Friday, 28 June 2013

खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश



क्या मार्क्सवादियों  को खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करना चाहिेये?
(सुरेश श्रीवास्तव)

मार्क्स ने कहा था 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर स्वयं भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनक़ाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के ज़रिये  समझना।' और एंटी ड्युहरिंग की प्रस्तावना में ऐंगेल्स ने लिखा था 'लेकिन सैद्धांतिक चिंतन प्रकृति प्रदत्त गुण है अगर केवल प्राकृतिक क्षमता की बात करें तो। इस क्षमता को विकसित किया जाना चाहिये, उसे परिष्कृत किया जाना चाहिये, और उसके परिमार्जिन का अभी तक और कोई तरीक़ा नहीं है सिवाय इसके कि पिछले दर्शन का अध्ययन किया जाये।' 
वामपंथी जिसका विरोध कर रहे हैं वह है मल्टी ब्रैंडेड खुदरा व्यापार में पूर्ण स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश। सैद्धांतिक रूप से वे ब्रैंडेड माल के खुदरा व्यापार में पूूर्ण-स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश के विरोध में नहीं हैं। अर्थात अगर कोई विदेशी संगठन एक ही ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री के लिए प्रतिष्ठान स्थापित करना चाहता है तो उसके ऐसा पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करने पर वामपंथियों को कोई ऐतराज़ नहीं है पर अगर वह अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करना चाहता है तो वामपंथियों को ऐतराज़ है। वामपंथियों के विरोध का आधार यह दलील है कि छोटे-छोटे दुकानदार व व्यापारी जो अपनी आजीविका अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री आधारित स्वरोज़गार के ज़रिए कमाते हैं उनके लिए विदेशी निवेशकों के सामने प्रतिस्पर्धा में टिक पाना असंभव होगा और करोड़ों दुकानों के बंद होने से एक ओर करोड़ों दुकानदार तथा व्यापारी बेरोज़गार हो जायेंगे और दूसरी ओर बड़े संस्थानों के एकाधिकार के कारण जहां लघु उद्योगों तथा किसानों को उनके उत्पादों का मूल्य कम मिलेगा वहीं उपभोक्ता को अधिक मूल्य चुकाना पड़ेगा।
ऊपर उठाये गये प्रश्न का सही उत्तर वामपंथियों की दलील के सही-सही सैद्धांतिक विश्लेषण के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है।
सारे विवाद के केंद्र में है उत्पाद तथा उत्पाद का मूल्य, और विवाद है उत्पादक या श्रमिक तथा वितरक या बिचौलिये के बीच क्रेता द्वारा चुकायी गयी क़ीमत के उचित बँटवारे को लेकर। जहाँ मार्क्सवादियों को मार्क्स द्वारा स्थापित मूल्य की अवधारणा से आज भी पूरा इत्तफ़ाक़ है वहीं वामपंथियों ने विज्ञान, तकनीकी तथा संचार के क्षेत्र में पिछले 150 सालों में हुए अभूतपूर्व विकास की दलीलें देते हुए न केवल मार्क्स की मूल्य की अवधारणा को बल्कि मार्क्सवाद की अनेकों सैद्धांतिक अवधारणाओं को भी संशोधित कर अपने साथ-साथ जनता को भी भ्रमित किया है। मार्क्सवाद की मूल्य की व्याख्या को छोड़ देने के बाद वामपंथी न शोषण की प्रक्रिया को समझ पा रहे हैं और ना ही पूँजी तथा पूँजीवाद की संरचना (अंतर्वस्तु तथा अधिरचना) और उनके आंतरिक द्वंद्वों को। आइये हम यहाँ उठाये गये विवाद के विभिन्न पहलुओं के अवयवों का अलग-अलग और एकीकृत विश्लेषण करें।
मार्क्सवाद के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों को सामूहिक मानवीय श्रम द्वारा मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया ही मानव समाज के गठन का आधार है। भिन्न-भिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं में एक ही चीज़ है जो बिना किसी अपवाद सामान्य रूप से विद्यमान है और वह है उत्पाद में अन्तर्निहित संचित श्रम। अर्थात सामाजिक रूप से आवश्यक वह श्रम जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पदार्थ को विभिन्न चरणों में परिवर्तित कर अंततः उत्पाद के रूप में किसी मानवीय मांग की आपूर्ति करता है। मांग का उद्गम शारीरिक है या वैचारिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। समय के साथ-साथ मानव के संचित सामूहिक ज्ञान में इज़ाफा होता जाता है और इसके साथ ही बढ़ती जाती हैं उत्पादक शक्तियाँ। मानव समाज का सामूहिक ज्ञान और उत्पादक शक्तियां एक दूसरे की पूरक हैं और दोनों का निरंतर विकास प्रकृति का शाश्वत नियम है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही श्रम शक्ति की उत्पादकता भी बढ़ती जाती है।

उत्पादक शक्तियों के बढ़ने के साथ ही अस्तित्व में आया श्रम-विभाजन। जहां पहले जीवनोपयोगी सारे उत्पाद एक ही परिवार या समूह द्वारा पैदा किये जाते थे और समूह की न्यूनतम माँगों की आपूर्ति ही कर पाते थे वहीं अब एक परिवार एक ही उत्पाद बनाने लगा था पर उसकी मात्रा अनेकों परिवारों तथा समूहों की बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति करने में सक्षम थी। श्रम विभाजन के साथ ही अस्तित्व में आ गई विभिन्न उत्पादक-उपभो़क्ताओं के बीच उत्पादों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया। उस स्तर पर सामाजिक संरचना में हर व्यक्ति एक समय पर उपभोक्ता के रूप में था तो किसी और समय पर उत्पादक के रूप में। इस कारण आदान-प्रदान की प्रक्रिया में उत्पादों की तुलनात्मक मात्रा सहज और अनजाने ही उनमें निहित संचित श्रम के आधार पर तय हो जाती थी। सामाजिक रूप से मान्य आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया में उत्पादों की तुलना का मापदंड, उनमें अन्तर्निहित सामाजिक रूप से आवश्यक मानवीय श्रम, सामाजिक चेतना का अंग था और उसके लिए किसी अनुपयोगी भौतिक पदार्थ की ज़रूरत नहीं थी।
अगले चरण में उन्नत औज़ारों तथा यातायात के साधनों के कारण उत्पादन और आदान-प्रदान उस स्तर पर पहुँच गये जहाँ हर उत्पादक को हर उत्पाद की जरूरत नहीं थी और उत्पादक-उपभोक्ता के बीच सीधा संबंध संभव नहीं रह गया था। इसलिए आवश्यकता हुई एक बिचौलिए की जो उत्पादकों से उत्पाद लेकर उपभोक्ताओं तक पहुंचा सके और अपनी सेवाओं के बदले अपनी ज़रूरत के उत्पाद हासिल कर सके। उत्पादन-उपभोग की श्रंखला में न केवल कामगार का उत्पादक कार्य बल्कि उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुँचाने में लगने वाला बिचौलिये का कार्य भी, प्राकृतिक पदार्थों को मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया का ही एक चरण हो गया और कामगार के उत्पादक श्रम के साथ उसका श्रम भी उत्पाद में अन्तर्निहित संचित मानवीय श्रम का हिस्सा हो गया। अब मानव समाज के गठन का आधार उत्पादन-उपभोग की श्रंखला से बढ़ कर उत्पादन-वितरण-उपभोग की श्रंखला में बदल गया। जीवनोपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान का स्थान ले लिया उत्पादों के विनिमय ने।        
निरंतर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही बिचौलिये को निरंतर बढ़ती मात्रा में विविध प्रकार के ऐसे उत्पादों का विनिमय करना होता था जिनका उसके अपने लिये कोई उपयोग नहीं था इसलिए आवश्यकता थी सर्वमान्य एक ऐसे उत्पाद की जिसके बदले में सभी उत्पादों का आदान-प्रदान किया जा सके। अपने भौतिक गुणों के कारण सोने-चाँदी ने वह आवश्यकता पूरी की और उत्पादों के आपसी आदान-प्रदान का स्थान ले लिया क़ीमती धातुओं के माध्यम से होने वाले विनिमय ने।
  धीरे-धीरे सभी उत्पादों का विनिमय सोने-चाँदी के बदले में होने लगा। और उत्पादक, उपभोक्ता और  बिचौलिया सभी उत्पादों का उपयोगी मूल्य उनमें अंतर्निहित संचित मानवीय श्रम के रूप में न देख कर सोने-चांदी की मात्रा के रूप में देखने लगे। शनै-शनै सामाजिक चेतना में विनिमय मूल्य ही मूल्य का पर्याय बन गया।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ श्रमिक उससे कहीं अधिक मूल्य पैदा करने लगता है जितना उसके स्वयं के रख रखाव तथा निरंतरता के लिए आवश्यक उत्पादों का कुल मिलाकर होता है। दूसरे शब्दों में वह 'अतिरिक्त मूल्य' पैदा करने लगता है। सोने-चाँदी की निश्चित मात्रा के बदले में कामगार, उत्पादक के तौर पर बिचौलिये को जितना संचित-श्रम सौंपता है, अपभोक्ता के तौर पर उससे कम पाता है। अर्थात कामगार के लिए किसी भी उत्पाद का क्रय मूल्य उसके विक्रय मूल्य से अधिक होता है। इसके बिल्कुल उलट बिचौलिया कम क़ीमत पर ख़रीद कर उसी उत्पाद को अधिक क़ीमत पर बेचता है। बिचौलिये को होने वाली कमाई का संबंध उसके श्रम से न हो कर उसके द्वारा ख़रीदे और बेचे गये उत्पादों के मूल्य के अंतर से हो गया है। जितना ज़्यादा विनिमय उतनी ही अधिक कमाई।
उत्पादन-उपभोग की प्रक्रिया में श्रम विभाजन के आधार पर उत्पादक तथा बिचौलियों की मौजूदगी के वाबजूद, उत्पाद का वितरण आदान-प्रदान के आधार पर होने के कारण, अभी तक समाज आर्थिक हितों के आधार पर वर्गों में विभाजित नहीं था क्योंकि हर कोई किसी न किसी रूप में उत्पादक था। पर उत्पादों का वितरण विनिमय मूल्य के आधार पर होने के कारण बिचौलिये का हित उसके श्रम से असंबद्ध हो कर अतिरिक्त मूल्य से संबद्ध हो गया और अतिरिक्त मूल्य में उत्पादक तथा बिचौलिये के हित परस्पर विरोधी होने के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया, उत्पादक और बिचौलिया।
उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास सामाजिक-संरचना की प्रकृति है और जहाँ पहले कच्चे माल को उत्पाद में परिवर्तित करने की प्रक्रिया एक ही कामगार द्वारा पूरी की जाती थी वहीं अब पूरी प्रक्रिया अनेकों चरणों में बंट कर अनेकों कामगारों द्वारा पूरी की जाने लगी। कई चरणों में बंटी प्रक्रिया ने जहां प्रत्यक्ष रूप से कामगारों को विभाजित किया वहीं परोक्ष तौर पर पूरी उत्पादन क्रिया ने अवचेतन स्तर पर कामगारों को एक किया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ, श्रमिक, श्रम-विभाजन और यांत्रिक तथा स्वचलित मशीनों के प्रयोग के कारण, एक निश्चित श्रम-काल में, पहले के मुकाबले कहीं अधिक उत्पाद पैदा करने लगता है और हर उत्पाद में पहले के मुकाबले कम श्रम अंतर्निहित होने लगता है अर्थात उत्पादों का मूल्य कम होता जाता है।
 धीमे-धीमे उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में होने लगा कि उत्पादों का विनिमय समाज की भौगोलिक सीमाओं के पार अपरिहार्य हो गया। विस्तृत विनिमय ने क़बीलाई सीमाओं को तोड़ कर राज्यों के गठन का रास्ता खोल दिया। राज्यों के गठन के साथ क़बीलाई सत्ता का स्थान राजसत्ता ने ले लिया।
भौतिक उत्पाद होने के नाते सोना-चाँदी उपभोग की वस्तुएँ भी थीं और अलग-अलग क्षेत्रों में तकनीकी विकास का स्तर अलग-अलग होने के कारण उनका मूल्य भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होता था। विनिमय के क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार के कारण सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई के आधार पर होने वाले विनिमय में विसंगतियाँ पैदा होने लगीं। और विसंगतियों को दूर करने के लिए राज्य द्वारा प्रमाणित मानक इकाई अर्थात सिक्के या मुद्रा ने विनिमय के मानक के रूप में सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई का स्थान ले लिया। राज्य द्वारा प्रमाणित होने के कारण मुद्रा के भौतिक स्वरूप (अधिरचना) का प्रतिबिंब सामाजिक चेतना में मुद्रा के मूल्य (आंतरिक रचना) का पर्याय बनता चला गया और वास्तविक मूल्य उसके विनिमय मूल्य से असंबद्ध होता चला गया और अंततः सामाजिक रूप से स्वीकार्य मुद्रा के विनिमय मूल्य का सिक्कों में अंतर्निहित संचित श्रम अर्थात सोने-चाँदी की मात्रा से कोई संबंद्ध नहीं रह गया। अब विनिमय की मानक मुद्रा का रूपांतरण एक भौतिक उत्पाद की जगह सामाजिक-वैचारिक उत्पाद के रूप में हो गया। अब मुद्रा पर्याय हो गई सामाजिक रूप से मान्य इस आश्वासन की कि राजसत्ता के द्वारा सत्यापित मुद्रा के बदले में निश्चित मानवीय श्रम हासिल किया जा सकता है - पहले से किया जा चुका संचित श्रम, उत्पाद के रूप में, या भविष्य में श्रम-शक्ति द्वारा निर्धारित समय में किया जा सकने वाला श्रम, मज़ूरी के रूप में।
सामाजिक रूप से मान्य आश्वासन के साथ उत्पाद के मूल्य ने, उत्पाद के भौतिक स्वरूप अर्थात उसमें अंतर्निहित संचित-श्रम से पूरी तरह से असंबद्ध, सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। मुद्रा का भौतिक स्वरूप कुछ भी हो उसका स्वयं का, क़ीमत या विनिमय के मानक की इकाई के रूप में, मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक वस्तु है, राजसत्ता के आश्वासन का पर्याय। इसके साथ ही एक और नई परिस्थिति पैदा हुई। पहले मानवीय-श्रम मुद्रा के भौतिक अस्तित्व से संबद्ध था इस कारण बिचौलियों के पास संपत्ति के रूप में संचित मानवीय श्रम की सीमा थी और हेराफेरी की संभावना कम थी पर मानवीय-श्रम के, मुद्रा के राजसत्ता प्रदत्त आश्वासन के वैचारिक स्वरूप के साथ संबद्ध हो जाने के कारण हेराफेरी करना आसान हो गया था। पहले प्राकृतिक संपदा सामूहिक स्वामित्व में होने के कारण कामगार को सहज सुलभ थी और उत्पादन के औज़ार कामगार के स्वामित्व में थे इस कारण उत्पाद और उसमें अंतर्निहित अतिरिक्त मूल्य भी कामगार के आधिपत्य में रहता था पर अब बदली हुई परिस्थिति में बिचौलियों ने राजसत्ता की मदद से प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण करना शुरु कर दिया। इसके साथ ही संचित संपत्ति पर अधिकार के चलते उत्पादन के साधनों में विकास का सारा फ़ायदा भी बिचौलियों को ही मिलने लगा और पूरी उत्पादन-वितरण प्रक्रिया बिचौलियों के नियंत्रण में सिमटने लगी। बिचौलियों ने राजसत्ता के साथ मिलकर हेराफेरी करना और नये उन्नत उत्पादन के साधनों के ज़रिए सस्ते मूल्य पर उत्पादन करना शुरु कर दिया। फलस्वरूप पारंपरिक उत्पादन के साथ हस्तकारों का प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव हो गया। श्रम के औज़ारों के बिक जाने के बाद कामगार के पास अपना जीवन चलाने के लिए अपनी श्रम-शक्ति के अलावा बेचने लायक कुछ भी नहीं बचा था।
अब बाज़ार में एक ओर बिचौलिया था जिसके पास निजी संपत्ति के रूप में उत्पादन के सारे साधन हासिल थे पर उत्पादन करने के लिए आवश्यक श्रम-शक्ति नहीं थी, और दूसरी ओर था श्रमिक जिसके पास श्रम-शक्ति तो थी पर श्रम के साधन नहीं थे जिनके ज़रिए वह उत्पादन कर अपने लिए जीवन के साधन जुटा सकता। और यहीं से शुरुआत होती है श्रम की जगह श्रम-शक्ति की ख़रीद-फ़रोख़्त की और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की। अब कामगार उत्पादक न हो कर स्वयं उत्पाद बन गया। मार्क्स के पहले के सभी अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को पहचानने में नाकाम रहे। ग़ैर-मार्क्सवादी अभी भी नहीं समझ पाते हैं कि श्रमिक को दी जाने वाली मज़दूरी उसकी श्रम-शक्ति की एक निश्चित अवधि की क़ीमत होती है न कि उस अवधि में श्रम-शक्ति द्वारा उत्पाद में अंतरित किये गये श्रम के रूप में पैदा किये गये मूल्य की।
मार्क्सवाद के अनुसार मानव समाज एक जैविक संरचना है, अपने अवयवों से गुणात्मक रूप से भिन्न। एक सामाजिक-आर्थिक संरचना जिसके मानव रूपी अवयव जीवन निर्माण और निरंतरता की जैविक प्रकृति के कारण सामाजिक-आर्थिक क्रिया-कलापों के ज़रिए एक दूसरे जुड़े रहते हैं। यह जुड़ाव मूलत: वैचारिक है और इस कारण यह जैविक संरचना एक वैचारिक चेतना है जिसका अपना भौतिक स्वरूप कोई नहीं है पर भौतिक आधार मानवीय इकाइयाँ हैं जिनके सामूहिक व्यवहार के ज़रिए उसका प्रकटीकरण होता है। समाज की सामूहिक चेतना मानव की व्यक्तिगत चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न है। एक व्यक्ति अलग-अलग समय पर या एक ही समय पर, गुणात्मक रूप से भिन्न दो अलग-अलग सामाजिक चेतनाओं का वाहक हो सकता है। इस कारण आज भी एक ही राज्य की सीमाओं के अंदर तीनों विभिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी देखी जा सकती है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ होने के कारण सभी वामपंथी तथा ग़ैर-मार्क्सवादी समाज की संरचना को सही-सही समझ पाने में असमर्थ हैं।
 पूँजीवादी समाज एक विशिष्ठ सामाजिक-आर्थिक संरचना (Socio-economic Formation) है, और पूँजीवाद उसकी चेतना है। इस समाज की भौतिक-सामाजिक चेतना (Material-social Consciousness) का भौतिक आधार है संपदा और उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व में, ग़ैर-कामगारों के हाथों में होना, न केवल स्वामी के जीवनकाल में बल्कि मृत्यु के बाद भी वसीयत के अधिकार के रूप में। और जिसकी वैचारिक-सामाजिक चेतना (Ideological-social Consciousness) का आधार है उत्पादन संबंध, उद्यमी तथा सर्वहारा के बीच संबंध जो इस अवधारणा पर आधारित है कि उत्पादन प्रक्रिया की चालक शक्ति उद्यमी की इच्छा शक्ति है न कि श्रमिक की श्रम-शक्ति, और मज़दूर को दी जाने वाली मजूरी उसके श्रम की क़ीमत है न कि एक निश्चित कार्य-काल के लिए ख़रीदी गयी उसकी श्रम-शक्ति की। और इस कारण मज़दूर के द्वारा उत्पाद में जोड़े गये श्रम अर्थात उस के मूल्य में की गई वृद्धि पर मालिक का पूरा-पूरा हक़ है न कि श्रमिक का। इस कारण श्रमिक को उसकी श्रम-शक्ति का मूल्य चुकाने के बाद बचा हुआ अतिरिक्त मूल्य मुनाफ़े के रूप में पूँजी के लागत मूल्य में जुड़ जाता और संचित मूल्य के रूप में पूँजी के निरंतर इज़ाफ़े का आधार है़। इस सामाजिक-चेतना में निजी स्वामित्व की अवधारणा का मूर्त रूप है पूँजीपति और साधन-रहित श्रम-शक्ति का मूर्त रूप है सर्वहारा। पूँजीवाद की अंतर्वस्तु है पूँजीवादी उत्पादन-संबंध अर्थात उत्पादन प्रक्रिया में पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे में इच्छा-शक्ति तथा श्रम-शक्ति के बीच संबंध, यानि साधन-संपन्न निजी स्वामित्व की अवधारणा तथा साधन-वंचित श्रम-शक्ति के बीच अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन तथा बँटवारे में उनका अंतर्संबंध, और उसकी अधिरचना है राजसत्ता तथा वे सारे प्रतिष्ठान जो पूँजीवादी समाज को जीवन-शक्ति तथा निरंतरता प्रदान करते हैं। वामपंथियों की सारी नासमझी का कारण है अधिरचना को अंतर्वस्तु समझ लेना।
वामपंथियों की समझ की एक और बड़ी कमी है, वह है उनकी पूँजी के बारे में समझ। वे न पूँजी और संपत्ति के भेद को समझते हैं और न पूँजी की अंतर्वस्तु और अधिरचना में भेद कर पाते हैं। संपत्ति संचित श्रम की निष्क्रिय अवस्था है जो निष्क्रिय होने के कारण स्वत: वृद्धि में सक्षम नहीं है। पूँजी संचित-श्रम की सक्रिय अवस्था है जिस के अंतर्गत संचित-श्रम या मूल्य, उत्पाद के उत्पादन-उपभोग-चक्र की चालक शक्ति के रूप में, अपनी सक्रिय भूमिका के जरिए श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हासिल कर स्वयं की वृद्धि करता है।
उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पाद्य (Object of labour) तथा श्रम-साधन (Means of labour) में पहले से किया जा चुका संचित-श्रम उत्पाद में हस्तांतरित होता है जब कि श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया श्रम उत्पाद में अंतरित होता है। हस्तांतरण में लागत के रूप में मूल्य का एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर केवल स्थांतरण होता है, नया मूल्य पैदा नहीं होता है। लागत पूँजी श्रम-साधन से उत्पाद्य में हस्तान्तरित होती है, उस के मूल्य में कोई इज़ाफ़ा नहीं होता है। पर श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया मूल्य, श्रम-शक्ति ख़रीदने के लिए मजूरी के रूप में श्रमिक को भुगतान किये गये मूल्य से अधिक होता है और यही वह अतिरिक्त मूल्य है जो पूँजी के स्व-विस्तार का आधार है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मुनाफ़े के रूप में उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया में लगी पूँजी के विभिन्न रूपों के बीच बँटता है। इसी की बंदरबाँट के लिए विभिन्न पूँजीपति निरंतर संघर्षरत रहते हैं। बड़ा पूँजी समूह अपनी बड़ी ताक़त के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का बड़ा हिस्सा हड़प लेता है और इसी प्रक्रिया के ज़रिए पूँजी का विस्तार तथा एकत्रीकरण होता रहता है।
 जैसा ऊपर दर्शाया गया है राजसत्ता के आश्वासन के साथ उत्पादों के मूल्य ने पूरी तरह सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। पूँजी के एकत्रीकरण के साथ-साथ पूँजी के केंद्र, महाजन तथा बैंक स्वयं इतने शक्तिशाली हो गये कि उनके स्वयं के आश्वासनों ने राजसत्ता के आश्वासनों की भूमिका निभाना शुरु कर दिया। पूंजीवाद के शुरुआती दौर में पूंजी वितरण के क्षेत्र में ही सक्रिय थी इस कारण अतिरिक्त मूल्य पूरी तरह उसके आधिपत्य में नहीं था। पर श्रम-साधनों के विकास और सर्वहारा के प्रसार के साथ पूँजी ने उत्पादन के क्षेत्र पर भी अधिकार करना शुरु कर दिया। अब मूल्य के उत्पादन और वितरण दोनों पर अधिकार होने के साथ ही पूँजी ने समाज की वैचारिक-चेतना को भी अपने प्रभाव में ले लिया। समाज की वैचारिक-चेतना में वर्चस्व हासिल करने के साथ ही पूँजीवाद ने सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के पारंपरिक उत्पादन आधार तथा संबंधों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ पूंजी के लिए राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमायें बेमानी होने लगीं। आर्थिक गतिविधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप हासिल कर लेने के बाद राजसत्ता के आश्वासनों का स्थान महाजनों और बैंकों के आश्वासनों ने ले लिया और मूल्य के मूर्त रूप का स्थान महाजनों की हुंडियों और बैंकों की गारंटियों ने।
औद्योगिक विकास एक साथ अलग-अलग राज्यों में होने के साथ-साथ पूँजी के भी अलग-अलग केंद्र विकसित होने लगते हैं। शुरुआती दौर में पूँजीवाद को अपने विकास और सुरक्षा के लिए राज्य की भौतिक शक्ति की आवश्यकता थी और उसे राज्य की स्वायत्तता के अंतर्गत रहना पड़ता था। पूंजी के अलग-अलग केंद्रों की पहचान अपने-अपने राज्य के भौतिक अस्तित्व से की जाती थी। असमान विकास के कारण पूँजी के अलग-अलग केंद्रों के बीच संघर्ष राज्यों के बीच संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। पर अपनी उच्चतम अवस्था में पहुंचने पर पूंजी का चरित्र स्थानीय से हट कर वैश्विक हो जाता है, मूल्य के मानक राज्य के आश्वासन की जगह महाजनों तथा बैंकों के आश्वासन ले लेते हैं। बड़ी पूंजी का छोटी पूँजी के ऊपर प्रभुत्व, अपने भौतिक स्वरूप में बड़े साम्राज्यों के अपने उपनिवेशों के ऊपर वित्तीय तथा आर्थिक आधिपत्य के रूप में नज़र आता है।
अलग-अलग राज्यों में राजसत्ता समर्थित मुद्रा अभी भी उत्पादन-वितरण का माध्यम थी पर ब्रेटन-वुड्स समझौते के अंतर्गत मूल्य का मानक अमेरिकी डालर स्वीकार कर लिए जाने के बाद पूँजी के लिए अबाध अंतर्राष्ट्रीय गतिविधि का रास्ता भी साफ़ हो गया। अब पूँजी का वैश्विक स्वरूप पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक चेतना का हिस्सा हो गया था, उत्पादों के किसी भी भौतिक स्वरूप से पूरी तरह असंबद्ध, राजसत्ताओं द्वारा समर्थित मुद्रा से भी असंबद्ध। उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया का क्षेत्र वैश्विक हो जाने के कारण अब उत्पादन-वितरण-उपभोग प्रक्रिया की चालक-शक्ति के रूप में पूँजी का कार्यक्षेत्र पूरी तरह से दो भिन्न स्तरों में बंट गया है।
किसी भी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के अंदर विनिमय मूल्य का मानक मुद्रा ही है, और पूँजी का कार्य है उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया के संचालन के लिए उत्पादन के साधन और श्रम-शक्ति जुटाने के लिए आवश्यक संचित श्रम अर्थात मूल्य यानि मुद्रा की व्यवस्था करना।
 उत्पादक-शक्तियों के भौतिक स्वरूप के संचालन के लिए मूल्य के मूर्त रूप मुद्रा के प्रबंधन के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूँजी के कार्य का आयाम पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक-चेतना के दायरे में सीमित हो गया है, - विभिन्न राज्यों के बीच मूल्य के निर्बाध आवागमन के लिए मुद्रा की व्यवस्था और प्रबंधन करना, भौतिक स्तर पर न हो कर वैचारिक स्तर पर-, और इस प्रक्रिया में मुद्रा स्वयं एक विनिमय उत्पाद बन जाती है। श्रम-शक्ति द्वारा अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन एक राष्ट्र-राज्य की सीमा के अंदर ही किया जाता है पर उसका विनिमय और वितरण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है। इस कारण एकीकृत वित्तीय पूँजी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए अतिरिक्त-मूल्य को बटोरने लगती है। अब एकीकृत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की रुचि केवल मुद्रा के स्वामित्व में रह गई है। उत्पादन के भौतिक साधनों का स्वामित्व व्यापक स्तर पर शेयर तथा स्टॉक के रूप में आम जनता को सौंप कर, अब पूँजी की रुचि रह गई है व्यापक जनता की अवचेतना में निजी स्वामित्व के विचार को सुदृढ़ कर पूँजीवादी वैचारिक-सामाजिक-चेतना का आधार पुख़्ता करना ताकि अतिरिक्त मूल्य का विनियमन तथा पूँजी के साथ विलय सहज सुचारू चलता रहे।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था उस स्तर पर पहुँच चुकी है जहां एक उत्पादन केंद्र लाखों करोड़ों उपभोक्ताओं की मांग की आपूर्ति करता है और इस कारण ज़रूरी है कि वितरण व्यवस्था भी उसी स्तर तक विकसित तथा केंद्रीकृत हो। जहाँ पहले कुछ एक ग्राहकों की रोज़ाना की ज़रूरतों की आपूर्ति छोटी-छोटी दुकानों के ज़रिये पूरी की जाती थी वहीं अब उपभोक्ता चाहता है कि उसकी सभी ज़रूरतों की आपूर्ति एक ही माॅल या स्टोर के ज़रिए हो जाय।। मल्टी ब्रांड का खुदरा वितरण एक बड़े स्टोर या माॅल द्वारा करने पर बिचौलिए तथा उपभोक्ता दोनों के श्रम तथा समय दोनों की बचत होती है इससे वितरण प्रक्रिया में उत्पाद में जुड़ने वाले मूल्य में कटौती होती है। ज़ाहिर है छोटे दुकानदार के ज़रिए उपभोक्ता तक पहुं़चने वाले उत्पाद के मुक़ाबले बड़े स्टोर या माॅल के ज़रिए पहुँचने वाले उत्पाद का मूल्य कम होता है । साथ ही गुणवत्ता की आश्वस्तता के कारण तथा अपने स्वयं के समय तथा श्रम की बचत के कारण ग्राहक अधिक क़ीमत देने के लिए भी तैयार रहता है। उस स्तर की वितरण व्यवस्था की स्थापना, विशाल पूँजी निवेश तथा विकसित वितरण व्यवस्था के विशिष्ट तकनीकी ज्ञान के बिना असंभव है।
ज़ाहिर है मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना विकसित होती भारतीय अर्थव्यवस्था, विशाल बाज़ार तथा उपभोक्ता की आकाँक्षा के पूरी तरह अनुकूल है। पूंजी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर हासिल कर लेने के बाद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि खुदरा व्यापार में निवेशित पूँजी का नियंत्रण करने वाला संस्थान देश में स्थित है या देश के बाहर स्थित है। उपभोक्ता तो हर कोई है और उनकी तुलना में छोटे बिचौलियों की संख्या नगण्य है। इस कारण मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना का किसी भी रूप में विरोध जन आकांक्षाओं के विरुद्ध होने के कारण असफल होने के लिए अभिशप्त है।
बड़े स्तर की वितरण व्यवस्था के मुकाबले में प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए छोटे दुकानदार के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपना जीवन स्तर घटाये और इसके ज़रिए वितरण में लगने वाली अपनी श्रम-शक्ति का तथा अपने श्रम का मूल्य घटाये। वह अपनी निम्न-मध्य वर्गीय मानसिकता के कारण 14 घंटे रोज़ ख़र्च की गई अपनी श्रम-शक्ति तथा माल की ढुलाई में ख़र्च किये गये अपने श्रम के सही मूल्याँकन से अनजान, बड़ी पूंजी की संघठित वितरण व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा में, निरंतर अपने जीवन स्तर को घटा कर ही टिका रह पाता है।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी ने छोटे दुकानदार को भी, अपनी निम्न-मध्य-वर्गीय मानसिकता के बावजूद, सर्वहारा के समकक्ष खड़ा कर दिया है। निम्नतम स्तर पर भी अपने संस्थान के निजी स्वामित्व की अवधारणा के कारण छोटा दुकानदार निम्न मध्य-वर्गीय मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पाता है और अनजाने ही पूँजीवादी चेतना का वाहक बना रहता है। सर्वहारा वर्ग का दायित्व है कि वह छोटे दुकानदार को समझाये कि उसके अपने हित में है कि वह पूँजीवादी नज़रिये को छोड़ कर सर्वहारा के नजरिये को अपनाये क्योंकि यही मानव समाज के हित में है। और इस रूप में मार्क्सवादियों को मल्टी-ब्रांड उत्पाद के खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का समर्थन करना चाहिये ताकि भौतिक परिस्थितियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को बेनक़ाब कर सर्वहारा वर्ग की एकजुटता को मज़बूत कर सकें।

सुरेश श्रीवास्तव
जनवरी, 2013


No comments:

Post a Comment