नौजवानों के नाम - मार्क्सवाद को कैसे समझें
सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होने के बाद, पिछले कुछ दिनों में अनेकों पोस्ट पढ़ने को मिले जिनमें नौजवानों की हताशा साफ़ झलकती है, और इनमें एक तबक़ा ऐसा भी है जिसमें कुछ कर सकने की छटपटाहट भी है, और जो सहजबोध से, मंज़िल के रूप में समाजवाद या साम्यवाद जैसी किसी चीज से अभिभूत भी है। पर वह जिस दिशा में देखता है उस दिशा में ही समाजवाद की तख़्ती लगी नजर आती है, और जितनी तख़्तियाँ उतने ही मार्गदर्शक अपनी-अपनी मशाल तथा अपने-अपने दावे के साथ, कि उनके पास मार्क्सवाद नाम की सही मशाल है और उनके पीछे आँख बंद कर चलने से ही मंज़िल पर पहुँचा जा सकता है। उत्कर्ष नाम के एक नौजवान साथी ने, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे ही नौजवानों के बीच विमर्श के लिए, व्हाट्सएप पर सोसायटी फ़ॉर साइंस के नाम से एक ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप पर ज्वलंत प्रश्न है कि मार्क्सवाद को कैसे समझा जाय और उसे समझने के लिए कौन सी पुस्तकें पढ़ी जायें। मार्क्सवाद को, विचारधारा के रूप में विश्व की सामाजिक चेतना में व्याप्त हुए, 150 साल हो चुके हैं और दुनिया भर में अनेकों भाषाओं में सैकड़ों लेखकों ने अपने-अपने नज़रिए से मार्क्सवाद के अलग-अलग आयामों की व्याख्या की है। पर, उत्कर्ष और उनके साथियों के ज्वलंत प्रश्नों का एक जगह सही-सही उत्तर देने वाली कोई पुस्तक मेरी नजर में तो नहीं है, मॉरिस कॉर्नफोर्थ, एमिल बर्न्स, कार्ल कोर्श या डॉग लोरीमर की भी नहीं। किसी ने सुझाव दिया कि मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की सभी पुस्तकों को मूल में पढ़ना कारगर हो सकता है, पर यह न किसी के लिए संभव है और न ही व्यावहारिक है। भारतवर्ष में और ख़ासतौर से हिंदी में न तो इस ज्वलंत प्रश्न पर ऐसी कोई भी पुस्तक है और न इस दिशा में वामपंथी अग्रणियों ने कोई भी प्रयास किया है। भारत में वामपंथी आंदोलन में 90 साल का ठहराव इस बात की तसदीक़ करता है।
मार्क्सवाद को समझने में आनेवाली सबसे बड़ी अड़चन, समझने वाला स्वयं है। इस पृथ्वी पर मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे प्रकृति ने तर्कबुद्धि की क्षमता प्रदान की है जिसके द्वारा वह प्रकृति के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को भेदने में और सत्य को उजागर करने में सक्षम है। पर जब तक उसकी तर्कबुद्धि विकसित होती है उससे पहले उसकी बुद्धि अनेकों पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में आ चुकी होती है। सबसे बड़ा पूर्वाग्रह उसकी अपनी चेतना और उसके अपने शरीर के संबंध के बारे में है। अपने चारों ओर, सभी जीवों की भाँति आदमियों को पैदा होते और मरते देख कर, युवावस्था आते-आते वह अपनी स्वयं की मृत्यु की अनिवार्यता को भी स्वीकार कर लेता है। पर शैशवकाल में, अन्य पशुओं की तरह विकसित प्राकृतिक सहज ज्ञान के कारण, वह अनजाने ही मृत्यु से डरने लगता है और वयस्क होते-होते अपने शारीरिक अस्तित्व के समाप्त होने के बाद भी अपने चेतन अस्तित्व के नष्ट न होने की तीव्र आकांक्षा के कारण अपने अमरत्व की भ्रांति को यथार्थ के रूप में स्वीकार कर लेता है और इस पूर्वाग्रह से छुटकारा पाना उसके लिए लगभग असंभव हो जाता है।
अपने इस पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति चेतना और अस्तित्व के प्राकृतिक द्वंद्वात्मक संबंध को पूरी तरह उलट देता है, न केवल अपनी स्वयं की पड़ताल के संबंध में बल्कि संपूर्ण प्रकृति की पड़ताल के संबंध में भी। गलत आधार पर विकसित ज्ञान भी गलत ही होता जाता है। प्रकृति और मानव समाज में होने वाली सभी प्रक्रियाओं और बदलावों की सही-सही समझ तथा उनमें सफलतापूर्वक सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की स्थिति में होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि पूरी तरह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। व्यक्ति की चेतना और शरीर दोनों ही निरंतर परिवेश से प्रभावित होते रहते और बदलते रहते हैं। तर्कबुद्धि चेतना का ही एक भाग इसलिेए न केवल चेतना और अस्तित्व की सही-सही समझ आवश्यक है बल्कि आवश्यक यह भी है कि परिवेश को भी अनुकूल रखा जाय जो कि निरंतर सामूहिक विमर्श के द्वारा ही संभव है।
भौतिक जगत और उसके साथ मानव के अस्तित्व (शरीर) की पड़ताल वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, और उसके बारे में ज्ञान, पारंपरिक तौर पर, प्रकृति विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है। वैचारिक जगत और उसके साथ मानव की चेतना की पड़ताल तर्कबुद्धि के आधार पर और उसके बारे में ज्ञान, दर्शन शास्त्र के रूप में विकसित हुआ है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक पूर्वाग्रहों के कारण दर्शन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाना तब तक संभव नहीं था जब तक सामाजिक परिस्थितियों ने उसके लिए उपयुक्त वातावरण पैदा नहीं कर दिया। और वह वातावरण पैदा किया पूँजी ने, उन्नीसवीं सदी में वैश्विक पूँजी के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच जाने पर जिसने मानव की चेतना तथा अस्तित्व के संबंध के बारे में व्याप्त भ्रमों तथा पूर्वाग्रहों के अंत को अपरिहार्य बना दिया था। और यह काम पूरा हुआ मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा - दर्शन को विज्ञान के दायरे के बाहर से खींच कर विज्ञान के दायरे में लाकर।
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग नौजवानों से मेरा आग्रह है कि वे समाजवादी क्रांति के लिए जल्दबाज़ी न करें। विकास की दिशा और रफ़्तार के प्रकृति के अपने नियम हैं, मनुष्य उसकी रफ़्तार को कम या ज्यादा करने के लिए सीमित सार्थक हस्तक्षेप तो कर सकता है पर अपनी इच्छा उन पर नहीं थोप सकता है। अपने स्वयं के ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है कि वे पहले अपने आप को, चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में, अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त करें। इसके लिए मेरा सुझाव है कि वे मार्क्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'जर्मन आइडियोलाजी की एक विवेचना' और एंगेल्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'लुडविष फॉयरबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत' पढ़ें तथा आपस में विमर्श करें ताकि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में उनकी समझ पुख्ता हो सके।
अगला क़दम उसके बाद।
शुभकामनाओं के साथ
सुरेश श्रीवास्तव
12 नवंबर, 2015
सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होने के बाद, पिछले कुछ दिनों में अनेकों पोस्ट पढ़ने को मिले जिनमें नौजवानों की हताशा साफ़ झलकती है, और इनमें एक तबक़ा ऐसा भी है जिसमें कुछ कर सकने की छटपटाहट भी है, और जो सहजबोध से, मंज़िल के रूप में समाजवाद या साम्यवाद जैसी किसी चीज से अभिभूत भी है। पर वह जिस दिशा में देखता है उस दिशा में ही समाजवाद की तख़्ती लगी नजर आती है, और जितनी तख़्तियाँ उतने ही मार्गदर्शक अपनी-अपनी मशाल तथा अपने-अपने दावे के साथ, कि उनके पास मार्क्सवाद नाम की सही मशाल है और उनके पीछे आँख बंद कर चलने से ही मंज़िल पर पहुँचा जा सकता है। उत्कर्ष नाम के एक नौजवान साथी ने, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे ही नौजवानों के बीच विमर्श के लिए, व्हाट्सएप पर सोसायटी फ़ॉर साइंस के नाम से एक ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप पर ज्वलंत प्रश्न है कि मार्क्सवाद को कैसे समझा जाय और उसे समझने के लिए कौन सी पुस्तकें पढ़ी जायें। मार्क्सवाद को, विचारधारा के रूप में विश्व की सामाजिक चेतना में व्याप्त हुए, 150 साल हो चुके हैं और दुनिया भर में अनेकों भाषाओं में सैकड़ों लेखकों ने अपने-अपने नज़रिए से मार्क्सवाद के अलग-अलग आयामों की व्याख्या की है। पर, उत्कर्ष और उनके साथियों के ज्वलंत प्रश्नों का एक जगह सही-सही उत्तर देने वाली कोई पुस्तक मेरी नजर में तो नहीं है, मॉरिस कॉर्नफोर्थ, एमिल बर्न्स, कार्ल कोर्श या डॉग लोरीमर की भी नहीं। किसी ने सुझाव दिया कि मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की सभी पुस्तकों को मूल में पढ़ना कारगर हो सकता है, पर यह न किसी के लिए संभव है और न ही व्यावहारिक है। भारतवर्ष में और ख़ासतौर से हिंदी में न तो इस ज्वलंत प्रश्न पर ऐसी कोई भी पुस्तक है और न इस दिशा में वामपंथी अग्रणियों ने कोई भी प्रयास किया है। भारत में वामपंथी आंदोलन में 90 साल का ठहराव इस बात की तसदीक़ करता है।
मार्क्सवाद को समझने में आनेवाली सबसे बड़ी अड़चन, समझने वाला स्वयं है। इस पृथ्वी पर मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे प्रकृति ने तर्कबुद्धि की क्षमता प्रदान की है जिसके द्वारा वह प्रकृति के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को भेदने में और सत्य को उजागर करने में सक्षम है। पर जब तक उसकी तर्कबुद्धि विकसित होती है उससे पहले उसकी बुद्धि अनेकों पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में आ चुकी होती है। सबसे बड़ा पूर्वाग्रह उसकी अपनी चेतना और उसके अपने शरीर के संबंध के बारे में है। अपने चारों ओर, सभी जीवों की भाँति आदमियों को पैदा होते और मरते देख कर, युवावस्था आते-आते वह अपनी स्वयं की मृत्यु की अनिवार्यता को भी स्वीकार कर लेता है। पर शैशवकाल में, अन्य पशुओं की तरह विकसित प्राकृतिक सहज ज्ञान के कारण, वह अनजाने ही मृत्यु से डरने लगता है और वयस्क होते-होते अपने शारीरिक अस्तित्व के समाप्त होने के बाद भी अपने चेतन अस्तित्व के नष्ट न होने की तीव्र आकांक्षा के कारण अपने अमरत्व की भ्रांति को यथार्थ के रूप में स्वीकार कर लेता है और इस पूर्वाग्रह से छुटकारा पाना उसके लिए लगभग असंभव हो जाता है।
अपने इस पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति चेतना और अस्तित्व के प्राकृतिक द्वंद्वात्मक संबंध को पूरी तरह उलट देता है, न केवल अपनी स्वयं की पड़ताल के संबंध में बल्कि संपूर्ण प्रकृति की पड़ताल के संबंध में भी। गलत आधार पर विकसित ज्ञान भी गलत ही होता जाता है। प्रकृति और मानव समाज में होने वाली सभी प्रक्रियाओं और बदलावों की सही-सही समझ तथा उनमें सफलतापूर्वक सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की स्थिति में होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि पूरी तरह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। व्यक्ति की चेतना और शरीर दोनों ही निरंतर परिवेश से प्रभावित होते रहते और बदलते रहते हैं। तर्कबुद्धि चेतना का ही एक भाग इसलिेए न केवल चेतना और अस्तित्व की सही-सही समझ आवश्यक है बल्कि आवश्यक यह भी है कि परिवेश को भी अनुकूल रखा जाय जो कि निरंतर सामूहिक विमर्श के द्वारा ही संभव है।
भौतिक जगत और उसके साथ मानव के अस्तित्व (शरीर) की पड़ताल वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, और उसके बारे में ज्ञान, पारंपरिक तौर पर, प्रकृति विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है। वैचारिक जगत और उसके साथ मानव की चेतना की पड़ताल तर्कबुद्धि के आधार पर और उसके बारे में ज्ञान, दर्शन शास्त्र के रूप में विकसित हुआ है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक पूर्वाग्रहों के कारण दर्शन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाना तब तक संभव नहीं था जब तक सामाजिक परिस्थितियों ने उसके लिए उपयुक्त वातावरण पैदा नहीं कर दिया। और वह वातावरण पैदा किया पूँजी ने, उन्नीसवीं सदी में वैश्विक पूँजी के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच जाने पर जिसने मानव की चेतना तथा अस्तित्व के संबंध के बारे में व्याप्त भ्रमों तथा पूर्वाग्रहों के अंत को अपरिहार्य बना दिया था। और यह काम पूरा हुआ मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा - दर्शन को विज्ञान के दायरे के बाहर से खींच कर विज्ञान के दायरे में लाकर।
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग नौजवानों से मेरा आग्रह है कि वे समाजवादी क्रांति के लिए जल्दबाज़ी न करें। विकास की दिशा और रफ़्तार के प्रकृति के अपने नियम हैं, मनुष्य उसकी रफ़्तार को कम या ज्यादा करने के लिए सीमित सार्थक हस्तक्षेप तो कर सकता है पर अपनी इच्छा उन पर नहीं थोप सकता है। अपने स्वयं के ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है कि वे पहले अपने आप को, चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में, अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त करें। इसके लिए मेरा सुझाव है कि वे मार्क्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'जर्मन आइडियोलाजी की एक विवेचना' और एंगेल्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'लुडविष फॉयरबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत' पढ़ें तथा आपस में विमर्श करें ताकि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में उनकी समझ पुख्ता हो सके।
अगला क़दम उसके बाद।
शुभकामनाओं के साथ
सुरेश श्रीवास्तव
12 नवंबर, 2015
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