रोहित वेमुला को श्रद्धांजली
रोहित वेमुला कोई पहला होनहार नौजवान नहीं है जिसने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या की हो। कुछ साल पहले सेंथिल कुमार ने भी आत्महत्या की थी। पहले भी होनहार विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है और अभी कुछ दिन पहले ही युवा कवि प्रकाश साव ने आत्महत्या कर ली है। दिमागी तौर पर असंतुलित व्यक्ति के बारे में तो कहा जा सकता है कि आत्महत्या करते समय आत्महंता के मस्तिष्क की प्रक्रिया उसकी तर्कबुद्धि के नियंत्रण में न रही हो, पर रोहित जैसे जागरूक होनहार नौजवान, जो सजग तौर पर शोषण के विरुद्ध संघर्ष में अपने जैसों के साथ सक्रिय रूप से भागीदार रहा हो, के लिए यह कहना गलत होगा कि उसकी आत्महत्या भावातिरेक का परिणाम थी। बल्कि यथार्थ यही है कि रोहित जैसे व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के लिए किया गया निर्णय एक संतुलित मस्तिष्क की तार्किक चिंतन प्रक्रिया का परिणाम होता है। रोहित का अंतिम समय में लिखा गया पत्र और फिर उसके एक पैराग्राफ़ का काट दिया जाना, अंतिम समय में भी संतुलित मनस्थिति का द्योतक है और दर्शाता है कि वह शांत चित्त के साथ लिया गया निर्णय था, न कि भावातिरेक में एक भावुक व्यक्ति या अवसाद में एक अवसादग्रस्त व्यक्ति द्वारा उठाया गया क़दम। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति आत्महत्या तब करता है जब वह तार्किक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि उसके लिए संघर्ष के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं तथा उसका जीवन उसके अपने प्रियजनों के लिए एक संबल की जगह अवरोध बन गया है और उसकी मृत्यु उसके जीवन से अधिक सार्थक होगी। इस सार्थकता के आंकलन का आधार पूरी तरह व्यक्तिगत भी हो सकता है या फिर पारिवारिक तथा सामूहिक भी। कोई व्यक्ति या उससे संबंधित परिघटना औरों के विचारों के लिए उद्दीपन या प्रेरणा स्रोत तो हो सकती है, पर हर किसी की चेतना के निर्माण की प्रक्रिया और उससे उपजे विचारों का आधार उसकी अपनी मानसिकता और पूर्वाग्रह ही होते हैं। रोहित की पूरी वैचारिक प्रक्रिया का विश्लेषण कर तथा उसके संघर्ष की परिणति उसकी त्रासद मौत में हो जाने वाले कारणों की पहचान कर, नयी पीढ़ी के लिए सबक़ हासिल कर सकना ही रोहित के लिए सच्चा न्याय और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।
मरने के बाद किसी को देवता की तरह स्थापित कर लेना, और फिर उसकी छवि को अपनी सुविधानुसार गढ़ कर अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना हमारी मानसिकता और संस्कृति का विशिष्ट गुण है। रोहित की मौत से उपजे व्यापक रोष और आंदोलनों से स्पष्ट नजर आ रहा है कि, मौजूदा निज़ाम से व्यक्तिगत कारणों से असंतुष्ट लोग इस पूरे प्रकरण को जातिगत भेद-भाव तथा दलितों के सामाजिक शोषण के रूप में पेश कर रहे हैं। जो राजनैतिक तौर पर भाजपा के विरोधी हैं वे रोहित की आत्महत्या को केंद्र सरकार के हिंदुत्ववादी एजेंडे के षड़यंत्र के रूप में दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
आत्महत्या से पहले रोहित भी, छात्र राजनीति में सक्रिय, अन्य छात्रों की तरह ही एक छात्र था, अन्य युवाओं की तरह ही अपरिपक्व, अति-उत्साही, महत्वाकांक्षी, आदर्शवादी, अतिसक्रिय। अत्याधिक ग़रीब, पिछड़े और शोषित तबके से आने के बावजूद, संघर्ष के जरिए अपने बल पर पीऐचडी के लिए अनारक्षित श्रेणी में स्कॉलरशिप पाना, उसके जीवट को दर्शाता है। प्रकृति विज्ञान का स्नातक होने के बावजूद समाज विज्ञान का विषय शोध के लिए चुनना, सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी सजगता को दर्शाता है। उसका मार्क्सवाद से अभिभूत होना और शुरुआती दौर में ऐस.ऐफ.आई. से जुड़ा होना दर्शाता है कि वह विश्वविद्यालय में अंबेडकर छात्र संगठन में सक्रिय होने के पहले तक जातिगत शोषण के कारणों को भी अर्थव्यवस्था में ही देखता था। सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक, ऐसे कर्मठ संघर्षरत नौजवान का, मार्क्सवाद से मोह भंग होना और संघर्ष के लिए ऐसा रास्ता चुनना जो अंतत: उसे अंधी गली के उस छोर पर पहुँचा देगा जहाँ उसके पास आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह जायेगा, उन परिपक्व मार्क्सवादियों के लिए चिंतनीय स्थिति होना चाहिए जो वामपंथी आंदोलन में आये ठहराव से चिंतित हैं, और चेतावनी होना चाहिए उन अति-उत्साहित नौजवानों के लिए जो क्रांति करने की जल्दबाज़ी में इस या उस वामपंथी संगठन में शामिल होना चाहते हैं जिनके लिए सिद्धांत की गहरी समझ से अधिक महत्वपूर्ण है आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी।
गैरमार्क्सवादी हों या वामपंथी हों, सभी अंबेडकर को दलितों के मसीहा के रूप में पेश करते हैं और दलितों के साथ किये जानेवाले सामाजिक भेद-भाव या शोषण को हिन्दुत्ववादी एजेंडे के रूप में पेश करते हैं। अंबेडकर का मानना था कि दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का आधार, हिंदू धर्म के अंतर्गत जाति व्यवस्था की स्थापना का होना है और इसीलिए किसी भी सामाजिक क्रांति के पहले जाति उन्मूलन आवश्यक है। यद्यपि मार्क्स का कहना है कि हर वर्ग अपने आर्थिक संबंधों के आधार पर सामाजिक और राजनैतिक विचारों का एक ऐसा तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आर्थिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है, फिर भी वामपंथियों का कहना है कि भारत में जाति भी वर्ग का पर्याय है इस कारण अंबेडकर की मान्यता मार्क्सवाद के अनुकूल ही है और भारत में मजदूरों की आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए जाति उन्मूलन भी आवश्यक है। मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण वामपंथी, अंबेडकरवाद तथा मार्क्सवाद के दार्शनिक आयामों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाते हैं और मार्क्स तथा अंबेडकर को एक ही पाले में रख कर नीति निर्धारण करते हैं।
मार्क्स और अंबेडकर के चिंतन परस्पर प्रतिरोधी, मूल दार्शनिक अवधारणाओं पर आधारित हैं। अंबेडकर का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार मानवीय चेतना, व्यक्ति के अस्तित्व और समाज से स्वतंत्र एक स्वायत्त अवयव है, समाज व्यक्तियों का समूह है और व्यक्ति समाज के अंदर एक स्वतंत्र स्वायत्त इकाई है। इस अवधारणा के अनुसार चेतना व्यक्ति का प्रकृति प्रदत्त गुण है और विचारों का निर्माण और विकास तर्कबुद्धि द्वारा होता है। मार्क्स का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। चेतना सामाजिक वैचारिक अवयव है और उसका भौतिक आधार अर्थव्यवस्था है। उसके अनुसार व्यक्तिगत चेतना तथा व्यक्तिगत अस्तित्व और सामूहिक चेतना तथा सामूहिक अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। इस कारण मार्क्स न तो व्यक्ति को समाज से स्वतंत्र इकाई के रूप में देखते हैं और न ही वे समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखते हैं। वे समाज को एक जीवंत जैविक संरचना के रूप में देखते हैं और मानव को उस जैविक संरचना की एक कोशिका के रूप में।
अंबेडकर की तत्त्ववादी (Metaphysical) भाववाद पर आधारित विचारधारा में मूल्य, मुद्रा, पूँजी, अतिरिक्त मूल्य जैसी कोटियों के लिए कोई स्थान नहीं है। वे दलितों के शोषण को पूरी तरह वैचारिक स्तर पर देखते हैं। उनके अनुसार संपन्न उच्च जातियों में, दलितों से छुआ-छूत की मानसिकता के कारण ही दलित मुख्यधारा से कटे हुए हैं और यही उनके शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण है। उनके अनुसार उचित क़ानूनों तथा व्यक्तिगत शिक्षा के जरिए छुआ-छूत को दूर कर दलितों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है जो स्वत: ही दलितों को आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलायेगा। दलित विमर्श और संघर्ष में अंबेडकरवादियों की रणनीति अंबेडकर की इसी विचारधारा पर आधारित है।
मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित विचारधारा में, व्यक्तिगत और सामूहिक श्रम द्वारा प्रकृति प्रदत्त अवयवों में बदलाव कर, मानव जीवन के लिए आवश्यक भौतिक साधनों का उत्पादन और उपभोग ही मानव और मानव समाज का आधार है। उत्पादकता में निरंतर विकास की प्रवृत्ति ही मानवीय चेतना और सामाजिक चेतना का आधार है। मानव भौतिक संरचना है, चेतना जिसकी अंतर्वस्तु है और अस्तित्व अधिरचना। चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। समाज एक वैचारिक जीवंत संरचना है जिसकी कोशिकाएँ मानव हैं जो वैचारिक रूप से एक दूसरे संबद्ध होते हैं और उनके आर्थिक संबंध सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु हैं। उनके राजनैतिक और सांस्कृतिक विचार सामाजिक चेतना की अधिरचना हैं। शोषक और शोषित के बीच के आर्थिक संबंधों के कारण ही मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज के रूप में परिभाषित करता है।
बार-बार एक ही उत्पादन क्रिया को करने से श्रमिक की कुशलता में इज़ाफ़ा होता है और आदिम समाज से सभ्य समाज की ओर विकास के दौरान श्रम विभाजन अर्थव्यवस्था का आधार बन जाता है। निरंतर बढ़ती उत्पादकता के साथ उत्पादक श्रम का विभाजन कब मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के आधार पर होने लगा, मनुष्य को पता ही नहीं चला। और अर्थ व्यवस्था में इसी बँटवारे ने समाज को शोषक और शोषित के बीच बाँट दिया जिसके कारण मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज मानता है। श्रम विभाजन पर आधारित उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन का स्तर बढ़ने के साथ ही उपयोगी उत्पाद का रूपांतरण विनिमय उत्पाद में हो गया। पहले जो कुशलता परिवार के स्तर तक सीमित थी उसका विस्तार अनेकों परिवारों के समूह तक हो गया जिसने आगे चल कर समूहों को श्रम आधारित जाति के रूप में चिन्हित किया। इसीलिए मार्क्सवाद भारत जैसे देश में जातिप्रथा को सामंतवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित वैचारिक चेतना मानता है। पहले उपयोगी उत्पादन पर मनुष्य का नियंत्रण होता था, अब मनुष्य विनिमय उत्पादन के नियंत्रण में है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ है उनके लिए मनुष्य के, चेतना तथा अस्तित्व के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध में आये गुणात्मक परिवर्तन को समझना मुश्किल नहीं है।
सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में रूपांतरण में श्रमिक की कुशलता और शारीरिक शक्ति का भार मशीनों को सौंप दिया जाता है, कामगार का काम मशीनों की निगरानी और नियंत्रण करना रह जाता है। पूँजीवाद में उत्पादन, कुशलता आधारित न होकर ज्ञान आधारित हो जाता है। स्वचलित मशीनों के कारण उत्पादन क्रिया में श्रमिक के लिए उस न्यूनतम ज्ञान की जरूरत होती है जो आज के मनुष्य का सामान्य ज्ञान होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, श्रमिकों के बीच कुशलता आधारित सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवाद में जातिगत भेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं और संघर्ष केवल शोषक और शोषित वर्ग के बीच ही रह जाता है। जो वामपंथी जातियों को वर्ग के रूप में परिभाषित करते हैं वे अनजाने ही कामगारों के बीच बिखराव पैदा कर उनकी एकजुटता को कमजोर करते हैं। सर्वहारा चेतना की मांग है कि मज़दूर आंदोलनों का उद्देश्य होना चाहिए आर्थिक संबंधों को ज्यादा से ज्यादा मजदूरों के हित की तरफ मोड़ना और इसी में शामिल है सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था को कमजोर कर पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था को मज़बूत करना।
पैदा होने से वयस्क होने तक रोहित जिस विकास प्रक्रिया से गुज़रा उसने उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग, कर्मठ, अपने दायित्वों को ईमानदारी से निभाने के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्तित्व प्रदान किया था। वह अपने हितों को सामूहिक हितों से जोड़कर देखता था इसीलिए उसके लिए अपनी पीएचडी और अपना कॉरियर उतना ही महत्वपूर्ण था जितना शोषितों की मुक्ति का संघर्ष। उसमें परिपक्व मार्क्सवादी बनने के पूरे गुण मौजूद थे और इसीलिए उसने एसएफआई ज्वाइन किया था। पर अफ़सोस है कि भारत में वामपंथी संगठनों में जिस प्रकार संशोधनवाद व्याप्त है उसके बीच मार्क्सवाद की सही समझ हासिल कर सकना नौजवानों के लिए अत्यंत कठिन कार्य है। व्यक्तिगत हितों और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वामपंथी क़तारों के बीच टिके रहना रोहित जैसे व्यक्ति के लिए असंभव था। जिस प्रकार वामपंथियों ने मार्क्स और अंबेडकर को एक ही मूर्तितल पर स्थापित कर दिया है उसके कारण रोहित का वामपंथी संगठनों से मोह भंग हो जाना और अंबेडकरवादी संगठनों की ओर मुड़ जाना स्वभाविक ही था।
निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा दलितों और शोषितों के हित में किये जा रहे प्रलाप ने रोहित को भ्रमित कर दिया था कि वंचितों, अल्पसंख्यकों तथा शोषितों के लिए जो संघर्ष वह व्यवस्था के खिलाफ कर रहा है, उसमें उसे प्रगतिशील तबक़ों का व्यापक समर्थन हासिल है और अगर सत्तासीन पार्टी उसके व्यक्तिगत हितों पर चोट करेगी तो उसे वामपंथियों सहित सभी उदारपंथियों का व्यापक समर्थन हासिल होगा। पर चार महीनों में ही उसका भ्रम टूट गया जब उसने पाया कि क़ानूनी लड़ाई में वह बिल्कुल अकेला है और राजसत्ता सत्तासीन पार्टी के हितों के अनुसार ही काम करेगी। उसे आख़िरी आशा भारतीय क़ानून व्यवस्था से थी, इसीलिए उसने अपने निलंबन के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाख़िल की थी। पर उसकी वह आशा भी टूट गयी जब उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को, उसके खिलाफ ऐफआईआर के लिए डाली गयी याचिका के साथ, संलग्न कर दिया।
अब तक रोहित के वामपंथियों, प्रगतिशील और उदारपंथियों द्वारा पैदा किये गये सारे भ्रम टूट चुके थे। उसे समझ आ गया था कि राजसत्ता के लिए सबसे आसान होता है क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करते हए दिखाकर व्यक्ति की आजादी छीन लेना, उसे जेल में बंद कर देना। चाहे भगतसिंह हों, या राजेश तलवार हो या फिर याकूब मेमन हो, राजसत्ता के पास सब के लिए एक ही हथियार है। अठारह जनवरी को दोनों याचिकाओं पर सुनवायी होनी थी। जिन गंभीर धाराओं के लिए ऐफआईआर की मांग की गयी थी उनमें ज़मानत मिलने की कोई संभावना नहीं थी। जेल जाने के बाद सालों साल मुकदमेबाजी, और आगे बढ़ने के सारे रास्ते बंद। पीछे हटने का भी कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था जिसे सत्रह तारीख़ की शाम रोहित ने चुन लिया।
जिनके भरोसे रोहित ने भ्रम पाले थे और जिन्होंने ही उस भरोसे को तोड़ दिया, वे ही आज रोहित के मरने के बाद उसके लिए न्याय की मांग कर रहे हैं। न्याय क्या? स्मृति ईरानी और बंडारू दत्तात्रेय का इस्तीफ़ा और उनके खिलाफ कार्यवाही? रोहित को इससे क्या मिलना, वह तो इस दुनिया में है ही नहीं। रोहित को जरूरत है श्रद्धांजली की, और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी नई पीढ़ी में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत की वह समझ पैदा करना जिसकी रोशनी में वे अपने भविष्य का रास्ता तलाश सकें और जिसके अभाव में किसी अंधी गली के बंद मुहाने पर पहुँच कर उन्हें भी वही विकल्प न चुनना पड़े जो रोहित को चुनना पड़ा।
सुरेश श्रीवास्तव
29 जनवरी, 2016
रोहित वेमुला कोई पहला होनहार नौजवान नहीं है जिसने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या की हो। कुछ साल पहले सेंथिल कुमार ने भी आत्महत्या की थी। पहले भी होनहार विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है और अभी कुछ दिन पहले ही युवा कवि प्रकाश साव ने आत्महत्या कर ली है। दिमागी तौर पर असंतुलित व्यक्ति के बारे में तो कहा जा सकता है कि आत्महत्या करते समय आत्महंता के मस्तिष्क की प्रक्रिया उसकी तर्कबुद्धि के नियंत्रण में न रही हो, पर रोहित जैसे जागरूक होनहार नौजवान, जो सजग तौर पर शोषण के विरुद्ध संघर्ष में अपने जैसों के साथ सक्रिय रूप से भागीदार रहा हो, के लिए यह कहना गलत होगा कि उसकी आत्महत्या भावातिरेक का परिणाम थी। बल्कि यथार्थ यही है कि रोहित जैसे व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के लिए किया गया निर्णय एक संतुलित मस्तिष्क की तार्किक चिंतन प्रक्रिया का परिणाम होता है। रोहित का अंतिम समय में लिखा गया पत्र और फिर उसके एक पैराग्राफ़ का काट दिया जाना, अंतिम समय में भी संतुलित मनस्थिति का द्योतक है और दर्शाता है कि वह शांत चित्त के साथ लिया गया निर्णय था, न कि भावातिरेक में एक भावुक व्यक्ति या अवसाद में एक अवसादग्रस्त व्यक्ति द्वारा उठाया गया क़दम। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति आत्महत्या तब करता है जब वह तार्किक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि उसके लिए संघर्ष के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं तथा उसका जीवन उसके अपने प्रियजनों के लिए एक संबल की जगह अवरोध बन गया है और उसकी मृत्यु उसके जीवन से अधिक सार्थक होगी। इस सार्थकता के आंकलन का आधार पूरी तरह व्यक्तिगत भी हो सकता है या फिर पारिवारिक तथा सामूहिक भी। कोई व्यक्ति या उससे संबंधित परिघटना औरों के विचारों के लिए उद्दीपन या प्रेरणा स्रोत तो हो सकती है, पर हर किसी की चेतना के निर्माण की प्रक्रिया और उससे उपजे विचारों का आधार उसकी अपनी मानसिकता और पूर्वाग्रह ही होते हैं। रोहित की पूरी वैचारिक प्रक्रिया का विश्लेषण कर तथा उसके संघर्ष की परिणति उसकी त्रासद मौत में हो जाने वाले कारणों की पहचान कर, नयी पीढ़ी के लिए सबक़ हासिल कर सकना ही रोहित के लिए सच्चा न्याय और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।
मरने के बाद किसी को देवता की तरह स्थापित कर लेना, और फिर उसकी छवि को अपनी सुविधानुसार गढ़ कर अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना हमारी मानसिकता और संस्कृति का विशिष्ट गुण है। रोहित की मौत से उपजे व्यापक रोष और आंदोलनों से स्पष्ट नजर आ रहा है कि, मौजूदा निज़ाम से व्यक्तिगत कारणों से असंतुष्ट लोग इस पूरे प्रकरण को जातिगत भेद-भाव तथा दलितों के सामाजिक शोषण के रूप में पेश कर रहे हैं। जो राजनैतिक तौर पर भाजपा के विरोधी हैं वे रोहित की आत्महत्या को केंद्र सरकार के हिंदुत्ववादी एजेंडे के षड़यंत्र के रूप में दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
आत्महत्या से पहले रोहित भी, छात्र राजनीति में सक्रिय, अन्य छात्रों की तरह ही एक छात्र था, अन्य युवाओं की तरह ही अपरिपक्व, अति-उत्साही, महत्वाकांक्षी, आदर्शवादी, अतिसक्रिय। अत्याधिक ग़रीब, पिछड़े और शोषित तबके से आने के बावजूद, संघर्ष के जरिए अपने बल पर पीऐचडी के लिए अनारक्षित श्रेणी में स्कॉलरशिप पाना, उसके जीवट को दर्शाता है। प्रकृति विज्ञान का स्नातक होने के बावजूद समाज विज्ञान का विषय शोध के लिए चुनना, सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी सजगता को दर्शाता है। उसका मार्क्सवाद से अभिभूत होना और शुरुआती दौर में ऐस.ऐफ.आई. से जुड़ा होना दर्शाता है कि वह विश्वविद्यालय में अंबेडकर छात्र संगठन में सक्रिय होने के पहले तक जातिगत शोषण के कारणों को भी अर्थव्यवस्था में ही देखता था। सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक, ऐसे कर्मठ संघर्षरत नौजवान का, मार्क्सवाद से मोह भंग होना और संघर्ष के लिए ऐसा रास्ता चुनना जो अंतत: उसे अंधी गली के उस छोर पर पहुँचा देगा जहाँ उसके पास आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह जायेगा, उन परिपक्व मार्क्सवादियों के लिए चिंतनीय स्थिति होना चाहिए जो वामपंथी आंदोलन में आये ठहराव से चिंतित हैं, और चेतावनी होना चाहिए उन अति-उत्साहित नौजवानों के लिए जो क्रांति करने की जल्दबाज़ी में इस या उस वामपंथी संगठन में शामिल होना चाहते हैं जिनके लिए सिद्धांत की गहरी समझ से अधिक महत्वपूर्ण है आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी।
गैरमार्क्सवादी हों या वामपंथी हों, सभी अंबेडकर को दलितों के मसीहा के रूप में पेश करते हैं और दलितों के साथ किये जानेवाले सामाजिक भेद-भाव या शोषण को हिन्दुत्ववादी एजेंडे के रूप में पेश करते हैं। अंबेडकर का मानना था कि दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का आधार, हिंदू धर्म के अंतर्गत जाति व्यवस्था की स्थापना का होना है और इसीलिए किसी भी सामाजिक क्रांति के पहले जाति उन्मूलन आवश्यक है। यद्यपि मार्क्स का कहना है कि हर वर्ग अपने आर्थिक संबंधों के आधार पर सामाजिक और राजनैतिक विचारों का एक ऐसा तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आर्थिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है, फिर भी वामपंथियों का कहना है कि भारत में जाति भी वर्ग का पर्याय है इस कारण अंबेडकर की मान्यता मार्क्सवाद के अनुकूल ही है और भारत में मजदूरों की आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए जाति उन्मूलन भी आवश्यक है। मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण वामपंथी, अंबेडकरवाद तथा मार्क्सवाद के दार्शनिक आयामों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाते हैं और मार्क्स तथा अंबेडकर को एक ही पाले में रख कर नीति निर्धारण करते हैं।
मार्क्स और अंबेडकर के चिंतन परस्पर प्रतिरोधी, मूल दार्शनिक अवधारणाओं पर आधारित हैं। अंबेडकर का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार मानवीय चेतना, व्यक्ति के अस्तित्व और समाज से स्वतंत्र एक स्वायत्त अवयव है, समाज व्यक्तियों का समूह है और व्यक्ति समाज के अंदर एक स्वतंत्र स्वायत्त इकाई है। इस अवधारणा के अनुसार चेतना व्यक्ति का प्रकृति प्रदत्त गुण है और विचारों का निर्माण और विकास तर्कबुद्धि द्वारा होता है। मार्क्स का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। चेतना सामाजिक वैचारिक अवयव है और उसका भौतिक आधार अर्थव्यवस्था है। उसके अनुसार व्यक्तिगत चेतना तथा व्यक्तिगत अस्तित्व और सामूहिक चेतना तथा सामूहिक अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। इस कारण मार्क्स न तो व्यक्ति को समाज से स्वतंत्र इकाई के रूप में देखते हैं और न ही वे समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखते हैं। वे समाज को एक जीवंत जैविक संरचना के रूप में देखते हैं और मानव को उस जैविक संरचना की एक कोशिका के रूप में।
अंबेडकर की तत्त्ववादी (Metaphysical) भाववाद पर आधारित विचारधारा में मूल्य, मुद्रा, पूँजी, अतिरिक्त मूल्य जैसी कोटियों के लिए कोई स्थान नहीं है। वे दलितों के शोषण को पूरी तरह वैचारिक स्तर पर देखते हैं। उनके अनुसार संपन्न उच्च जातियों में, दलितों से छुआ-छूत की मानसिकता के कारण ही दलित मुख्यधारा से कटे हुए हैं और यही उनके शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण है। उनके अनुसार उचित क़ानूनों तथा व्यक्तिगत शिक्षा के जरिए छुआ-छूत को दूर कर दलितों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है जो स्वत: ही दलितों को आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलायेगा। दलित विमर्श और संघर्ष में अंबेडकरवादियों की रणनीति अंबेडकर की इसी विचारधारा पर आधारित है।
मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित विचारधारा में, व्यक्तिगत और सामूहिक श्रम द्वारा प्रकृति प्रदत्त अवयवों में बदलाव कर, मानव जीवन के लिए आवश्यक भौतिक साधनों का उत्पादन और उपभोग ही मानव और मानव समाज का आधार है। उत्पादकता में निरंतर विकास की प्रवृत्ति ही मानवीय चेतना और सामाजिक चेतना का आधार है। मानव भौतिक संरचना है, चेतना जिसकी अंतर्वस्तु है और अस्तित्व अधिरचना। चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। समाज एक वैचारिक जीवंत संरचना है जिसकी कोशिकाएँ मानव हैं जो वैचारिक रूप से एक दूसरे संबद्ध होते हैं और उनके आर्थिक संबंध सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु हैं। उनके राजनैतिक और सांस्कृतिक विचार सामाजिक चेतना की अधिरचना हैं। शोषक और शोषित के बीच के आर्थिक संबंधों के कारण ही मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज के रूप में परिभाषित करता है।
बार-बार एक ही उत्पादन क्रिया को करने से श्रमिक की कुशलता में इज़ाफ़ा होता है और आदिम समाज से सभ्य समाज की ओर विकास के दौरान श्रम विभाजन अर्थव्यवस्था का आधार बन जाता है। निरंतर बढ़ती उत्पादकता के साथ उत्पादक श्रम का विभाजन कब मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के आधार पर होने लगा, मनुष्य को पता ही नहीं चला। और अर्थ व्यवस्था में इसी बँटवारे ने समाज को शोषक और शोषित के बीच बाँट दिया जिसके कारण मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज मानता है। श्रम विभाजन पर आधारित उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन का स्तर बढ़ने के साथ ही उपयोगी उत्पाद का रूपांतरण विनिमय उत्पाद में हो गया। पहले जो कुशलता परिवार के स्तर तक सीमित थी उसका विस्तार अनेकों परिवारों के समूह तक हो गया जिसने आगे चल कर समूहों को श्रम आधारित जाति के रूप में चिन्हित किया। इसीलिए मार्क्सवाद भारत जैसे देश में जातिप्रथा को सामंतवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित वैचारिक चेतना मानता है। पहले उपयोगी उत्पादन पर मनुष्य का नियंत्रण होता था, अब मनुष्य विनिमय उत्पादन के नियंत्रण में है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ है उनके लिए मनुष्य के, चेतना तथा अस्तित्व के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध में आये गुणात्मक परिवर्तन को समझना मुश्किल नहीं है।
सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में रूपांतरण में श्रमिक की कुशलता और शारीरिक शक्ति का भार मशीनों को सौंप दिया जाता है, कामगार का काम मशीनों की निगरानी और नियंत्रण करना रह जाता है। पूँजीवाद में उत्पादन, कुशलता आधारित न होकर ज्ञान आधारित हो जाता है। स्वचलित मशीनों के कारण उत्पादन क्रिया में श्रमिक के लिए उस न्यूनतम ज्ञान की जरूरत होती है जो आज के मनुष्य का सामान्य ज्ञान होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, श्रमिकों के बीच कुशलता आधारित सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवाद में जातिगत भेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं और संघर्ष केवल शोषक और शोषित वर्ग के बीच ही रह जाता है। जो वामपंथी जातियों को वर्ग के रूप में परिभाषित करते हैं वे अनजाने ही कामगारों के बीच बिखराव पैदा कर उनकी एकजुटता को कमजोर करते हैं। सर्वहारा चेतना की मांग है कि मज़दूर आंदोलनों का उद्देश्य होना चाहिए आर्थिक संबंधों को ज्यादा से ज्यादा मजदूरों के हित की तरफ मोड़ना और इसी में शामिल है सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था को कमजोर कर पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था को मज़बूत करना।
पैदा होने से वयस्क होने तक रोहित जिस विकास प्रक्रिया से गुज़रा उसने उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग, कर्मठ, अपने दायित्वों को ईमानदारी से निभाने के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्तित्व प्रदान किया था। वह अपने हितों को सामूहिक हितों से जोड़कर देखता था इसीलिए उसके लिए अपनी पीएचडी और अपना कॉरियर उतना ही महत्वपूर्ण था जितना शोषितों की मुक्ति का संघर्ष। उसमें परिपक्व मार्क्सवादी बनने के पूरे गुण मौजूद थे और इसीलिए उसने एसएफआई ज्वाइन किया था। पर अफ़सोस है कि भारत में वामपंथी संगठनों में जिस प्रकार संशोधनवाद व्याप्त है उसके बीच मार्क्सवाद की सही समझ हासिल कर सकना नौजवानों के लिए अत्यंत कठिन कार्य है। व्यक्तिगत हितों और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वामपंथी क़तारों के बीच टिके रहना रोहित जैसे व्यक्ति के लिए असंभव था। जिस प्रकार वामपंथियों ने मार्क्स और अंबेडकर को एक ही मूर्तितल पर स्थापित कर दिया है उसके कारण रोहित का वामपंथी संगठनों से मोह भंग हो जाना और अंबेडकरवादी संगठनों की ओर मुड़ जाना स्वभाविक ही था।
निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा दलितों और शोषितों के हित में किये जा रहे प्रलाप ने रोहित को भ्रमित कर दिया था कि वंचितों, अल्पसंख्यकों तथा शोषितों के लिए जो संघर्ष वह व्यवस्था के खिलाफ कर रहा है, उसमें उसे प्रगतिशील तबक़ों का व्यापक समर्थन हासिल है और अगर सत्तासीन पार्टी उसके व्यक्तिगत हितों पर चोट करेगी तो उसे वामपंथियों सहित सभी उदारपंथियों का व्यापक समर्थन हासिल होगा। पर चार महीनों में ही उसका भ्रम टूट गया जब उसने पाया कि क़ानूनी लड़ाई में वह बिल्कुल अकेला है और राजसत्ता सत्तासीन पार्टी के हितों के अनुसार ही काम करेगी। उसे आख़िरी आशा भारतीय क़ानून व्यवस्था से थी, इसीलिए उसने अपने निलंबन के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाख़िल की थी। पर उसकी वह आशा भी टूट गयी जब उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को, उसके खिलाफ ऐफआईआर के लिए डाली गयी याचिका के साथ, संलग्न कर दिया।
अब तक रोहित के वामपंथियों, प्रगतिशील और उदारपंथियों द्वारा पैदा किये गये सारे भ्रम टूट चुके थे। उसे समझ आ गया था कि राजसत्ता के लिए सबसे आसान होता है क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करते हए दिखाकर व्यक्ति की आजादी छीन लेना, उसे जेल में बंद कर देना। चाहे भगतसिंह हों, या राजेश तलवार हो या फिर याकूब मेमन हो, राजसत्ता के पास सब के लिए एक ही हथियार है। अठारह जनवरी को दोनों याचिकाओं पर सुनवायी होनी थी। जिन गंभीर धाराओं के लिए ऐफआईआर की मांग की गयी थी उनमें ज़मानत मिलने की कोई संभावना नहीं थी। जेल जाने के बाद सालों साल मुकदमेबाजी, और आगे बढ़ने के सारे रास्ते बंद। पीछे हटने का भी कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था जिसे सत्रह तारीख़ की शाम रोहित ने चुन लिया।
जिनके भरोसे रोहित ने भ्रम पाले थे और जिन्होंने ही उस भरोसे को तोड़ दिया, वे ही आज रोहित के मरने के बाद उसके लिए न्याय की मांग कर रहे हैं। न्याय क्या? स्मृति ईरानी और बंडारू दत्तात्रेय का इस्तीफ़ा और उनके खिलाफ कार्यवाही? रोहित को इससे क्या मिलना, वह तो इस दुनिया में है ही नहीं। रोहित को जरूरत है श्रद्धांजली की, और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी नई पीढ़ी में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत की वह समझ पैदा करना जिसकी रोशनी में वे अपने भविष्य का रास्ता तलाश सकें और जिसके अभाव में किसी अंधी गली के बंद मुहाने पर पहुँच कर उन्हें भी वही विकल्प न चुनना पड़े जो रोहित को चुनना पड़ा।
सुरेश श्रीवास्तव
29 जनवरी, 2016