Thursday, 29 September 2016

मूल्य – मानवीय श्रम का भौतिक स्वरूप से वैचारिक स्वरूप में रूपांतरण

मूल्य – मानवीय श्रम का भौतिक स्वरूप से वैचारिक स्वरूप में रूपांतरण
(सुरेश श्रीवास्तव)

            मानवीय मस्तिष्क की यह विशिष्ट क्षमता है कि वह न केवल इंद्रियों से बाह्य जगत के बारे में सूचना ग्रहण कर प्रतिबिंबों का निर्माण करता है बल्कि पहले से मौजूद सूचना के द्वारा भी प्रतिबिंबों का निर्माण कर सकता है और इसी क्षमता के कारण सपने भी देख सकता है और ऐसी चीजों की कल्पना भी कर सकता है जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अन्य जीवों के पास यह क्षमता नहीं है इस कारण वे न सपने देख सकते हैं और न ही भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी मनुष्य के मस्तिष्क के बाहर है वह भौतिक या स्थूल या मूर्त है और जो मस्तिष्क के अंदर की प्रक्रिया है वह वैचारिक या सूक्ष्म या अमूर्त कहलाता है।
भौतिक जीवन के निर्माण के दौरान, इंद्रियों के द्वारा भौतिक जगत के संज्ञान से, व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना का विस्तार होता है। तर्कबुद्धि तथा कल्पना के आधार पर भविष्य के लिए भौतिक जीवन के निर्माण की रूप रेखा तैयार करना तथा उस रूपरेखा के आधार पर सजग चेतना के साथ अंगों द्वारा शारीरिक श्रम से भौतिक जीवन का निर्माण करना मानव का प्राकृतिक गुण है। विचार-व्यवहार के बीच का यह द्वंद्वात्मक संबंध मानवीय चेतना का विशिष्ट गुण है। इसी गुण के कारण मानव प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों को श्रम द्वारा उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित कर उनका उपभोग करता है।
प्राकृतिक रूप में उपलब्ध पदार्थों को उपभोग के लायक बनाने की पूरी प्रक्रिया में अलग-अलग उत्पादों में लगे हुए अलग-अलग कुशलता के श्रमउत्पाद की पूर्णता मेंकुशल श्रमिक के विशिष्ट-श्रम के रूप में नजर आते हैं पर असल में हर विशिष्ट-श्रम अनेकों छोटे-छोटे समरूप-श्रमों से मिल कर बनता है। समरूप-श्रम को मानव कीबिना किसी कुशलता के,मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित, अंगों द्वारा की जा सकने वाली निम्नतर स्तर की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है जिसकी क्षमता हर मानव को प्राकृतिक रूप से हासिल है। अलग-अलग चित्रकारों द्वारा बनाये गये सभी चित्र एक दूसरे से पूरी तरह अलग और विशिष्ट चित्र होते हैं पर हर चित्रकूँची के अनेकों छोटे-छोटे एक जैसे स्ट्रोकों का योग होता है। कुशल बढ़ई के औज़ार कीलकड़ी की हर छोटी-छोटी तराशएक दूसरे के समरूप होती है पर अनेकों तराशों के योग से बनी मेज़ या कुर्सीविशिष्ट-श्रम के रूप में एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होती हैं। मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन का द्वंद्व का नियम।
पूरी तरह से जंगली अवस्था में एक ही व्यक्ति उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों होता थापर जंगली से सभ्य मानव की ओर विकास यात्रा में धीरे-धीरे, बढ़ती उत्पादकता तथा श्रम विभाजन के कारण, उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के बीच वस्तुओं का आदान प्रदान होने लगा। जब वस्तुओं का आदान प्रदान केवल उपभोग की दृष्टि से किया जाता था तो एक ही समय पर एक चीज का उत्पादक किसी दूसरी चीज का उपभोक्ता भी होता था और चीजों का आदान प्रदान उपभोग के उद्देश्य से किया जाता था। दो वस्तुओं की अदला-बदली उपभोग के लिए किये जाने की स्थिति में दोनों वस्तुओं के मालिकों की रुचिहासिल की जाने वाली तथा दी जाने वाली वस्तुओं की उपयोगिता में होती थी और अदला-बदली में उनकी मात्रा का निर्धारण स्वत: ही आवश्यकता तथा उपयोगिता के आधार पर हो जाता था। आवश्यकता से अधिक वस्तु हासिल करने में कोई रुचि न होने के कारण अदला-बदली में दोनों वस्तुओं की मात्रात्मक तुलना के आंकलन का कोई औचित्य नहीं होता था और न ही विभिन्न उत्पादों  में किसी ऐसी समरूप चीज की ओर उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं का ध्यान जाता था जिसके आधार पर विभिन्न उपयोग की चीजों के आदान-प्रदान में उनकी मात्रा की तुलना की जाय। इसलिए विशिष्ट-श्रम और समरूप-श्रम का भेद अप्रकट रहता था।
पर समाज के विकास और विस्तार के साथ उत्पादों की संख्या भी बढ़ने लगी और उत्पादों का आदान प्रदान केवल उपभोग के लिए न होकर विनिमय के लिए भी होने लगा। हर व्यक्ति जहाँ उत्पादक के रूप में एक ही प्रकार की वस्तु का उत्पादक होता थावहीं उपभोक्ता के रूप में उसकी रुचि अलग-अलग वस्तुओं में होने लगी थी। इस कारण हर व्यक्ति के लिए जरूरी होने लगा कि उत्पादक के रूप में विनिमय में दी जाने वाली अपनी वस्तु की मात्रा काविनिमय में हासिल की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं की मात्रा के साथ तुलनात्मक आंकलन करेऔर अनजाने ही वह अपने उत्पाद तथा हासिल किये जानेवाले उत्पाद के बीचमात्रात्मक तुलना, उनमें लगे श्रमकाल के आधार पर करने लगा। परंतु प्रत्यक्ष में दोनों उत्पादों में लगे श्रम की कुशलता भिन्न होने के कारण चिंतकों तथा अर्थशास्त्रियों को तार्किक तौर पर उनकी मात्रात्मक तुलना उनके श्रमकाल के आधार पर किया जाना असंगत नजर आता था। जहां अपनी भाववादी सोच और चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध की समझ न होने के कारण चिंतक तथा अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि वास्तव में विशिष्ट-श्रम भी छोटे-छोटे समरूप-श्रम के परिणामों का समुच्चय ही होता हैवहीं उत्पादकों की अवचेतना में यह तथ्य,विनिमय में उनकी भूमिका के कारणस्वत: ही घर कर जाता है। अन्य चिंतक और अर्थशास्त्री अपनी निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता के कारण जिस तिलस्म को समझ पाने में असमर्थ थेउस तिलस्म को मार्क्स ने, अपनी वैज्ञानिक मानसिकताऔर चेतना तथा अस्तित्व के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ के आधार परबेनकाब कर उस मूलाधार को उजागर किया जिस पर सारी विनिमय आधारित बाज़ार व्यवस्था विकसित हुई, तथा टिकी हुई है।
विनिमय में हासिल की जानेवाली तथा दी जानेवाली चीजों के प्रति अपनी मनस्थिति के कारणहर व्यक्ति दोनों चीजों का मूल्याँकन अलग-अलग आधार पर करता है। बेचने के लिए उत्पन्न की गई चीजों में उत्पादक को अपने लिए कोई उपयोगी मूल्य नजर नहीं आता है सिवाय इसके कि अपने द्वारा पैदा की गई चीजों के बदले में वहख़रीदार के रूप में,अपने लिए उपयोगी अन्य उत्पादकों द्वारा पैदा की गई विभिन्न वस्तुएं हासिल कर सकता है। उसके लिए अपने कुशल विशिष्ट-श्रम तथा अकुशल समरूप-श्रम में कोई अंतर नहीं होता है। वह अपने द्वारा उत्पन्न किये गये उत्पाद की विनिमय-क्षमता या विनिमय-मूल्य को, न केवल अपने द्वारा लगाये गये अकुशल समरूप-श्रम काल के आधार पर करने लगता है, बल्कि उस औसत समरूप-श्रम काल के आधार पर जो उसके आस-पास के समाज में उसके जैसे अन्य श्रमिक उस जैसी चीजों को बनाने में आम तौर पर खर्च कर रहे होते हैं । अर्थात वह देने वाली या बेचने वाली वस्तु के सापेक्ष-मूल्य को देखता है।
इसके उलट हासिल किये जाने वाले उत्पाद की उपयोगिता में रुचि होने के कारण वह हासिल किये जाने वाले उत्पाद के विनिमय-मूल्य का आंकलन, उसमें दूसरे कुशल उत्पादक द्वारा वास्तव में लगाये गये श्रम-काल के आधार पर न करके, उसकी उपयोगिता के आधार पर करता है। हासिल किये जाने वाले उत्पाद के विनिमय-मूल्य का आंकलन वह उस औसत समरूप-श्रम काल के आधार पर करता है जो उसकी अपनी समझ के अनुसार उसे करना पड़ता, अगर हासिल किये जाने वाले उत्पाद को उसे स्वयं बनाना पड़ता तो। अपने आस-पास के समाज में अपने जीवन स्तर के अनुरूप, अपने लिए हासिल की जाने वाली सभी उपयोगी वस्तुओं के विनिमय-मूल्य का आंकलन वह अपने दिन भर के श्रम से तुलना के आधार पर करता है। उन सभी वस्तुओं, जिनके उपभोग के द्वारा वह अपने दिन भर काम करने की क्षमता हासिल करता है, के विनिमय-मूल्य को वह अपने दिन भर के श्रम के मूल्य के समतुल्य देखता है अर्थात दूसरी, हासिल की जानेवाली या खरीदी जानेवाली उपयोगी वस्तुओं में, उनके बनाने में लगे हुए वास्तविक समरूप-श्रम अर्थात सापेक्ष-मूल्य को न देखकर, वह उनके विशिष्ट-श्रम के समतुल्य-मूल्य को देखता है। 
जहाँ उत्पादक की रुचि वस्तु की उपयोगिता में न होकर उसकी विनिमय क्षमता में होती हैवहीं उपभोक्ता की रुचिवस्तु कीउपभोग के ज़रिए मांग संतुष्ट कर सकने की क्षमता में होती है जिसके कारण वस्तु में अंतर्निहित श्रम का दोहरा चरित्र प्रकट होने लगता है - मांग संतुष्ट कर सकने की क्षमता उत्पन्न करने में श्रम का विशिष्ट चरित्र, और साथ ही विनिमय क्षमता उत्पन्न करने में श्रम का समरूप चरित्र। इस तरह एक ओर उत्पादक के लिए उत्पादन का उद्देश्य उपभोग के लिए न होकर विनिमय के लिए होने लगा तो दूसरी ओर एक ही उत्पाद एक ही समय पर दो अलग-अलग व्यक्तियों की चेतना में अलग-अलग मूल्य प्रतिबिंबित करने लगा और उत्पादन में लगे हुए मानवीय श्रम का दोहरा चरित्र परोक्ष से प्रत्यक्ष मेंऔर निष्क्रिय से सक्रिय भूमिका में आ गया - मानवीय श्रम की दोहरा मूल्य पैदा करने की क्षमता, समरूप-श्रम के रूप में सापेक्ष-मूल्य और विशिष्ट श्रम के रूप में समतुल्य-मूल्य पैदा करने की क्षमता। दोहरे चरित्र के मूल्य को पैदा करने की मानवीय श्रम की यह क्षमता प्रकृति प्रदत्त है, पर यह दोहरा चरित्र उजागर होता है, उत्पन्न की गई उपयोगी चीज द्वारा विनिमय-उत्पाद का रूप धारण कर लेने पर, जहां उत्पादक तथा उपभोक्ता अपनी अलग अलग मानसिकता के कारण एक ही उत्पाद में अलग अलग मूल्य देखते हैं। संचित मानवीय श्रम का भौतिक या मूर्त रूप है, उपभोग योग्य वस्तु, और वैचारिक या अमूर्त रूप है मूल्य। मानवीय श्रम-शक्ति द्वारा छोटे-छोटे टुकड़ों में पैदा किया गया अमूर्त समरूप-श्रम, संचित होकर गुणात्मक रूप से भिन्न विशिष्ट-श्रम में परिवर्तित होता है तथा उपयोगी उत्पाद के रूप में मूर्त रूप धारण करता है, और उपभोग के द्वारा अपने उत्पादनकर्ता – श्रम-शक्ति – को पुनर्जीवित करता है। समरूप-श्रम अपने अमूर्त रूप से, विशिष्ट-श्रम के मूर्त रूप में रूपांतरित होकर, उत्पाद का स्वरूप पाता है। समरूप-श्रम उत्पाद के अंदर अप्रत्यक्ष रूप में अंतर्निहित रहता है। प्रतिदिन श्रम-शक्ति को पुनर्जीवित करने वाले उपभोग योग्य उत्पादों के लिए विनिमय की परिस्थितियां पैदा होने पर, उत्पाद में अंतर्निहित अमूर्त समरूप-श्रम, विनिमय-मूल्य के वैचारिक-सामाजिक स्वरूप में रूपांतरित हो जाता है। मानवीय श्रम का अमूर्त से मूर्त और फिर मूर्त से अमूर्त स्वरूप में रूपांतरण।           
हर उत्पादकउपभोक्ता भी होता है। अनेकों उत्पादक कघ आदि अपने-अपने उत्पादों चझ आदि के साथ विनिमय के लिए बाज़ार में मौजूद होते हैं। उत्पादक क को अपने उत्पाद की आवश्यकता नहीं है पर उत्पाद छ की आवश्यकता है और वह अपने उत्पाद के बदले उत्पाद छ हासिल करना चाहता हैलेकिन उत्पादक ख को उत्पाद च की आवश्यकता नहीं है पर उत्पाद ज की आवश्यकता है। अनेकों उत्पादों तथा उपभोक्ताओं की मौजूदगी से परिदृष्य पूरी तरह बदल जाता है। न तो उत्पादक के लिए अनेकों उपभोक्ताओं के साथ सीधा संपर्क रख पाना संभव रह जाता हैऔर न ही उपभोक्ता के लिए यह संभव हो पाता है कि वह अलग-अलग अत्पादों को अलग-अलग उत्पादकों से हासिल कर सके। ऐसे में बीच में आ जाता है गैर-उत्पादक बिचौलियों का एक समूह जो स्वयं उत्पादक नहीं होता है पर जो सकल उत्पादों का संग्रहकर्ता भी होता है और आपूर्तिकर्ता भी। हर उत्पादक बिचौलिये को अपना उत्पाद सौंपता है और बदले में अपनी ज़रूरत के अनुसार अलग अलग उत्पाद हासिल कर लेता है। और इस तरह वस्तुओं का आदान प्रदान बिचौलिये के ज़रिये विनिमय के रूप में किया जाने लगा। और विनिमय आधारित बाजार व्यवस्था में वस्तुओं की मात्रात्मक तुलना स्वत: ही, मूल्य के रूप में उनमें अंतर्निहित समरूप-श्रम के आधार पर होने लगी।
किसी उत्पाद का, उत्पादक के लिए, सापेक्ष-मूल्य उसमें अंतर्निहत वास्तविक समरूप-श्रम होता है, पर उसी उत्पाद का उपभोक्ता के लिए, समतुल्य-मूल्य उसमें अंतर्निहत वास्तविक समरूप-श्रम न होकर आभासी-श्रम होता है जो उपभोक्ता के आंकलन में, वस्तु के उत्पादन में तथा उस तक पहुंचाने में लगा होगा।    
समय के साथ उत्पादक की कुशलता तथा श्रम के औज़ारों में उन्नति के कारणश्रमशक्ति की उत्पादकता बढ़ती है तथा एक उत्पादक निश्चित समय में पहले के मुकाबले अधिक उत्पाद बनाने लगता हैअर्थात उत्पाद के हर नग में समरूप-श्रम का हिस्सा घट जाता है और उत्पादक के लिए उसके उत्पाद का बेचने में सापेक्ष-मूल्य पहले के मुकाबले घट जाता है। इससे अलग उपभोग के लिए आवश्यक उत्पादों की मात्रा वही रहने के कारण उपभोक्ता के लिए उनका समतुल्य-मूल्य या उनमें लगने वाला आभासी-श्रम वही रहता है। इस प्रकार बढ़ती उत्पादकता के साथ, किसी भी उत्पाद के सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य मूल्य का अंतर बढ़ता जाता है। चूंकि उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क नहीं रह जाता है और सभी उत्पादों का क्रय-विक्रय बिचौलिये के माध्यम से होने लगता है, इस कारण सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य के अंतर को बिचौलिये की सेवा का मूल्य मान लिया जाता है, जब कि यथार्थ में इसके दो भाग होते हैं। एक भाग तो बिचौलिए की उस सेवा का मूल्य होता है जो कि उत्पाद की संरचना में अंतर्निहित नहीं होत है, बल्कि उसकी संरचना से अलग, उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने में लगने वाली सेवा होती है। और दूसरा भाग होता है, मुनाफे के रूप में वह अतिरिक्त मूल्य जो उत्पाद के समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य के बीच का अंतर होता है। वह अंतर, जो उत्पादक-बिचौलिया-उपभोक्ता की अपनी-अपनी चेतना के कारण, विनिमय संबंध के दौरान, उजागर होता है। समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य के बीच का यह अंतर अर्थात अतिरिक्त मूल्य भी उत्पाद की भौतिक संरचना में अंतर्निहित नहीं होता है। यह अंतर एक सामाजिक परिस्थिति से उपजता है, और जो विकास के एक स्तर पर उत्पादन की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों के कारण सामूहिक चेतना में उत्पन्न होता है। विशिष्ट सामाजिक परिस्थिति जिसमें किसी भी उत्पादक के लिए यह संभव नहीं रह जाता है कि जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजों का उत्पादन वह अकेले  स्वयं पैदा कर सके। 
किसी वस्तु के बनाने में, किसी कामगार द्वारा निश्चित समय तक खर्च की गई श्रमशक्ति के द्वारा उत्पन्न किये गये कार्य या श्रम के दो पहलू होते हैं। विशिष्ट-श्रम के रूप में उत्पाद में पैदा किया गया गुण जो किसी मांग की पूर्ति करता है अर्थात उपयोगी-मूल्य, तथा समरूप-श्रम के रूप में पैदा किया गया विनिमय-मूल्य जिसके आधार पर विनिमय के दौरान उत्पाद की मात्रा की तुलना अन्य उत्पादों की मात्रा से की जाती है। श्रमकाल के आधार पर तुलना की जाये तो उत्पाद के उपयोगी-मूल्य के रूप में लगी हुई विशिष्ट श्रमकाल की तथा विनिमय-मूल्य के रूप में लगी समरूप श्रमकाल की मात्रा में कोई फर्क नहीं होता है। विनिमय रहित उत्पादन-वितरण व्यवस्था अर्थात लेन-देन आधारित सामाजिक व्यवस्था में न ही विनिमय-मूल्य की कोई भूमिका होती है और न ही वह कहीं उजागर होता है। विनिमय-मूल्य अपने दोनों स्वरूपों, सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य के साथ सामाजिक विकास के एक विशिष्ट स्तर पर ही सामाजिक चेतना में उजागर होता है, और इसलिए मूल्य (मार्क्स ने विनिमय-मूल्य के लिए मूल्य शब्द का ही प्रयोग किया है क्योंकि विनिमय के बिना मूल्य जैसी चीज का कोई अर्थ नहीं है) तथा अतिरिक्त-मूल्य भी, एक वैचारिक सामाजिक उत्पाद है न कि भौतिक व्यक्तिगत उत्पाद।
जो वामपंथी, अतिरिक्त मूल्य को कामगार के व्यक्तिगत श्रम द्वारा अतिरिक्त समय तक श्रम कर के पैदा किया गया मूल्य दर्शाते हैं तथा उस आधार पर पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को कामगार के व्यक्तिगत शोषण का आधार दर्शाते हैं, वे न तो मार्क्सवाद को समझते हैं और न ही कामगार का विश्वास हासिल कर पाते हैं। 
मूल्य का अपना कोई भौतिक स्वरूप नहीं हैवह एक वैचारिक वस्तु है पर विनिमय में उत्पाद के भौतिक हस्तांतरण के साथ उसके मूल्य के समतुल्य भौतिक पदार्थ का हस्तांतरण भी आवश्यक है। किसी उत्पाद  के विनिमय में खरीदनेवाले की रुचि तो उत्पाद  में होती है, पर संभावना है कि  को बेचने वाले उत्पादक की रुचि, उस समय  को खरीदनेवाले के पास मौजूद  किसी भी उत्पाद में न हो। विकसित होते समाज में बाजार के विस्तार के साथ ऐसी परिस्थितियां आम हो चली थीं, इसलिए आवश्यकता थी एक ऐसे उत्पाद की जिसकी थोड़ी सी मात्रा में अधिक समरूप-श्रम निहित हो, जिसको आसानी से टुकड़ों में बांटा जा सके तथा जो मूल्य के मापक के रूप में सर्वमान्य हो ताकि उसका उपयोग केवल विनिमय के दौरान उत्पाद के मूल्य के मापक के रूप में किया जा सके न कि उपभोग वस्तु के रूप में।
अपने बहुमूल्य गुणों के कारण सोने-चांदी ने मूल्य के मापक की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। सोने-चाँदी की एक निश्चित मात्रा में अंतर्निहित मूल्य को ईकाई के रूप में मानकर विनिमय में सभी उत्पादों के मूल्य का निर्धारण, सोने-चांदी की अनुपातिक मात्रा के आधार पर किया जाने लगा। सोने-चांदी की एक निश्चित मात्रा द्वारा, सामाजिक चेतना में, मूल्य की इकाई के रूप में घर कर लेने के बाद उचित मात्राओं के छोटे बड़े सिक्के भी ढाले जाने लगे। अब यह व्यावहारिक रूप से संभव हो गया था कि जिस किसी के भी पास सोने-चांदी को सिक्के हों वह उनके बदले में उचित मात्रा में अपनी पसंद का उत्पाद बाजार से हासिल कर सकता था। इसके साथ ही समरूप-श्रम का, मूल्य के वैचारिक सामाजिक अमूर्त रूप से रूपांतरण भौतिक मूर्त रूप में हो गया। सिक्कों में सोने चांदी की एक निश्चित मात्रा, उनके अंदर अंतर्निहित समरूप-श्रम काल की एक निश्चित अवधि का पर्याय हो गई, और विनिमय में अलग अलग उत्पादों में लगे हुए समरूप-श्रमकाल को इन्हीं सिक्कों की संख्या के रूप में दर्शाया जाने लगा। व्यवहार में सिक्कों के घिसने, उनकी धातु की शुद्धता, अलग अलग खदानों से निकलने वाले सोने-चांदी के बनाने में लगनेवाले श्रमकाल में होने वाले बदलाव आदि के कारण होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए राजसत्ता ने अपनी मुद्रा के साथ सिक्कों को ढालना शुरु कर दिया, जिनके प्रत्यक्ष रूप से दर्शित मूल्य का उनके अपने उत्पादन मूल्य से कोई संबंध नहीं था। सिक्कों के प्रदर्शित मूल्य के, सिक्कों के वास्तविक मूल्य से असंबद्ध होने के कारण शुरू में सिक्के लोगों को स्वीकार्य नहीं थे, पर राज्य द्वारा मुद्रित सिक्कों को इनकार करना गैरकानूनी घोषित कर देने के बाद, अपने वास्तविक मूल्य से पूरी तरह असंबद्ध राज्य द्वारा सत्यापित सिक्के, समय के साथ, सामाजिक चेतना में मूल्य का पर्याय बन गये। समयांतर में सिक्कों के साथ, राज्य द्वारा सत्यापित काग़ज़ी मुद्रा या करार-पत्र भी मूल्य के रूप में स्वीकार्य हो गये। हर उत्पाद की एक इकाई का मूल्य, मुद्रा की इकाई की संख्या के रूप में दर्शाया जाने लगा तथा मुद्रा में दर्शायी जानेवाली कीमत ही मूल्य का पर्याय बन गई। और इसके साथ ही समरूप-श्रम का, मूल्य के अमूर्त रूप में रूपांतरण पूरा हो गया। 

सुरेश श्रीवास्तव
30 सितंबर, 2016
(यह लेख, सोसायटी फॉर साइंस की, 2 अक्टूबर 2016 को होने वाली विमर्श-गोष्ठी के लिए आधार-विचार के रूप में लिखा गया है। विमर्श में भागीदारी के लिए आप आमंत्रित हैं।)

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