Saturday, 25 January 2014

भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहराता संकट

भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहराता संकट
सुरेश श्रीवास्तव
           
अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त तीन दिग्गज अर्थशास्त्रियों के हाथ में देश की बागडोर होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में भूचाल आया हुआ है और किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या किया जाय। जो सत्ता में बैठे हैं वे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और अपनी नाकामी छुपाने के लिए सभी विकासशील देशों की मुद्रा के अवमूल्यन की दलील दे रहे हैं। उनके पास समस्या का सीधा सा हल है, जनता द्वारा संयम और उपभोग में कटौती। जो सत्ता से बाहर हैं वे सरकार की जनहितकारी नीतियों को और भ्रष्टाचार रोकने में सरकार की लाचारी को दोषी ठहरा रहे हैं। उनके अनुसार समस्या का समाधान है शीघ्र चुनाव और सत्ता परिवर्तन। और वामपंथी अपनी रटी-रटायी भाषा में समस्या का ठीकरा सरकार की वैश्वीकरण की नीतियों तथा भ्रष्टाचार के सिर फोड़ रहे हैं। और उनके अनुसार समस्या का समाधान है पूंजीवाद की जगह समाजवाद की स्थापना।
जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसे तो पहले ही खाने के लाले पड़े हुए हैं कटौती कहां करे। जिनके पास इफरात है तथा पेट भरे हुए हैं उनके लिए तो गाल बजाना काफी है, वे कटौती क्यों करें। सत्ता परिवर्तन की मांग को देखें, तो जनता तो पिछले पच्चीस साल से उसी मांग को ही पूरी करती आ रही है, पर कुर्सी पर बैठ कर सभी मलकने लगते हैं और वे ही नीतियां लागू करते हैं जो पूंजीवीद के लिए मुफीद हैं। और समाजवाद के तो अनगिनत रूप पेश किये जा रहे हैं । जितनी वामपंथी पार्टियां हैं उतने ही तरह के समाजवाद हैं और उतनी ही तरह के पूंजीवाद। सब कुछ इतना गड्डमड्ड कर रखा है कि जनता को समझ ही नहीं आ रहा है कि कौन सा वाद हटाना है और कौन सा लाना है।
 ‘दार्शनिकों ने विश्व की अनेकों तरह से व्याख्या की है पर प्रश्न है उसे बदला कैसे जाय।वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अर्थात प्राकृतिक नियमों को समझने की द्वंद्वात्मक पद्धति तथा प्रकृति की भौतिकवादी व्याख्या ही, प्रकृति में सभी कुछ को, जीव जगत, मानव तथा मानव-समाज से लेकर चेतना और विकास के नियमों को समझने का एकमात्र रास्ता है। इसी पद्धति के आधार पर मानव समाज के गठन और विकास के आधार की पहचान मानव श्रम द्वारा अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के रूप में होती है तथा उत्पत्ति से लेकर आज तक की मानव समाज की विकास यात्रा की पड़ताल ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में उस पहचान को सत्यापित करती है और यही ज्ञान समाज को बदलने के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त करता है।
प्राकृतिक नियमों का यह शाश्वत सिद्धांत ही सर्वहारा-चेतना अर्थात मार्क्सवाद की मूल अंतर्वस्तु है, यह समझना बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के लिए उनके पूर्वाग्रहों के कारण असंभव है, और तथाकथित मार्क्सवादी धुरंधरों के लिए उनकी संशोधनवादी सोच के कारण। आम जनता के सामने अनेकों सवाल अनुत्तरित हैं, पर डालर के मुकाबले रुपये का मूल्य इतनी तेजी से क्यों गिरा, इस समय का एक यक्ष प्रश्न है सो इसकी पड़ताल फौरी जरूरत है।
प्राकृतिक पदार्थों को उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करने के लिए आवश्यक (एक बार में या अनेक चरणों में), एक ही सर्वव्यापी चीज है और वह है मानवीय श्रम। किसी उत्पाद का वास्तविक मूल्य होता है उसमें अंतर्निहित सामाजिक रूप से आवश्यक औसत उपयोगी मानवीय श्रम, (सामाजिक विकास स्तर तथा परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक, निश्चित समय में खर्च की गई श्रम शक्ति), जो उत्पादन प्रक्रिया में उसमें अंतर्निहित हो जाता है।
समय के साथ मानव-समाज का सामूहिक ज्ञान बढ़ता गया है और इसके साथ ही श्रम का विभाजन तथा उत्पादक शक्तियां भी बढ़ती गयी हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही कामगार निश्चित समय में उससे कहीं अधिक मूल्य पैदा करने लगता है जितना कि उन साधनों का होता है जिनकी उसे अपने स्वयं के जीवन की तथा मानव जाति की निरंतरता के लिए आवश्यकता होती है। अर्थात वह अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करने लगता है। सामूहिक रूप से उत्पादों के रूप में संचित यह अतिरिक्त मूल्य ही समाज की संपत्ति है। पर अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के साथ ही निजी स्वामित्व की अवधारणा सामाजिक चेतना में घर कर गई और संपत्ति निजी हाथों में केंद्रित होने लगी। इसके साथ ही उपभोग के लिए पैदा कीकी जाने वाली उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन और आदान-प्रदान का स्थान, विनिमय के लिए पैदा किये जाने वाले उत्पादों तथा उनके व्यापार ने ले लिया। उत्पाद उपभोक्ता से अलग एक ऐसा अस्तित्व है जो उपभोक्ता की किसी मांग की पूर्ति करता है, मांग का उद्गम पेट या मन कुछ भी हो सकता है। हर उत्पादक किसी न किसी रूप में उपभोक्ता भी होता है। पर उत्पादों के विनिमय में उत्पादक से अलग एक और वर्ग मध्य में आ जाता है, बिचौलिया या मध्यवर्ग।
मूल्य और पूंजी का अस्तित्व वैचारिक है उनका अपना भौतिक अस्तित्व कोई नहीं है। आम तौर पर लोगों में सैद्धांतिक चिंतन और समझ का अभाव होता है इस कारण वे उत्पाद की कीमत को ही मूल्य और संपत्ति को ही पूंजी समझ लेते हैं। उपभोक्ता तथा बिचौलिए के लिए एक ही उत्पाद के मूल्य का आंकलन अलग-अलग होता है। उपभोक्ता के लिए मूल्य उत्पाद की उपयोगिता से संबंधित होता है जब कि विक्रेता उत्पाद के मूल्य का आंकलन इस आधार पर करता है कि एक उत्पाद की निश्चित मात्रा के बदले में किसी अन्य उत्पाद की कितनी मात्रा हासिल की जा सकती है। भिन्न-भिन्न उत्पादों के स्वरूप तथा उपयोगिता में अंतर होता है इस कारण उत्पादों के विनिमय मूल्य की तुलना करने के लिए मानक के रूप में एक ऐसी सर्वव्यापक चीज की जरूरत होती है जो सभी उत्पादों में अंतर्निहित हो जिसके आधार पर मूल्यों की तुलना की जा सके और वह है सामाजिक रूप से आवश्यक औसत उपयोगी मानवीय श्रम। चूंकि अंतर्निहित श्रम का स्वरूप अमूर्त है इसलिए आवश्यकता होती है एक मूर्त स्वरूप की जो मूल्य के मानक के रूप में सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य हो। ऐतिहासिक रूप से विकसित, मुद्रा ने वह भूमिका अदा की है। शुरु में मुद्रा का भौतिक स्वरूप बहुमूल्य धातु की मात्रा के रूप में होता था और उसमें अंतर्निहित मूल्य ही स्वयं मुद्रा का मूल्य होता था। पर समय के साथ राजसत्ता द्वारा सत्यापित मुद्रा, जिसका अपने उत्पादन मूल्य से कोई संबंध नहीं होता है, ने विनिमय मानक का रूप ले लिया और मुद्रा का स्वरूप भौतिक से अधिक वैचारिक हो गया। आम आदमी उत्पादों के मूल्य की तुलना उनमें संचित श्रम के आधार पर न कर मुद्रा के सर्वमान्य सत्यापित मूल्य से करने लगता है और कीमत को ही उत्पादों का मूल्य समझने लगता है।
मुद्रा द्वारा वैचारिक स्वरूप धारण करने से पहले संचित मूल्य का लेन-देन उत्पाद की खरीद-बिक्री के भौतिक रूप में ही होता था, पर मुद्रा द्वारा वैचारिक स्वरूप धारण कर लेने के बाद संचित मूल्य का लेन-देन आश्वासनों और करारों के रूप में भौतिक के साथ-साथ वैचारिक रूप में भी होने लगा।
मध्यवर्ग के हाथों में संपत्ति के संचयन तथा एकत्रीकरण, और उत्पादन, संचार तथा परिवहन के क्षेत्र में विज्ञान तथा तकनीकी विकास के कारण मध्यवर्ग आगे बढ़कर बुर्जुआवर्ग के रूप में, उत्पादन संगठित तौर पर अपनी शर्तों पर करवाने लगा। बेहतर उत्पादकता तथा संगठित उत्पादन के कारण उत्पादन की लागत कम होने लगी जिससे परंपरागत उत्पादक कामगारों तथा शिल्पकारों के लिए प्रतिस्पर्धा में खड़े रहना असंभव हो गया और उत्पादन के क्षेत्र में एक नये दौर की शुरुआत हुई। अब कामगार के पास संचित श्रम के रूप में उत्पाद जैसी कोई चीज नहीं थी जिसके बदले वह अपनी जरूरत के उत्पाद जुटा सकता। विनिमय के लिए कामगार के पास थी केवल उसकी श्रमशक्ति, और जिसे अपने जीवन की निरंतरता के लिए वह श्रमशक्ति के खरीदार को खरीदार की शर्तों पर बेचने के लिए मजबूर था, इससे अस्तित्व में आया कामगार का नया स्वरूप, सर्वहारा। संपत्ति के रूप में संचित श्रम द्वारा उत्पादन पर पूरी तरह नियंत्रण के साथ ही अस्तित्व में आया संपत्ति के रूप में निष्क्रिय संचित श्रम से अलग एक सक्रिय स्वरूप, पूंजी। उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने के साथ-साथ ही अतिरिक्त मूल्य का विनियोजन भी पूरा होता है। पूरी प्रक्रिया के दौरान पूंजी के विभिन्न स्वरूप अतिरिक्त मूल्य के कुछ भाग को हस्तगत करते जाते हैं।
पूंजी पूरी तरह एक सामाजिक चेतना है जिसका स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है और जिसका प्रकटीकरण संपत्ति या मुद्रा के रूप में होता है। पूंजी पूर्व में किये जा चुके संचित श्रम के, या भविष्य में हासिल हो सकने वाले संचित श्रम के आश्वासन के बदले में, सर्वहारा की श्रम करने की शक्ति का नियंत्रण निश्चित समय के लिए हासिल कर, उसके द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हस्तगत कर स्वविस्तार करती है। पूंजीपति इस चेतना का वाहक होता है, न कि उसका मालिक। पूंजी का मूल चरित्र है उपभोक्ता की व्यक्तिगत चेतना को प्रभावित कर नई-नई मांगें पैदा करना तथा उन मांगों की पूर्ति के लिए नये-नये उत्पाद मुहैया कराना और उत्पादन-उपभोग की प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न तरीके से अलग-अलग स्तरों पर अतिरिक्त मूल्य को बटोरना। पूंजी ने न केवल प्रकृति में उपलब्ध सभी कुछ को उत्पाद में परिवर्तित कर दिया है, बल्कि हर मानवीय तथा सामाजिक चीज यहां तक कि मानव शरीर, मन, भावनाओं तथा मानवीय संबंध को भी। किसी भी मांग का अस्तित्व पूरी तरह वैचारिक हो सकता है, इस कारण रोज नई-नई मांगों के अस्तित्व में आने की सीमा पूरी तरह सामाजिक चेतना पर निर्भर करती है, पर उत्पाद, जो किसी वैचारिक मांग की पूर्ति करता है, का आधार भौतिक ही होता है और इस कारण उन मांगों की पूर्ति की जा सकने की सीमा प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की समाज की क्षमता के अनुसार सीमित होती है।
पूंजी को किसी भी नाम से पुकार लिया जाय, औद्योगिक पूंजी, महाजनी पूंजी, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी, आवारा पूंजी, काल्पनिक पूंजी या और भी कोई जो नया नाम गढ़ा जा सके, पर सामाजिक चेतना में पूंजी एक ही चीज का पर्याय है, वह है एक ऐसा वैचारिक चेतन अस्तित्व जिसका स्वयं कोई भौतिक स्वरूप नहीं है पर जो मानव रूपी जीवों की अवचेतना में विचरता रहता है और जिसकी प्रकृति है अतिरिक्त मूल्य के रूप में संचित श्रम को हथिया कर स्वविस्तार करना। जो संशोधनवादी यह कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी में पूंजीवाद बीसवीं सदी के पूंजीवाद से गुणात्मक रूप से भिन्न है उन्हें शायद यह भी नहीं मालूम होगा कि पहला पूंजीवादी राज्य इटली में सात सौ साल पहले चौदहवीं सदी के शुरु में अस्तित्व में आ गया था और पूंजीवाद अपनी उच्चतम अवस्था साम्राज्यवाद में पांच सौ साल पहले पहुंच चुका था।
मुद्रा की, भौतिक अस्तित्व के साथ-साथ आश्वासनों के रूप में वैचारिक अस्तित्व में मौजूदगी, मानसिक तथा बौद्धिक के आधार पर श्रमशक्ति के विभाजन के साथ सर्वहारा की मौजूदगी, भौतिक के साथ-साथ मानसिक मांगों को संतुष्ट करने की उत्पाद की क्षमता तथा उत्पादन के साधनों के रूप में भौतिक तथा पूंजी के रूप में वैचारिक अस्तित्व के साथ अतिरिक्त मूल्य की मौजूदगी के कारण पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना में पूरी अर्थव्यवस्था दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वैचारिक-अर्थव्यवस्था जिसका कार्यक्षेत्र वैचारिक जगत में है तो दूसरी भौतिक-अर्थव्यवस्था जिसका कार्यक्षेत्र भौतिक जगत में है, पर जिनके बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है, बल्कि वैचारिक अर्थव्यवस्था भौतिक अर्थव्यवस्था पर ही खड़ी होती है।
उत्पादन प्रक्रिया के जरिए अधिक-से-अधिक मूल्य हड़प कर अधिक-से-अधिक स्वविस्तार की अपनी मूल प्रकृति के अनुसार पूंजी निरंतर मांग और उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करती है। भौतिक नियमों के कारण भौतिक अर्थव्यवस्था में मांग और उत्पादन बढ़ाने की सीमाएं हैं पर वैचारिक-अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने की कोई सीमा नहीं है, पर हां उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक उत्पाद का आधार भौतिक होने के कारण आपूर्ति की सीमा अपरिमित नहीं है, जिसके कारण मांग, आपूर्ति और कीमत के बीच तार्किक संबंध नहीं रह जाता है।
पूंजी तरह-तरह से उपभोक्ताओं की मानसिकता को प्रभावित कर नई-नई मांगें पैदा करती है और भविष्य में हासिल होने वाले मूल्य के आश्वासनों के आधार पर श्रमशक्ति हासिल कर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करती है और कृत्रिम तरीके से उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति निरंतर बढ़ाती है। मानसिक मांगों की आपूर्ति के लिए भौतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ता जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है जब उत्पादन मांग की पूर्ति नहीं कर पाता है तो कीमतें बढ़ना शुरु होती हैं और उपभोक्ता के हाथों में आश्वासन आधारित मूल्य अर्थात मुद्रा का मूल्य तुलनात्मक रूप से घटने लगता है। और अधिक ह्रास की आशंका से उपभोक्ता आश्वासनों के रूप में हासिल मूल्य को जल्दी से जल्दी भौतिक अस्तित्व में बदलने का प्रयास करता है। परिस्थिति पर नियंत्रण करने के सभी प्रयासों के बावजूद कुछ समय बाद पूंजी के नियंत्रकों के आश्वसनों से सामूहिक रूप से भरोसा उठने लगता है और भगदड़ की स्थिति के कारण आर्थिक संकट पैदा हो जाता है। कुछ समय बाद आश्वासनों के आधार पर  पैदा किया गया कृत्रिम मूल्य उपभोक्ताओं के हाथ से निकल जाता है और फिर नया चक्र शुरु हो जाता है।
पूंजी किसी भी राष्ट्रराज्य की सीमाओं में हो, पूंजी की प्रकृति और कार्यप्रणाली वही रहती है। देर-सवेर इसी चक्र से गुजरना सभी पूंजीवादी व्यवस्थाओं की नियति है। सैद्धांतिक चिंतन की कमी के कारण आमतौर पर लोग मूल्य तथा मुद्रा के भौतिक और वैचारिक आयामों में भेद नहीं कर पाते हैं और उत्पादों की कीमतों के बढ़ने पर तुलनात्मक रूप से मुद्रा की कीमत में होने वाली कमी को नहीं देख पाते हैं।
समय के साथ व्यापार तथा वाणिज्य का स्तर अंतर्राष्ट्रीय हो जाने पर उत्पादों के विनिमय के लिए एक सर्वमान्य मानक के न होने से पैदा हुई समस्या से निपटने के लिए, पहले बैंको के अनुबंध पत्रों के आधार पर मुद्रा का अंतरण होने लगा और फिर 1944 में ब्रैटन वुड्स समझौते के बाद डॉलर को सर्वमान्य मानक स्वीकार कर लिए जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय विनमय में, अपने भौतिक स्वरूप को छोड़ कर वैचारिक स्वरूप में मुद्रा स्वयं एक उत्पाद हो गई है। तकनीकी विकास और ई-बैंकिंग के साथ मुद्रा राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना भौतिक स्वरूप छोड़कर पूरी तरह वैचारिक स्वरूप धारण करती जा रही है। पहले राष्ट्रराज्य की सीमाओं में बंटीं अर्थव्यवस्थाएं, सीमाएं लांघकर एकीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होती जा रही हैं और पूंजी तथा उत्पादों के लिए सीमाएं बेमानी होती जा रही हैं।
ऐसी परिस्थिति में समय-समय पर रुपया नामक मुद्रा जो स्वयं भी एक उत्पाद बन चुका है, के मूल्य में या डालर की तुलना में उसकी कीमत में गिरावट कोई अचरज की बात नहीं है। और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप डालर के मूल्य में गिरावट को न समझ पाने के लिए गैर-मार्क्सवादी तथा संशोधनवादी-मार्क्सवादी दोनों ही अभिशप्त हैं।

सुरेश श्रीवास्तव
1 सितम्बर, 2013               
9810128813
Suresh_stva@hotmail.com
(लेखक सोसायटी फॉर साइंस का अध्यक्ष है। यह लेख त्रैमासिक पत्रिका मार्क्सदर्शन के वर्ष 2 अंक 4 में छपा है)          



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