Friday, 6 March 2020

क्या किया जाय? (भाग-1)

क्या किया जाय?
(भाग-1)
(सोसायटी फॉर साइंस के मंच को संगठन का रूप देने के लिए अनूप ने व्हाट्सऐप ग्रुप पर अपील की है, ‘Patwalji and Oja sir You both are the only organisational people in this group as You are the only ones who have (and in fact are still working ) in various organisations. Kindly request You as to help with Your suggestions as how we can transform this group of individuals to an organisation which functions independent of the individuals .
Of course the proposed organization is of a different genere in as much as it doesn't have in its agenda any practical and field activities and the sole objective is to provide a platform for developing the correct understanding and nature and its various phenomenon, including social phenomenon.’
विषय के महत्व को ध्यान में रखते हुए, मैं अपना सुझाव व्हाट्सऐप ग्रुप पर दे कर यहाँ ब्लॉग पर दे रहा हूँ। सोसायटी फॉर साइंस जैसे किसी मंच का संगठन में रूपांतरण ही वह प्रस्थान बिंदु होगा जहाँ संशोधनवादी विचारधाराओं का अंत होता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत का जन्म तथा उस सिद्धांत पर आधारित ज्ञान का विस्तार शुरू होता है।)

साथी, सोसायटी फॉर साइंस के बारे में आपकी समझ भी औरों की तरह बुनियादी तौर पर गलत है, इसी कारण आप इस मंच को संगठन का रूप देने के लिए उन अग्रणियों से आग्रह कर रहे हैं जो तो SFS के उद्देश्यों से सहमत हैं और ही उसे सांगठनिक रूप देने में उनकी कोई रुचि है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी एक मंच पर जुटनेवाले सभी लोग, उसे सांगठनिक आधार प्रदान करने की क्षमता या इच्छा रखते हों। 
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर चार पीढ़ियों के लगभग एक हज़ार वामपंथी SFS के संपर्क में है। पिछली पीढ़ियों के लोग, जिनकी उम्र तीस साल से अधिक है और जो दस साल से अधिक समय से किसी वामपंथी संगठन या आंदोलन से सक्रिय तौर पर जुड़े रहे हैं, उनके अंदर संशोधनवादी पूर्वाग्रह इतनी गहरी जड़ें जमा चुके होते हैं कि उनके लिए व्यावहारिक-आलोचना कर्म को क्रांतिकारी गतिविधि के रूप में देख पाना लगभग असंभव है। 
अगर आपके मन में, व्यापक समाज के एक बड़े वर्ग को दूरगामी परिणामों को हासिल करने के लिए प्रभावित करने की आकांक्षा है तो जरूरी है कि आप ऐसे संगठन के सदस्य हों जो जनवादी केन्द्रीयता के नियमों के आधार पर संगठित किया गया हो, और संगठन बनाये जाने के लिए यही बात SFS के ऊपर भी लागू होती है। और इसके लिए आपको तीस साल से कम उम्र के युवाओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनके पूर्वाग्रह जड़ हो गये हों और जो खुले मन से विमर्श करने में रुचि रखते हों।
जनवादी केंद्रीयता के लिए सबसे पहली शर्त है कि संगठन का उद्देश्य स्पष्ट हो जो सदस्यों को व्यावहारिक स्तर पर सजग योगदान के लिए निरंतर प्रेरित कर सके। दूसरी शर्त है कि सदस्यों की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत, जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही सही व्याख्या करने में सक्षम हो, के साथ प्रतिबद्धता हो। तीसरी शर्त है कि संगठन के अग्रिम पंक्ति के सदस्यों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो ताकि वे स्वयं के तथा अन्य सदस्यों के पूर्वाग्रहों को पहचानने तथा उन्हें दूर करने में सक्षम हों और किसी भी परिस्थिति का सही सही विश्लेषण करने तथा सही निष्कर्ष निकालने में दक्ष हों। 
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रूस की सर्वहारा क्रांति की सफलता तथा प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही भारत में आजादी का आंदोलन ज़ोर पकड़ चुका था और गांधी जी ने मध्यमार्गीय कांग्रेस पार्टी की तथा आजादी के आंदोलन की बागडोर संभाल ली थी। ऐसी अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय परिस्थितियों के बीच, चंद निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने, अपनी बुर्जुआ मानसिकता तथा संशोधनवादी समझ के साथ, ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के रूप में, भारतीय वामपंथी आंदोलन की नींव रख दी थी। तभी से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसी के गर्भ से जन्म लेनेवाले अनेकों राजनीतिक गुट ही भारतीय वामपंथ का पर्याय बन गये हैं और इसीलिए भारत में वामपंथी आंदोलन संशोधनवाद के दलदल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। सामाजिक सरोकारों के जज़्बे से प्रेरित छात्र तथा युवा, सैद्धांतिक समझ हासिल किये बिना ही वामपंथी संगठनों से जुड़ जाते हैं और कुछ सालों में वे संशोधनवादी समझ को ही मार्क्सवादी समझ होने का भ्रम पाल लेते हैं। वे बर्न्स्टाइन के फिकरे, ‘आंदोलन ही सब कुछ है उद्देश्य कुछ भी नहींको ही सिद्धांत मान लेते हैं। इस सब के बीच मार्क्सवाद की समझ के विकास तथा विस्तार के लिए ज़मीन ही नहीं बचती है। कुछएक अपवाद को छोड़कर सभी भारतीय वामपंथी, अपने व्यक्तिगत निम्नबुर्जुआ पूर्वाग्रहों से अनभिज्ञ तथा अमूर्त चिंतन की अकुशलता के चलते, अधिरचना को ही अंतर्वस्तु का पर्याय मानने की ग़लती करते चले रहे हैं।
फेसबुक ग्रुप में छह सौ से अधिक सदस्यों के मौजूद होने के बाद भी, पिछले चार साल में बार बार की अपीलों तथा कार्यशालाओं में समझाने के बाद भी, SFS संगठन का रूप नहीं ले पा रहा है क्योंकि सभी सदस्य किसी किसी रूप में भारतीय वामपंथी आंदोलन से जुड़े हुए हैं और अपनी संशोधनवादी मानसिकता के अनुरूप वे SFS के उद्देश्य को देखना चाहते हैं और ही समझना चाहते हैं। उनके अनुसार विचार-विमर्श कोई कर्म नहीं है। उनके अनुसार, फॉयरबाख पर मार्क्स की अंतिम अवधारणा, ‘दार्शनिकों ने अनेकों प्रकार से विश्व की व्याख्या की है, सवाल है बदलने का’, ही मार्क्सवाद का अंतिम सत्य है। भारतीय वामपंथी क्रांति करने की जल्दबाजी में आंदोलन को ही एकमात्र क्रांतिकारी व्यवहार मान बैठे हैं। इसका कारण यही है कि कोई भी सदस्य ये समझ ही नहीं पाता है कि मार्क्स द्वारा की गई फॉयरबाख की आलोचना - ‘इस कारण वे व्यावहारिक-आलोचना कर्म की क्रांतिकारी गतिविधि के महत्व को नहीं समझ पाते हैं’ - हर सदस्य के ऊपर भी पूरी तरह लागू होती है और उनकी नासमझी का कारण भी वही है। लेनिन ने आगाह किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।'
भारतीय वामपंथियों का मानना है कि मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन ने अपने समय के मजदूर आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की थी और उन आंदोलनों में भागीदारी के दौरान उन्होंने जो कुछ अनुभव किया था वही उनका ज्ञान था और वही सब कुछ उन्होंने लिपिबद्ध किया है। उनके समय से ले कर आज तक, आधुनिक तथा उत्तर-आधुनिक काल में विज्ञान तथा तकनीकी के विकास के कारण बहुत कुछ बदल चुका है जिसकी कल्पना वे कर ही नहीं सकते थे, इसीलिए आज उनकी अनेकों अवधारणाओं में संशोधन करने की जरूरत है। हमारे वामपंथी साथी ये देख ही नहीं पाते हैं कि अपने समय के आंदोलनों में भागीदारी से पहले, उसके दौरान और उसके बाद भी, मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन ने एक लंबा समय, महान दार्शनिकों, चिंतकों तथा वैज्ञानिकों के साहित्य के आलोचनात्मक अध्ययन में लगाया था और आंदोलनों में भागीदारी से अधिक समय व्यावहारिक-आलोचना तथा वैचारिक-विमर्श में लगाया था। मार्क्स की पुस्तकेंजर्मन दर्शन की आलोचनादर्शन की दरिद्रतातथा एंगेल्स की पुस्तकेंऐंटी ड्यूहरिंगलुडविष फॉयरबाख तथा जर्मन दर्शन का अंतइसके बेहतरीन उदाहरण हैं।
1877 में मार्क्स का परिचय देते हुए एंगेल्स लिखते हैं, “नवंबर 1852 में कोलोन मुक़दमे में कम्युनिस्ट लीग के सदस्यों की अपराध सिद्धि के बाद, मार्क्स ने राजनीतिक आंदोलनों से पूरी तरह तौबा कर ली थी और अगले दस साल उन्होंने, एक ओर तो ब्रिटिश म्यूज़ियम के पुस्तकालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र पर उपलब्ध अनमोल ख़ज़ाने के अध्ययन के लिए और दूसरी ओर न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में लिखने के लिए, पूरी तरह समर्पित कर दिये थे।
मई 1887 में लेनिन के बड़े भाई अलेक्ज़ेंडर को जा़र के खिलाफ विद्रोह के अपराध में फांसी दे दी गई थी जिस पर लेनिन के उद्गार थे, ’ये मेरा रास्ता नहीं होगा।’ 1887 के अंत में छात्र आंदोलन की अगुआई में उन्हें विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था और घर में नज़रबंद कर दिया गया था। उस दौरान उन्होंने गहन अध्ययन किया। उसी दौरान उन्होंने चेर्निशेव्स्की का 1863 में लिखा गया प्रसिद्ध उपन्यासक्या किया जाय?’ पढ़ा था। इस उपन्यास से वे इतना प्रभावित थे कि उसी ग्रीष्म में उसे उन्होंने पाँच बार पढ़ा था। इस उपन्यास ने प्लेखानोव, रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग आदि अनेकों मार्क्सवादियों को भी प्रेरित किया था। इस उपन्यास ने रूस की क्रांति को भी आधार प्रदान किया था। उपन्यास में इस बात की पैरवी की गई है कि रूस के बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वे रूस की मेहनतकश जनता को संगठित करें और पूँजीवाद को बाईपास कर समाजवादी क्रांति करें। लेनिन ने 1902 में लिखे गये अपने प्रसिद्ध पर्चे का शीर्षक भी उपन्यास के शीर्षक से लिया था। नज़रबंदी से रिहा होने के बाद वे निकोलाई फेदोसिएव के क्रांतिकारी मंच के सदस्य बन गये थे जहाँ उन्हें मार्क्स की पुस्तक पूँजी को पढ़ने का मौक़ा मिला। सितंबर 1889 में लेनिन का परिवार समारा में आकर रहने लगा था जहाँ वे एक समाजवादी विचार मंच से जुड़ गये थे। उस दौर में पूरे यूरोप में जिस प्रकार वामपंथी आंदोलनों में अनेकों धाराओं के बीच वैचारिक संघर्ष चल रहा था लेनिन का अधिकांश समय रूस के बाहर सैद्धांतिक विमर्शों के साथ पढ़ने लिखने में बीतता था।
अव्यवस्थित उत्सुकतावादी से व्यवस्थित चिंतक के रूपांतरण काल में मार्क्स तथा ऐंगेल्स युवा हेगेलवादी के रूप में जाने जाते थे। भाववादी चिंतक हेगेल ने विचार की विकास प्रक्रिया पर लागू होनेवाले नियमों की पहचान द्वंद्व के नियमों के रूप में की थी और उनके अनुसार बाह्य भौतिक जगत विचार का ही मूर्त रूप है इस कारण द्वंद्व के नियम भौतिक जगत में होने वाले परिवर्तनों पर भी लागू होते हैं। मार्क्स तथा एंगेल्स प्रकृति में होने वाले सभी परिवर्तनों के मूल, द्वंद्वात्मक परिवर्तन के नियमों को अच्छी तरह समझ चुके थे। पर वे हेगेल की यह बात स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि यह भौतिक जगत किसी पवित्र विचार के भ्रष्टीकरण का मूर्त रूप है। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि हर समय महसूस किया जाने वाला भौतिक जगत केवल एक छलावा मात्र है। लोगों के मरने के बाद भी नदी, पहाड़, पृथ्वी, चाँद, सूरज सभी कुछ वैसे ही चलता रहता है तो भौतिक जगत का यथार्थ लोगों की कल्पना द्वारा निर्मित अयथार्थ कैसे हो सकता है। भौतिक जगत का अस्तित्व तो मानवीय चेतना के बाहर और उससे स्वतंत्र होना चाहिए। वे इस पहेली का आंशिक हल भौतिकवादी फॉयरबाख द्वारा दी गई भौतिक जगत के यथार्थ और मानव चेतना द्वारा उसके संज्ञान की व्याख्या में पाते हैं। 
फॉयरबाख का कहना था कि भौतिक जगत का यथार्थ व्यक्ति की चेतना से अलग और स्वतंत्र है, और उसका संज्ञान, मानवीय मस्तिष्क में होनेवाला उसका प्रतिबिंब है। भौतिक जगत के यथार्थ के बारे में, व्यक्तियों के बीच मतभेद के स्पष्टीकरण के लिए फॉयरबाख का कहना था कि यह प्रतिबिंब सटीक होकर विरूपित होता है, और विरूपण के लिए वे अलग अलग व्यक्तियों की चेतना में पहले से मौजूद सारतत्त्व को जिम्मेदार मानते हैं। सारतत्त्व के उद्गम के बारे में वे मौन रहते हैं। मार्क्स तथा एंगेल्स, फॉयरबाख की व्याख्या के पहले अंश को स्वीकार करते हैं कि भौतिक जगत व्यक्तिगत चेतना से अलग और स्वतंत्र है और उसका संज्ञान मानवीय मस्तिष्क में होनेवाला उसका प्रतिबिंब है, पर चेतना में पहले से मौजूद किसी सारतत्त्व की मौजूदगी को वे भाववादी कल्पना मात्र मानते हैं। 
मार्क्स तथा एंगेल्स प्रकृति या भौतिक जगत के यथार्थ की भौतिकवादी व्याख्या करते समय, यथार्थ के संज्ञान में लोगों के बीच मतभेद का आधार तथा स्पष्टीकरण, विचारों के विकास की हेगेल द्वारा दी गई भाववादी व्याख्या में पाते हैं। दर्शन के इतिहास की गति का आधार, भौतिकवाद और भाववाद के इस अंतर्विरोध में है कि, प्रकृति या भौतिक जगत अनादि अनंत है जिसमें हर चीज निरंतर परिवर्तनरत है - जन्म से लेकर अंत तक - तथा प्रकृति के बाहर कुछ भी नहीं, है या फिर प्रकृति से परे एक चेतन शक्ति है जिसने प्रकृति की रचना की है।। मार्क्स तथा एंगेल्स ने इस अंतर्विरोध का समाधान ढूँढ निकाला अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध में। भौतिक जगत के यथार्थ के बारे में व्यक्तियों के बीच मतभेद, उनके अंदर पहले से मौजूद किसी चेतन सारतत्त्व के कारण होकर, परिस्थितिजन्य चेतना तथा पूर्वाग्रहों के कारण होते हैं। व्यक्ति के जन्म के बाद से निरंतर होने वाले उसके भौतिक विकास के साथ साथ विकसित होनेवाली चेतना तथा पूर्वाग्रहों के उद्गम तथा निरंतर विकास का मूल, अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध में ही है। मानव सामाजिक प्राणी है और उसका अस्तित्व उसके सामाजिक संबंधों में है। जीवन के भौतिक साधनों को पैदा करने के दौरान उपजने और विकसित होनेवाले उत्पादन संबंधों में ही इन सामाजिक संबंधों का मूल है। जीवन के भौतिक साधनों को पैदा करने वाली दिन प्रतिदिन की गतिविधियों के साथ ही व्यक्ति की अनभिज्ञ चेतना निरंतर परिवर्तित होती रहती है और इसके साथ ही समाज की सामूहिक चेतना भी। 
वानर से मानव के रूपांतरण में श्रम की भूमिका को रेखांकित करते हुए मार्क्स तथा एंगेल्स ने समझाया है कि, जहाँ अन्य जीव पदार्थों का उपभोग उनके प्राकृतिक रूप में करते हैं, वहीं मानव उपभोग करने से पहले प्राकृतिक पदार्थों को अपने श्रम द्वारा उपभोग योग्य वस्तु में परिवर्तित करता है। दूसरा महत्वपूर्ण अंतर है कि मानव सृजन से पहले कल्पना में वस्तु की रूपरेखा तथा उसके सृजन की योजना तैयार करता है और उसके बाद ही, मासपेशियों के सजग नियंत्रण के साथ श्रमशक्ति के द्वारा, श्रम के साधनों की मदद से जीवन के लिए भौतिक साधनों का सृजन करता है। इस रूप में मानवीय श्रम, अन्य जीवों द्वारा सहज जैविक प्रवृत्ति के रूप में किये जाने वाले श्रम से गुणात्मक रूप से भिन्न है। 
व्यक्तिगत जीवन के लिए आवश्यक भौतिक साधनों को पैदा करने में तथा प्रजाति के जीवन के लिए आवश्यक नई पीढ़ी का सृजन करने में मानवीय श्रम का चरित्र दोहरा है। वह व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भी है। सामूहिक श्रम ने, समाज और भाषा के लिए आधार प्रदान किया है जिसके कारण व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करना संभव हुआ है। भाषा के कारण विचारों को व्यक्त करने की तथा अनुभव साझा करने की क्षमता हासिल होने के कारण प्रकृति के नियमों को समझना तथा उस समझ के आधार पर श्रम के औजारों तथा उत्पादकता को उन्नत करना मानव तथा मानव समाज का स्वभाविक गुण बन गया है जो किसी और अन्य जीव को हासिल नहीं है। व्यक्तिगत चेतना तथा सामाजिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध ने, मानव तथा मानव समाज के ज्ञान तथा चेतना के विकास की संभावना को असीमित कर दिया है।     
समयांतर में भाषा, ज्ञान तथा कुशलता बढ़ने के साथ यह संभव हो गया कि एक व्यक्ति वैचारिक स्तर पर दूसरे की श्रमशक्ति को नियंत्रित कर सके और अपनी कल्पना के अनुसार उत्पादन करवा सके। बढ़ती उत्पादकता ने अतिरिक्त उत्पादन को संभव बनाया है और इसके साथ ही भेदरहित सामूहिक श्रम के साथ शुरू हुए समाज का रूपांतरण, मानसिक श्रम तथा शारीरिक श्रम विभेद आधारित वर्ग-विभाजित समाज में हो गया।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तकलुडविष फॉयरबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंतमें एंगेल्स ने, परिशिष्ट के रूप में मार्क्स द्वारा 1840 के आरंभ में किसी समय लिखी गईं, 'थीसिस ऑन फॉयरबाख' के रूप में जानी जानेवाली मार्क्स की 11 टिप्पणियों को भी संलग्न किया था, जिनके आधार पर अगले चालीस साल में मार्क्स तथा एंगेल्स ने मार्क्सवाद के नाम से जाने जानेवाले वैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण को विकसित किया था। प्रस्तावना में एंगेल्स ने लिखा था, 'जिसमें नये वैश्विक दृष्टिकोण का उत्कृष्ट बीज संजोया गया है, उस पहले दस्तावेज़ के रूप में, ये टिप्पणियाँ अनमोल हैं।
मार्क्स ने, दर्शन की भाववादी तथा भौतिकवादी दोनों धाराओं के, हेगेल तथा फायरबाख तक के सभी दार्शनिकों की व्याख्याओं का गहन अध्ययन कर, अपनी तार्किक आलोचना के आधार पर विकसित की गई अपनी सैद्धांतिक समझ को 11 टिप्पणियों में दर्ज किया था, कि अपने व्यक्तिगत व्यावहारिक अनुभव के ज्ञान के आधार पर। हमारे वामपंथी साथी आंदोलनों को ही क्रांतिकारी कर्म मानते हैं और आंदोलनों के दौरान हासिल किये गये व्यक्तिगत अनुभव को ही ज्ञान का स्रोत मानते हैं। मार्क्सवाद का दम भरने के बावजूद वे मार्क्सवाद को समझने में नाकाम हैं क्योंकि वे मार्क्स की पहली प्रस्थापना को ही नहीं मानते हैं। मार्क्स ने समझाया था कि भौतिकवादी फॉयरबाख द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को समझने में इसलिए नाकाम थे क्योंकि वे संज्ञान की प्रक्रिया को तर्कबुद्धि की स्वतंत्र व्यक्तिपरक कल्पना के रूप में देखते थे कि वस्तुपरक मानवीय कर्म के रूप में। फॉयरबाख की तरह हमारे वामपंथी साथी पूर्वाग्रहों को मानवीय चेतना में अवस्थित सारतत्त्व के रूप में देखते हैं। पूर्वाग्रहों को वे संज्ञान की मानवीय प्रक्रिया के परिणाम के रूप में नहीं देख पाते हैं और इसीलिए वे व्यावहारिक-आलोचना कर्म की क्रांतिकारी गतिविधि के महत्व को नहीं समझ पाते हैं।    
एंगेल्स ने समझाया था किहर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।परिस्थितियों में लोगों की मानसिक परिस्थिति भी शामिल होती है। एंगेल्स यह भी समझाते हैं कि, ‘अमूर्त चिंतन प्रकृति प्रदत्त गुण है अगर हम क्षमता की बात करें तो। पर इस क्षमता को परिष्कृत किया जाना जरूरी है। और इसके परिष्कार का और कोई रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पारंपरिक दर्शन को बार बार पढ़ा जाय।’  ‘बार बार पढ़ा जायका निहितार्थ क्या है और इसकी अनिवार्यता क्यों है, यह मार्क्सवाद के मूल को आत्मसात किये बिना नहीं समझा जासकता है।
मार्क्स ने समझाया था किस्पष्ट है कि वैचारिक प्रतिरोध का हथियार, हथियार द्वारा किये जाने वाले प्रतिरोध का स्थान नहीं ले सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति द्वारा ही हटाया जा सकता है; लेकिन सिद्धांत भी जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता हैऔर लेनिन ने समझाया था कि बिना क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं चलाया जा सकता है। और लेनिन की नसीहत के अनुसार कुछ नहीं किया जा सकता है जब तक भारत के वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवाद का पूरी तरह सफ़ाया नहीं कर दिया जाता है। मार्क्स ने समझाया था कि परिस्थितियाँ मनुष्य द्वारा बदली जाती हैं और स्वयं शिक्षा देनेवाले को शिक्षित किया जाना अनिवार्य है। एक साथ, परिस्थितियों के बदलने तथा मानवीय गतिविधि अर्थात स्व-परिवर्तन की प्रक्रिया की, केवल एक गुणात्मक रूप से भिन्न क्रांतिकारी व्यवहार के रूप में कल्पना की जा सकती है तथा उसी रूप में उसे तर्कसंगत तरीके से समझा जा सकता है। इन्हीं नसीहतों का अनुकरण करते हुए SFS ने संशोधनवाद के खिलाफ लड़ाई में, नई पीढ़ी के उन युवाओं, जिन्होंने आगे चलकर क्रांतिकारी शक्तियों को एकजुट करने का दायित्व पूरा करना है, को शिक्षित करने का कार्यभार अपने लिए चुना है।
समाज एक अत्यंत क्लिष्ट संरचना है जिसके अनेकों अंग अलग-अलग संगठन के रूप में अपनी स्वायत्तता के साथ काम करते हैं, पर सुचारू व्यवस्था के लिए उनके बीच वैचारिक समन्वय आवश्यक है। वैज्ञानिक समाजवाद की सफलता के लिए यह नितांत आवश्यक है कि समाज के सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थानों में समाजवादी चेतना व्यापक तौर पर व्याप्त हो। SFS ने मार्क्स की नसीहत पर अमल करते हुए अपना उद्देश्य तय किया है उस सिद्धांत के विस्तार के लिए जिसके लिए मार्क्स ने कहा था, ‘सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है, और पूर्वाग्रहों को बेनकाब वह तब करता है जब वह चीज़ों को उनके मूल से पकड़ता है।’ SFS के मंच से जुड़े जिन सदस्यों ने संगठन के रूप में SFS के काम को आगे बढ़ाना है, उनके लिए जरूरी है कि उन्हें SFS के उद्देश्य की स्पष्ट समझ हो। उन्हें स्पष्ट समझ होना चाहिए कि SFS का उद्देश्य नई पीढ़ी के वामपंथी कार्यकर्ताओं को सिद्धांत के बारे में शिक्षित करना है और यह अपने आप में एक क्रांतिकारी व्यवहार है।
(जारी)
सुरेश श्रीवास्तव

7 मार्च, 2020

1 comment:

  1. आपका निरीक्षण एवं मत सही है

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