प्रिय साथी,
'साम्राज्यवाद : पूँजी की चरम अवस्था' के फ़्रेंच तथा जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में लेनिन लिखते हैं, "सामाजिक जीवन की घटनाओं की अत्याधिक क्लिष्ट प्रक्रिया को देखते हुए, जितने चाहो उतने उदाहरण और अलग-अलग तथ्य, सुविधानुसार चुन कर किसी भी अवधारणा को सिद्ध किया जा सकता है।" उसी में अंत में वे लिखते हैं, "जब तक इस घटना के आर्थिक मूलाधार को नहीं समझ लिया जाता है और उसके राजनैतिक और सामाजिक अभिप्रायों पर ग़ौर नहीं किया जाता है, तब तक कम्युनिस्ट आंदोलन और आने वाली सामाजिक क्रांति की समस्याओं के समाधान के लिए एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।"
मूल्य, मुद्रा, पूँजी, समाजवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद आदि जैसी श्रेणियों की आधारभूत समझ के बारे में, आपके और मेरे बीच गहरे मतभेद हैं, और उनके समाधान के बिना हम तू-तू मैं-मैं ही उलझे रहेंगे और कहीं नहीं पहुँचेंगे। आप और मैं, मूल रूप से भौतिकवादी हैं, तार्किक विमर्श पर भरोसा करते हैं और सामाजिक क्रांति में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं, इसलिए मुझे विश्वास है कि अगर हम मूल चीजों पर सहमति हासिल कर लेते हैं तो हम सभी चीजों की सही सही समझ हासिल कर लेंगे। उत्कर्ष ने सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप विशेष रूप से मूल चीजों पर, विमर्श द्वारा समझ हासिल करने के उद्देश्य से ही बनाया है, इसलिए मैं चाहूँगा कि हम इस विषय पर आगे विमर्श उसी ग्रुप पर करें।
मूल विमर्श पर जाने से पहले, मुझे तथा सभी साथियों को लेनिन की पुस्तक पढ़ने के लिए दी गयी आपकी नसीहत के संदर्भ से, आपके द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देना चाहूंगा।
आपने लिखा है कि ' लेनिन के अनुसार पूँजीवादी साम्राज्यवाद 20वीं सदी के आरंभ में ही क़ायम हुआ है।" पर छठवें अध्याय - बड़ी शक्तियों के बीच दुनिया का बँटवारा, में लेनिन लिखते हैं, " ग्रेट ब्रिटेन के लिए अत्याधिक विस्तार के लिए उपनिवेशों पर विजय का दौर 1860 और 1880 के बीच था। इससे पहले आपने लिखा है, "लेनिन ने साम्राज्यवाद वाली चरम अवस्था का सिद्धांत दिया था।" लेनिन पहले ही अध्याय में लिखते हैं," ..... मार्क्स, जिन्होंने पूंजीवाद के सैद्धांतिक तथा ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया था कि स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा, उत्पादन के केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है जो आगे चल कर विकास के एक स्तर पर, एकाधिकार में परिवर्तित हो जाती है।"
आपने लिखा है, 'पूँजीवाद से पहले के उत्पादन से पूँजी उत्पन्न नहीं होती थी', पर आप यह नहीं बताते हैं कि उस समय पूँजी कैसे पैदा होती थी। जब तक आप मूल्य, मुद्रा और पूँजी के चरित्र और उनके बीच के अंतर को ठीक से नहीं समझेंगे तब तक आप यह पहेली हल नहीं कर पायेंगे।'
आपने लिखा है, 'पूँजीवादी साम्राज्यवाद की ख़ासियत होती है मुक्त प्रतिस्पर्धा के स्थान पर इजारेदारियां स्थापित होना व वित्तीय पूँजी का आविर्भाव।' पूँजी ख़रीद-बिक्री की प्रक्रिया के दौरान अतिरिक्त मूल्य हासिल कर अपना विस्तार करती है। जब से मुद्रा अस्तित्व में आई है, इसे मूल रूप में M-->C-->M+m के जरिए दर्शाया जाता है, जो कि वाणिज्यिक पूंजी का रूप है। साहूकारों तथा बैंकों के अस्तित्व में आने के साथ ही पूंजी के स्वविकास की प्रक्रिया M-->M+m हो गई जो कि वित्तीय पूँजी का स्वरूप है जिसके आविर्भाव का इजारेदारी से कोई लेना देना नहीं है। जब पूँजी देश की सीमाओं को लाँघ जाती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी कहने लगते हैं। पूँजी के रूप बदलते रह सकते हैं जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है, पर उसकी अंतर्वस्तु वही रहती है, अतिरिक्त मूल्य को क़ब्ज़ा कर अपना विस्तार करना।
इस बहस को मैं यहीं विराम देता हूँ और आपसे आग्रह करता हूँ कि सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप पर, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध पर होने वाले विमर्श में योगदान दें जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझने की पहली पायदान है। उस विमर्श से औरों के साथ-साथ मुझे और आपको भी फ़ायदा होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
30 नवंबर, 2015
9810128813
'साम्राज्यवाद : पूँजी की चरम अवस्था' के फ़्रेंच तथा जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में लेनिन लिखते हैं, "सामाजिक जीवन की घटनाओं की अत्याधिक क्लिष्ट प्रक्रिया को देखते हुए, जितने चाहो उतने उदाहरण और अलग-अलग तथ्य, सुविधानुसार चुन कर किसी भी अवधारणा को सिद्ध किया जा सकता है।" उसी में अंत में वे लिखते हैं, "जब तक इस घटना के आर्थिक मूलाधार को नहीं समझ लिया जाता है और उसके राजनैतिक और सामाजिक अभिप्रायों पर ग़ौर नहीं किया जाता है, तब तक कम्युनिस्ट आंदोलन और आने वाली सामाजिक क्रांति की समस्याओं के समाधान के लिए एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।"
मूल्य, मुद्रा, पूँजी, समाजवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद आदि जैसी श्रेणियों की आधारभूत समझ के बारे में, आपके और मेरे बीच गहरे मतभेद हैं, और उनके समाधान के बिना हम तू-तू मैं-मैं ही उलझे रहेंगे और कहीं नहीं पहुँचेंगे। आप और मैं, मूल रूप से भौतिकवादी हैं, तार्किक विमर्श पर भरोसा करते हैं और सामाजिक क्रांति में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं, इसलिए मुझे विश्वास है कि अगर हम मूल चीजों पर सहमति हासिल कर लेते हैं तो हम सभी चीजों की सही सही समझ हासिल कर लेंगे। उत्कर्ष ने सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप विशेष रूप से मूल चीजों पर, विमर्श द्वारा समझ हासिल करने के उद्देश्य से ही बनाया है, इसलिए मैं चाहूँगा कि हम इस विषय पर आगे विमर्श उसी ग्रुप पर करें।
मूल विमर्श पर जाने से पहले, मुझे तथा सभी साथियों को लेनिन की पुस्तक पढ़ने के लिए दी गयी आपकी नसीहत के संदर्भ से, आपके द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देना चाहूंगा।
आपने लिखा है कि ' लेनिन के अनुसार पूँजीवादी साम्राज्यवाद 20वीं सदी के आरंभ में ही क़ायम हुआ है।" पर छठवें अध्याय - बड़ी शक्तियों के बीच दुनिया का बँटवारा, में लेनिन लिखते हैं, " ग्रेट ब्रिटेन के लिए अत्याधिक विस्तार के लिए उपनिवेशों पर विजय का दौर 1860 और 1880 के बीच था। इससे पहले आपने लिखा है, "लेनिन ने साम्राज्यवाद वाली चरम अवस्था का सिद्धांत दिया था।" लेनिन पहले ही अध्याय में लिखते हैं," ..... मार्क्स, जिन्होंने पूंजीवाद के सैद्धांतिक तथा ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया था कि स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा, उत्पादन के केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है जो आगे चल कर विकास के एक स्तर पर, एकाधिकार में परिवर्तित हो जाती है।"
आपने लिखा है, 'पूँजीवाद से पहले के उत्पादन से पूँजी उत्पन्न नहीं होती थी', पर आप यह नहीं बताते हैं कि उस समय पूँजी कैसे पैदा होती थी। जब तक आप मूल्य, मुद्रा और पूँजी के चरित्र और उनके बीच के अंतर को ठीक से नहीं समझेंगे तब तक आप यह पहेली हल नहीं कर पायेंगे।'
आपने लिखा है, 'पूँजीवादी साम्राज्यवाद की ख़ासियत होती है मुक्त प्रतिस्पर्धा के स्थान पर इजारेदारियां स्थापित होना व वित्तीय पूँजी का आविर्भाव।' पूँजी ख़रीद-बिक्री की प्रक्रिया के दौरान अतिरिक्त मूल्य हासिल कर अपना विस्तार करती है। जब से मुद्रा अस्तित्व में आई है, इसे मूल रूप में M-->C-->M+m के जरिए दर्शाया जाता है, जो कि वाणिज्यिक पूंजी का रूप है। साहूकारों तथा बैंकों के अस्तित्व में आने के साथ ही पूंजी के स्वविकास की प्रक्रिया M-->M+m हो गई जो कि वित्तीय पूँजी का स्वरूप है जिसके आविर्भाव का इजारेदारी से कोई लेना देना नहीं है। जब पूँजी देश की सीमाओं को लाँघ जाती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी कहने लगते हैं। पूँजी के रूप बदलते रह सकते हैं जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है, पर उसकी अंतर्वस्तु वही रहती है, अतिरिक्त मूल्य को क़ब्ज़ा कर अपना विस्तार करना।
इस बहस को मैं यहीं विराम देता हूँ और आपसे आग्रह करता हूँ कि सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप पर, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध पर होने वाले विमर्श में योगदान दें जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझने की पहली पायदान है। उस विमर्श से औरों के साथ-साथ मुझे और आपको भी फ़ायदा होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
30 नवंबर, 2015
9810128813