Monday, 30 November 2015

लेनिन के संदर्भ से - कुछ प्रश्नोत्तर

प्रिय साथी,
'साम्राज्यवाद : पूँजी की चरम अवस्था' के फ़्रेंच तथा जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में लेनिन लिखते हैं, "सामाजिक जीवन की घटनाओं की अत्याधिक क्लिष्ट प्रक्रिया को देखते हुए, जितने चाहो उतने उदाहरण और अलग-अलग तथ्य, सुविधानुसार चुन कर किसी भी अवधारणा को सिद्ध किया जा सकता है।" उसी में अंत में वे लिखते हैं, "जब तक इस घटना के आर्थिक मूलाधार को नहीं समझ लिया जाता है और उसके राजनैतिक और सामाजिक अभिप्रायों पर ग़ौर नहीं किया जाता है, तब तक कम्युनिस्ट आंदोलन और आने वाली सामाजिक क्रांति की समस्याओं के समाधान के लिए एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।"
मूल्य, मुद्रा, पूँजी, समाजवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद आदि जैसी श्रेणियों की आधारभूत समझ के बारे में, आपके और मेरे बीच गहरे मतभेद हैं, और उनके समाधान के बिना हम तू-तू मैं-मैं ही उलझे रहेंगे और कहीं नहीं पहुँचेंगे। आप और मैं, मूल रूप से भौतिकवादी हैं, तार्किक विमर्श पर भरोसा करते हैं और सामाजिक क्रांति में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं, इसलिए मुझे विश्वास है कि अगर हम मूल चीजों पर सहमति हासिल कर लेते हैं तो हम सभी चीजों की सही सही समझ हासिल कर लेंगे। उत्कर्ष ने सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप विशेष रूप से मूल चीजों पर, विमर्श द्वारा समझ हासिल करने के उद्देश्य से ही बनाया है, इसलिए मैं चाहूँगा कि हम इस विषय पर आगे विमर्श उसी ग्रुप पर करें।
मूल विमर्श पर जाने से पहले, मुझे तथा सभी साथियों को लेनिन की पुस्तक पढ़ने के लिए दी गयी आपकी नसीहत के संदर्भ से, आपके द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देना चाहूंगा।
आपने लिखा है कि ' लेनिन के अनुसार पूँजीवादी साम्राज्यवाद 20वीं सदी के आरंभ में ही क़ायम हुआ है।" पर छठवें अध्याय - बड़ी शक्तियों के बीच दुनिया का बँटवारा, में लेनिन लिखते हैं, " ग्रेट ब्रिटेन के लिए अत्याधिक विस्तार के लिए उपनिवेशों पर विजय का दौर 1860 और 1880 के बीच था। इससे पहले आपने लिखा है, "लेनिन ने साम्राज्यवाद वाली चरम अवस्था का सिद्धांत दिया था।" लेनिन पहले ही अध्याय में लिखते हैं," ..... मार्क्स, जिन्होंने पूंजीवाद के सैद्धांतिक तथा ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया था कि स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा, उत्पादन के केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है जो आगे चल कर विकास के एक स्तर पर, एकाधिकार में परिवर्तित हो जाती है।"
आपने लिखा है, 'पूँजीवाद से पहले के उत्पादन से पूँजी उत्पन्न नहीं होती थी', पर आप यह नहीं बताते हैं कि उस समय पूँजी कैसे पैदा होती थी। जब तक आप मूल्य, मुद्रा और पूँजी के चरित्र और उनके बीच के अंतर को ठीक से नहीं समझेंगे तब तक आप यह पहेली हल नहीं कर पायेंगे।'
आपने लिखा है, 'पूँजीवादी साम्राज्यवाद की ख़ासियत होती है मुक्त प्रतिस्पर्धा के स्थान पर इजारेदारियां स्थापित होना व वित्तीय पूँजी का आविर्भाव।' पूँजी ख़रीद-बिक्री की प्रक्रिया के दौरान अतिरिक्त मूल्य हासिल कर अपना विस्तार करती है। जब से मुद्रा अस्तित्व में आई है, इसे मूल रूप में M-->C-->M+m के जरिए दर्शाया जाता है, जो कि वाणिज्यिक पूंजी का रूप है। साहूकारों तथा बैंकों के अस्तित्व में आने के साथ ही पूंजी के स्वविकास की प्रक्रिया M-->M+m हो गई जो कि वित्तीय पूँजी का स्वरूप है जिसके आविर्भाव का इजारेदारी से कोई लेना देना नहीं है। जब पूँजी देश की सीमाओं को लाँघ जाती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी कहने लगते हैं। पूँजी के रूप बदलते रह सकते हैं जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है, पर उसकी अंतर्वस्तु वही रहती है, अतिरिक्त मूल्य को क़ब्ज़ा कर अपना विस्तार करना।
इस बहस को मैं यहीं विराम देता हूँ और आपसे आग्रह करता हूँ कि सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप पर, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध पर होने वाले विमर्श में योगदान दें जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझने की पहली पायदान है। उस विमर्श से औरों के साथ-साथ मुझे और आपको भी फ़ायदा होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
30 नवंबर, 2015
9810128813

Saturday, 14 November 2015

सर्वहारा तो संघर्ष में कहीं है ही नहीं।

व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा जीवन के साधन पैदा करना, मानव और समाज का आधार है।
चीजों का उत्पादन विनिमय के लिए करना, वर्ग विभाजित समाज का आधार है।
श्रम के औजारों का निजीकरण, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया का आधार है।
श्रम के औजारों का सामूहीकरण, पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का आधार है।
चीजों के उत्पादन तथा वितरण पर निजी नियंत्रण, शोषण व्यवस्था का आधार है।
हर वर्ग, उत्पादन व्यवस्था के भौतिक आधार पर, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विचारों का तिलस्मी ढाँचा खड़ा कर लेता है जो उसके उत्पादन संबंधों से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है।
अनेकों ईश्वरों और अनेकों प्रकार के श्रम के आधार पर धार्मिक और जातीय विभाजन का तिलस्म सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था की देन है।
एक ईश्वर और एक श्रम के आधार पर समानता का तिलस्म पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की देन है।
राजसत्ता, संघर्षरत वर्गों के बीच संतुलन और शांति बनाये रखने के लिए, समाज के अंदर से पैदा समूह है जो वर्गों से असंबद्ध नजर आता है पर वास्तव में शक्तिशाली वर्ग के साथ ही खड़ा होता है।
निम्न मध्यवर्गीय, अपनी स्थिति और अपने हितों के कारण आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग का पिछलग्गू होता है और साथ ही वर्ग संघर्ष में कमजोर वर्ग के साथ एकजुट हो जाता है, और यही उसका अंतर्विरोध है।
भारत में मुख्य संघर्ष, फ़िलहाल, सामंतवादी और पूँजीवादी ताक़तों के बीच है। केंद्र में राजसत्ता पर क़ाबिज़ पार्टी अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पूँजी के एकीकरण में पूँजीवाद की पैरोकार है, तो जाति और भाषा के आधार पर खड़ीं व्यक्तिवादी पार्टियाँ सामंतवाद की पैरोकार हैं। निम्न मध्यवर्गीय अपने चरित्र के अनुसार सांप्रदायिकता, असहिष्णुता, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी आदि के ख़िलाफ़ लड़ाई के नाम पर सामंतवाद को ताक़त दे रहा है। और सिद्धांत की ताक़त से महरूम सर्वहारा तो संघर्ष में कहीं है ही नहीं।

Thursday, 12 November 2015

नौजवानों के नाम - मार्क्सवाद को कैसे समझें

नौजवानों के नाम - मार्क्सवाद को कैसे समझें

सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होने के बाद, पिछले कुछ दिनों में अनेकों पोस्ट पढ़ने को मिले जिनमें नौजवानों की हताशा साफ़ झलकती है, और इनमें एक तबक़ा ऐसा भी है जिसमें कुछ कर सकने की छटपटाहट भी है, और जो सहजबोध से, मंज़िल के रूप में समाजवाद या साम्यवाद जैसी किसी चीज से अभिभूत भी है। पर वह जिस दिशा में देखता है उस दिशा में ही समाजवाद की तख़्ती लगी नजर आती है, और जितनी तख़्तियाँ उतने ही मार्गदर्शक अपनी-अपनी मशाल तथा अपने-अपने दावे के साथ, कि उनके पास मार्क्सवाद नाम की सही मशाल है और उनके पीछे आँख बंद कर चलने से ही मंज़िल पर पहुँचा जा सकता है। उत्कर्ष नाम के एक नौजवान साथी ने, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे ही नौजवानों के बीच विमर्श के लिए, व्हाट्सएप पर सोसायटी फ़ॉर साइंस के नाम से एक ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप पर ज्वलंत प्रश्न है कि मार्क्सवाद को कैसे समझा जाय और उसे समझने के लिए कौन सी पुस्तकें पढ़ी जायें। मार्क्सवाद को, विचारधारा के रूप में विश्व की सामाजिक चेतना में व्याप्त हुए, 150 साल हो चुके हैं और दुनिया भर में अनेकों भाषाओं में सैकड़ों लेखकों ने अपने-अपने नज़रिए से मार्क्सवाद के अलग-अलग आयामों की व्याख्या की है। पर, उत्कर्ष और उनके साथियों के ज्वलंत प्रश्नों का एक जगह सही-सही उत्तर देने वाली कोई पुस्तक मेरी नजर में तो नहीं है, मॉरिस कॉर्नफोर्थ, एमिल बर्न्स, कार्ल कोर्श या डॉग लोरीमर की भी नहीं। किसी ने सुझाव दिया कि मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की सभी पुस्तकों को मूल में पढ़ना कारगर हो सकता है, पर यह न किसी के लिए संभव है और न ही व्यावहारिक है। भारतवर्ष में और ख़ासतौर से हिंदी में न तो इस ज्वलंत प्रश्न पर ऐसी कोई भी पुस्तक है और न इस दिशा में वामपंथी अग्रणियों ने कोई भी प्रयास किया है। भारत में वामपंथी आंदोलन में 90 साल का ठहराव इस बात की तसदीक़ करता है।
मार्क्सवाद को समझने में आनेवाली सबसे बड़ी अड़चन, समझने वाला स्वयं है। इस पृथ्वी पर मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे प्रकृति ने तर्कबुद्धि की क्षमता प्रदान की है जिसके द्वारा वह प्रकृति के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को भेदने में और सत्य को उजागर करने में सक्षम है। पर जब तक उसकी तर्कबुद्धि विकसित होती है उससे पहले उसकी बुद्धि अनेकों पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में आ चुकी होती है। सबसे बड़ा पूर्वाग्रह उसकी अपनी चेतना और उसके अपने शरीर के संबंध के बारे में है। अपने चारों ओर, सभी जीवों की भाँति आदमियों को पैदा होते और मरते देख कर, युवावस्था आते-आते वह अपनी स्वयं की मृत्यु की अनिवार्यता को भी स्वीकार कर लेता है। पर शैशवकाल में, अन्य पशुओं की तरह विकसित प्राकृतिक सहज ज्ञान के कारण, वह अनजाने ही मृत्यु से डरने लगता है और वयस्क होते-होते अपने शारीरिक अस्तित्व के समाप्त होने के बाद भी अपने चेतन अस्तित्व के नष्ट न होने की तीव्र आकांक्षा के कारण अपने अमरत्व की भ्रांति को यथार्थ के रूप में स्वीकार कर लेता है और इस पूर्वाग्रह से छुटकारा पाना उसके लिए लगभग असंभव हो जाता है।
अपने इस पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति चेतना और अस्तित्व के प्राकृतिक द्वंद्वात्मक संबंध को पूरी तरह उलट देता है, न केवल अपनी स्वयं की पड़ताल के संबंध में बल्कि संपूर्ण प्रकृति की पड़ताल के संबंध में भी। गलत आधार पर विकसित ज्ञान भी गलत ही होता जाता है। प्रकृति और मानव समाज में होने वाली सभी प्रक्रियाओं और बदलावों की सही-सही समझ तथा उनमें सफलतापूर्वक सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की स्थिति में होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि पूरी तरह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। व्यक्ति की चेतना और शरीर दोनों ही निरंतर परिवेश से प्रभावित होते रहते और बदलते रहते हैं। तर्कबुद्धि चेतना का ही एक भाग इसलिेए न केवल चेतना और अस्तित्व की सही-सही समझ आवश्यक है बल्कि आवश्यक यह भी है कि परिवेश को भी अनुकूल रखा जाय जो कि निरंतर सामूहिक विमर्श के द्वारा ही संभव है।
भौतिक जगत और उसके साथ मानव के अस्तित्व (शरीर) की पड़ताल वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, और उसके बारे में ज्ञान, पारंपरिक तौर पर, प्रकृति विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है। वैचारिक जगत और उसके साथ मानव की चेतना की पड़ताल तर्कबुद्धि के आधार पर और उसके बारे में ज्ञान, दर्शन शास्त्र के रूप में विकसित हुआ है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक पूर्वाग्रहों के कारण दर्शन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाना तब तक संभव नहीं था जब तक सामाजिक परिस्थितियों ने उसके लिए उपयुक्त वातावरण पैदा नहीं कर दिया। और वह वातावरण पैदा किया पूँजी ने, उन्नीसवीं सदी में वैश्विक पूँजी के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच जाने पर जिसने मानव की चेतना तथा अस्तित्व के संबंध के बारे में व्याप्त भ्रमों तथा पूर्वाग्रहों के अंत को अपरिहार्य बना दिया था। और यह काम पूरा हुआ मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा - दर्शन को विज्ञान के दायरे के बाहर से खींच कर विज्ञान के दायरे में लाकर।  
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग नौजवानों से मेरा आग्रह है कि वे समाजवादी क्रांति के लिए जल्दबाज़ी न करें। विकास की दिशा और रफ़्तार के प्रकृति के अपने नियम हैं, मनुष्य उसकी रफ़्तार को कम या ज्यादा करने के लिए सीमित सार्थक हस्तक्षेप तो कर सकता है पर अपनी इच्छा उन पर नहीं थोप सकता है। अपने स्वयं के ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है कि वे पहले अपने आप को, चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में, अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त करें। इसके लिए मेरा सुझाव है कि वे मार्क्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'जर्मन आइडियोलाजी की एक विवेचना' और एंगेल्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'लुडविष फॉयरबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत' पढ़ें तथा आपस में विमर्श करें ताकि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में उनकी समझ पुख्ता हो सके।
अगला क़दम उसके बाद।
शुभकामनाओं के साथ

सुरेश श्रीवास्तव
12 नवंबर, 2015