Saturday, 10 October 2015

मानव और मानव-समाज का द्वंद्व

मानव और मानव-समाज का द्वंद्व
(पिछले कुछ सालों से नई पीढ़ी में नये विकल्प के तलाश की छटपटाहट साफ़ देखी जा सकती है। विकल्प की तलाश में पूँजीवाद, समाजवाद, शोषण, समावेशी विकास, अतिरिक्त मूल्य जैसे शब्द बहस के बीच में आते रहते हैं पर उन्हें न कोई समझना चाहता है और न समझाना चाहता है। इन मूलभूत कोटियों को समझे बिना, न तो समस्या के कारणों को समझा जा सकता है और न समस्या का निदान किया जा सकता है। कुछ युवा साथियों के आग्रह पर यह लेख इस उद्देश्य से लिखा जा रहा है कि शायद धुँध साफ़ करने में कुछ मदद मिले। पाठकों की आलोचनात्मक प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।)
'अंतर्वस्तु' (Content), किसी वस्तु का संपूर्ण अस्तित्व के रूप में गुण निर्धारित करती है, और 'अधिरचना' (Form) उस वस्तु को उसके परिवेश से अलग पहचान देती है। वस्तु का अपने परिवेश के साथ सूचना का आदान प्रदान अधिरचना के माध्यम से होता है, पर सूचना का उपयोग किस रूप में किया जायेगा इसका निर्धारण अंतर्वस्तु और अधिरचना अर्थात संपूर्ण वस्तु के हित के अनुसार अंतर्वस्तु के द्वारा किया जाता है। इसको इस प्रकार समझ सकते हैं कि अंतर्वस्तु और अधिरचना एक दूसरे को प्रभावित करते हैं अर्थात उनके बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है, और वस्तु और परिवेश एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, यह वस्तु का अपने परिवेश के साथ द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यह प्रकृति की शाश्वत संबंध श्रंखला है अर्थात सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर और विशालतम से विशालतम स्तर पर हम यही संबंध पाते हैं।
मानव की अंतर्वस्तु है उसकी 'चेतना' (consciousness) अर्थात जैविक प्रक्रिया तथा अधिरचना है उसका 'अस्तित्व' (Being) अर्थात शरीर। शरीर का अस्तित्व भौतिक है इसलिए उसे समझ पाना आसान है पर चेतना, मानव मस्तिष्क तथा शरीर के अंदर होने वाली सभी प्रक्रियाओं का समुच्चय है, उसे केवल प्रज्ञा या तर्कशक्ति द्वारा ही समझा जा सकता है और इसीलिए उसको समझना इतना आसान नहीं है, पर प्रयास करने पर इतना कठिन भी नहीं है। चेतना तथा अस्तित्व का द्वंद्वात्मक संबंध इस रूप में है कि चेतना शरीर के अंगों को प्रभावित तथा नियंत्रित करती है और अस्तित्व बाहरी प्रकृति के साथ व्यवहार के जरिए आवश्यक जीवनदायक पदार्थ हासिल कर मानव के जीवन को सुनिश्चित करता है। बाहरी प्रकृति के साथ किये जाने वाले काम के दौरान बाहरी प्रकृति शरीर के अंगों तथा इंद्रियों के द्वारा, चेतना तथा अस्तित्व दोनों को प्रभावित करती है। जीवन से मरण तक इसी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के साथ मनुष्य की विकास प्रक्रिया चलती रहती है।
मानव मस्तिष्क अन्य जानवरों से एक और आयाम में पूरी तरह भिन्न है जिसके कारण मानवीय मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाएँ अन्य जीवों में होने वाली अनैच्छिक मस्तिष्क प्रक्रिया से गुणात्मक रूप से भिन्न होती हैं। अन्य जानवर अपने वातावरण से जो पदार्थ और सूचना ग्रहण करते हैं उसको उसी रूप में इस्तेमाल कर पाते हैं जिस रूप में परिवेश उन्हें हासिल कराता है। पर मानव मस्तिष्क तर्कबुद्धि के आधार पर न केवल यह तय कर पाता है कि कौन सा पदार्थ या सूचना और किस रूप में,उन्हें हासिल करना है, बल्कि हासिल पदार्थ तथा सूचना को किस प्रकार इस्तेमाल करना है, यह भी तय कर पाता है। तर्कबुद्धि, हासिल सूचना के आधार पर न केवल एक बिल्कुल नई परिस्थिति की अमूर्त कल्पना कर सकती है, बल्कि शरीर की उत्पादन शक्ति के द्वारा उसके मूर्त रूप का निर्माण भी कर सकती है। भाषा, विज्ञान और उद्यम के द्वारा मानव ने सभ्यता के पिछले दस हज़ार सालों में इस पृथ्वी पर जो कुछ बदलाव किया है, उसकी न तो किसी और जीव द्वारा कल्पना की जा सकती थी और न ही किसी और जीव द्वारा उसे मूर्त रूप दिया जा सकता था। मानव और प्रकृति के बीच यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
पर जिस क्षमता के आधार पर, मानव, सभ्यता के पिछले दस हज़ार साल में यह सब हासिल कर सका है, उस क्षमता को विकसित होने में पैंतीस लाख साल का लंबा समय लग गया था। मानव प्रजाति से संबंधित अल्पकालिक दस हज़ार साल में होने वाला विकास, चारों ओर आश्चर्य चकित कर देने वाली अनगिनत मानव निर्मित संरचनाओं के रूप में नजर आता है, पर पैंतीस लाख साल के लंबे अंतराल में ऐसा क्या कुछ हो रहा था जो नजर नहीं आता है। पैंतीस लाख के लंबे अंतराल में, भौतिक रूप से मानव की जैविक संरचना में वे बदलाव हो रहे थे जिन्होंने आगे जाकर, पृथ्वी पटल पर, मानव से एक पायदान ऊपर, एक नई जैविक संरचना के जन्म के लिए आधार प्रदान किया और जिस संरचना के बिना पिछले दस हज़ार साल में मानव प्रजाति द्वारा वह सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता था।
मानवीय संरचना में होने वाले इन बदलावों को हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं, अंगों तथा इंद्रियों से संबंधित और मस्तिष्क से संबंधित। अंगों तथा इंद्रियों की रचनाओं में होने वाले इन बदलावों के कारण मानव की अनेकों क्षमताएँ, अन्य जानवरों की क्षमताओं से गुणात्मक रूप से भिन्न हो गयी हैं। इन क्षमताओं में सीधा खड़ा होना, हाथ-पैर तथा उँगलियों की चपलता, सभी इंद्रियों की क्षमता का विस्तार, चेहरे की त्वचा तथा माँसपेशियों की तरह-तरह की भाव-भंगिमा दर्शाने की क्षमता, स्वर तंत्र की अनेकों प्रकार की स्प्ष्ट ध्वनियाँ उत्पन्न करने की क्षमता और हर तरह के शाकाहारी तथा मांसाहारी भोजनों को पचा सकने की क्षमता प्रमुख हैं।
स्नायविक कोशिकाओं की भिन्न रचना तथा मस्तिष्क के अंदर उनका विशिष्ट विन्यास, मनुष्य के मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रियाओं को अन्य जीवों के मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रियाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न बनाता है। मानसिक प्रक्रिया, मूलत:, स्नायविक कोशिकाओं के बीच विद्युत संकेतों तथा रासायनिक अणुओं के आदान-प्रदान के रूप में होने वाला, सूचना का आदान-प्रदान है। अनेकों संकेतों के क्लिष्ट संयोजन से सूचना का निर्माण, तथा अनेकों सूचनाओं के संयोजन से विचारों का निर्माण होता है। अपनी विशिष्ट संरचना के कारण मानव मस्तिष्क, गुणात्मक रूप से भिन्न तीन अवयवों के संयोजन के साथ काम करता है और इस संयोजित प्रक्रिया, जिसे बुद्धि कहा जाता है, की क्षमता में निरंतर वृद्धि होती रहती है। अन्य जानवरों में तो तीनों अवयव या तो अलग-अलग मौजूद नहीं होते हैं या उनकी क्षमता अत्याधिक निम्न स्तर पर होती है।
बुद्धि के तीन अवयव सजग बुद्धि, अनभिज्ञ बुद्धि तथा तर्कबुद्धि स्वतंत्र रूप से भी काम करते हैं और साथ-साथ सामूहिक रूप से भी। चेतना के एक आयाम के रूप में बुद्धि अधिरचना है तो उसके तीनों अवयव अंतर्वस्तु हैं। मनुष्य की संपूर्ण वैचारिक प्रक्रिया में तर्कबुद्धि नियंत्रक का काम करती है, अनभिज्ञ बुद्धि भंडारण या पूर्वाग्रह या संस्कार का काम करती है और सजग बुद्धि नवनिर्माण या कल्पना का काम करती है। पर इनके बीच इतनी स्पष्ट विभाजन रेखा भी नहीं होती है और भूमिका में बदलाव होता रहता है। मनुष्य की बुद्धि और चेतना का यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
पूरी तरह विकसित शारीरिक तथा मानसिक संरचना के कारण मनुष्य को जो सबसे महत्वपूर्ण क्षमता हासिल हुई है वह है एक मस्तिष्क में मौजूद विचारों को अंगों तथा इंद्रियों द्वारा सटीक सूचना में परिवर्तित कर लेना और सूचना को इंद्रियों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचा कर विचारों में परिवर्तित कर लेना। इस क्षमता के कारण एक व्यक्ति न केवल अपने शरीर के अंगों पर नियंत्रण कर सकता है बल्कि दूसरे शरीर के अंगों पर भी नियंत्रण कर सकता है। इस क्षमता का उच्चतम स्तर है भाषा। हज़ारों साल के अंतराल में जब यह क्षमता विकसित हो रही थी, विचारों के आदान-प्रदान के आधार पर एक और नई संरचना जन्म ले रही थी - समाज।
समाज एक जैविक संरचना है जिसका स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है, जिसका अपना कोई भौतिक आधार नहीं होता है और जो हज़ारों लाखों मस्तिष्कों की वैचारिक प्रक्रिया का ही इस्तेमाल करती है, उन हज़ारों लाखों लोगों के अनजाने। समाज की अपनी स्वायत्त चेतना होती है जिस पर उन व्यक्तियों का व्यक्तिगत रूप से कोई नियंत्रण नहीं होता है जिनकी व्यक्तिगत चेतना का इस्तेमाल समाज करता है। इस कारण सामाजिक चेतना को व्यक्तिगत दृष्टि से देखना अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है। व्यक्ति और समाज के द्वंद्वात्मक संबंध को समझे बिना, समाजवाद, पूँजीवाद, मूल्य, मुद्रा, जैसी कोटियों, जो पूरी तरह वैचारिक सामाजिक उत्पाद हैं, को समझना असंभव है।
 
सुरेश श्रीवास्तव
10 अक्टूबर, 2015

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