भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र - एक मार्क्सवादी नजर से
(आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने यक्ष प्रश्न है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र की सही पहचान और उसके संदर्भ में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा का सही-सही विश्लेषण करना। हाल ही में अनेकों युवा साथियों ने मुझसे भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में मेरे विचार जानने का आग्रह किया है। मैं संबंधित विषयों पर लेख लिखता रहा हूँ जो marx-darshan.blogspot.com पर भी पोस्ट किये गये हैं। युवा साथियों के आग्रह पर एक बार फिर अपने विचार इस विषय पर समेटने का प्रयास कर रहा हूँ। सुरेश श्रीवास्तव )
मार्क्सवाद समाज की पहचान एक जीवंत वैचारिक संरचना के रूप में करता है जो मानवीय चेतना में बसती है, जिसका अपना कोई स्वतंत्र भौतिक जैविक अस्तित्व नहीं होता है पर जो चेतना के रूप में पूरी तरह स्वायत्त है। मानव जीवन का आधार है प्रकृति प्रदत्त पदार्थ को व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा उपयोगी पदार्थ में बदलना। समाज के अस्तित्व का आधार है, मानवों का अपने हितों की पूर्ति के लिए एकजुट होना। मानवीय चेतना दो स्तर पर कार्य करती है - अनभिज्ञ तथा सजग। अस्तित्व तथा जीवन से संबंधित प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरणा स्वत: होती है और उनसे संबंधित विचार अनभिज्ञ स्तर पर कार्य करते हैं, पर सामाजिक परिवेश से उपजी आवश्यकताएं सजग स्तर पर होती हैं और उनसे संबंधित विचार सजग स्तर पर कार्य करते हैं, इस कारण मार्क्सवाद समाज को 'सामाजिक-आर्थिक संरचना' के रूप में परिभाषित करता है जिसमें 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अंतर्वस्तु है और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' अधिरचना है। किसी भी समाज की अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' का आधार उत्पादन व्यवस्था, अर्थात उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन संबंध, होते हैं और उसी आधार पर उसका निर्माण होता है। इसी तरह अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' के आधार पर सजग 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' का निर्माण होता है। ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए किये जाने वाले सजग प्रयास इसी 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' द्वारा किये जाते हैं। 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अनजाने ही 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है, और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' सजग कर्म द्वारा 'भौतिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है। यही सामाजिक-चेतना की अंतर्वस्तु और उसकी अधिरचना के बीच का द्वंद्वात्मक संबंध है।
वर्ग विभाजित समाज में विभिन्न वर्गों द्वारा, अपने वर्ग हितों को साधने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का ही हिस्सा होती है राजनीति। इसलिए वर्ग विभाजित समाज का सही विश्लेषण करने और उसमें वांछित हस्तक्षेप कर सकने के लिए आवश्यक है कि समाज की आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थिति का समुच्चित एकीकृत विश्लेषण किया जाय। आज सूचना और संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि विचारों के प्रचार प्रसार में भौगोलिक सीमाएँ बेमानी हो गयी हैं। उत्पादन तथा वाणिज्य में, वैचारिक उत्पादों की भागीदारी बढ़ गयी है। इन सभी चीजों को नज़रअंदाज़ करके किया गया विश्लेषण या हस्तक्षेप वांछित नतीजे नहीं दे सकता है।
भारत राजनैतिक रूप से एक राष्ट्र, एक राज्य है पर, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से अनेकों राष्ट्रों का गठजोड़ है इस कारण भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण करते समय आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्थाओं की विविधता का ध्यान रखना आवश्यक है।
देश में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियां लगभग पूरी तरह सामंती या पारंपरिक है। पूंजीवादी व्यवस्था कृषि क्षेत्र में लगभग नदारद है। औद्योगिक उत्पादन में कुछ क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियाँ विश्व स्तर की पूँजीवादी हैं पर एक बड़े क्षेत्र में अभी भी सामंती तथा मध्य स्तरीय हैं। आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है जहाँ अत्पादक शक्तियाँ आदिकालीन है। भारत में पूँजी का केंद्रीकरण भी विश्वस्तरीय है और व्यापार भी विश्व व्यापार का हिस्सा है। भारत में औद्योगिक कामगारों का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है और संगठित क्षेत्र का कामगार भी राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं है। इस कारण संघर्ष शोषकों तथा शोषितों के बीच न होकर, शोषकों के बीच आपस में, मुख्य रूप से सामंतवाद और पूँजीवाद के बीच ही है। प्राकृतिक नियम के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर होना आवश्यक है और भारतीय केंद्रित पूंजी, वैश्विक पूंजी की भागीदार बन चुकी है, इस कारण राजसत्ता का झुकाव वैश्वीकरण तथा पूँजीवाद की ओर ही होगा। अर्थव्यवस्था, पूँजीवाद के आधार पर, उत्पादक शक्तियों के विकास की ओर खिसकेगी, धीमे-धीमे जब विरोधी शक्तियाँ ताक़तवर होंगीं और तेज़ रफ़्तार से जब विरोधी शक्तियाँ कमज़ोर होंगीं।
राजनीति के क्षेत्र में समाज मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित है, सामंत, पूँजीपति, कामगार तथा मध्यवर्ग। कामगार भी किसान, सर्वहारा तथा असंगठित मज़दूर के बीच बँटे हैं। मध्यवर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुसार वर्ग संघर्ष में हमेशा कमज़ोर पक्ष के साथ खड़ा होता है और जब कमज़ोर पक्ष मज़बूत होने लगता है तब पाला बदल कर दूसरे पक्ष के साथ खड़ा हो जाता है। कभी-कभी, संतुलन की स्थिति में, मध्यवर्ग स्वतंत्र रूप से संघर्ष का निर्णायक वर्ग नजर आयेगा, पर असंतुलन की स्थिति आते ही कमज़ोर वर्ग के साथ खड़ा हो जायेगा। मज़दूर वर्ग का नेतृत्व हमेशा मध्यवर्ग से आये लोगों के हाथों में होता है और जब तक मजदूरवर्ग राजनैतिक रूप से जागरूक होकर अपने आपको संगठित करने की स्थिति में नहीं हो जाता है वह मध्यवर्ग का ही पिछलग्गू बना रहता है।
भारत के राजनैतिक पटल पर मुख्य लड़ाई सामंतवाद तथा पूँजीवाद के बीच है और मध्यवर्ग दोनों मुख्य पक्षों के बीच पाला बदलता रहता है। कामगार जब तक जागरूक नहीं हो जाता है, भ्रम की स्थिति में ही रहेगा। बिना किसी स्पष्ट विभाजन और संगठन के, किसान सामंतवर्ग के पीछे चलेगा, मज़दूरवर्ग पूँजीपति वर्ग के पीछे चलेगा और सर्वहारावर्ग मध्यवर्ग के पीछे चलेगा।
इस प्रकार भारतीय राष्ट्र-राज्य आर्थिक रूप से मिश्रित सामंतवादी निम्न पूँजीवादी है, सामाजिक रूप से सामंतवादी है और राजनैतिक रूप से बुर्जुआ जनवादी है।
150 साल पहले एंगेल्स ने समझाया था कि राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के लगभग सभी राष्ट्र-राज्यों में जनवादी सत्तायें स्थापित हो चुकी हैं, विकसित या अविकसित सभी तरह की अर्थव्यवस्थाओं के बावजूद। गुरिल्ला युद्ध या जनयुद्ध आज के दौर में प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। एंगेल्स ने समझाया था, " और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।"
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।' दुर्भाग्यवश, 95 साल पहले 1920 में ताशकंद में बैठकर, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ के साथ, कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर, भारतीय मज़दूर आंदोलन को जिस दलदल में धकेल दिया था उससे वह आज तक नहीं निकल पाया है।
इतिहास गवाह है, कि जब-जब जन आंदोलन निर्णायक दौर में पहुँचने को हुए हैं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने पैर पीछे खींचकर प्रतिक्रांतिकारी ताक़तों को शक्ति पहुँचायी है। अब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ के कारण मज़दूर वर्ग को इतना जागरूक नहीं कर पाया है कि वह राजनैतिक पटल पर अपने आप को विकल्प के रूप में पेश कर सके। नई पीढ़ी को चाहिए कि वह लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’ को याद रखे और जहाँ भी जिस किसी भी पार्टी या मंच पर सक्रिय हो, मार्क्सवाद की सही समझ स्वयं हासिल करे तथा औरों को हासिल करने में मदद करे। परिपक्व होने पर मज़दूर वर्ग को स्वयं समझ आ जायेगा कि उसे क्या करना है।
नोएडा,
12 अक्टूबर 2015
(आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने यक्ष प्रश्न है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र की सही पहचान और उसके संदर्भ में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा का सही-सही विश्लेषण करना। हाल ही में अनेकों युवा साथियों ने मुझसे भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में मेरे विचार जानने का आग्रह किया है। मैं संबंधित विषयों पर लेख लिखता रहा हूँ जो marx-darshan.blogspot.com पर भी पोस्ट किये गये हैं। युवा साथियों के आग्रह पर एक बार फिर अपने विचार इस विषय पर समेटने का प्रयास कर रहा हूँ। सुरेश श्रीवास्तव )
मार्क्सवाद समाज की पहचान एक जीवंत वैचारिक संरचना के रूप में करता है जो मानवीय चेतना में बसती है, जिसका अपना कोई स्वतंत्र भौतिक जैविक अस्तित्व नहीं होता है पर जो चेतना के रूप में पूरी तरह स्वायत्त है। मानव जीवन का आधार है प्रकृति प्रदत्त पदार्थ को व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा उपयोगी पदार्थ में बदलना। समाज के अस्तित्व का आधार है, मानवों का अपने हितों की पूर्ति के लिए एकजुट होना। मानवीय चेतना दो स्तर पर कार्य करती है - अनभिज्ञ तथा सजग। अस्तित्व तथा जीवन से संबंधित प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरणा स्वत: होती है और उनसे संबंधित विचार अनभिज्ञ स्तर पर कार्य करते हैं, पर सामाजिक परिवेश से उपजी आवश्यकताएं सजग स्तर पर होती हैं और उनसे संबंधित विचार सजग स्तर पर कार्य करते हैं, इस कारण मार्क्सवाद समाज को 'सामाजिक-आर्थिक संरचना' के रूप में परिभाषित करता है जिसमें 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अंतर्वस्तु है और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' अधिरचना है। किसी भी समाज की अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' का आधार उत्पादन व्यवस्था, अर्थात उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन संबंध, होते हैं और उसी आधार पर उसका निर्माण होता है। इसी तरह अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' के आधार पर सजग 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' का निर्माण होता है। ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए किये जाने वाले सजग प्रयास इसी 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' द्वारा किये जाते हैं। 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अनजाने ही 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है, और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' सजग कर्म द्वारा 'भौतिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है। यही सामाजिक-चेतना की अंतर्वस्तु और उसकी अधिरचना के बीच का द्वंद्वात्मक संबंध है।
वर्ग विभाजित समाज में विभिन्न वर्गों द्वारा, अपने वर्ग हितों को साधने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का ही हिस्सा होती है राजनीति। इसलिए वर्ग विभाजित समाज का सही विश्लेषण करने और उसमें वांछित हस्तक्षेप कर सकने के लिए आवश्यक है कि समाज की आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थिति का समुच्चित एकीकृत विश्लेषण किया जाय। आज सूचना और संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि विचारों के प्रचार प्रसार में भौगोलिक सीमाएँ बेमानी हो गयी हैं। उत्पादन तथा वाणिज्य में, वैचारिक उत्पादों की भागीदारी बढ़ गयी है। इन सभी चीजों को नज़रअंदाज़ करके किया गया विश्लेषण या हस्तक्षेप वांछित नतीजे नहीं दे सकता है।
भारत राजनैतिक रूप से एक राष्ट्र, एक राज्य है पर, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से अनेकों राष्ट्रों का गठजोड़ है इस कारण भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण करते समय आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्थाओं की विविधता का ध्यान रखना आवश्यक है।
देश में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियां लगभग पूरी तरह सामंती या पारंपरिक है। पूंजीवादी व्यवस्था कृषि क्षेत्र में लगभग नदारद है। औद्योगिक उत्पादन में कुछ क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियाँ विश्व स्तर की पूँजीवादी हैं पर एक बड़े क्षेत्र में अभी भी सामंती तथा मध्य स्तरीय हैं। आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है जहाँ अत्पादक शक्तियाँ आदिकालीन है। भारत में पूँजी का केंद्रीकरण भी विश्वस्तरीय है और व्यापार भी विश्व व्यापार का हिस्सा है। भारत में औद्योगिक कामगारों का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है और संगठित क्षेत्र का कामगार भी राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं है। इस कारण संघर्ष शोषकों तथा शोषितों के बीच न होकर, शोषकों के बीच आपस में, मुख्य रूप से सामंतवाद और पूँजीवाद के बीच ही है। प्राकृतिक नियम के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर होना आवश्यक है और भारतीय केंद्रित पूंजी, वैश्विक पूंजी की भागीदार बन चुकी है, इस कारण राजसत्ता का झुकाव वैश्वीकरण तथा पूँजीवाद की ओर ही होगा। अर्थव्यवस्था, पूँजीवाद के आधार पर, उत्पादक शक्तियों के विकास की ओर खिसकेगी, धीमे-धीमे जब विरोधी शक्तियाँ ताक़तवर होंगीं और तेज़ रफ़्तार से जब विरोधी शक्तियाँ कमज़ोर होंगीं।
राजनीति के क्षेत्र में समाज मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित है, सामंत, पूँजीपति, कामगार तथा मध्यवर्ग। कामगार भी किसान, सर्वहारा तथा असंगठित मज़दूर के बीच बँटे हैं। मध्यवर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुसार वर्ग संघर्ष में हमेशा कमज़ोर पक्ष के साथ खड़ा होता है और जब कमज़ोर पक्ष मज़बूत होने लगता है तब पाला बदल कर दूसरे पक्ष के साथ खड़ा हो जाता है। कभी-कभी, संतुलन की स्थिति में, मध्यवर्ग स्वतंत्र रूप से संघर्ष का निर्णायक वर्ग नजर आयेगा, पर असंतुलन की स्थिति आते ही कमज़ोर वर्ग के साथ खड़ा हो जायेगा। मज़दूर वर्ग का नेतृत्व हमेशा मध्यवर्ग से आये लोगों के हाथों में होता है और जब तक मजदूरवर्ग राजनैतिक रूप से जागरूक होकर अपने आपको संगठित करने की स्थिति में नहीं हो जाता है वह मध्यवर्ग का ही पिछलग्गू बना रहता है।
भारत के राजनैतिक पटल पर मुख्य लड़ाई सामंतवाद तथा पूँजीवाद के बीच है और मध्यवर्ग दोनों मुख्य पक्षों के बीच पाला बदलता रहता है। कामगार जब तक जागरूक नहीं हो जाता है, भ्रम की स्थिति में ही रहेगा। बिना किसी स्पष्ट विभाजन और संगठन के, किसान सामंतवर्ग के पीछे चलेगा, मज़दूरवर्ग पूँजीपति वर्ग के पीछे चलेगा और सर्वहारावर्ग मध्यवर्ग के पीछे चलेगा।
इस प्रकार भारतीय राष्ट्र-राज्य आर्थिक रूप से मिश्रित सामंतवादी निम्न पूँजीवादी है, सामाजिक रूप से सामंतवादी है और राजनैतिक रूप से बुर्जुआ जनवादी है।
150 साल पहले एंगेल्स ने समझाया था कि राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के लगभग सभी राष्ट्र-राज्यों में जनवादी सत्तायें स्थापित हो चुकी हैं, विकसित या अविकसित सभी तरह की अर्थव्यवस्थाओं के बावजूद। गुरिल्ला युद्ध या जनयुद्ध आज के दौर में प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। एंगेल्स ने समझाया था, " और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।"
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।' दुर्भाग्यवश, 95 साल पहले 1920 में ताशकंद में बैठकर, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ के साथ, कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर, भारतीय मज़दूर आंदोलन को जिस दलदल में धकेल दिया था उससे वह आज तक नहीं निकल पाया है।
इतिहास गवाह है, कि जब-जब जन आंदोलन निर्णायक दौर में पहुँचने को हुए हैं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने पैर पीछे खींचकर प्रतिक्रांतिकारी ताक़तों को शक्ति पहुँचायी है। अब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ के कारण मज़दूर वर्ग को इतना जागरूक नहीं कर पाया है कि वह राजनैतिक पटल पर अपने आप को विकल्प के रूप में पेश कर सके। नई पीढ़ी को चाहिए कि वह लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’ को याद रखे और जहाँ भी जिस किसी भी पार्टी या मंच पर सक्रिय हो, मार्क्सवाद की सही समझ स्वयं हासिल करे तथा औरों को हासिल करने में मदद करे। परिपक्व होने पर मज़दूर वर्ग को स्वयं समझ आ जायेगा कि उसे क्या करना है।
नोएडा,
12 अक्टूबर 2015
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