एक जागरूक वामपंथी साथी ने टिप्पणी की है -
'मूल्य की लेबर थ्योरी, मार्क्स के मस्तिष्क में अचानक नहीं आ गयी, इस बारे में उनके विचारों में क्रमिक विकास हुआ था।'
सबसे पहले उन्होंने लिखा था कि "उद्योगपति एक तो श्रम में से और फिर कच्चे माल में से मुनाफ़ा कमाता है"।
फिर उन्होंने लिखा "उत्पाद में में जितना हिस्सा मानव श्रम का होता है उतना ही ज़्यादा मुनाफ़ा उद्योगपति हांसिल करता है । "
और फिर अंत में इस अल्टिमेट सिद्धांत को उजागर करते हुए लिखा "श्रम और केवल श्रम ही मुनाफ़े का एकमात्र श्रोत है"।
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यह सब कहने का तात्पर्य क्या है? मूल्य की श्रम आधारित थ्योरी मार्क्स के विचारों के क्रमिक विकास का परिणाम है और निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मार्क्स के विचारों को अर्थात मार्क्सवाद को निरंतर विकसित किये जाने की जरूरत है। और पिछले डेढ़ सौ साल से संशोधनवादी यही करते आ रहे हैं।
फेसबुक, व्हाट्सएप या सूचना-संचार के अन्य माध्यमों के द्वारा, राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयामों से संबंधित विषयों पर, मार्क्सवाद तथा मार्क्स के लेखन के संदर्भ से, की जा रही टिप्पणियों, तथा सवाल-जवाब आदि के आधार पर, बुद्धिजीवियों को मुख्यतया दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक वे जो मार्क्सवाद को, लेनिन तथा माओ की तरह, सर्वशक्तिमान सिद्धांत मानते हैं और उसके आधार पर वर्तमान परिस्थितियों का सही-सही विश्लेषण कर अपने लिए सार्थक भूमिका तलाशने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरे वे हैं जो मानते हैं कि प्रकृति में सभी कुछ निरंतर परिवर्तित हो रहा है और प्रकृति में शाश्वत जैसा कुछ भी नहीं है, जो कुछ शाश्वत है वह प्रकृति से परे है। इस कारण वे मानते हैं कि मार्क्स तथा एंगेल्स के लेखन की प्रासंगिकता केवल उनके काल खंड तक ही सीमित है, आज के हालात के लिए जो कुछ प्रासंगिक हो सकता है, उसकी खोज जरूरी है। जब तक नये की खोज पूरी नहीं हो जाती तब तक सार्थक भूमिका की तलाश का कोई मतलब नहीं।
मैं चूँकि पहली श्रेणी मैं आता हूँ इस कारण दूसरी श्रेणी के लोगों के साथ विमर्श का कोई औचित्य नहीं है। पर बिना किसी पूर्वाग्रह के किसी की भी सही पहचान, कुछ सवाल जवाब के बाद ही हो सकती है और पिछले दो साल की क़वायद इसीलिए थी। अब कुछ लोगों की पहचान पहली श्रेणी के रूप में हो जाने के बाद, अगले क़दम के रूप में, पहली श्रेणी के लोगों के साथ विषय केंद्रित सामूहिक विमर्श के अवसर की तलाश में हूँ, जो कि गोष्ठियों या कार्यशाला के जरिए ही हो सकता है न कि सोशल मीडिया पर। सोशल मीडिया पर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी से जहाँ तक संभव हो बचता हूँ। पर एक जागरूक वामपंथी साथी जिनकी पहचान मैं पहली श्रेणी के साथी के रूप में करता हूँ, की एक गंभीर टिप्पणी पर अपने विचार व्यक्त करना जरूरी लगा।
मार्क्सवाद का सिद्धांत, अर्थात द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद, प्रकृति तथा मानव समाज के शाश्वत नियमों की सही-सही पहचान है। प्रकृति का अस्तित्व भौतिक तथा अनादि-अनंत है तथा उसमें होने वाले सभी परिवर्तनों तथा विकासों का मूल द्वंद्वात्मक है। यही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है, और इसके शाश्वत तथा अंतिम सत्य न होने की कल्पना बेमानी है। इस प्रकृति के किसी कोने में, विकास के किसी स्तर पर जीव जगत की उत्पत्ति और फिर उसमें मानव तथा मानव समाज का आविर्भाव उसी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के अनुरूप ही हुआ है। मानव की व्यक्तिगत तथा सामूहिक वैचारिक प्रक्रिया तथा चेतना का आयाम, बाकी भौतिक जगत से अलग और विशिष्ट है और उसके अपने विशिष्ट नियम हैं और उसकी विशिष्टता के अनुरूप उसे ऐतिहासिक भौतिकवाद का नाम दिया गया है। पर ऐतिहासिक भौतिकवाद, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से बाहर है, यह मानना गलत है।
मार्क्सवाद अर्थात द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणाओं को कार्ल मार्क्स या फ्रेडरिक एंगेल्स के विचारों की विकास यात्रा मानना या सोचना मूलत: गलत है। यह ज्ञान मानव समाज के तीन हज़ार साल की विकास यात्रा का सार है, न कि किसी एक व्यक्ति के विचारों में क्रमिक विकास का परिणाम। वास्तव में 1840 के दशक के शुरू ही में कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स ने, और जोसेफ़ डीट्ज़गेन ने भी, स्वतंत्र रूप से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की पहचान, प्रकृति के आधारभूत सिद्धांत के रूप में कर ली थी।
वैचारिक जगत में विचारों का विकास द्वंद्वात्मक नियम के अनुसार होता है यह ज्ञान सोक्रेटीज से शुरू होकर विकसित होते हुए हेगेल तक परिपक्व हो चुका था। निर्जीव और जीव, मानव सहित सभी कुछ भौतिक है यह ज्ञान भी प्रकृति विज्ञान की सभी शाखाओं के विकास तथा औद्योगिक क्रांति के साथ परिपक्व हो चुका था। दार्शनिक तथा वैज्ञानिक अपने अपने पूर्वाग्रहों के कारण ये स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि उनके अपने अपने ज्ञान का विकास, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के शाश्वत नियम के अनुरूप ही है। उस दौर में कार्ल मार्क्स के अलावा और भी बहुत लोग रहे होंगे जो कार्ल मार्क्स की तरह सोचते होंगे। पर मार्क्स उन सबसे बहुत आगे इसलिए थे क्योंकि उन्होंने उस ज्ञान को अत्याधिक व्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध किया था ताकि आगे आनेवाली पीढ़ियाँ उसका भरपूर लाभ उठा सकें।
मार्क्सवाद सामूहिक सामाजिक चेतना है जिसकी अंतर्वस्तु द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत की समझ पर आधारित चिंतन पद्धति है, और इसीलिए शाश्वत अपरिवर्तनीय है। मार्क्सवाद की अधिरचना उस चिंतन पद्धति पर आधारित ज्ञान है और निरंतर विकासरत है। निम्नमध्यवर्गीय, अपनी बुर्जुआ चेतना के कारण, मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना में अंतर न करके निरंतर विकासरत अधिरचना को ही मार्क्सवाद दर्शा कर उसमें संशोधन करने की वकालत करते रहते हैं।
मानव जीवन और समाज का आधार, व्यक्तिगत और सामूहिक श्रम है जिसके द्वारा मानव प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पदार्थों में परिवर्तन कर उपभोग योग्य उत्पाद बनाता है। उत्पादन कर्म के दौरान हासिल होने वाले ज्ञान के कारण श्रम की उत्पादकता बढ़ती जाती है जिसके कारण मानव अपने जीवन के लिए आवश्यक उत्पाद से कहीं अधिक उत्पादन करने की क्षमता हासिल करता जाता है। यह मानव जीव की शारीरिक संरचना का प्रकृति प्रदत्त गुण है। मांग की पूर्ति के बाद बचनेवाले उत्पादों का ज़ख़ीरा ही समाज की संपत्ति के रूप में चारों ओर नजर आता है। उत्पादों के इस ज़ख़ीरे का स्रोत प्राकृतिक रूप से उपल्ब्ध पदार्थ के अलावा, केवल संचित सामूहिक मानवीय श्रम ही है। सारे झगड़े की जड़ इसी सामूहिक अधिशेष उत्पाद के व्यक्तिगत स्वामित्व को लेकर ही है और सारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था इसी बंटवारे पर आधारित है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में मानव तथा मानव समाज के अस्तित्व तथा चेतना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ के आधार पर ही मार्क्स ने हेगेल की चेतना की भाववादी व्याख्या की कमी को रेखांकित किया और 'उल्टे रखे हुए ग्लास को पलट कर सीधा कर दिया' और यहीं से मार्क्स हेगेल से अलग हो जाते हैं।
मार्क्स के, 1844 में इकोनोमिकल एण्ड फिलोसोफिकल मेन्युस्क्रिप्ट के रूप में, एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों के लेखों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों के संकलन में से, संदर्भों से काट कर उद्धरणों को इस रूप में पेश करना, मानो मार्क्स की, 'श्रम आधारित मूल्य' की समझ के बारे में, उस दौर में होनेवाले पूँजीवाद के विकास के साथ-साथ बदलाव हुआ था, निम्न मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह को दर्शाता है और संशोधनवाद को टिके रहने के लिए ज़मीन मुहैया कराता है।
सुरेश श्रीवास्तव
4 मई 2017
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