इस सप्ताह, एक ओर भाकपा देश भर में अपनी स्थापना के 90 वर्ष पूरे करने का जश्न मना रही है वहीं, माकपा कोलकाता में अपनी सांगठनिक आमसभा के जरिए आगे की रणनीति तय करने के लिए जुटी हुई है।
भाकपा हर जगह अपने कार्यकर्ताओं को समझा रही है कि आरआरएस की स्थापना भी 1925 में ही हुई थी, पर वे आज राष्ट्र की बागडोर सम्हाले हुए हैं और वमपंथी हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं, और इसी संदर्भ से नेतृत्त्व, कार्यकर्त्ताओं को आत्मालोचना करने का आह्वान कर रहा है। नीति निर्धारण का अधिकार नेतृत्त्व का, आत्मालोचना का दायित्व कार्यकर्त्ताओं पर, कुछ अजीब सा लगता है।
माकपा लेनिनवादी सिद्धांत का हवाला देते हुए कहती है कि ठोस परिस्थितिओं में ठोस विश्लेषण द्वंद्वात्मकता का जीवंत सार है। यहां भी नौजवान ठोस विश्लेषण का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। पर कुछ हासिल होगा? शायद नहीं, क्योंकि यहां भी तो सांप्रदायिकता का मसला मुख्य है। आमसभा के लिए प्रमुख एजेंडा है, “मौजूदा सांप्रदायिक हमले का और राजनीतिक, विचारधारात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्षेत्रों संबंधी उसके तमाम आयामों का मुकाबला करना होगा।” सीपीएम की दोयम दर्जे की प्राथमिकता में लोगों को बेहतर जीवन स्थितियां मुहैया कराने की वैकल्पिक नीतियां बनाना भी शामिल है। लेकिन नीतियां बनाने से पहले सैद्धांतिक समझ स्पष्ट होना जरूरी है, पर ‘मानवीय पूंजी’ जैसी शब्दावली का प्रयोग दर्शाता है कि पार्टी सैद्धांतिक समझ विकसित करने में कितनी गंभीर है।
पार्टी के नीति निर्धारकों का ‘मानवीय पूंजी’ से क्या तात्पर्य है, ये तो वे ही जानें। मार्क्स के विश्लेषण के अनुसार, संपत्ति संचित श्रम का निष्क्रिय रूप है जबकि पूंजी उसका सक्रिय रूप है। मार्क्स ने मूल्य की पहचान, उत्पाद में ‘सन्निहित संचित श्रम’ के रूप में की थी, और मुद्रा की पहचान मूल्य के मूर्त रूप की तरह की थी।
जहां तक ठोस विश्लेषण की बात है तो सबसे जरूरी है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण। जिस बात पर पचास साल पहले मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था, उसका ठोस विश्लेषण आज तक नहीं किया गया है। अगर भारतीय राष्ट्र राज्य के चरित्र का सही-सही विश्लेषण कर दिया गया होता, तो आज जनता के बीच एक ही कम्युनिस्ट पार्टी होती न कि चालीस अलग अलग। मार्क्स ने समझाया था कि सामूहिक श्रमशक्ति, व्यक्तिगत श्रमशक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न और उन्नत होती है और इसी कारण से पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादकता, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया की उत्पादकता से कहीं अधिक होती है तथा सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था का पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में संक्रमण अपरिहार्य है। लेनिन ने समझाया था कि मौजूदा व्यवस्था में, कृषि में पूँजी के निवेश को रोकना, तथा छोटे स्तर के उत्पादन का बड़े स्तर के उत्पादन के मुक़ाबले प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव है, इसलिये मार्क्सवादियों को चाहिए कि वे किसानों तथा मजदूरों को समझायें कि वे सर्वहारा दृष्टिकोण अपनायें। कृषि, उद्योग और व्यापार में भारी पूंजी निवेश की खिलाफत करना, भारतीय कम्युनिस्टों में मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ को दर्शाता है।
मार्क्स ने समझाया था कि हर वर्ग उत्पादन संबंधों के आधार पर राजनीति, धर्म से संबंधित विचारों का एक तिलिस्म खड़ा कर लेता है जो उससे पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां शायद मार्क्सवाद की और अनेकों अवधारणाओं की तरह इस अवधारणा से असहमत हैं और इसी कारण पिछले चालीस साल से उनकी राजनीति संघ परिवार के विरोध के इर्द गिर्द घूम रही है, यहां तक कि भाजपा को हराने के लिए वे खुले मंच से सांप्रदायिकता करने को ज्यादा खतरनाक होने की दलील के साथ, कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हो जाते हैं, इस स्वीकारोक्ति के बावजूद, कि समय समय पर कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ भी सांप्रदायिकता का कार्ड खेलती रही हैं। और भाजपा के हारने के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक हो जाती हैं।
नरेंद्र मोदी की अचानक पाकिस्तान यात्रा से मार्क्सवादी पार्टियां सन्निपात की अवस्था में हैं। न वे इस अचानक बदली हुई परिस्थिति के कारणों को समझ पा रही हैं और न सही-सही विश्लेषण कर पा रही हैं। नई पीढ़ी की छटपटाहट बढ़ती जा रही है, पर आत्ममुग्ध नेतृत्त्व अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने के लिए कहीं से भी तैयार नजर नहीं आता है।
सुरेश श्रीवास्तव
नोएडा
27 दिसम्बर, 2015
भाकपा हर जगह अपने कार्यकर्ताओं को समझा रही है कि आरआरएस की स्थापना भी 1925 में ही हुई थी, पर वे आज राष्ट्र की बागडोर सम्हाले हुए हैं और वमपंथी हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं, और इसी संदर्भ से नेतृत्त्व, कार्यकर्त्ताओं को आत्मालोचना करने का आह्वान कर रहा है। नीति निर्धारण का अधिकार नेतृत्त्व का, आत्मालोचना का दायित्व कार्यकर्त्ताओं पर, कुछ अजीब सा लगता है।
माकपा लेनिनवादी सिद्धांत का हवाला देते हुए कहती है कि ठोस परिस्थितिओं में ठोस विश्लेषण द्वंद्वात्मकता का जीवंत सार है। यहां भी नौजवान ठोस विश्लेषण का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। पर कुछ हासिल होगा? शायद नहीं, क्योंकि यहां भी तो सांप्रदायिकता का मसला मुख्य है। आमसभा के लिए प्रमुख एजेंडा है, “मौजूदा सांप्रदायिक हमले का और राजनीतिक, विचारधारात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्षेत्रों संबंधी उसके तमाम आयामों का मुकाबला करना होगा।” सीपीएम की दोयम दर्जे की प्राथमिकता में लोगों को बेहतर जीवन स्थितियां मुहैया कराने की वैकल्पिक नीतियां बनाना भी शामिल है। लेकिन नीतियां बनाने से पहले सैद्धांतिक समझ स्पष्ट होना जरूरी है, पर ‘मानवीय पूंजी’ जैसी शब्दावली का प्रयोग दर्शाता है कि पार्टी सैद्धांतिक समझ विकसित करने में कितनी गंभीर है।
पार्टी के नीति निर्धारकों का ‘मानवीय पूंजी’ से क्या तात्पर्य है, ये तो वे ही जानें। मार्क्स के विश्लेषण के अनुसार, संपत्ति संचित श्रम का निष्क्रिय रूप है जबकि पूंजी उसका सक्रिय रूप है। मार्क्स ने मूल्य की पहचान, उत्पाद में ‘सन्निहित संचित श्रम’ के रूप में की थी, और मुद्रा की पहचान मूल्य के मूर्त रूप की तरह की थी।
जहां तक ठोस विश्लेषण की बात है तो सबसे जरूरी है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण। जिस बात पर पचास साल पहले मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था, उसका ठोस विश्लेषण आज तक नहीं किया गया है। अगर भारतीय राष्ट्र राज्य के चरित्र का सही-सही विश्लेषण कर दिया गया होता, तो आज जनता के बीच एक ही कम्युनिस्ट पार्टी होती न कि चालीस अलग अलग। मार्क्स ने समझाया था कि सामूहिक श्रमशक्ति, व्यक्तिगत श्रमशक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न और उन्नत होती है और इसी कारण से पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादकता, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया की उत्पादकता से कहीं अधिक होती है तथा सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था का पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में संक्रमण अपरिहार्य है। लेनिन ने समझाया था कि मौजूदा व्यवस्था में, कृषि में पूँजी के निवेश को रोकना, तथा छोटे स्तर के उत्पादन का बड़े स्तर के उत्पादन के मुक़ाबले प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव है, इसलिये मार्क्सवादियों को चाहिए कि वे किसानों तथा मजदूरों को समझायें कि वे सर्वहारा दृष्टिकोण अपनायें। कृषि, उद्योग और व्यापार में भारी पूंजी निवेश की खिलाफत करना, भारतीय कम्युनिस्टों में मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ को दर्शाता है।
मार्क्स ने समझाया था कि हर वर्ग उत्पादन संबंधों के आधार पर राजनीति, धर्म से संबंधित विचारों का एक तिलिस्म खड़ा कर लेता है जो उससे पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां शायद मार्क्सवाद की और अनेकों अवधारणाओं की तरह इस अवधारणा से असहमत हैं और इसी कारण पिछले चालीस साल से उनकी राजनीति संघ परिवार के विरोध के इर्द गिर्द घूम रही है, यहां तक कि भाजपा को हराने के लिए वे खुले मंच से सांप्रदायिकता करने को ज्यादा खतरनाक होने की दलील के साथ, कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हो जाते हैं, इस स्वीकारोक्ति के बावजूद, कि समय समय पर कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ भी सांप्रदायिकता का कार्ड खेलती रही हैं। और भाजपा के हारने के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक हो जाती हैं।
नरेंद्र मोदी की अचानक पाकिस्तान यात्रा से मार्क्सवादी पार्टियां सन्निपात की अवस्था में हैं। न वे इस अचानक बदली हुई परिस्थिति के कारणों को समझ पा रही हैं और न सही-सही विश्लेषण कर पा रही हैं। नई पीढ़ी की छटपटाहट बढ़ती जा रही है, पर आत्ममुग्ध नेतृत्त्व अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने के लिए कहीं से भी तैयार नजर नहीं आता है।
सुरेश श्रीवास्तव
नोएडा
27 दिसम्बर, 2015
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