर सही समझ हासिल की जा सकती है तथा मौजूदा घटनाचक्र से सही सबक़
हासिल करने के लिए हमें, भारतीय बुर्जुआजी द्वारा पिछले सौ सालों में विकास के भिन्न-भिन्न
चरणों पर अदा की गई भूमिका को समझना होगा।
पिछली शताब्दी की शुरुआत से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, देखने
में स्थानीय लोगों का विदेशी शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष था, पर यथार्थ में यह अच्छी
तरह स्थापित सामंत वर्ग तथा उभरते हुए राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के बीच का संघर्ष था।
सामंत वर्ग की ओर से थे ज़मींदार तथा अंग्रेज़ी बुर्जुआजी के दलाल व्यापारी-भागीदारों
के रूप में भारतीय दलाल-बुर्जुआ, और दूसरी ओर था किसानों तथा मजदूरों द्वारा समर्थित
उभरता हुआ राष्ट्रवादी बुर्जुआ। जैसे-जैसे समय गुज़रा, औद्योगीकरण तथा राष्ट्रीय तथा
अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक विकास के साथ दलाल-बुर्जुआ ने पाला बदल लिया तथा स्वतंत्रता
आंदोलन की बागडोर संभाल ली।
निम्न बुर्जुआजी तथा सामंतों के बीच हितों का टकराव आज़ादी
के आंदोलन के शुरू से ही रहा है, पर वह महत्वपूर्ण बना शताब्दी के पहले चतुर्थांश के
बाद जब उच्च मध्यवर्ग ने पाला बदला तथा आज़ादी के आंदोलन की बागडोर संभाली। नई परिस्थिति
में निम्न मध्यवर्ग भी दो हिस्सों में बंट गया। एक पूर्ण स्वराज्य के लिए राजनैतिक
स्वतंत्रता के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करते हुए तथा आर्थिक आज़ादी के लिए मज़दूरों
के संघर्ष को नेपथ्य में ढकेलते हुए उच्च मध्य वर्ग के साथ जुड़ गया, और दूसरा समाजवाद
(काल्पनिक) की स्थापना के लिए सोवियत क्रांति के पदचिंहों पर चल पड़ा। पहला हिस्सा
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अभिन्न अंग बन गया, और दूसरा हिस्सा बोल्शेविक आंदोलन
की सफलता से बौराया हुआ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में लग गया। एक कम्युनिस्ट
पार्टी को, मानव जाति का उद्धार करने के लिए सर्वहारा संघर्ष का हरावल दस्ता समझा जाता
है और सर्वाधिक क्रांतिकारी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अर्थात मार्क्सवाद से लैस होने के
कारण उसे किसानों तथा मज़दूरों को उनके संघर्ष में सफल नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम
माना जाता है। लेकिन सौ सालों में भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन उतराता-डूबता ही नज़र
आता है और आज के दौर में इतने निचले स्तर पर नज़र आता है कि, कांग्रेस तथा भाजपा गठबंधनों
की जगह विकल्प के रूप में जहां कम्युनिस्ट पार्टियों को देखा जाता था वहां विकल्प के
रूप में आज भाकपा तथा माकपा स्वयं आम आदमी पार्टी को देख रही हैं। दिसंबर 2013 में
त्रिपुरा में माकपा की केंद्रीय समिति की मीटिंग के दौरान महासचिव प्रकाश करात ने संवाददाताओं
से कहा, "विधान सभा चुनावों में आआप, कांग्रेस तथा भाजपा का व्यावहारिक विकल्प
बन गई है। आआप पार्टी का समर्थन करने से पहले हमें उनके कार्यक्रम,
नीतियाँ तथा योजनाएँ देखनी होंगी।'
आज़ादी के बाद, बुर्जुआजी, जिसने भारत में पूँजीवाद के विकास का बीड़ा उठाया
था, ने विदेशी पूँजी के ख़िलाफ़ अपनी प्रतिस्पर्धा में राष्ट्रवादी
भावनाओं के आधार पर मजदूर वर्ग का समर्थन हासिल कर लिया और प्राकृतिक संसाधनों को बाँटने
के लिए सामंत वर्ग के साथ गठजोड़ कर लिया। आज़ाद होने के समय भारत में औद्योगिक विकास
विकसित राष्ट्रों के मुक़ाबले में बहुत निम्न स्तर पर था, और इस कारण लोगों की अपेक्षाएँ
भी। क्योंकि साम्राज्यवादी लूट पर अंकुश लग गया था, तीनों वर्ग - सामंत, बुर्जुआ तथा
पूँजीपति - जो किसानों तथा मज़दूरों द्वारा पैदा किये जाने वाले अतिरिक्त उत्पादन पर
जीते हैं, सौहार्द के साथ रह सकते थे क्योंकि उनको अपनी-अपनी अपेक्षाओं के अनुसार हिस्सा
मिल सकता था। इस कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने भारतीय बुर्जुआजी तथा किसानों
तथा मज़दूरों के नुमाइंदे के रूप में शुरुआत की थी, आज़ादी के बाद, सामंतों तथा निम्न
बुर्जुआजी को साथ लेकर, विदेशी पूँजीवाद के ख़िलाफ़ भारतीय पूँजीवाद के हितों की रक्षा
करने लगी। आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों ने भारतीय पूँजीवाद को अबाध विकास के साथ
अपनी उच्चतम अवस्था, साम्राज्यवाद तक पहुँचते देखा है।
आज़ादी के बाद शताब्दी के तृतीय चतुर्थांश का इतिहास, भारतीय
पूँजीवाद का, भारतीय प्रायद्वीप के ऊपर पूरी तरह नियंत्रण करने के बाद, उच्चतम अवस्था
साम्राज्यवाद तक विकसित होने का इतिहास है। जब भारतीय पूँजी अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के
साथ एकीकृत हो गई तो उसे व्यापार के लिए राज्य के द्वारा लगायी उन किसी भी प्रकार की
बंदिशों की ज़रूरत नहीं रह गयी थी जिनकी ज़रूरत उसे तृतीय चतुर्थांश में थी, और सरकार
ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की माँगों के अनुरूप मुद्रा तथा पदार्थों की स्वतंत्र आवाजाही
के लिए धीरे-धीरे सभी पाबंदियों को हटा लिया। आख़िरी चतुर्थांश इसी संक्रमण का इतिहास
है।
और भी, वैश्विक आवश्यकताओं को पूरा करने के मकसद से, उसने
प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण तथा कृषकों तथा हस्तकारों में से मजूरी कमाने वाले
मजदूरों की अभूतपूर्व फ़ौज भर्ती करने के लिए सामंतवाद के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ
करना शुरू कर दिया। नयी परिस्थिति ने विभिन्न वर्गों के बीच हितों की टकराहट को केंद्र
में ला दिया है। अपने चरित्र के अनुरूप, छोटा सरमायेदार, सामंतवाद के पूँजीवाद के साथ
संघर्ष में, सामंतवाद की ओर से शामिल हो गया। भिन्न-भिन्न वर्गों ने, अपने-अपने आर्थिक
हितों के अनुरूप, राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने के लिए अलग-अलग दल गठित करना शुरू कर दिया।
इसके कारण जाति, भाषा, धर्म तथा दूसरी स्थानीय समस्याओं के आधार पर अनेकों क्षेत्रीय
पार्टियाँ तथा उनकी 'अस्मिता की राजनीति' दिखायी पड़ने लगे।
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के बाद का इतिहास, उस संघर्ष का
इतिहास है जिसमें एक ओर भारतीय पूँजीवाद अपने वैश्विक गठजोड़ के साथ है तो दूसरी ओर
सामंतवाद है जिसे निम्न सरमायेदार अपनी प्रकृति के अनुरूप समर्थन दे रहा है। राष्ट्रीय
स्तर पर कांग्रेस अपनी मुक्त-बाज़ार की अवधारणा के साथ पूँजीवाद के हितों की पैरोकार
है, और भाजपा अपनी 'भव्य अतीत' तथा 'लघु उत्तम' की अवधारणा के साथ सामंतवाद तथा निम्न
बुर्जुआ की पैरोकारी कर रही है। सभी क्षेत्रीय पार्टियाँ इन्हीं दोनों राष्ट्रीय पार्टियों
के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। किसान और मज़दूर वर्ग, अनगिनत स्वंभू कम्युनिस्ट धड़ों
की मौजूदगी और उनके अपने-अपने तरह के समाजवाद के आश्वासनों से भ्रमित तथा सन्निपात
में चौराहे पर ही डोल रही है।
केजरीवाल की अगुआयी में आप पार्टी के अस्तित्व में आने तथा
उसे मिलने वाले भयंकर समर्थन से क्या सबक़ हासिल होते हैं इसका उत्तर दो आधारभूत प्रश्नों
के उत्तर पर निर्भर करेगा। पहला है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ जो सर्वहारा की पार्टियाँ
हैं, किसानों तथा मजदूरों को नेतृत्व प्रदान कर कांग्रेस तथा भाजपा का विकल्प पेश करने
में क्यों नाकाम रही हैं, और दूसरा है क्या आप का आंदोलन शोषित वर्गों को आज़ादी दिलाने
की दिशा में किसी गुणात्मक परिवर्तन की दिशा में ले जायेगा या फिर वह पहले के जैसे
जेपी तथा वीपीसिंह के नेतृत्व वाले आंदोलनों की तरह ही बिखर जायेगा।
पहले प्रश्न की गहन पड़ताल करने से पहले आइये हम भाकपा या
बाद में उसकी टूट से उपजे धड़ों की भूमिका के लेखा-जोखा पर एक संक्षिप्त नज़र डाल लें।
आज़ादी के आंदोलन में भाकपा अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ रही थी पर उसने कांग्रेस को अंग्रेजी साम्राज्य का दलाल घोषित करते हुए उसके साथ हाथ मिलाने
से इनकार कर दिया परंतु द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी द्वारा सोवियत
यूनियन पर हमला करने के बाद भाकपा ने, यह कहते हुए कि अब युद्ध का चरित्र बदल गया है
तथा अब वह पूँजीवाद की बाजार के बंटवारे की लड़ाई न रह कर फासीवाद के खिलाफ जनवाद की
लड़ाई में बदल गया है, अंग्रेज़ों का समर्थन करना शुरू कर दिया। आज़ादी के बाद भाकपा
ने कांग्रेस की नेहरूवादी समाजवाद के नाम पर शुरू की गई नीतियों का समर्थन करना शुरू
कर दिया जब कि यथार्थ में वे नीतियाँ विदेशी पूँजीवाद की प्रतिस्पर्धा से बचाते हुए भारतीय पूँजीवाद को सुदृढ़ करने के लिए थीं।
बाद में जब भारतीय पूँजीवाद ने वैश्विक पूँजी से गठजोड़ शुरू कर दिया और कांग्रेस ने अपनी नीतियाँ सामंत तथा निम्न सरमायेदारों के हितों के ख़िलाफ़
मोड़ना शुरू कर दिया तो भाकपा तथा माकपा, कांग्रेस के ख़िलाफ़ होकर जेपी आंदोलन, जो
कि सामंती हितों के साथ जुड़ा हुआ पूरी तरह निम्न मध्य वर्गीय आंदोलन था, का समर्थन
करने लगीं। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में जब तेरहवीं लोकसभा में भाजपा कांग्रेस के ऊपर
हावी हो गई तो माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे ने फिर पाला बदल लिया और सांप्रदायिकता
के ख़िलाफ़ लड़ाई के नाम पर कांग्रेस के समर्थन में जुट गया। चौदहवीं लोकसभा में कांग्रेस
वाममोर्चे के समर्थन से सत्ता में वापस आ गयी और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के साथ सामरिक
गठजोड़ की अपनी नीति पर चल पड़ी। जब सरकार ने एग्रीमेंट 123 पर हस्ताक्षर किये तो वाममोर्चे
के पास कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। पंद्रहवीं लोकसभा
के लिये होने वाले चुनाव से पहले भाकपा तथा माकपा ने बाक़ी सभी क्षेत्रीय पार्टियों
को कांग्रेस तथा भाजपा दोनों के ख़िलाफ़ तीसरा मोर्चा खड़ा करने के लिए समझाने का प्रयास
किया। पर अब तक वे अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो चुके थे। कोई भी उन्हें विश्वसनीय
भागीदार के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि
उनकी छवि किसी भी क्षण सुविधानुसार पाला बदल लेने वाले की बन चुकी थी। किसान तथा मज़दूर
उनमें अपने प्रतिनिधि के तौर पर विश्वास खो चुके थे और उनकी पहचान भी और दूसरी बुर्जुआ
पार्टियों की तरह हो गयी थी, इस हद तक कि पिछले चुनाव में जनता ने उन्हें
नकार दिया और दूसरी पार्टियों के प्रतिनिधियों को वोट दिया।
यह वही इतिहास है जिसके बारे में एंगेल्स ने अपनी प्रसिद्ध
पुस्तक 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता' में पहले ही आगाह किया था, जिसमें उन्होंने
बहुत सटीक तरह से प्रतिनिधि आधारित जनवाद के अंतर्गत राज्य के वास्तविक चरित्र को परिभाषित
किया था। "और अंतिम बात यह है
कि संपत्तिवान वर्ग सार्विक मताधिकार के द्वारा सीधे शासन करता है। जब तक कि
उत्पीड़ित वर्ग - इस मामले में सर्वहारा वर्ग – इतना परिपक्व नहीं हो जाता है कि
अपने आप को स्वतंत्र करने के योग्य हो जाये, तब तक उसका अधिकांश भाग वर्तमान
सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभावित व्यवस्था समझता रहेगा और इसीलिए वह
राजनैतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का दुमछल्ला, उसका उग्र वामपक्ष बना रहेगा। लेकिन
जैसे-जैसे यह वर्ग परिपक्व होकर स्वयं अपने को मुक्त करने के योग्य बनता जाता है,
वह अपने को खुद अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता है और पूंजीपति के नहीं, बल्कि
अपने प्रतिनिधि चुनता है।” केंद्र
तथा राज्य में होने वाले सभी चुनावों के नतीजे साफ़-साफ़ दर्शाते हैं कि उत्पीड़ित
वर्ग द्वारा बुर्जुआ तथा सामंत वर्ग के प्रतिनिधियों को ही चुना
जाता है और उत्पीड़ित वर्ग अभी ठीक तरह से जागृत नहीं है।
पर और अधिक महत्वपूर्ण है इसका कारण जानना कि कम्युनिस्ट
पार्टियाँ जनता को जागृत करने में नाकाम क्यों हैं जबकि मज़दूर वर्ग को उसके संघर्ष
में सफल नेतृत्व प्रदान करने के लिए यह सबसे पहली तथा सबसे अहम शर्त है। अगर हम लेनिन
तथा माओ की चेतावनियों पर ग़ौर करें तो तस्वीर बिल्कुल साफ़ हो जाती है। देश निकाले
के दौरान, संशोधनवाद के ख़िलाफ़ लड़ते हुए, मार्क्स के जन्मदिन की 90वीं सालगिरह पर
लेनिन ने आगाह किया था, "जो
कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते
मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र
होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान
के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा
आंदोलन नहीं चला सकता है।"
तथा माओ ने अपने ख्याति प्राप्त पर्चे 'नये जनवाद पर' में बुर्जुआजी के चरित्र के बारे
में चेतावनी दी थी, "दुर्जेय दुश्मन से सामना होने पर वे उसके ख़िलाफ़ मज़दूरों
तथा किसानों को एकजुट करते हैं, पर जब मज़दूर किसान सजग हो जाते हैं तो वे पलट कर मज़दूर
किसानों के दुश्मन से मिल जाते हैं। ये साधारण नियम है जो दुनिया भर में हर जगह बुर्जुआजी
पर लागू होता है।“ एंगेल्स, लेनिन तथा माओ के अवलोकनों की रोशनी में भारत में कम्युनिस्ट
आंदोलन के 90 साल के इतिहास में यह तथ्य उजागर होता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में
बुर्जुआ चेतना गहरे तक व्याप्त है और अपने जन्म से ही निम्न बुर्जुआ पार्टियों की भाँति
ही व्यवहार करती आ रही हैं।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन, बोल्शेविक क्रांति की
सफलता के तुरंत बाद 1920 में ताशकंद में कुछ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों द्वारा किया गया
था। बोल्शेविक पार्टी के गठन के अपने कार्यक्रम पर काम करने के दौरान लिखे गये अपने
प्रख्यात आलेख 'क्या करना है' में लेनिन रेखांकित करते हैं, "जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़े भी
परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ-साथ सैद्धांतिक स्तर में आई
गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादद में लोग, सतही या पूरी
तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के
कारण, उसमें शामिल हो गये हैं।"
इसके बाद भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का सौ साल का इतिहास दर्शाता है कि भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी के संस्थापकों को मार्क्सवाद की ठीक से समझ नहीं थी और पार्टी ने बुर्जुआ चेतना
के साथ शुरुआत की थी न कि सर्वहारा चेतना के साथ और वह आज भी उसी रुझान पर क़ायम है।
आंदोलन के अनेकों नाज़ुक चरणों में ढुलमुल प्रवृत्ति और तदनांतर कम्युनिस्ट पार्टी
का अनेकों गुटों में विखंडन इस बात का
सत्यापन है कि भारत में विभिन्न
कम्युनिस्ट धड़ों का दृष्टिकोण बुर्जुआ दृष्टिकोण है और यही, स्वतंत्रता आंदोलन के
दौरान, आज़ादी के बाद या फिर आर्थिक उदारीकरण के बाद भी, विभिन्न वर्गों के बीच के
अंतर्विरोधों को समझने में नाकाम रहने का कारण है।
इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जनता विभिन्न कम्युनिस्ट
पार्टियों में और अन्य क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों में, तुलना करने पर कोई भेद नहीं
देखती है। पिछली आधी शताब्दी में, शोषण से मुक्ति के अपने संघर्ष में, मज़दूर वर्ग
सामंतवादी तथा पूँजीवादी पार्टियों को मत देता रहा है। हमेशा की तरह वे निम्न मध्य
वर्ग से आये हुए बुद्धिजीवियों के पीछे चलते रहे हैं, जो सर्वहारा को वैज्ञानिक समाजवाद
के बारे में शिक्षित करने में नाकाम रहे हैं। लेनिन से समझाया था कि समाजवाद सर्वहारा
की चेतना में अंदर से पैदा नहीं होता है, उसे निम्न मध्य वर्ग के बुद्धिजीवियों द्वारा
बाहर से लाना पड़ता है। काल्पनिक समाजवाद भी बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवियों द्वारा
लाया गया था और वैज्ञानिक समाजवाद भी लाना पड़ेगा। जनता ने भाकपा तथा माकपा को चुनना
स्वीकार नहीं किया है और इसके बदले में जेपी तथा वीपी या केजरीवाल जैसे नेताओं का अनुकरण
करती आ रही है और इसी तरह करती रहेगी जब तक कि वैज्ञानिक समाजवाद सर्वहारा की चेतना
में घर नहीं कर लेता है।
अब पहले प्रश्न का उत्तर मिल जाने के बाद, दूसरे प्रश्न का
उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है। वैज्ञानिक विचारधारा के अभाव में आआप का
आंदोलन एक संगठित पार्टी के रूप में नाकामयाब रहेगा और जल्दी ही बिखर जायेगा, जैसे
कि जेपी तथा वीपी के आंदोलनों के साथ हुआ था।
तब फिर क्या सबक़ हासिल होते हैं और आगे का रास्ता क्या है।
‘क्या करना है’ में लेनिन लिखते हैं, “कामगारों में वर्ग
राजनैतिक चेतना केवल बाहर से ही लाई जा सकती है, अर्थात आर्थिक संघर्ष के बाहर से ही
केवल, मज़दूरों तथा मालिकों के बीच के संघर्ष के दायरे के बाहर से” और “मज़दूरों के
बीच सिद्धांत के अहसास के बिना, यह वैज्ञानिक समाजवाद कभी भी उनके अस्तित्व में शामिल
नहीं हो सकता था, कितना भी कुछ कह लो।” जो अपने आप के भारत में सर्वहारा का हरावल दस्ता
होने का दावा करते हैं, उनके लिये ये ही सबक़ हैं सीखने के लिए। दुर्भाग्य से सभी कम्युनिस्ट
पार्टियाँ समाजवादी क्रांति करने की जल्दी में मालूम होती हैं और न ख़ुद को और न ही
कामगारों को सिद्धांत के बारे में शिक्षित करने के लिए समय देने के लिए तैयार हैं।
अपने आप को अवसरवादिता की आलोचना से बचाने के लिए वे मार्क्स का 'फायरबाख की थिसिस'
से उद्धरण पेश करते हैं कि “दार्शनिकों ने विश्व की अनेकों तरह से व्याख्या की है,
पर प्रश्न है कि उसे बदला कैसे जाय।” और उनके गोथा कार्यक्रम पर लिखे उनके पत्र से,
“वास्तविक आंदोलन का एक क़दम, एक दर्जन कार्यक्रमों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है”। ऐसे संशोधनवादियों की भर्त्सना करते हुए लेनिन स्पष्ट करते हैं,
“सैद्धांतिक अफ़रा-तफ़री के इस दौर में इन शब्दों को दोहराना ऐसा है जैसे कि शवदाह
के दौरान शोकाकुल लोगों को जन्मदिन की शुभकामनाएँ देना। और भी अधिक, मार्क्स के ये
शब्द उनके गोथा कार्यक्रम पर लिखे गये पत्र से लिये गये हैं जिसमें वे नियमों के निर्धारण
में सिद्धांतों की क़तर-ब्योंत की तीखी भर्त्सना करते हैं। मार्क्स ने पार्टी के नेताओं
को लिखा था, ‘अगर आपको एकजुट होना पड़े तो आंदोलन के व्यावहारिक उद्देश्यों की पूर्ति
के लिए समझौते करें परंतु नियमों के ऊपर किसी भी मोल-तोल की इजाज़त न दें, सैद्धांतिक
कटौतियाँ न करें।’ यह था मार्क्स का विचार, फिर भी हमारे बीच में ऐसे लोग हैं जो सिद्धांत
के विशेष महत्व को कमतर करने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करते हैं।” सैद्धांतिक संघर्ष
के महत्व पर ज़ोर देते हुए उन्होंने
कहा था, “बिना क्रांतिकारी सिद्धांत
के कोई भी क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है। इस दौर में, जब अवसरवाद के प्रचलन का रिवाज तथा अति
संकीर्ण व्यावहारिक सक्रियता के प्रति आसक्ति का चोली-दामन का साथ है, इस विचार का
आग्रह, बार-बार जितना भी किया जाये, कम है।”
और अवसरवादिता है क्या? अवसरवाद, संशोधनवाद का, चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी हो, व्यावहारिक
रूप है। लेनिन ने अपने बहुमूल्य आलेख मार्क्सवाद तथा संशोधनवाद में संशोधनवाद को बहुत
सटीक तरीक़े से इन शब्दों में व्यक्त किया है, “ ‘आंदोलन ही सब कुछ है, अंतिम उद्देश्य कुछ भी नहीं है’ बर्नस्टाइन का यह फिकरा अन्य कई तकरीरों के
मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से संशोधनवाद की व्याख्या करता है। परिस्थिति-दर-परिस्थिति आचरण तय करना, प्रतिदिन की घटनाओं तथा
कतर-ब्योंत की ओछी राजनीति के अनुरूप अपने को ढालना, सर्वहारा के प्राथमिक हितों
तथा सारी पूंजीवादी व्यवस्था तथा पूंजीवाद के विकास के आधारभूत लक्षणों को
नजरअंदाज करना, फौरी हासिल या संभावित फायदों के लिए इन प्राथमिक हितों की
तिलांजलि देना, ऐसी ही संशोधनवाद की नीति।” और वामपंथी आंदोलन, भाकपा से लेकर माओवादियों तक, का पूरा
इतिहास तथा माकपा के महासचिव का बयान इस बात की तसदीक़ करते हैं।
और आगे का रास्ता वही है जो लेनिन ने सौ साल पहले दर्शाया
था। “......... पर विभ्रम तथा ढुलमुलपन,
जो रशियन सोशल डेमोक्रेसी [यहां पढ़ें : भारतीय
कम्युनिस्ट आंदोलन] के इतिहास के पूरे दौर का विशिष्ट लक्षण है, ........ महत्व हासिल कर लेता है, क्योंकि हम कोई भी प्रगति नहीं
कर सकते हैं जब तक हम इस पूरे दौर का अंत नहीं कर देते हैं।“
सुरेश श्रीवास्तव
15 जनवरी, 2014
9810128813
suresh_stva@hotmail.com
No comments:
Post a Comment