Sunday, 19 June 2016

चेतना तथा अस्तित्व और विचार तथा व्यवहार

व्हाट्सएप पर मेरी पोस्ट ' 1840 के शुरू में ही, मार्क्स ने 'थीसिस ऑन फ्वायरबाख' में रेखांकित किया था ..............वे मार्क्सवादी होने का दावा किस आधार पर करते हैं, कोई मुझे समझायेगा।' पर अनेक सदस्यों ने प्रतिक्रिया दी, उसे सबके साथ साझा करना महत्वपूर्ण लगा इसलिए साझा कर रहा हूँ।

उत्कर्ष-
परन्तु इंडिया की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति अन्य देशों से भिन्न है। यह विविधताओं वाला देश है यहां के लोगों से जुड़ने के लिए धर्म के खिलाफ सीधे सीधे बोलना सही नहीं हो सकता
फिर वे हमारी बात सुनेंगे ही क्यों? जब हम पहले ही धार्मिक भावनाओं को तोड़ते हुए शुरू करेंगे?

कमलेश-
आपसे सहमत हूँ। धर्म के साथ रहकर उसकी निरर्थकता पर विचार सम्भव है। सीधे-सीधे उसकी आलोचना करने पर हमारे विचार वे नहीं सुनेंगे।

सुमित-
👍

उत्कर्ष-
जी।

सुरेश-
मैं मार्क्स से पूरी तरह सहमत हूँ और उनके निष्कर्ष को पूरी तरह चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के अनुकूल पाता हूँ। अगर आप मार्क्स से असहमत हैं तो दो ही चीज़ें हो सकती हैं, या तो चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर मार्क्स को ग़लत सिद्ध करें या फिर अपने पूर्वाग्रह के साथ अपनी बात पर अड़े रहें। जहाँ तक मेरी बात है तो मैं लोगों को ख़ुश रखने के लिए ग़लत चीज़ का समर्थन नहीं कर सकता। और मैं आपसे सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं पाता हूँ कि लोग मेरी बात भी सुनते हैं जब मैं धर्म की तार्किक आलोचना करता हूँ।

उत्कर्ष-
मैं खुद भी धर्म का आलोचक हूँ और ईश्वर जैसे किसी कल्पनीय धारणा पर मेरा विश्वास नहीं है परन्तु भारत की जनता के बीच नास्तिकता को साथ लेकर जाना हमारे आन्दोलन को कमजोर कर सकता है। वैसे भी तो यहां शिक्षित वर्ग का प्रतिशत बहुत कम है किसी साधारण व्यक्ति जो पूर्ण श्रद्धा के साथ सामान्य तौर तरीकों से जीवन यापन करता हो राजनैतिक सामाजिक अर्थिक स्थिति से कोई सरोकार न रखते हुए इन सबके प्रति चैतन्य न हो (जैसा ज्यादातर देखने को मिलता है) के सामने हम धर्म आलोचनात्मक रूप में रखते हुए अपने आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास करेंगे तो सफलता की संभावना कितनी होगी?

क़लम का बादशाह-
आदरणीय शरद जी एवं सभी ग्रूप के अन्य साथियों को मेरा क्रांतिकारी सलाम ✊🏽
*जहाँ तक मेरी बात है तो मैं लोगों को ख़ुश रखने के लिए ग़लत चीज़ का समर्थन नहीं कर सकता। और मैं आपसे सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं पाता हूँ कि लोग मेरी बात भी सुनते हैं जब मैं धर्म की तार्किक आलोचना करता हूँ।* - शरद जी
  मे भी आपके विचारों का पक्षधर हूँ मार्क्स के विचारो को पूरे सम्मान से देखता हूँ ... परंतु क्या आप यह बता सकते है कि आप भारत के कितने % लोगों तक अपने विचार पहुँचा सके है ! मे आपका सम्मान करता हूँ शरद जी लेकिन हमें सीधे धर्म पर हमला करते हुए अपनी बात को पहुँचाना बेहद ही मुश्किल है ! हम इस तरह से 100.करोड़ लोगों तक सीधे अपने विचार नही पहुँचा सकते और ना ही में आपसे किसी वैचारिक संशोधन कि माँग रखता हूँ ! परंतु हमें जनता को वैज्ञानिक विचार देने के लिए बीच का रास्ता देखना ज़रूरी है ऐसा मेरा निजी मत है ! मे धर्म पर अपने मत को बदलने का आग्रह किसी से नही करता परंतु हमें यह सबसे अधिक सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हम कितने लोगों को जन आंदोलन व क्रांति के पथ पर आज एकत्रित कर सकते है ? इस प्रकार हम सीधे धर्म कि आलोचना करके केवल जन सामान्य के विरोधी ही बन सकते है उनके साथ क्रांति में योगदान कि अपेक्षा नही कर सकते ! आज जो लॉग आपको रुचि के साथ पड़ते है वे चिंतन प्रवत्ति के बेहद नज़दीक है , अन्यथा यह भी मुश्किल हो सकता था !
*ध्यान रहे* में आदरणीय शरद जी का सम्मान करता हूँ एवं मेरी इस प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ रुप में ले ऐसी सभी से गुजारिश है !          ल- कलम का बादशाह

सुरेश-
मैं लेनिन से पूरी तरह सहमत हूँ कि, 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है' और मैं समझता हूँ कि भारत के वामपंथी आंदोलन में क्रांतिकारी सिद्धांत की सही समझ नदारद है इसीलिए मैंने फ़िलवक्त अपने लिए, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने तथा संशोधनवाद को दूर करने का कर्म चुना है। आम जनता तो वैसे भी विमर्श में शामिल नहीं होती है। जो लोग आंदोलनों में सक्रिय हैं तथा अपनी सैद्धांतिक समझ के बारे में आश्वस्त हैं और उसके बारे में विमर्श नहीं करना चाहते हैं उन्हें विमर्श से किनारा करने के लिए जनता की धर्मप्रियता की आड़ लेने की कोई जरूरत नहीं है। आप और मैं, सिद्धांत तथा व्यवहार के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं, यह समझते हुए मैं अपनी ओर से इस विमर्श को विराम देता हूँ। वैसे मेरा प्रश्न तो सीधा था - मार्क्स से असहमति के बावजूद मार्क्सवादी होने का दावा किस आधार पर - अगर सीधा उत्तर मिल जाता तो बेहतर होता।

दुर्गेश-
संशोधन बर्दास्त नहीं 👍🏻👍🏻👍🏻😡😡😡😡😡 मार्क्सवादी भी कहलाएँगें और उसके क्रांतिकारी  सिद्धांतों को आत्मसात भी नहीं करेंगें | मतलब की शाकाहारी हैं पर माँस भी खा लेंगें | 😂😂😂😂😂

उत्कर्ष-
मार्क्स से असहमति नहीं है मेरी
कुछ प्रश्न और जिज्ञासाएँ हैं

दुर्गेश-
तो प्रश्न रखिए भाई साहब,  ताकी हम सब की शंकाएँ दूर हो ||

उत्कर्ष-
किए हुए हैं
शंकानिवारण सुरेश जी करेंगे

दुर्गेश-
जी, तो हमारे साथ भी शेयर किजीएगा क्योंकि मार्क्स को हमने बस अभी जानना शुरू ही किया है ||

वैसे अगर वही प्रश्न पुन: आप यहाँ रख सकें तो अच्छा होता,  हम सब भी उस पर कुछ चिंतन और विमर्श करते 🙏

उत्कर्ष-
मैं अभी इससे सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि भारत की जनता और धर्म बहुत जटिल सम्बन्ध है दोनों में फिर उनके बीच अगर हम नास्तिक बनकर जाएंगे तो वे हमसे नहीं जुड़ेंगे। जैसा हम देखते हैं लोगों से बातचीत करते समय वे कन्नी काटते हैं नास्तिकों से
फिर क्रांति का सिद्धांत एक सा तो हो नहीं सकता रूस का चीन का भारत का?
क्योंकि सभी की अलग अलग सामाजिक राजनैतिक आर्थिक स्थितियां हैं

संजय-
दुनिया में कट्टरपंथीयों की संख्या ज्यादा होती जा रही है| हमें लगता है कि हम धर्म के खिलाफ बोलकर लोगों का समर्थन नहीं पा सकते
ये मेरा निजी राय है
🙄🙄🙄
👍👍👍

सुमित-
सुरेश जी सजग बुद्धिजीवीयों को समझाना या साथ लेना सरलतम कार्य है ,
क्या कोई इन सैद्धांतिक तरीकों से अन्धविश्वास में लीन लोगों को अपने साथ लाने का जिम्मा लेने
को तैयार है ?

सौरभ-
भाई हमारा अनुभव तो यही रहा है अब तक कि धर्म भीरु जनता से जब आप बतौर नास्तिक मिलते हैं और धर्म पर प्रहार करते हैं तो जनता आपके साथ नहीं आती।
लेकिन जनता की आम समस्याओं के समाधान की दिशा में उनके संघर्षों से जुड़े रहने के दौरान आपके मार्क्सवादी दृष्टिकोण से जनता ज़रूर आकर्षित होती है और तब उसकी रुचि स्वत: इस विषय में जागती है।तब चर्चाओं के दौरान धीरे-धीरे लोग नास्तिकता की ओर बढ़ने लगते हैं।

उत्कर्ष-
Exactly.

सुमित-
👍

दुर्गेश-
हमारा तरीका गलत है, शायद |तार्किक आलोचना करने पर लोग सोचते हैं, प्रश्न पुछते हैं, ||और अगर हम संतोषजनक उत्तर दे देते हैं तो लोग तुरंत तो नहीं,पर साथ हो जाते हैं ||👍🏻👍🏻👍🏻

संजय-
जब वामपंथियों के हाथ में सत्ता आए और वे अच्छा काम करके दिखाएं
तो लोग कुछ जरुर सुनेंगें और समझेंगें
जैसे की भाजपा कितनी भी रुढीवादी है पर अपने कुछ अच्छे कार्यों के वजह से फल-फुल रही है|

सुरेश-
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

उत्कर्ष
कैसे?

सुमित-
😁😁😁
निराशावादी विचार तो न रखो साथी😳

सुरेश-
निराशावाद नहीं, आप पहले सत्ता चाहते हैं फिर लोगों को समझाना चाहते हैं, पर लोगों को समझाये बिना सत्ता कैसे। और जहाँ आ भी गयी थी, उसका क्या हुआ?

दुर्गेश-
सुरेश सर से पुर्णत: सहमत 👍🏻

सुमित-
सहमती👍

सुरेश-
दुर्गेश जी, एक बात में आप की सोच और मार्क्स की सोच एक सी है। मार्क्स ने भी यही कहा था कि सिद्धांत जनता के मन में घर करने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।

दुर्गेश-
लोग नहीं मानेंगे,लोग नहीं सुनते हैं, नास्तिक सुनते भङक जाते हैं, जैसे प्रतिक्रांतीकारी विचारों से मुक्त होना नितांत आवश्यक है || वैसे उपरयुक्त बातों को लेकर अगर हम मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत में संशोधन करते रहें तो शायद हम वास्तवीक समाजवाद कभी स्थापीत ही नहीं कर पाएँगेॆ|और वर्तमान के सभी वामपंथियों की तरह हाशिए पर चले जाएँगें ||| 😔
वैसे भी संसोधन करने का बुरा प्रभाव हम वर्तमान में वामपंथियों की सिकुङती जनाधार देखकर समझ सकते हैं ||
अगर 90 वर्ष पहले के बुद्धीजिवीओं ने गलती न की होती, और मार्क्सवाद को बिना संशोधन के लागू करती तो अपने यहाँ भी कोई बङी सर्वहारा क्रांती जरूर हो जाती, जैसे की रूस,चीन, इत्यादी जैसे देशों में हुआ था |

उत्कर्ष-
आगे बढ़ते हैं।

सुमित-
सत्ता हाथ में होना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है शायद लोगों तक विचार पहुंचाने के लिए।
उदा.
जैसे रामदेव ने अपना सामान बाजार में उतारने से पहले लोगों के बीच अपनी जगह योग के माध्यम से बनाई है क्या वैसा कुछ किया जाए ?

दुर्गेश-
👍🏻👍🏻👍🏻बिल्कुल सुमित सर| संघ और कम्यूनिष्टों की शुरूआत लगभग साथ -साथ ही हुई थी | पर एक अपने कट्टर विचारधारा को फैलाते हुए और पुँजीपतियों को साथ मिलाकर आज केन्द्र में राज कर रही है | परंतु हम आज भी अपने क्रांतिकारी सिद्धातों को लेकर मेहनतकशों के बिच जाने से कतरा रहे हैं |||😔

सुरेश-
घूम फिर कर वापस वहीं। ये 'क्रांतिकारी सिद्धांतों' क्या है, इस पर इस ग्रुप के सदस्य एकमत हो लें तब तो 'आगे बढ़ते हैं' का कोई मतलब होगा।

उत्कर्ष-
स्पष्ट करें।

अजय-
सुरेश जी! जैसा कि मैंने समझा है कि प्रडक्शन फ़ॉर्सेज़ बदलती है तो मोड आफ प्रडक्शन भी चेंज होने के लिए संघर्ष करता है जिसे मौजूदा मोड प्रडक्शन रोकने का हर प्रयास करता है। फिर रेवलूशन होता है।
तो क्या दास प्रथा में दासों ने रेवलूशन किया था ? या फिर पुराने मोड आफ प्रडक्शन ने धीरे धीरे अपने आपको नए में अड़्जस्ट किया।
कई बार ऐसा लगता है की पूँजीवाद इक्स्ट्रीम पर जाने के बजाय अपने आपको एडजस्ट कर किसी भी क्रांति  की सम्भावनाओं को ख़त्म कर देता है।
ख़त्म कर रहा है

दुर्गेश-
जी सर, अब हमें उस क्रांतीकारी सिद्धांत को तलाशना होगा | जो की बिना द्वंदात्मक भौतिकवाद को समझे बिना संभव नहीं होगा || मैं तो स्वंय इस नियम पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया हूँ |||😔😔😔

उत्कर्ष-


बड़ी खुशी की बात है कि लगभग एक साल में पहली बार इतनी गंभीरता के साथ दो दिनों तक विषय केंद्रित विमर्श चला और उत्कर्ष, दुर्गेश, अजय, सुमित, संजय, सौरभ, कमलेश तथा क़लम का बादशाह, सभी साथी इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
सभी साथियों की टिप्पणियों को समेटने पर स्पष्ट नजर आता है कि मूल मुद्दा है विचार तथा व्यवहार, सिद्धांत तथा आचरण, चेतना तथा अस्तित्व के बीच का संबंध। 9 साथियों में से 8 एक सिरे पर तथा मैं अकेला एक सिरे पर। जाहिर है हमारे अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं। और अंत में दुर्गेश की टिप्पणी तथा उससे उत्कर्ष की सहमति के साथ हम वापस वहीं पहुँच जाते हैं, जो मैं एक साल से कहता आ रहा हूँ कि आगे बढ़ने से पहले चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना जरूरी है। आम सहमति के लिए आवश्यक है पूर्वाग्रहों को बेनकाब करना और इसके लिए मार्क्स के सबक़ के अलावा और क्या तरीक़ा हो सकता है कि चीजों को मूल से पकड़ें। तो चलिए कोशिश करते हैं।
यहाँ विषय है कि, क्रांतिकारी सिद्धांत की सही समझ, क्रांतिकारी आंदोलनों के जरिए हासिल की जानी चाहिए, या क्रांतिकारी सिद्धांत की समझ पहले हासिल की जानी चाहिए जिसके आधार पर क्रांतिकारी आंदोलनों को चलाया जा सके। ये दो विपरीत ध्रुव हैं जिनके बीच द्वंद्वात्मक संबंध है। एक ध्रुव पर वे हैं जिनकी किसी राजनैतिक संगठन के साथ प्रतिबद्धता है, वे आंदोलन को प्राथमिक मानते हैं तथा सिद्धांत को द्वितीयक क्योंकि उनके अनुसार सिद्धांत निरंतर विकसित होता रहता है जैसा कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम कहता है कि हर चीज निरंतर बदल रही है। और दूसरे ध्रुव पर मेरे जैसे बुद्धिजीवी हैं जिनकी किसी राजनैतिक संगठन के साथ प्रतिबद्धता नहीं है, वे जन आंदोलनों में भागीदारी से पहले विमर्श के द्वारा सिद्धांत की सही समझ हासिल करने को प्राथमिक मानते हैं तथा आंदोलन को द्वितीयक, क्योंकि सिद्धांत उन नियमों का समुच्चय होता है जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही-सही व्याख्या कर सकें, और जिस सिस्टम पर हम ध्यान केंद्रित कर रहे हैं अगर उसकी सीमाएँ बदल नहीं रही हैं तो उन सीमाओं के अंदर सिद्धांत अपरिवर्तनीय होता है। नवयुवक जो अभी मानसिक रूप से परिपक्व नहीं है, वह दुविधाग्रस्त, अनिर्णय की स्थिति में कभी एक ध्रुव और कभी दूसरे ध्रुव की ओर डोलता रहता है।
जो लोग मार्क्सवाद के सूत्र - 'ज्ञान व्यवहार से आता है' - की दलील देते हैं, वे ये नहीं समझ पाते हैं कि अनुभव व्यक्तिगत होता है पर ज्ञान तो सामूहिक ही होता है। पिछली पीढ़ी सामूहिक अनुभव के आधार पर जो ज्ञान अगली पीढ़ी को सौंपती है, अगली पीढ़ी उसी ज्ञान के आधार पर नये विचारों का निर्माण करती है तथा उन्हें यथार्थ रूप प्रदान करती है। अगर नये विचारों का निर्माण, तार्किक रूप से नियमों के अनुकूल न होकर, मनोगत रूप से कल्पना पर आधारित होगा तो उन विचारों के क्रियान्वयन में अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होंगे। काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद में यही सैद्धांतिक भेद है। जहाँ बोल्शेविक पार्टी तथा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने आंदोलन में सक्रिय भागीदारी से पहले मार्क्सवाद की पुख्ता सैद्धांतिक समझ हासिल कर वैज्ञानिक समाजवाद के लिेए संघर्ष में हर मुक़ाम पर सफलता हासिल की, वहीं भारत में अतिसक्रियता के उकसावे पर, मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हासिल किये बिना, नौजवानों ने, कल्पना की उड़ान के आधार पर यह मानते हुए कि शोषित वर्ग उनकी कविता, कहानियों, नारों तथा भाषणों से  भावनात्मक रूप से जुड़ जायेगा, वामपंथी आंदोलन में कूद कर, समाजवाद के लक्ष्य के लिए, अपने आप को भौतिक रूप से समाप्त कर लिया भगतसिंह, रोहित तथा नवकरण की तरह, या वैचारिक रूप से बेकार कर लिया कन्हैया कुमार तथा उमर ख़ालिद की तरह। इसलिए नौजवानों को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सैद्धांतिक समझ हासिल किये बिना किसी प्रकार के आंदोलन की बात करना भी नासमझी है, क्रांति की बात करना तो बहुत दूर की बात है। किसी भी आंदोलन की सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि, आंदोलन की रणनीति पुख्ता सैद्धांतिक समझ के आधार पर निर्धारित की गयी है या कल्पना की उड़ान के आधार पर।
किसी भी आंदोलन से पहले एक और बात अच्छी तरह समझ लेना जरूरी है, और वह है व्यक्तिगत चेतना तथा सामूहिक चेतना का द्वंद्वात्मक संबंध। जब समूह में सदस्यों की संख्या कम होती है तो सभी सदस्य तुलनात्मक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्ति की सोच के अनुसार चलते हैं अर्थात व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को निर्धारित करती है। सदस्यों की संख्या बढ़ने के साथ एक स्तर पर दोनों चेतनाओं के संबंध में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। सामूहिक चेतना स्वायत्त हो जाती है और व्यक्तिगत चेतना को निर्धारित करने लगती यहाँ तक कि तुलनात्मक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निर्माण और निर्धारण भी सामूहिक चेतना स्वयं करने लगती है। इस द्वंद्वात्क संबंध को समझे बिना मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझ पाना असंभव है। निम्न स्तर के बुर्जुआ उत्पादन तथा उच्च स्तर के पूँजीवादी उत्पादन के अंतर को समझे बिना किसी आंदोलन की सही रणनीति तय कर पाना असंभव है।
ग्रुप के सभी साथियों को मेरा सुझाव है कि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के हर आयाम को हर कोण से समझने का प्रयास करें, अपनी शंकाएँ साझा करें और अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने के लिए खुलने मन से प्रयास करें और अपने प्रयास इसी विषय पर तब तक केंद्रित करें जब तक सभी सक्रिय सदस्यों की समझ विकसित न हो जाये ताकि सुरेश श्रीवास्तव का स्थान ग्रुप ले ले।

सुरेश श्रीवास्तव
19 जून, 2016

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