अनुत्तरित प्रश्न (प्रश्न जो पूछा न जा सका)
9 अगस्त 2016 को अनहद की ओर से कॉनंस्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में, एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया, 'Sangh Terror and Failures of Justice', जिसके तीसरे सत्र का विषय था 'Failure of Political Parties and Media Responses', पर तीन मुख्य वामपंथी पार्टियों के नुमाइंदों के रूप में, सीताराम येचुरी, कन्हैया कुमार तथा शेहला रशीद शोरा को चौथे सत्र 'The Many Dangers of Sangh Terror' में क्यों बुलाया गया, ये तो आयोजक ही जानें।
शेहला ने तो स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया कि वे इस विषय पर बोलने के लिए कोई तैयारी कर के नहीं आईं हैं इसलिए उनकी बात तो कश्मीर तथा जेऐनयू तक ही सीमित रही, पर सीताराम येचुरी ने संघ परिवार की हिंसा को उसकी विचारधारा से जोड़ते हुए सभी लोकतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की एकजुटता का आह्वान किया, तो कन्हैया ने अपनी बात के बीच में एक जगह टिप्पणी की कि सभी संघर्षों का मूल राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में होता है, पर अपनी बात जयहिंद-जयभीम के नारे के साथ समाप्त की।
श्रोताओं के प्रश्नों के दौर में, मैंने मार्क्स के उद्धरण 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है' के साथ अपना प्रश्न रखा भी नहीं था कि सीताराम येचुरी ने मुझे प्रश्न पूरा करने से रोक दिया और इसके साथ ही आयोजकों ने भी मुझे प्रश्न पूछने से रोक दिया कि मैं विषय से हट कर प्रश्न नहीं पूछ सकता हूँ। जैसा कि आमतौर पर उम्मीद की जा सकती है, आयोजक नहीं चाहते थे कि मुख्य वक़्ता के लिए कोई श्रोता असहज स्थिति पैदा कर दे। संघ परिवार पर अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी का लांछन तो सभी प्रगतिशील बुद्धिजीवी लगाते हैं, पर यथार्थ यही है कि अनुशासन के नाम पर सभी बुर्जुआ संगठन किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करते हैं।
तीन मुख्य मार्क्सवादी वामपंथी पार्टियों के नुमाइंदों की पूरी तकरीरों में आत्मालोचना का स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया।गैर-मार्क्सवादी, गैर-भाजपा बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों के लिए तो मार्क्स भारत की परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक ही नहीं हैं और उनकी समझ के अनुसार समाज में व्याप्त असंतोष के लिए, अर्थव्यवस्था के अंदर के उत्पादन संबंध जिम्मेदार न होकर, संघ परिवार की असहिष्णुता जिम्मेदार है। तीनों मार्क्सवादी पार्टियाँ भी संघ परिवार की विचारधारा को ही राष्ट्रव्यापी विघटनकारी प्रवृत्तियों के लिए जिम्मेदार मानती हैं, और जाहिर है कि इसीलिए उन्होंने, भाजपा के खिलाफ लड़ाई को अपना प्रमुख लक्ष्य बना रखा है। इसी समझ के साथ इस लडाई के लिए बुर्जुआ पार्टियों के साथ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने मार्क्सवाद को दरकिनार कर दिया है। या ये कहना ज्यादा सही होगा कि उनकी ये समझ इसलिए है क्योंकि उन्होंने मार्क्सवाद को दरकिनार कर रखा है। कोई आश्चर्य नहीं कि आम जनता, मार्क्सवादी पार्टियों में तथा अन्य बुर्जुआ पार्टियों में कोई अंतर नहीं देखती है। मैं मानता हूँ कि भारत में वामपंथी आंदोलनों की विफलता का कारण है, कि 90-95 साल पहले गठित की गयी कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के साथ रखी गई थी, और सही समझ विकसित करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व आज भी तैयार नहीं है।
बहरहाल व्यक्तिगत तौर पर, आम नागरिक के नाते मैं क्या सोचता हूँ यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि तीनों मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियाँ, आंदोलन में, सिद्धांत की भूमिका के बारे में संगठन के तौर पर क्या सोचती हैं। इसलिए उस प्रश्न, जो अनुत्तरित रह गया क्योंकि पूछा न जा सका, को यहाँ इस उम्मीद के साथ रख रहा हूँ कि शायद कहीं, सांगठनिक स्तर पर तीनों पार्टियों में से किसी को लेनिन की यह बात याद आ जाये 'कि कुछभी नहीं किया जा सकता है जब तक इस दौर (संशोधनवाद) का पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।
यहाँ प्रश्न की पृष्ठभूमि इसलिए दे रहा हूँ कि पार्टी के मूर्धन्य तो सब कुछ जानते हैं पर नई पीढ़ी पिछले पचास साल की विकास यात्रा से लगभग अनभिज्ञ है।
पचास साल पहले जब कांग्रेस का राष्ट्र निर्माण की अग्रणी भूमिका से पतन शुरू हुआ तो संघ परिवार ने अपने आपको कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश करने के लिए रणनीति बनाई और दस साल के अंतराल पर केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में शामिल होने के लिए, अपनी विचारधारा के साथ समझौता किये बिना, अपने पारंपरिक राजनैतिक स्वरूप जनसंघ को भी छोड़ दिया। हिंदुत्व की अपनी विचारधारा के साथ प्रतिबद्धता इतनी स्पष्ट कि दोहरी सदस्यता के मसले पर उनके मंत्रियों ने सरकार भी छोड़ दी। दस साल बाद फिर उसी तरह की परिस्थितियों में उन्होंने विचारधारा के अनुसार रामजन्मभूमि के मसले पर समझौता करने से इनकार करते हुए सरकार छोड़ने के विकल्प को चुना। उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता ने उन्हें जनता के एक तबके के बीच, कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार्य बना दिया और लोकतंत्र तथा सांप्रदायिक सौहार्द की दुहाई देनेवाली अनेकों पार्टियों को उनके पीछे लाम बंद कर दिया। उनकी अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता ने उन्हें उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया जहाँ, विरोधी पार्टियों द्वारा उन पर लगाये गये, अलोकतांत्रिक तथा सांप्रदायिक होने के, सभी आरोपों के बावजूद भारतीय मतदाता ने उन्हें एकमात्र विकल्प मानते हुए, सोलहवीं लोकसभा में पूर्णबहुमत प्रदान कर दिया।
पिछले पचास सालों पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि जब कांग्रेस टूटने के कगार पर थी, उसी समय भाकपा भी दो हिस्सों में बंट गई, जनता को आज तक नहीं मालूम कि उस बँटवारे के पीछे कौन सा सिद्धांत था। जब इंदिरा गांधी कांग्रेस के अंदर अपने बर्चस्व की लडाई लड़ रहीं थी तो दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ मजदूरवर्ग को उनके पीछे एकजुट करने में लग गईं, जिसके फलस्वरूप 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने दो तिहाई बहुमत पा लिया। जैसे जैसे कांग्रेस जनविरोधी होती गई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ कांग्रेस के विरोध में होती गईं और आपत्काल के बाद होने वाले चुनाव में, दुविधाग्रस्त एक जेपी के साथ तो दूसरी कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई।
अस्सी के पूरे दशक में कांग्रेस पूरे बहुमत के साथ उदारीकरण की नीतियाँ लागू कर रही थी, तो कांग्रेस को कमजोर करने के लिए दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने वीपी सिंह की एक बैसाखी का काम किया जब कि दूसरी बैसाखी भाजपा की थी। और उसके बाद तो पिछले पच्चीस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों की रणनीति कांग्रेस के संदर्भ से ही तय होती आ रही हैं। जब कांग्रेस शक्तिशाली हो तो उदारीकरण की ख़िलाफ़त के नाम पर कांग्रेस का विरोध करना, और जब कांग्रेस कमजोर हो तो सांप्रदायिकता की खिलाफत के नाम पर कांग्रेस के साथ खड़े हो जाना, ऐसी है वामपंथी रणनीति, और यह किस विचारधारा या सिद्धांत के तहत है कुछ पता नहीं चलता है।
संघ की सफल यात्रा के विपरीत, पिछली शताब्दी के बीस के दशक में बनाई गई, संघ की समकालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, अपने निम्न मध्यवर्गीय चरित्र के अनुरूप, मार्क्स, लेनिन तथा माओ की परिभाषाओं को चरितार्थ करते हुए, कांग्रेस के साथ सिद्धांतविहीन दोस्ताना संघर्ष तथा समझौतों के फलस्वरूप उस मुक़ाम पर पहुँच गई है जहाँ वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सिद्धांतहीन समझौते कर अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने की लडाई लड़ रही है।
इस पृष्ठभूमि की रोशनी में, मंचासीन का. सीताराम येचुरी, का. कन्हैया कुमार तथा का. शेहला रशीद से प्रश्न है,
"क्या आप इस बात से इनकार कर सकते हैं कि संघ परिवार की सफलता का कारण उनकी अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिप्रतिबद्धता, आप चाहें तो उसे रूढ़िवादिता भी कह सकते हैं, के कारण है, और कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलता का कारण है, मार्क्सवाद के निरंतर विकास के नाम पर, कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा अपनाई गई सिद्धात विहीन संशोधनवादी नीतियाँ? दूसरे क्या मार्क्स की शिक्षा, कि वर्ग विभाजित समाज में वर्ग और वर्गहित, आर्थिक संबंधों (अंतर्वस्तु) से परिभाषित होते हैं न कि उन आर्थिक संबंधों के ऊपर विकसित हुए सामाजिक संबंधों (अधिरचना) से, को पूरी तरह नजरंदाज कर बाबासाहब और मार्क्स को एक ही खाँचे में फ़िट करने की कोशिश संशोधनवाद नहीं है?"
सुरेश श्रीवास्तव
11 अगस्त, 2016
9 अगस्त 2016 को अनहद की ओर से कॉनंस्टीट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में, एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया, 'Sangh Terror and Failures of Justice', जिसके तीसरे सत्र का विषय था 'Failure of Political Parties and Media Responses', पर तीन मुख्य वामपंथी पार्टियों के नुमाइंदों के रूप में, सीताराम येचुरी, कन्हैया कुमार तथा शेहला रशीद शोरा को चौथे सत्र 'The Many Dangers of Sangh Terror' में क्यों बुलाया गया, ये तो आयोजक ही जानें।
शेहला ने तो स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया कि वे इस विषय पर बोलने के लिए कोई तैयारी कर के नहीं आईं हैं इसलिए उनकी बात तो कश्मीर तथा जेऐनयू तक ही सीमित रही, पर सीताराम येचुरी ने संघ परिवार की हिंसा को उसकी विचारधारा से जोड़ते हुए सभी लोकतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की एकजुटता का आह्वान किया, तो कन्हैया ने अपनी बात के बीच में एक जगह टिप्पणी की कि सभी संघर्षों का मूल राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में होता है, पर अपनी बात जयहिंद-जयभीम के नारे के साथ समाप्त की।
श्रोताओं के प्रश्नों के दौर में, मैंने मार्क्स के उद्धरण 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है' के साथ अपना प्रश्न रखा भी नहीं था कि सीताराम येचुरी ने मुझे प्रश्न पूरा करने से रोक दिया और इसके साथ ही आयोजकों ने भी मुझे प्रश्न पूछने से रोक दिया कि मैं विषय से हट कर प्रश्न नहीं पूछ सकता हूँ। जैसा कि आमतौर पर उम्मीद की जा सकती है, आयोजक नहीं चाहते थे कि मुख्य वक़्ता के लिए कोई श्रोता असहज स्थिति पैदा कर दे। संघ परिवार पर अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी का लांछन तो सभी प्रगतिशील बुद्धिजीवी लगाते हैं, पर यथार्थ यही है कि अनुशासन के नाम पर सभी बुर्जुआ संगठन किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करते हैं।
तीन मुख्य मार्क्सवादी वामपंथी पार्टियों के नुमाइंदों की पूरी तकरीरों में आत्मालोचना का स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया।गैर-मार्क्सवादी, गैर-भाजपा बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों के लिए तो मार्क्स भारत की परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक ही नहीं हैं और उनकी समझ के अनुसार समाज में व्याप्त असंतोष के लिए, अर्थव्यवस्था के अंदर के उत्पादन संबंध जिम्मेदार न होकर, संघ परिवार की असहिष्णुता जिम्मेदार है। तीनों मार्क्सवादी पार्टियाँ भी संघ परिवार की विचारधारा को ही राष्ट्रव्यापी विघटनकारी प्रवृत्तियों के लिए जिम्मेदार मानती हैं, और जाहिर है कि इसीलिए उन्होंने, भाजपा के खिलाफ लड़ाई को अपना प्रमुख लक्ष्य बना रखा है। इसी समझ के साथ इस लडाई के लिए बुर्जुआ पार्टियों के साथ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने मार्क्सवाद को दरकिनार कर दिया है। या ये कहना ज्यादा सही होगा कि उनकी ये समझ इसलिए है क्योंकि उन्होंने मार्क्सवाद को दरकिनार कर रखा है। कोई आश्चर्य नहीं कि आम जनता, मार्क्सवादी पार्टियों में तथा अन्य बुर्जुआ पार्टियों में कोई अंतर नहीं देखती है। मैं मानता हूँ कि भारत में वामपंथी आंदोलनों की विफलता का कारण है, कि 90-95 साल पहले गठित की गयी कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के साथ रखी गई थी, और सही समझ विकसित करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व आज भी तैयार नहीं है।
बहरहाल व्यक्तिगत तौर पर, आम नागरिक के नाते मैं क्या सोचता हूँ यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि तीनों मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियाँ, आंदोलन में, सिद्धांत की भूमिका के बारे में संगठन के तौर पर क्या सोचती हैं। इसलिए उस प्रश्न, जो अनुत्तरित रह गया क्योंकि पूछा न जा सका, को यहाँ इस उम्मीद के साथ रख रहा हूँ कि शायद कहीं, सांगठनिक स्तर पर तीनों पार्टियों में से किसी को लेनिन की यह बात याद आ जाये 'कि कुछभी नहीं किया जा सकता है जब तक इस दौर (संशोधनवाद) का पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।
यहाँ प्रश्न की पृष्ठभूमि इसलिए दे रहा हूँ कि पार्टी के मूर्धन्य तो सब कुछ जानते हैं पर नई पीढ़ी पिछले पचास साल की विकास यात्रा से लगभग अनभिज्ञ है।
पचास साल पहले जब कांग्रेस का राष्ट्र निर्माण की अग्रणी भूमिका से पतन शुरू हुआ तो संघ परिवार ने अपने आपको कांग्रेस के विकल्प के रूप में पेश करने के लिए रणनीति बनाई और दस साल के अंतराल पर केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में शामिल होने के लिए, अपनी विचारधारा के साथ समझौता किये बिना, अपने पारंपरिक राजनैतिक स्वरूप जनसंघ को भी छोड़ दिया। हिंदुत्व की अपनी विचारधारा के साथ प्रतिबद्धता इतनी स्पष्ट कि दोहरी सदस्यता के मसले पर उनके मंत्रियों ने सरकार भी छोड़ दी। दस साल बाद फिर उसी तरह की परिस्थितियों में उन्होंने विचारधारा के अनुसार रामजन्मभूमि के मसले पर समझौता करने से इनकार करते हुए सरकार छोड़ने के विकल्प को चुना। उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता ने उन्हें जनता के एक तबके के बीच, कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्वीकार्य बना दिया और लोकतंत्र तथा सांप्रदायिक सौहार्द की दुहाई देनेवाली अनेकों पार्टियों को उनके पीछे लाम बंद कर दिया। उनकी अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता ने उन्हें उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया जहाँ, विरोधी पार्टियों द्वारा उन पर लगाये गये, अलोकतांत्रिक तथा सांप्रदायिक होने के, सभी आरोपों के बावजूद भारतीय मतदाता ने उन्हें एकमात्र विकल्प मानते हुए, सोलहवीं लोकसभा में पूर्णबहुमत प्रदान कर दिया।
पिछले पचास सालों पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि जब कांग्रेस टूटने के कगार पर थी, उसी समय भाकपा भी दो हिस्सों में बंट गई, जनता को आज तक नहीं मालूम कि उस बँटवारे के पीछे कौन सा सिद्धांत था। जब इंदिरा गांधी कांग्रेस के अंदर अपने बर्चस्व की लडाई लड़ रहीं थी तो दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ मजदूरवर्ग को उनके पीछे एकजुट करने में लग गईं, जिसके फलस्वरूप 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने दो तिहाई बहुमत पा लिया। जैसे जैसे कांग्रेस जनविरोधी होती गई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ कांग्रेस के विरोध में होती गईं और आपत्काल के बाद होने वाले चुनाव में, दुविधाग्रस्त एक जेपी के साथ तो दूसरी कांग्रेस के साथ खड़ी हो गई।
अस्सी के पूरे दशक में कांग्रेस पूरे बहुमत के साथ उदारीकरण की नीतियाँ लागू कर रही थी, तो कांग्रेस को कमजोर करने के लिए दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने वीपी सिंह की एक बैसाखी का काम किया जब कि दूसरी बैसाखी भाजपा की थी। और उसके बाद तो पिछले पच्चीस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों की रणनीति कांग्रेस के संदर्भ से ही तय होती आ रही हैं। जब कांग्रेस शक्तिशाली हो तो उदारीकरण की ख़िलाफ़त के नाम पर कांग्रेस का विरोध करना, और जब कांग्रेस कमजोर हो तो सांप्रदायिकता की खिलाफत के नाम पर कांग्रेस के साथ खड़े हो जाना, ऐसी है वामपंथी रणनीति, और यह किस विचारधारा या सिद्धांत के तहत है कुछ पता नहीं चलता है।
संघ की सफल यात्रा के विपरीत, पिछली शताब्दी के बीस के दशक में बनाई गई, संघ की समकालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, अपने निम्न मध्यवर्गीय चरित्र के अनुरूप, मार्क्स, लेनिन तथा माओ की परिभाषाओं को चरितार्थ करते हुए, कांग्रेस के साथ सिद्धांतविहीन दोस्ताना संघर्ष तथा समझौतों के फलस्वरूप उस मुक़ाम पर पहुँच गई है जहाँ वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सिद्धांतहीन समझौते कर अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने की लडाई लड़ रही है।
इस पृष्ठभूमि की रोशनी में, मंचासीन का. सीताराम येचुरी, का. कन्हैया कुमार तथा का. शेहला रशीद से प्रश्न है,
"क्या आप इस बात से इनकार कर सकते हैं कि संघ परिवार की सफलता का कारण उनकी अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिप्रतिबद्धता, आप चाहें तो उसे रूढ़िवादिता भी कह सकते हैं, के कारण है, और कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलता का कारण है, मार्क्सवाद के निरंतर विकास के नाम पर, कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा अपनाई गई सिद्धात विहीन संशोधनवादी नीतियाँ? दूसरे क्या मार्क्स की शिक्षा, कि वर्ग विभाजित समाज में वर्ग और वर्गहित, आर्थिक संबंधों (अंतर्वस्तु) से परिभाषित होते हैं न कि उन आर्थिक संबंधों के ऊपर विकसित हुए सामाजिक संबंधों (अधिरचना) से, को पूरी तरह नजरंदाज कर बाबासाहब और मार्क्स को एक ही खाँचे में फ़िट करने की कोशिश संशोधनवाद नहीं है?"
सुरेश श्रीवास्तव
11 अगस्त, 2016
"अनुशासन के नाम पर सभी बुर्जुआ संगठन किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करते हैं।"
ReplyDeleteयही एक बात मौजूदा परिदृष्य की कई परतों और आयामों को स्पष्ट करने के लिए काफी है।