Saturday, 4 June 2016

सुधी साथियों से निवेदन

सुधी साथियों से निवेदन

दो सप्ताह पहले (20 मई 2016) मैंने सोसायटी फ़ॉर साइंस के फेसबुक ग्रुप पर एक अपील पोस्ट की थी जिसमें मैंने सोसायटी के सीमित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सदस्यों की प्रतिक्रियाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए, उनसे आग्रह किया था कि वे अपनी प्रतिक्रिया अवश्य व्यक्त करें, क्योंकि द्वंद्वात्मक विकास के नियम के अनुसार, यह उनकी अपनी तथा साथियों की मार्क्सवादी समझ विकसित करने के लिए अपरिहार्य है। पर उनकी रचनात्मक टिप्पणियाँ तो दूर, अब तो उनके लाइक भी नजर नहीं आते हैं, यहाँ तक कि उन्होंने मेरी पोस्ट्स को देखना भी बंद कर दिया है। जाहिर है उन्हें मेरी पोस्ट्स में कोई रुचि नहीं है। पर इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। उनकी प्रतिक्रिया आना या न आना केवल मेरी टिप्पणियों के रुचिकर होने या न होने पर ही निर्भर नहीं करता है, बल्कि उनकी अपनी रुचि के होने न होने पर भी निर्भर करता है। किसी टिप्पणी के न आने पर, यह स्वाभाविक ही है कि मैं यह मान कर चलूँ कि वे ग्रुप के उद्देश्य तथा गतिविधियों को, अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किसी भी रूप में उपयोगी नहीं मानते हैं। मुझे इसमें कोई अचरज नहीं है, तथा मेरे द्वारा ऐसा मानने का पर्याप्त कारण भी है।

व्यक्तिगत जीवन में, यथार्थ के धरातल पर, मेरे सभी वामपंथी साथियों को सोसायटी फ़ॉर साइंस के सीमित उद्देश्य से हमेशा असहमति रही है। उनका कहना होता है कि वैचारिक विमर्श कर लेने के बाद करना क्या है यह तो पता होना चाहिए। उनके अनुसार वैचारिक विमर्श कोई कर्म नहीं है। अपनी बात के समर्थन के लिए वे, दलील के रूप में, मार्क्स की 'थीसिस ऑन फॉयरबाख़' नाम से प्रसिद्ध ग्यारह अवधारणाओं में से अंतिम - ' दार्शनिकों ने विश्व की केवल व्याख्या की है, नाना प्रकार से; सवाल है उसे बदलने का ' - का हवाला देते हुए कहते हैं कि क्रांतिकारी बदलाव के लिए ज़रूरी है क्रांति, तो बात होनी चाहिए क्रांति की। वे इस बात पर चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं कि मौजूदा दौर में जिस क्रांति की बात की जाती है उसका उद्देश्य क्या है, या जिस समाजवाद की बात की जाती है वह क्या है। वे इस बात पर भी चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं कि काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद में क्या अंतर है।    

भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दौरान, अक्टूबर क्रांति की सफलता से भावनात्मक रूप से अभिभूत, मार्क्सवाद की आधी अधूरी समझ के साथ, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने अपने आप को मार्क्सवादी घोषित करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर डाला, और निम्न मध्यवर्गीय युवावर्ग, लेनिन की चेतावनी - 'काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं' - से अनभिज्ञ, राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत उनके पीछे चल पड़ा। तब से नेतृत्व और अनुयायी दोनों, मार्क्सवाद की मूल अवधारणाओं को समझे बिना, रूढ़िवादी तरीके से, पीढ़ी दर पीढ़ी, इसी एक सूत्र को पकड़ कर, जल्दी से जल्दी अपने जीवनकाल में क्रांति को सफल करने की मारीचिका के पीछे दौड़ रहे हैं, और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन एक सदी पहले जिस चक्रव्यूह में फँस गया था, उससे निकलने का उसे रास्ता ही नहीं सूझ रहा है।

लेनिन की चेतावनी, 'संशोधनवाद और अतिसक्रियता का चोली दामन का साथ है' को चरितार्थ करते हुए, टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरे  भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के मूर्धन्य, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन और माओ की नसीहतों को नजरंदाज करते हुए, मार्क्सवाद को विकसित कर अपने आप को उन महान नेताओं की क़तार में शामिल कर पाने का भ्रम पाले हुए हैं। क्रांति करने की जल्दबाज़ी में वे मार्क्स की नसीहत, ' सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है' और लेनिन की नसीहत, 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है' को पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं। 'थीसिस ऑन फॉयरबाख' की ग्यारहवीं सूक्ति को तो वे पकड़ पर बैठे हैं पर पहली सूक्ति, जिसमें फॉयरबाख के भौतिकवाद की आलोचना करते हुए मार्क्स कहते हैं, 'वे [फॉयरबाख] आलोचना-कर्म की क्रांतिकारी गतिविधि के महत्व को नहीं समझ पाते हैं' को हमारे वामपंथी साथी पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं।

आभासी दुनिया और यथार्थ की दुनिया के वामपंथी साथी आखिरकार हैं तो उसी संशोधनवादी चेतना के वाहक जो पूरे वामपंथी आंदोलन में व्याप्त है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि ढाई सौ लोगों में से बमुश्किल पंद्रह-बीस ही सोसायटी की गतिविधि में रुचि रखते हैं। उनका भी योगदान इस पर निर्भर करेगा कि वे सोसायटी की गतिविधियों को कितना उपयोगी पाते हैं। ग्रुप एडमिन के नाते मेरा उन पंद्रह-बीस लोगों के प्रति दायित्व बनता है कि मैं, वह सभी कुछ करूँ जो सोसायटी और उसके उद्देश्य में रुचि रखने वालों के लिए, अपने-अपने उद्देश्य हासिल करने में सहायक हो। इसके लिए मेरा जो भी कर्म हो सकता है वह वैचारिक तथा सुझावों के रूप में ही हो सकता है। मेरा ग्रुप के सभी सदस्यों से निवेदन है कि -
1 - वे सभी सदस्य जिन्होंने सोसायटी के उद्देश्य को समझे बिना सदस्य बनने के लिए आवेदन किया था कृपया स्वत: ही ग्रुप छोड़ दें ताकि बचे हुए सदस्य, एक जमावड़े की जगह एक समन्वित समूह की मानसिकता के साथ ग्रुप की गतिविधियों में भाग ले सकें, क्योंकि किसी समूह के लिए संगठन का रूप लेने की पहली और आवश्यक शर्त है, समूह के सदस्यों की उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता। मैं बचे हुए सदस्यों की ओर से, छोड़ने वाले सदस्यों का आभारी होउंगा।
2 - प्रतिबद्ध सदस्यों से मैं अनुरोध करूँगा कि वे व्यक्तिगत-चेतना और सामूहिक-चेतना के इस द्वंद्वात्मक संबंध को समझें कि, दोनों का विकास एक साथ होता है, वे एक दूसरे को निरंतर प्रभावित करते हैं। यह समझना जरूरी है कि ग्रुप की सामूहिक समझ, और सदस्यों की व्यक्तिगत समझ, एक साथ, सभी के सजग सक्रिय योगदान के साथ ही विकसित होगी। इसमें उत्प्रेरक के रूप में सुरेश श्रीवास्तव की या और किसी की केवल सीमित भूमिका ही हो सकती है।
3 - इस बात को समझें कि ग्रुप पर विमर्श के लिए एक बार में एक ही विषय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए तथा आवश्यक है कि हर सदस्य अपना विचार अवश्य रखे। बूँद बूँद कर घड़ा भरता है। आगे बढ़ने के लिए हर सदस्य की सक्रियता आवश्यक है।
4 - हमारा उद्देश्य मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ विकसित करना है, इसलिए सिद्धांत की समझ के बारे में किसी भी शंका या समाधान के बारे में विचार अपनी स्वयं की समझ के आधार पर अपनी भाषा में करने का प्रयास करें। जहाँ तक हो सके विशिष्ट परिस्थिति के उदाहरण या संदर्भ से बचें।

मैं आशा करता हूँ कि बचे हुए सदस्य, मार्क्सवादी समझ विकसित करने में, एक दूसरे के मददगार होंगे।

सुरेश श्रीवास्तव
4 जून, 2016

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