सन्निपात में
भारतीय कम्युनिस्ट
सुरेश
श्रीवास्तव
(त्रैमासिक मार्क्स दर्शन के वर्ष 2 अंक 2, जनवरी-जून 2012 से उद्धृत)
ए.आई.पी.एफ. नामक संस्था ने ‘भारत का समाजवाद का रास्ता’ (India’s Path to Socialism) के नाम से
सी.आर.आर. फाउन्डेशन के एन.आर.आर. केंद्र पर 27-30
दिसम्बर 2011 में एक कार्यशाला का आयोजन किया था। कार्यशाला की विषयवस्तु का विचार जिस
प्रकार की भ्रामक समझ पर आधारित था उससे कोई दिशा तो क्या मिलनी थी, और
अधिक भ्रम ही फैलना था। और वही हुआ। लगभग 50 भागीदारों ने शिरकत की और 22 पर्चे पेश किये गये। हर कोई नया पथ सुझाने में लगा था जिसकी भूलभुलैया में
समाजवाद ही कहीं नजर नहीं आया,
रास्ता तो क्या मिलना था। श्रोतागण कार्यशाला के शुरु में
जितनी उलझन में थे उससे कहीं अधिक भटके हुए कार्यशाला के अंत में नजर आये। अपनी
ढपली अपना राग की तर्ज पर हर वक्ता नये समाजवाद के रास्ते की अपनी-अपनी व्याख्या
करने में लगा हुआ था,
नये समाजवाद की अपनी किसी भी अवधारणा के बिना, और
जहां से शुरु किया अंत में घूम फिर कर वापस वहीं पहुंचने के लिए अभिशप्त। हर किसी
की आधारभूत मान्यता थी कि मार्क्सवाद ही समाजवाद का रास्ता दर्शा सकता है, पर साथ
ही कि पुराना मार्क्सवाद पूंजीवाद के नये स्वरूप पर लागू नहीं किया जा सकता है और
इसी कारण नये समाजवाद पर भी नहीं। अतः निष्कर्ष के तौर पर समाजवाद के नये स्वरूप
के संदर्भ में मार्क्सवाद में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन पेंच तो यही है कि
नये समाजवाद की अवधारणा भी तो संशोधित मार्क्सवाद की रोशनी में ही विकसित की जा
सकती है, और इसी पेंच ने हर किसी को मतिभ्रमित कर छोड़ा।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी ने नयी पीढ़ी
की खीझ को इन शब्दों में व्यक्त किया,
‘मैं यहां वक्ताओं से आग्रह करना चाहता हूं कि कृपया हमें
विभिन्न देशों में पूंजीवाद की वर्तमान स्थिति के बारे में या सोवियत संघ के विघटन
का इतिहास न बतायें। आज इंटरनेट तथा अपनी लाइब्रेरी के द्वारा उससे कहीं अधिक
सूचना हमारी पहुंच में है,
जिसे यहां वक्ता हमें देना चाह रहे हैं। कृपया हमारा
मार्गदर्शन करें कि हमें करना क्या है,
और अगर आपको नहीं मालूम है तो कृपया हमें अकेला छोड़ दीजिये, हम
अपना रास्ता स्वयं ढूंढ लेंगे’।
अधिकांश वक्ता मार्क्सवादी द्वंद्व तथा भौतिकवाद की दुहाई
दे रहे थे पर अपनी कार्यप्रणाली में घोर तत्त्ववादी (Metaphysical),
पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। सभी पर्चों में डायलेक्टिक्स, थीसिस
तथा एण्टीथीसिस,
यूनिटी एण्ड स्ट्रगल ऑफ अपोजिट्स, निगेशन
ऑफ निगेशन और क्वांटिटेटिव तथा क्वलीटेटिव चेंज जैसी बकबक की भरमार थी और सभी का
लब्बो-लुआब था कि एसटीआर (Scientific and Technical Revolution) और
आईसीआर (Information and Communication Revolution) के कारण
उत्पादन प्रक्रियाओं में क्रांतिकारी बदलाव आया है, बुर्जुआजी
तथा सर्वहारा के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है, प्रजातंत्र
तथा समाजवाद की अवधारणाएं एक दूसरे का पर्याय बन गये हैं और इस सब के कारण मार्क्स, एंगेल्स
तथा लेनिन के काल से अब तक मानव समाज में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है और इस कारण मार्क्स, एंगेल्स
तथा लेनिन की नसीहतों में आमूल-चूल बदलाव आवश्यक हो गया है।
कार्यशाला में पढ़े गये सभी पर्चों में व्यक्त हर विचार पर
विस्तृत चर्चा दस्तावेजों का पुलिंदा तैयार कर देगी जो अन्वेषी नई पीढ़ी को हताश ही
करेगी इस कारण मैं अपने आप को एसटीआर तथा आईसीआर की बुनियादी धारणाओं तथा उत्पादन
प्रक्रिया में उनकी भूमिका,
सामाजिक-आर्थिक संरचना के रूप में समाज की आधारभूत
अवधारणाओं और राज्य की भूमिका तक सीमित रखूंगा, और इस निर्णय को पाठकों के
विवेक पर छोड़ूंगा कि पूंजीवाद की तर्कसंगति में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ है या
नहीं। सभी महान चिंतकों से क्षमायाचना के साथ मैं कहना चाहता हूं कि मैं अपने
विचारों के समर्थन के लिए उनके उद्धरणों के प्रयोग से बचना चाहूंगा। इसके बनिस्पत
मैं मानव तथा मानव-समाज पर लागू होने वाले प्रकृति के आधारभूत नियमों की रोशनी में
ही समझाना चाहूंगा कि तथाकथित एसटीआर तथा आईसीआर के कारण पूंजीवाद की मूल
तार्किकता तथा समाजवाद की व्याख्या में किसी परिवर्तन की आवश्यकता है, या
उनका प्रभाव केवल अधिरचना में कुछ ढांचागत बदलावों तक ही सीमित है। और अंत में
मेरे लिए प्रकृति को समझने के लिए द्वंद्व के नियमों को गढ़ने का कोई प्रश्न ही
नहीं है बल्कि उन्हें तथा उनके विकास को तो प्रकृति के अंदर ही ढूंढना है।
मानव अपने जीवन-यापन के साधन, न केवल जानवरों की तरह
अपने श्रम द्वारा जुटाते हैं,
बल्कि उनसे अलग, श्रम-साधनों के जरिए उत्पादन द्वारा भी
जुटाते हैं। जैसे ही वे अपने जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन करने लगते हैं, वे
अपने आप को जानवरों से अलग रूप में पहचानने लगते हैं, एक ऐसा
कदम जिसका कारण उनकी शारीरिक संरचना में निहित है। जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन
कर मनुष्य अप्रत्यक्ष रूप से वास्तव में अपने भौतिक जीवन का निर्माण करने लगते
हैं। एक दूसरा खास फर्क जो मानव-इतिहास की ऐन शुरुआत से ही अस्तित्व में आ जाता है
वह है कि मानव जो रोज अपने निजी जीवन का निर्माण करते हैं, वे
अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे मानवों का भी निर्माण करने लगते हैं -
स्त्री तथा पुरुष के बीच संबंध,
मां-बाप तथा बच्चों के बीच संबंध, परिवार
के रूप में। जीवन का उत्पादन,
स्वयं का मानवीय श्रम में और नये का प्रजनन में, अब एक
द्वय-संबंध के रूप में उदित होता है - एक ओर प्राकृतिक स्वरूप में और दूसरी ओर
सामाजिक संबंध के रूप में। सामाजिक से तात्पर्य है अनेकों व्यक्तियों के बीच
पारस्परिक सहयोग,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह सहयोग किन परिस्थितियों
में, किस रूप में और किस उद्देश्य के लिए है। इस से निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी
उत्पादन का स्वरूप या औद्योगिक स्तर हमेशा ही किसी न किसी प्रकार के सहयोग या
सामाजिक स्तर पर आधारित होता है,
और यह सहयोग का स्वरूप अपने आप में एक उत्पादक शक्ति है।
उत्पादन की प्रारंभिक शर्त है सहयोग और उन्नत उत्पादन सहयोग को विकसित करता है और
यह प्रक्रिया चक्रिक न हो कर पेंचदार होती है जो मानव समाज को एक जैविक संरचना के
रूप में अन्य जैविक संरचनाओं से अलग स्तर प्रदान करती है। व्यवहार से ज्ञान अर्जित
होता है तथा अर्जित ज्ञान से व्यवहार विकसित होता है और यही वह विशिष्टता है जो
मानव तथा सामाजिक चेतना को विकास की अनन्त क्षमता प्रदान करती है।
निरंतर विकासरत वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान का पहला मकसद
हमेशा ही उत्पादकता तथा उत्पादन प्रक्रिया,
जो प्राकृतिक रूप से मिलने वाले पदार्थों को मानव की किसी न
किसी जरूरत को पूरा करने योग्य उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करती है, में
सुधार करना रहा है। शुरुआत में चीजों का,
उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों के लिए केवल उपयोग-मूल्य होता
था, लेकिन बढ़ती उत्पादकता तथा श्रम के विभाजन के साथ बिचौलियों का एक ऐसा नया वर्ग
अस्तित्व में आया जो चीजों में केवल जिंस के रूप में व्यापार करने में रुचि रखते
थे और उनके लिए चीजों का मूल्य,
उपयोग-मूल्य न होकर केवल विनिमय-मूल्य था। उनकी रुचि पहले
जिंसों के व्यापार में,
फिर उत्पादन में भी,
तभी हो सकती थी जब वे विक्रय-मूल्य के रूप में उपभोक्ता से
(उपयोग-मूल्य के रूप में),
उस विनिमय-मूल्य से अधिक हासिल कर सकें जो कि उन्हें माल
खरीदने के लिए विक्रेता को लागत रूप में,
तथा उत्पादक-श्रमिक को उस माल को उपयोगी पदार्थ के रूप में
परिवर्तित करने के लिए मजदूरी के रूप में,
देना पड़ा था। सूक्ष्म स्तर पर परिवर्तन के लिए एक श्रमिक के
श्रम की आवश्यकता होती है पर व्यापक स्तर पर वह लाखों कामगारों की सामूहिक उत्पादक
श्रम-शक्ति होती है। बिचौलिए का एकमात्र मकसद था, उस अतिरिक्त मूल्य को
हड़पना जो केवल तभी अस्तित्व में आता है जब किसी पदार्थ को उपयोगी वस्तु में
परिवर्तित किया जाता है,
यानि उत्पादन। शुरुआती काल में उत्पादन प्रक्रिया एक ही श्रमिक
की श्रम-क्रिया होती थी,
या फिर अनेकों श्रमिकों की श्रंखलाबद्ध श्रम-क्रिया। पर
विज्ञान तथा तकनीकी के विकास के साथ ही मशीनों ने श्रमिकों की भूमिका में परिवर्तन
करना शुरु कर दिया। पदार्थों को उपयोगी वस्तुओं के रूप में परिवर्तन करने में
श्रमिकों की जगह अब मशीनों ने ले ली थी,
जिनकी निगरानी तथा भूल-सुधार के लिए श्रम-शक्ति प्रदान करना
ही अब श्रमिकों की भूमिका हो गई थी। पर अतिरिक्त मूल्य अब भी केवल जीवित श्रमिक के
श्रम द्वारा ही उत्पन्न किया जा सकता है न कि मशीनों में निहित श्रम द्वारा जो
खरीदे गये मूल्य पर उत्पादन की गई वस्तुओं में, ह्यास के रूप में जुड़ जाता
है। विज्ञान तथा तकनीकी में हुए किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन के कारण अगर उत्पादन
प्रक्रिया में कोई भी बदलाव होता है तो वह है कि अब अतिरिक्त मूल्य श्रमिक द्वारा
लगातार पूरी प्रक्रिया में न जोड़ा जा कर प्रक्रिया के भिन्न-भिन्न पड़ावों पर जोड़ा
जाता है।
एक और आयाम जिसके कारण मानव अन्य जानवरों से गुणात्मक रूप
से भिन्न है, वह है उनकी विचारों को अनेकों श्रव्य-दृष्ट (Audio-visual) संकेतों के द्वारा विशिष्ट सूचना के रूप में प्रेषित करने की क्षमता -
यानि संचार - जिसके कारण वे सामाजिक रूप से भाषा का गठन कर सके। पहले-पहल संचार
व्यक्तियों के बीच सीधे-सीधे सूचना के आदान-प्रदान के जरिए संभव था पर लिपि के
आविष्कार तथा टंकन,
टेलीग्राफ,
टेलीफोन तथा बेतार आदि के रूप में सूचना तथा संचार में
क्रांतिकारी परिवर्तनों के बाद तो संचार समय तथा दूरी की किसी भी सीमा के पार संभव
हो गया है। कोई भी तकनीकी ज्यादा से ज्यादा मनुष्यों के बीच या मनुष्य तथा मशीन के
बीच संचार में सुधार तो कर सकती है पर किसी भी रूप में मानव द्वारा सामाजिक रूप से
अपने भौतिक जीवन के निर्माण के दौरान पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के, या
पूंजी के सामाजिक रूप से किये गये अतिरिक्त उत्पाद को निजी तौर पर हथिया लिए जाने
की प्रक्रिया द्वारा स्वविस्तार के,
मूलभूत चरित्र में कहीं कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है।
ऐतिहासिक विकास में किसी स्तर पर आ कर समाज सम्पन्नों तथा
विपन्नों, उत्पादकों तथा परजीवियों के बीच बंट कर एक ऐसे न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोध
में फंस गया जिससे निकल पाना उसके लिए असंभव था। पर इसलिए कि कहीं ये अंतर्विरोध, विरोधी
आर्थिक हितों वाले वर्ग स्वयं को तथा समाज को स्वविनाशकारी संघर्ष में न झोंक दें, संघर्ष
की तीव्रता कम करने तथा उसे एक व्यवस्था की सीमाओं के अंदर बांधे रखने के लिए एक
ऐसी शक्ति अपरिहार्य हो गई जो देखने में समाज से ऊपर हो, और यही
शक्ति जो समाज के अंदर से ही पैदा होती है पर स्वयं को उसके ऊपर रख कर शनै-शनै
अपने को उससे अलग करती जाती है,
राज्य है।
मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार राज्य एक वर्ग के शासन का अंग
है, एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के दमन का जरिया, वह एक ऐसी व्यवस्था की
रचना है जो वर्गों के बीच संघर्ष की तीव्रता को हल्का कर इस दमन को जायज तथा अनवरत
बनाती है। जैसा कि निम्न-बुर्जुआ सिद्धांतकार दावा करते हैं, संघर्ष
की तीव्रता को कम करने का अर्थ वर्गों के बीच समझौता होना नहीं है, उसका
मतलब है शोषित वर्ग द्वारा शोषकों को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में कुछ विशिष्ट
साधनों तथा तरीकों से उनको वंचित रखना। राज्य अपने लिए एक जन-शक्ति की रचना करता
है जो किसी भी रूप में जनता द्वारा अपने को हथियारबंद करने की तरह नहीं है जैसा कि
आदिम गोत्र समाजों में होता था। यह जन-शक्ति हर राज्य में मौजूद होती है, इसमें
शामिल न केवल सशस्त्र लोग होते हैं बल्कि इसके अनुषांगिक तत्त्व, कैदखाने
तथा हर प्रकार के दमन के साधन भी शामिल होते हैं, जिन से आदिम गोत्र समाज
पूरी तरह अनजान था। बिना किसी अपवाद वह सबसे शक्तिशाली, आर्थिक
रूप से सब पर भारी वर्ग का राज्य होता है जो राज्य की मदद से राजनैतिक रूप से भी
सबसे अधिक प्रभावशाली हो जाता है,
और इस प्रकार पस्त वर्ग को दबाये रखने के तथा शोषण के नये
साधन हासिल कर लेता है। मौजूदा प्रतिनिधि राज्य, पूंजी द्वारा मजूरी-श्रम
के शोषण का एक औजार है।
जनवादी जनतंत्र,
जो हमारी मौजूदा परिस्थितियों में अधिक से अधिक एक अत्याज्य
आवश्यकता हो जाती है,
राज्य का सबसे ऊंचा स्वरूप है, और
राज्य का वह स्वरूप है केवल जिस के अंदर ही सर्वहारा तथा पूंजीपति के बीच का
निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है - जनवादी जनतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के अंतर
को नहीं मानता है। दौलत यहां अपनी शक्ति परोक्ष रूप में इस्तेमाल करती है, पर और
भी अधिक पुख्ता तौर से। यह वह दो तरह से करती है - सीधे-सीधे अधिकारियों के
भ्रष्टाचार द्वारा और सरकार तथा स्टाक एक्सचेंज की मिली भगत के द्वारा, जो
सरकार के कर्ज बढ़ने के साथ-साथ और जैसे जैसे ज्वाइंट स्टाक कंपनियां न केवल परिवहन
बल्कि उत्पादन भी अपने हाथों में केंद्रित कर लेती हैं और स्टाक ऐक्सचेंज में अपने
केंद्र स्थापित कर लेती हैं,
और अधिक आसानी से हासिल किया जा सकता है।
और अंत में संपन्न वर्ग सीधे सार्विक मताधिकार द्वारा शासन
करता है। जब तक कि शोषित वर्ग,
हमारे मामले में सर्वहारा, अपनी स्वयं की आजादी के
लिए परिपक्व नहीं हो जाता है उस समय तक उसका बहुमत मौजूदा निजाम को ही एकमात्र
विकल्प समझता रहेगा और राजनैतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का ही पिछलग्गू, उसका
चरम वामपक्ष, बना रहेगा। पर अपनी स्वयं की आजादी के पथ पर जैसे-जैसे वह परिपक्व होता जाता
है वैसे-वैसे वह अपने को राजनैतिक पार्टी के रूप में गठित करता जाता है और अपने
स्वयं के प्रतिनिधियों को चुनता है न कि पूंजीपतियों के। इस प्रकार सार्विक
मताधिकार सर्वहारा वर्ग की परिपक्वता का मापक है। और मौजूदा राज्य में न वह इससे
अधिक कुछ हो सकता है और न कभी होगा,
पर यही काफी है। जिस दिन सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर
मजदूरों के चरम उबाल को दर्शायेगा उसी दिन पूंजीपतियों की भांति उन्हें भी समझ आ
जायेगा कि वे संघर्ष में किस मुकाम पर आ पहुंचे हैं।
कोई भी जो बुर्जुआ जनतंत्र तथा जनतांत्रिक प्रक्रिया के
अपरिहार्य आंतरिक द्वंद्व - जिसके कारण संघर्ष निर्णायक दौर में अब पहले के
मुकाबले और अधिक तीव्र व्यापक हिंसा के साथ पहुंचता है - को नहीं समझते हैं वे इस
जनतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे संघर्षों में विजयी अभियान
के लिए वास्तव में तैयार करने के लिए सिद्धांत संगत प्रचार तथा आंदोलनों को चलाने
में कभी भी सक्षम नहीं होंगे। सामाजिक-सुधारवादी उदारवादियों के साथ गठजोड़, समझौतों
तथा गठबंधनों के अनुभवों ने मुकम्मल तौर पर दर्शाया है कि ऐसे समझौते जनता की
चेतना को कुंद ही करते हैं,
और कि वे जुझारुओं को ऐसे तत्वों, जो
लड़ने में बिल्कुल नकारा हैं और सर्वाधिक ढुलमुल तथा दगाबाज हैं, के साथ
मिलाकर संघर्ष के वास्तविक महत्व को बढ़ाते नहीं बल्कि कमजोर करते हैं। यह बिल्कुल
साफ है कि उत्पादन प्रक्रिया अथवा सूचना तथा संचार प्रक्रिया के विज्ञान और तकनीकी
में हुआ कोई भी विकास - मात्रात्मक अथवा गुणात्मक - अधिक से अधिक उस प्रक्रिया की
उत्पादन क्षमता अथवा दक्षता को ही बढ़ा सकता है। वह समाज के मूल चरित्र, जो
उत्पादक तथा अतिरिक्त मूल्य हड़पने वाले विभिन्न वर्गों की चेतना तथा उनके बीच के
संबंधों से तय होता है,
में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। पूंजीवाद की प्रवृत्ति
पूंजी का संचयन तथा प्रसार और मजदूर का सर्वहारीकरण करना है। कोई भी जो पूंजीवाद
की अंतर्वस्तु में और इसीलिए समाजवाद की अंतर्वस्तु में, उत्तर-औद्योगिक, उत्तर-आधुनिक, उत्तर-एसटीआर, उत्तर-आईसीआर
आदि के नाम पर या पूंजी के विभिन्न स्वरूपों जैसे कि वित्तीय पूंजी, आवारा
पूंजी आदि के नाम पर,
किसी भी प्रकार के परिवर्तन को ढूंढने की कोशिश करते हैं और
बुर्जुआ-जनवाद से समाजवादी-जनवाद में शांतिपूर्ण संक्रमण के विचार को आगे बढ़ाते
हैं वे अपनी निम्न-बुर्जुआ मानसिकता से अभिशप्त हैं।
विकसित समाज में तथा अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-बुर्जुआ
एक ओर तो समाजवादी होता है और दूसरी ओर अर्थशास्त्री अर्थात उच्च-मध्यवर्ग के वैभव
से चुंधियाया होता है और आमजन की पीड़ा से द्रवित। वह एक ही समय पर बुर्जुआ भी होता
है और आमजन भी। अन्य खुश मध्यमवर्ग से तथाकथित रूप से भिन्न सही संतुलन हासिल करने
के लिए मन ही मन वह अपनी निरपेक्षता पर गर्व करता है। इस प्रकार का निम्न बुर्जुआ
हर अंतर्विरोध को खारिज करता है क्योंकि अंतर्विरोध ही उसके अस्तित्व का आधार है।
वह कार्यरत सामाजिक अंतर्विरोध के अलावा कुछ भी नहीं होता है। सिद्धांत की आड़ लेकर
वह अपने व्यवहार को न्यायसंगत दर्शाता है।
सामाजिक-आर्थिक संरचना के अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए, पूंजीवादी
चेतना को ध्वस्त करने के प्रयास में,
उसकी वैचारिक सामाजिक चेतना में सिद्धांत की भूमिका को कम
करके नहीं आंका जा सकता है। भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति के द्वारा ही उखाड़कर फेंका
जा सकता है, लेकिन सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर स्वयं भौतिक शक्ति में परिवर्तित
हो जाता। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह
पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है,
और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनकाब करता है जब वह मूलाग्रही
होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के जरिए समझना। और
सैद्धांतिक चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में है। इस
प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और
इसके परिष्कार का कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन
किया जाय।
सुरेश
श्रीवास्तव
10 अगस्त,
2011
ए-50,
सेक्टर 19, नोएडा – 201301
मोबाइल
- 9810128813
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