क्या किया जाय?
(भाग-2)
2
चाहे प्राथमिक भौतिक उत्पाद हो या अत्याधिक क्लिष्ट वैचारिक संरचनाएं तथा व्यवस्थाएं हों, मानव सृजन से पहले कल्पना में उनकी रूपरेखा तथा उनके सृजन की योजना तैयार करता है और उसके बाद ही, सजग नियंत्रित व्यवहार के साथ उस योजना पर अमल कर के इच्छित परिणाम हासिल कर पाता है। योजना तैयार करते समय, उन सब नियमों का, जो सृजन की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं, सही सही पूर्व ज्ञान आवश्यक है अन्यथा वांछित परिणाम हासिल नहीं किये जा सकते हैं।
मार्क्स समझाते हैं कि ‘यह सवाल कि क्या वस्तुपरक सत्य का श्रेय मानवीय चिंतन को दिया जा सकता है, एक वैचारिक प्रश्न नहीं है बल्कि एक व्यावहारिक प्रश्न है। मनुष्य के चिंतन के आयाम - सत्य अर्थात यथार्थ और उसको परखने की शक्ति - को व्यवहार में सत्यापित करना ज़रूरी है।’ व्यवहार में सत्यापन के जरिए ही, मनुष्य की चिंतन के आधार पर सत्य को परखने की शक्ति, और उस चिंतन शक्ति के आधार पर परखा गया यथार्थ, सत्य के रूप में स्वीकार्य बनते हैं। मनुष्य अपने दैनिक जीवन के निजी अनुभवों के जरिए ही प्रकृति के मूलभूत नियमों को परखता है और व्यक्तिपरक सत्य को ही सहज ज्ञान के रूप में स्वीकार करता है। लेकिन निजी अनुभव के आधार पर अर्जित सहज ज्ञान ही संपूर्ण ज्ञान नहीं होता है। सामाजिक प्राणी के रूप में लोग उत्पादन संबंधों के साथ साथ सामाजिक संबंध भी बनाते हैं और आपस में अनुभवों को साझा करते हैं। साझा अनुभव ही सामूहिक ज्ञान बनता है। व्यक्तिगत चेतना तथा सामाजिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध ने ही प्रकृति के हर आयाम से संबंधित नियमों की सही सही समझ को हासिल कर पाना और सही समझ के आधार पर वांछित परिणामों को हासिल कर पाना संभव बनाया है। वांछित परिणाम हासिल होना ही, समझ के सही होने को सत्यापित करता है।
जो लोग व्यवहार तथा ज्ञान के संबंध को जड़सूत्र के रूप में देखते हैं वे बर्न्स्टाइन की तरह आंदोलन को ही सब कुछ मानते हैं और आंदोलनों में भागीदारी के जरिए ज्ञान हासिल करने की दलील देते हैं। वे यह नहीं समझ पाते हैं कि कोई भी व्यक्ति निजी अनुभव द्वारा सीमित दायरे में ही, प्रकृति के अदृश्य नियमों के बारे में सीमित ज्ञान ही हासिल कर सकता है। व्यापकतम परिस्थितियों में प्रभावी प्रकृति के नियमों की सही सही पड़ताल तथा ज्ञान और उनका सत्यापन सामूहिक तौर पर सामाजिक ज्ञान के रूप में ही हासिल कर पाना संभव है। समय की गति कभी भी उलटी नहीं जा सकती है इसलिए जाहिर है कि किसी आंदोलन के किसी कालखंड में किसी व्यावहारिक क़दम का मार्गदर्शन पिछले कालखंडों में अर्जित किये गये ज्ञान के द्वारा ही किया जा सकता है। व्यवहार के दौरान किसी क़दम पर अर्जित किये गये ज्ञान द्वारा, उसी कदम का मार्गदर्शन कर पाना असंभव है।
संशोधनवादियों का कहना है कि मार्क्सवाद के अनुसार प्रकृति में हर चीज निरंतर परिवर्तित हो रही है और किसी भी व्यवस्था पर लागू होनेवाले नियम व्यवस्था के सापेक्ष होते हैं। उनका मानना है कि मार्क्स के समय के बाद से अब तक विज्ञान तथा तकनीकी के विकास के कारण बहुत कुछ बदल चुका है और इस कारण मार्क्सवाद में बदलाव किया जाना जरूरी है।
व्यक्ति की तर्कबुद्धि के पूरी तरह विकसित होने से पहले, सहज ज्ञान के रूप में परिवेश के अनुरूप विचार अनभिज्ञ चेतना के रूप में मन में घर कर लेते हैं। चेतना में पहले से मौजूद विचार, पूर्वाग्रहों के रूप में चिंतन तथा सत्य को परखने की शक्ति को प्रभावित करते हैं तथा वस्तुपरक सत्य व व्यक्तिपरक सत्य के बीच अंतर्विरोध का कारण बनते हैं। एंगेल्स कहते हैं, ‘द्वंद्व का प्रकृति का मूलभूत नियम, सहज ज्ञान के रूप में आमचेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है।’
मार्क्सवाद के अलावा अन्य विचारधाराएँ यह मानकर चलती हैं कि ऐंद्रिक संज्ञान से परे, प्रकृति के अमूर्त सत्य को जान सकने का गुण हर किसी के पास नहीं होता है। यह गुण जन्मजात होता है जो किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों को ही हासिल होता है। ये विचारधाराएं समझाती हैं कि अमूर्त चिंतन शक्ति ईश्वर प्रदत्त होती है और इस कारण गुरुओं के रूप में विशिष्ट व्यक्तियों की नसीहतों को ब्रह्मवाक्य मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए और अधिकांश अनुयायी ऐसा ही करते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने अनुभव तथा गुरु की नसीहतों के बीच अंतर्विरोध पाता है और शंका व्यक्त करता है तो उसे समझाया जाता है कि गुरु के दिये ज्ञान को आत्मसात कर लेने पर, अनुभव तथा गुरु प्रदत्त ज्ञान के बीच के अंतर्विरोध का समाधान स्वत: हो जाता है।
मार्क्सवाद समझाता है कि अमूर्त चिंतन की शक्ति मानव प्रजाति का प्रकृति प्रदत्त गुण है। इस गुण को परिष्कृत किये जाने की जरूरत होती है। और परिष्कृत किये जाने का एकमात्र तरीक़ा है, अन्य चिंतकों के अमूर्त चिंतन के निष्कर्षों पर बारबार विमर्श किया जाय जब तक शंकाओं का समाधान न हो जाये। विचार के विकास की यह द्वंद्वात्मक प्रक्रिया प्रकृति के मूलभूत द्वंद्व के नियम का ही विस्तार है।
जहाँ और विचारधाराएँ, गुरुओं के द्वारा दिये गये ज्ञान की मूल अवधारणाओं को बिना प्रश्न स्वीकार करने की पैरवी कर के पूर्वाग्रहों को ही सुदृढ़ करती हैं वहीं मार्क्सवाद, गुरुओं के दिये गये ज्ञान को व्यक्तिगत अनुभव की कसौटी पर कसने के बाद हासिल किये गये ज्ञान को ही स्वीकार करने का आग्रह करता है। इस प्रकार वैज्ञानिक पद्धति द्वारा अर्जित, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित ज्ञान - मार्क्सवाद - पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद करता है।
मानव समाज एक जैविक संरचना है जिसकी अंतर्वस्तु वे उत्पादन संबंध होते हैं जो जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन के दौरान विकसित होते हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ उत्पादकता बढ़ती है और उसी के साथ बढ़ता है अतिरिक्त उत्पाद का उत्पादन भी। अतिरिक्त उत्पाद के बंटवारे ने समाज को, परस्पर विरोधी हितों वाले वर्गों में बांट दिया है। एक वह जो उत्पादन की प्रक्रिया में हाथ बँटाता है, और दूसरा वह जो अतिरिक्त उत्पाद को हथियाता है और उसे हथियाने की प्रक्रिया में हाथ बँटाता है। और इसके साथ ही दर्शन भी दो भागों में बंट गया है - भाववाद तथा भौतिकवाद। मार्क्स समझाते हैं कि ‘हर वर्ग अपने भौतिक जीवन के उत्पादन के आधार पर विचारों का एक तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके भौतिक जीवन के उत्पादन के आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है।’
जैसा ऊपर समझाया गया है, शैशवकाल में व्यक्ति की चेतना में उसके अपने परिवेश के अनुरूप, विशेषकर अस्तित्व तथा उत्पादन संबंधों से जुड़ी हुईं, भाववादी तथा भौतिकवादी अवधारणाएं सहज तौर पर पूर्वाग्रहों के रूप में घर कर लेती हैं। ये पूर्वाग्रह चिंतन के आधार पर सत्य को परखने की शक्ति के विकास में व्यवधान पैदा करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत, जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही सही व्याख्या करने में सक्षम है, के तौर पर मार्क्सवाद, जिसकी अंतर्वस्तु द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है, अपनी पहचान स्थापित कर चुका है।
सोसायटी फॉर साइंस का मंच सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक उन बुद्धिजीवियों के लिए है जिन के अंदर व्यवस्था परिवर्तन में सक्रिय भूमिका निभाने की उत्कट इच्छा है। अपनी अमूर्त इच्छाओं को यथार्थ के धरातल पर सफल बना सकने के लिए जरूरी है कि वे अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाकर चिंतन के आधार पर सत्य को परखने की अपनी शक्ति को सुदृढ़ करें। इसके लिए आवश्यक है कि वे मार्क्सवाद में आस्था रखें और जीवन के हर आयाम में मार्क्सवाद की नसीहतों के अनुसार आचरण कर अपनी मार्क्सवादी समझ को स्वयं सत्यापित करते रहें।
(जारी)
सुरेश श्रीवास्तव
7 मार्च, 2020
No comments:
Post a Comment