कविता कृष्णन से एक अपील
आजकल सोशल मीडिया में 'फ़्री सेक्स' पर अनेकों बुद्धिजीवियों की अनेकों टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं। निम्न मध्यवर्गीय तो वैसे भी राजनैतिक-आर्थिक समस्याओं से संबंधित विषयों पर विमर्श करने में बहुत कम रुचि रखते हैं, पर शोषण व्यवस्था की समाप्ति के लिए कटिबद्ध कविता कृष्णन जैसी महिला के लिए, सैद्धांतिक विमर्शों से ध्यान हटाकर, 'फ़्री सेक्स' जैसे सतही विषयों को इतना महत्वपूर्ण बना देना समझ नहीं आता है। अपनी बेटी के बचाव में उतरकर, श्रीमती लक्ष्मी कृष्णन द्वारा की गयी स्वीकारोक्ति तो समझ आती है, नहीं तो यौनक्रिया तो दो या कुछ व्यक्तियों के बीच का व्यक्तिगत मसला है, और उस पर सार्वजनिक बहस का कोई औचित्य नहीं। करोड़ों वयस्क स्त्री पुरुष विवाहेतर या विवाह पूर्व जो भी यौनक्रिया करते हैं, सिवाय बलात्कार के, वह 'फ़्री सेक्स नहीं है तो क्या है। वे सब उसकी सार्वजनिक स्कीरोक्ति करते फिरें इसकी न कोई जरूरत है न औचित्य है। जो लोग करोड़ों पारंपरिक रूप से शादी शुदा पति पत्नी के बीच होने वाले यौन संबंधों के फ़्री सेक्स न होने का दावा करते हैं, उन्हें ऐसा करने का न अधिकार है और न उन्हें करना चाहिए। यौन क्रिया आपसी सहमति तथा स्वेच्छा से की गयी है, यह तय करने का अधिकार उस क्रिया में संलग्न लोगों तक ही सीमित होना चाहिए।
मानव में यौनक्रिया, अन्य पशुओं की यौनक्रिया से भिन्न है। निचले स्तर पर पशुओं में यौनक्रिया केवल प्रजनन के लिए होती है और उसमें स्वेच्छा जैसी कोई चीज नहीं होती है। पर विकास के उच्च स्तर यौनक्रिया का मकसद प्रजनन के साथ-साथ मनोरंजन भी होता गया है। पूरी तरह विकसित सभ्यता के स्तर पर मानव के लिए यौनक्रिया का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन हो गया है और प्रजनन गौण हो गया। यौनक्रिया तथा यौनतुष्टि के दो आयाम हैं, एक भौतिक शारीरिक संतुष्टि और दूसरा वैचारिक मानसिक संतुष्टि। जहाँ तक शारीरिक संतुष्टि का सवाल है, उसका दायरा बहुत सीमित है, पर मानसिक संतुष्टि का आयाम असीमित है। जब दोनों पक्षों के बीच यौनक्रिया आपसी सहमति के साथ केवल शारीरिक संतुष्टि के लिए होती है तो वह फ़्री सेक्स कहलाने के बावजूद मानवीय क्रिया न हो कर पाशविक क्रिया ही होगी। उसके फ़्री सेक्स होने का क्या औचित्य है।
मानसिक संतुष्टि के लिए आपसी सहमति से की गयी यौनक्रिया फ़्री सेक्स ही कही जायेगी, पर क्या वह हर हाल में उचित ठहरायी जा सकती है? मार्क्सवादी होने के नाते कविता कृष्णन को अच्छी तरह मालूम होना चाहिए कि मानवीय चेतना एक सामाजिक उत्पाद है और उसके विकास का स्तर उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर पर निर्भर करता है। व्यक्तियों के बीच सामाजिक संबंध, उनके बीच उत्पादन संबंधों पर निर्भर करते हैं। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के कुशलता आधारित श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण, सामंतवादी चेतना में स्त्री का सामाजिक दर्जा पुरुष के सामाजिक दर्जे से नीचे होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था मशीन आधारित होने के कारण, विकसित पूँजीवादी व्यवस्था में कुशलता आधारित श्रम विभाजन समाप्त हो जाता है और इसी कारण पूँजीवादी चेतना में लिंगभेद तथा जातिभेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं। सामंतवादी चेतना के बीच, सामाजिक संबंधों में स्त्रियों तथा दलितों की स्वेच्छा भी सही मायने में स्वतंत्र इच्छा नहीं कही जा सकती है और ऐसे में फ़्री सेक्स पर बहस करना बेमानी है।
कविता कृष्णन एक मार्क्सवादी पार्टी के पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं और उनके कंधों पर दायित्व है मजदूर वर्ग को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का तथा उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद करने का। और इसके लिए ज़रूरी है कि वे अन्य मार्क्सवादियों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के निवेश को सुगम बनानेवाली नीतियों का समर्थन करें और साथ ही सुनिश्चित करें कि उत्पादन किये गये अतिरिक्त मूल्य में तुलनात्मक रूप से मजदूरों की भागीदारी भी बढ़े।
आजकल सोशल मीडिया में 'फ़्री सेक्स' पर अनेकों बुद्धिजीवियों की अनेकों टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं। निम्न मध्यवर्गीय तो वैसे भी राजनैतिक-आर्थिक समस्याओं से संबंधित विषयों पर विमर्श करने में बहुत कम रुचि रखते हैं, पर शोषण व्यवस्था की समाप्ति के लिए कटिबद्ध कविता कृष्णन जैसी महिला के लिए, सैद्धांतिक विमर्शों से ध्यान हटाकर, 'फ़्री सेक्स' जैसे सतही विषयों को इतना महत्वपूर्ण बना देना समझ नहीं आता है। अपनी बेटी के बचाव में उतरकर, श्रीमती लक्ष्मी कृष्णन द्वारा की गयी स्वीकारोक्ति तो समझ आती है, नहीं तो यौनक्रिया तो दो या कुछ व्यक्तियों के बीच का व्यक्तिगत मसला है, और उस पर सार्वजनिक बहस का कोई औचित्य नहीं। करोड़ों वयस्क स्त्री पुरुष विवाहेतर या विवाह पूर्व जो भी यौनक्रिया करते हैं, सिवाय बलात्कार के, वह 'फ़्री सेक्स नहीं है तो क्या है। वे सब उसकी सार्वजनिक स्कीरोक्ति करते फिरें इसकी न कोई जरूरत है न औचित्य है। जो लोग करोड़ों पारंपरिक रूप से शादी शुदा पति पत्नी के बीच होने वाले यौन संबंधों के फ़्री सेक्स न होने का दावा करते हैं, उन्हें ऐसा करने का न अधिकार है और न उन्हें करना चाहिए। यौन क्रिया आपसी सहमति तथा स्वेच्छा से की गयी है, यह तय करने का अधिकार उस क्रिया में संलग्न लोगों तक ही सीमित होना चाहिए।
मानव में यौनक्रिया, अन्य पशुओं की यौनक्रिया से भिन्न है। निचले स्तर पर पशुओं में यौनक्रिया केवल प्रजनन के लिए होती है और उसमें स्वेच्छा जैसी कोई चीज नहीं होती है। पर विकास के उच्च स्तर यौनक्रिया का मकसद प्रजनन के साथ-साथ मनोरंजन भी होता गया है। पूरी तरह विकसित सभ्यता के स्तर पर मानव के लिए यौनक्रिया का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन हो गया है और प्रजनन गौण हो गया। यौनक्रिया तथा यौनतुष्टि के दो आयाम हैं, एक भौतिक शारीरिक संतुष्टि और दूसरा वैचारिक मानसिक संतुष्टि। जहाँ तक शारीरिक संतुष्टि का सवाल है, उसका दायरा बहुत सीमित है, पर मानसिक संतुष्टि का आयाम असीमित है। जब दोनों पक्षों के बीच यौनक्रिया आपसी सहमति के साथ केवल शारीरिक संतुष्टि के लिए होती है तो वह फ़्री सेक्स कहलाने के बावजूद मानवीय क्रिया न हो कर पाशविक क्रिया ही होगी। उसके फ़्री सेक्स होने का क्या औचित्य है।
मानसिक संतुष्टि के लिए आपसी सहमति से की गयी यौनक्रिया फ़्री सेक्स ही कही जायेगी, पर क्या वह हर हाल में उचित ठहरायी जा सकती है? मार्क्सवादी होने के नाते कविता कृष्णन को अच्छी तरह मालूम होना चाहिए कि मानवीय चेतना एक सामाजिक उत्पाद है और उसके विकास का स्तर उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर पर निर्भर करता है। व्यक्तियों के बीच सामाजिक संबंध, उनके बीच उत्पादन संबंधों पर निर्भर करते हैं। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के कुशलता आधारित श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण, सामंतवादी चेतना में स्त्री का सामाजिक दर्जा पुरुष के सामाजिक दर्जे से नीचे होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था मशीन आधारित होने के कारण, विकसित पूँजीवादी व्यवस्था में कुशलता आधारित श्रम विभाजन समाप्त हो जाता है और इसी कारण पूँजीवादी चेतना में लिंगभेद तथा जातिभेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं। सामंतवादी चेतना के बीच, सामाजिक संबंधों में स्त्रियों तथा दलितों की स्वेच्छा भी सही मायने में स्वतंत्र इच्छा नहीं कही जा सकती है और ऐसे में फ़्री सेक्स पर बहस करना बेमानी है।
कविता कृष्णन एक मार्क्सवादी पार्टी के पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं और उनके कंधों पर दायित्व है मजदूर वर्ग को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का तथा उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद करने का। और इसके लिए ज़रूरी है कि वे अन्य मार्क्सवादियों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के निवेश को सुगम बनानेवाली नीतियों का समर्थन करें और साथ ही सुनिश्चित करें कि उत्पादन किये गये अतिरिक्त मूल्य में तुलनात्मक रूप से मजदूरों की भागीदारी भी बढ़े।
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