Friday, 29 July 2016

और कोई विकल्प नहीं है

पिछले दिनों, सैद्धांतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण दो प्रश्न सोसायटी के व्हाट्सऐप ग्रुप पर उठाये गये थे।
दुर्गेश ने पूछा था, "मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को कैसे समझा जाए?" तथा
कुलदीप ने पूछा था, "जनता की जनवादी क्रांति क्या है, जो कि सीपीएम का मौजूदा कार्यक्रम है?"

सुरेश का उत्तर -
दूसरे प्रश्न का उत्तर तो मैं पहले ही पोस्ट कर चुका हूं, पर पहले प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करता है, उस सब का विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या, जो पिछले 175 सालों में, बुद्धिजीवियों के बीच समाजवादी विचारधारा के नाम पर और कामगारों के बीच समाजवादी आंदोलन के नाम पर पनपा और पसरा है। इसलिए इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं देखा जा सकता है। पिछले दिनों सिरसा में कुछ लोगों ने 'दर्शन का इतिहास' विषय पर एक स्टडी सर्किल का आयोजन किया था। मैंने आयोजकों से आग्रह किया था कि प्रमुख वक़्ता का वक्तव्य तथा प्रश्नोत्तर सबके साथ साझा करें ताकि मार्क्सवाद को समझने में सभी को मदद मिले। पता नहीं उन्होंने साझा करना जरूरी क्यों नहीं समझा। अगर वक्तव्य साझा किया गया होता तो शायद ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर सामने आ जाता। पर हमें प्रश्न का सही उत्तर आपसी विमर्श के द्वारा अपने स्तर पर ही तलाशना होगा। मैं सोसायटी फ़ॉर साइंस के ब्लॉग, फेसबुक ग्रुप तथा व्हाट्सऐप एकाउंट्स पर चेतना-अस्तित्व तथा अंतर्वस्तु-अधिरचना के द्वंद्वात्मक संबंधों पर अपना नजरिया अनेकों तरह से व्यक्त कर चुका हूँ और मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना को भी स्पष्ट कर चुका हूँ, पर लगता है वे दुर्गेश तथा कुलदीप की नज़रों से चूक गये हैं, इसलिए फिर एक नये तरीके से समझाने का प्रयास कर रहा था, पर प्रयास अपने तार्किक अंत पर पहुँचता, उससे पहले दुर्गेश ने पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रह की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना पर नया प्रश्न दाग दिया है।
मार्क्सवाद के बारे में, अलग-अलग समय पर अलग-अलग मंचों या अकाउंट पर, घूम फिर कर वे ही बुनियादी प्रश्न उन्हीं साथियों द्वारा, बार-बार नमूदार होते रहते हैं। अंतर्वस्तु, अधिरचना, अस्तित्व, चेतना, पूर्वाग्रह, मूल्य, मुद्रा, पूँजी आदि क्या हैं और मार्क्सवाद को कैसे समझें।
मैं पिछले पाँच साल से, पहले मार्क्स दर्शन त्रैमासिक पत्रिका में और फिर मार्क्सदर्शन के ब्लॉग पर आलेखों के माध्यम से इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता आ रहा हूं, पर चारों ओर व्याप्त संशोधनवाद के व्योम में मार्क्सवादी चेतना कहीं प्रस्फुटित होती नजर नहीं आती है। पिछले एक साल से फेसबुक और व्हाट्सऐप के मंचों पर, मित्रों के साथ जुड़कर, उनके केंद्रित प्रश्नों के उत्तर के रूप में भी मैं बार बार मार्क्सवाद के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करने का प्रयास करता आ रहा हूं। पर यहाँ भी ट्रेडमिल की तरह दौड़ तो रहे हैं पर आगे नहीं बढ़ रहे हैं।
पिछले छह महीने से सोशल मीडिया पर अपने मित्रों को समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि द्वंद्व के नियम के अनुसार, मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के लिए मात्रा में बढ़ोतरी होना ही काफी नहीं, उसका एक-लक्ष्य निदेशित होना भी जरूरी है। किसी वस्तु पर अलग-अलग दिशाओं से लगाये जानेवाले बलों का परिणाम, उनका साधारण जोड़ न होकर शून्य हो जाता है। वस्तु की जड़ता पर पार पाकर उसे गति देने के लिए न केवल यह आवश्यक है कि उस पर लगाये जानेवाले सभी बलों का लक्ष्य एक हो, बल्कि यह भी जरूरी है कि सभी बलों का समय भी एक ही हो। अलग-अलग समय पर अलग-अलग आयाम पर विमर्श करने से पूर्वाग्रहों की जड़ता पर पार नहीं पाया जा सकता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ। व्यक्ति के लिए अपने पूर्वाग्रह को पहचान पाना लगभग असंभव होता है। 'मानव शिशु के विकास के शुरुआती वर्षों में मस्तिष्क के उस भाग के परिपथ विकसित होते हैं जो आगे आने वाले वर्षों में मस्तिष्क के भीतर प्रवेश करने वाले संकेतों और संदेशों की ग्राह्यता निर्धारित करते हैं। उन वर्षों में अगर गलत धारणाएं और विचार घर गए हैं तो आने वाले वर्षों में न केवल उन्हें निकालना मुश्किल होता है बल्कि वे और बहुत से गलत विचारों और धारणाओं को मान्य बनाने के लिए भी उत्तरदायी होते हैं।' ( वैज्ञानिक बनाम अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, http://marx-darshan.blogspot.in/2013/06/blog-post_28.html)।
किसी ने सुझाव दिया है कि, सवाल करते रहना तो हर मार्क्सवादी की ख़ूबी होती है। ख़ुद के मौजूदा विचारों पे सवाल करने से पूर्वाग्रह पता चलने चाहिए।' इस सोच में दो कमियाँ हैं। एक तो यह कि सवाल करते रहना तो हर मार्क्सवादी की ख़ूबी होती है, पर हर सवाल करने वाला मार्क्सवादी हो यह जरूरी नहीं है। दूसरे अगर व्यक्ति स्वयं ही सवाल कर रहा है और स्वयं ही उनके जवाब दे रहा है तो सवाल और जवाब दोनों ही पूर्वाग्रह ग्रसित होंगे और व्यक्ति के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर मार्क्सवादी बनना असंभव है। क्योंकि उन्होंने अपने आप को सामाजिक जीवन से अलग कर लिया था इसलिए महान दार्शनिक फॉयरबाख अपने भाववादी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये थे और इसी कारण वे भौतिक जगत में होने वाले सभी परिवर्तनों में तो प्रकृति के द्वंद्व को देख सके थे, पर प्रकृति स्वयं के आदि अनंत होने के प्रकृति के गुण में द्वंद्व को न देख सके।
मार्क्सवाद के नाम पर व्याप्त पूर्वाग्रहों तथा संशोधनवाद को समझने तथा उनकी निंदाई करने में, स्पष्ट उद्देश्य के साथ एक-लक्ष्य निदेशित सामूहिक विमर्श के महत्व को समझने के लिए, व्यक्तिग-चेतना तथा सामूहिक-चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना पहली शर्त है। वामपंथियों के बीच मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ पूरी तरह नदारद है, इसलिए वे दावा करते हैं कि आंदोलनों के दौरान ही ज्ञान हासिल होता है और इसीलिए हर तरह के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने को ही क्रांतिकारी व्यवहार समझते हैं। वे अपने पूर्वाग्रहों के कारण आत्मालोचना करने को भी तैयार नहीं हैं कि पिछले नब्बे सालों में आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्या ज्ञान हासिल किया है, सिवाय हर बार अपनी ग़लती पर पछताने के। वे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा माओ की नसीहतों को कालातीत कह कर पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं। वे मार्क्स की इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि आलोचना-कर्म एक क्रांतिकारी कर्म है।
मानव समाज एक सामूहिक चेतना है, एक वैचारिक जैविक संरचना जिसका अपना कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, और जो पूरी तरह व्यक्तिगत मानवीय चेतनाओं में अवस्थित रहती है, पर उन सबसे स्वतंत्र, स्वायत्त। चेतना, तर्कबुद्धि द्वारा निरंतर अपने परिवेश के बारे में ज्ञान हासिल कर अपना विस्तार करती रहती है।
उत्पादन के दौरान परिवेश के बारे में ज्ञान हासिल करना, हासिल ज्ञान के आधार पर उत्पादन के औजारों तथा उत्पादन प्रक्रिया में सुधार करना और पुन: उत्पादन के दौरान हासिल ज्ञान को सत्यापित करना तथा नया ज्ञान हासिल करना। विचार तथा व्यवहार का यही द्वंद्वात्मक संबंध है जिसने मानव की व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना को स्व-विस्तार की असीमित क्षमता प्रदान की है। जैसे जैसे समाज विकसित होता गया, उत्पादन के क्षेत्र में श्रम का विभाजन होता गया और कुशलता के आधार पर वर्गीकरण होता गया। इसके साथ ही ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में भी वर्गीकरण होता गया। ज्ञान अर्जन का क्षेत्र दो भागों में बंट गया, भौतिक जगत और वैचारिक जगत। भौतिक जगत के बारे में ज्ञान अर्जन का क्षेत्र हो गया प्रकृति विज्ञान और वैचारिक जगत के बारे में ज्ञान अर्जन का क्षेत्र हो गया दर्शन। और इसी तरह चिंतक-विचारिक भी, प्रकृति वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों के बीच बंट गये। जैसे-जैसे उत्पादों तथा बाज़ार का विस्तार होता गया, नाना प्रकार के उत्पाद और अलग अलग श्रम कुशलता पर आधारित अनेकों वर्ग अस्तित्व में आते गये। उसी का अनुकरण करते हुए प्रकृति वैज्ञानिकों के भी अनेकों वर्ग अस्तित्व में आते गये जिसके कारण प्रकृति वैज्ञानिकों की सोच का दायरा भी सीमित होता गया जिसने ज्ञान अर्जन में द्वंद्वात्मक पद्धति की जगह तात्त्विक पद्धति को ला दिया।
सदियों में मानव ने भौतिक जगत के बारे में ज्ञान हासिल करने की वैज्ञानिक पद्धति विकसित की है। चीजों के बारे में सही समझ हासिल करने की वैज्ञानिक पद्धति के तीन चरण हैं। चीजों की अधिरचना का इंद्रियों के द्वारा संज्ञान हासिल करना, हासिल किये गये ज्ञान के तार्किक विश्लेषण के द्वारा चीजों की अंतर्वस्तु की सही समझ की परिकल्पना करना, तथा परिकल्पना के अनुसार प्रयोग या व्यवहार के द्वारा चीज की अंतर्वस्तु के बारे में की गई परिकल्पना को सत्यापित करना। अगर व्यवहार में अपेक्षित नतीजे नहीं आते हैं तो, हासिल ज्ञान का पुनर्मूल्यांकन कर परिकल्पना में तार्किक सुधार कर, व्यवहार के द्वारा परिकल्पना को पुन: सत्यापित करना जरूरी हो जाता है। भौतिक जगत की पड़ताल में, चीजों के वर्गीकरण के कारण, पड़ताल का दायरा सीमित हो जाता है, तथा व्यक्ति की चेतना के बाहर होने की वजह से व्यक्ति निरपेक्ष भी हो जाता है। इस वजह से तात्त्विक पद्धति भी, पड़ताल का दायरा सिमित होने के कारण सही परिणाम देने में सक्षम हो जाती है। अपनी इस सफलता के कारण तात्त्विक भौतिकवादी पद्धति ने ज्ञान के दायरे में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर ली है।
और विडंबना यह है कि वामपंथी संगठनों के सक्रिय आंदोलनों में फंसे हमारे नौजवान साथियों के पास तात्त्विक भौतिकवादी पद्धति से बाहर निकलने का न अवसर है और न रास्ता है। जब तक नौजवान साथी मार्क्सवाद की सैद्धांतिक अहमियत को नहीं समझ लेते हैं तब तक इंतज़ार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
सुरेश श्रीवास्तव
29 जुलाई 2016

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