(प्रसिद्ध टीवी एंकर रवीश कुमार के नाम खुला पत्र)
प्रिय रवीश जी,
19 अगस्त 2015 को मैंने निम्नलिखित टिप्पणी की थी,
"रवीश जी, आप एंकर हैं। आप और आपके साथियों अभिज्ञान, निधी, नग़मा आदि की एंकर की भूमिका से मैं एक हद तक संतुष्ट हूँ। आप लोग आगंतुक वक्ताओं को घेरने और उन्हें बहस को विषय से भटकाने के प्रयास में सफल न होने देने में काफ़ी हद तक कामयाब रहते हैं। पर बहस के निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ही आप अपनी पकड़ छोड़ देते हैं। आप लोगों की मजबूरी समझ सकता हूँ। आप आगंतुक वक्ताओं को पूरी तरह ध्वस्त हो जाने देंगे तो फिर वे आपके मंच पर आएँगे क्यों और फिर आपकी टीआरपी का क्या होगा। पर आप थोड़ा और सजग प्रयास करें तो आप वक़्ता को असहज किये बिना सैद्धांतिक धुंध को साफ़ करने में और अधिक योगदान दे सकते हैं।"
मैं जानता हूँ कि आपको मेरी टिप्पणी देखने का अवसर भी नहीं मिला होगा क्योंकि आपके दोस्तों की संख्या हज़ारों में पहुँच चुकी है और चाहनेवालों की संख्या लाखों में। आपको टिप्पणियां पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है। आपके लिए लाइक तथा कमेंट्स की संख्या में विस्तार होते रहना ही काफी हैं क्योंकि लोकप्रियता का वही पैमाना है। आपको पता है अधिकांश में आपके व्यक्तित्व और टीवी प्रोग्राम की आकर्षकता के बारे में ही टिप्पणी की गयी होगी और किसी भी निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के लिए इस प्रकार की लोकप्रियता पा लेना अत्याधिक संतोषजनक होना चाहिए। पर जैसा मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में रेखांकित किया था, मैं आपको सूचना प्रसारक से उपर चिंतक के रूप में भी देखता हूँ जो स्वयं की उपलब्धि, अपनी लोकप्रियता में न देखकर, नई पीढ़ी को सामाजिक परिवर्तन के लिए रास्ता तलाशने के प्रयासों में मार्ग दर्शन कर सकने की अपनी परिस्थिति और क्षमता के उपयोग में देखता है। पर पिछले दिनों फ़ेसबुक पर आपकी पोस्ट देखकर निराशा हुई है। सामूहिक समस्याओं के मूल को समझने में मदद देने वाले बौद्धिक चिंतन की जगह, व्यक्तिगत आलोचनाओं पर आप ज़्यादा तवज्जों देते नजर आ रहे हैं। शायद अपने प्रशंसकों के क्रश के दबाव से आप मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
कोई अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को अधिक महत्व दे या समाजिक सरोकारों को, इसका चुनाव तो उस व्यक्ति को ही करना होता है पर मार्क्सवादी होने के नाते मेरा मानना है कि व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित एक दूसरे के पूरक हैं और उनके द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को पूरी तरह आत्मसात न कर लिया जाय। मुझे नहीं पता कि आप मार्क्सवाद से किस हद तक सहमत हैं, पर आपकी टिप्पणियों से एक बात साफ़ है कि मार्क्सवाद के बारे में आपका ज्ञान भी अधिकांश मार्क्सवादियों की तरह सतही है। मार्क्स ने समझाया था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है और पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब वह तब करता जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल से समझना।' पिछले 90 साल से भारत में वामपंथी आंदोलन का जो हाल है उसका एक ही कारण है कि अधिकांश को मूल्य तथा मुद्रा का, या पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया तथा पूँजीवादी उत्पादन-व्यवस्था का, या काल्पनिक-समाजवाद तथा वैज्ञानिक-समाजवाद का अंतर ही नहीं पता है। एंगेल्स ने समझाया था, ' अमूर्त चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण, केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में ही है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का और कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।' और इन मूल श्रेणियों से संबंधित विषयों पर सार्वजनिक विमर्श करने पर कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने सदस्यों के ऊपर कर्फ़्यू लगा रखा है। शायद, सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए, उन्हें लोक लुभावन नारे तथा तात्कालिक आंदोलन ज़्यादा कारगर नजर आते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कारगर आंदोलन चलाने के लिए उनके सदस्यों की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विश्लेषण की क्षमता विकसित होना आवश्यक है, ये ख़तरा अवश्य है कि ये बात अंधानुकरण की प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ जाती है। पर आपके लिए तो ऐसा कोई ख़तरा नहीं है। सैद्धांतिक विषयों को सार्वजनिक विमर्श के दायरे में लाना आपके व्यावसायिक हितों के ख़िलाफ़ भी नहीं जाता है।
मार्क्स ने पी. अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में लिखा था, “……निम्न मध्यवर्गीय आनेवाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।” तथा “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च वर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी।” आप युवा वर्ग में लोकप्रिय भी हैं और अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग भी हैं। आप ज़िंदगी के उस मुक़ाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ आप अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों से संतुष्ट महसूस कर अपने प्रयासों को या तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अगली सीढ़ी ओर मोड़ सकते हैं या सामाजिक दायित्व निर्वहन की ओर। यह, ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए वक़्त के द्वारा आपको दिया गया मौक़ा है, चुनाव आपको करना है।
शुभकामनाओं सहित
सुरेश श्रीवास्तव
3 सितंबर, 2015
प्रिय रवीश जी,
19 अगस्त 2015 को मैंने निम्नलिखित टिप्पणी की थी,
"रवीश जी, आप एंकर हैं। आप और आपके साथियों अभिज्ञान, निधी, नग़मा आदि की एंकर की भूमिका से मैं एक हद तक संतुष्ट हूँ। आप लोग आगंतुक वक्ताओं को घेरने और उन्हें बहस को विषय से भटकाने के प्रयास में सफल न होने देने में काफ़ी हद तक कामयाब रहते हैं। पर बहस के निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ही आप अपनी पकड़ छोड़ देते हैं। आप लोगों की मजबूरी समझ सकता हूँ। आप आगंतुक वक्ताओं को पूरी तरह ध्वस्त हो जाने देंगे तो फिर वे आपके मंच पर आएँगे क्यों और फिर आपकी टीआरपी का क्या होगा। पर आप थोड़ा और सजग प्रयास करें तो आप वक़्ता को असहज किये बिना सैद्धांतिक धुंध को साफ़ करने में और अधिक योगदान दे सकते हैं।"
मैं जानता हूँ कि आपको मेरी टिप्पणी देखने का अवसर भी नहीं मिला होगा क्योंकि आपके दोस्तों की संख्या हज़ारों में पहुँच चुकी है और चाहनेवालों की संख्या लाखों में। आपको टिप्पणियां पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है। आपके लिए लाइक तथा कमेंट्स की संख्या में विस्तार होते रहना ही काफी हैं क्योंकि लोकप्रियता का वही पैमाना है। आपको पता है अधिकांश में आपके व्यक्तित्व और टीवी प्रोग्राम की आकर्षकता के बारे में ही टिप्पणी की गयी होगी और किसी भी निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के लिए इस प्रकार की लोकप्रियता पा लेना अत्याधिक संतोषजनक होना चाहिए। पर जैसा मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में रेखांकित किया था, मैं आपको सूचना प्रसारक से उपर चिंतक के रूप में भी देखता हूँ जो स्वयं की उपलब्धि, अपनी लोकप्रियता में न देखकर, नई पीढ़ी को सामाजिक परिवर्तन के लिए रास्ता तलाशने के प्रयासों में मार्ग दर्शन कर सकने की अपनी परिस्थिति और क्षमता के उपयोग में देखता है। पर पिछले दिनों फ़ेसबुक पर आपकी पोस्ट देखकर निराशा हुई है। सामूहिक समस्याओं के मूल को समझने में मदद देने वाले बौद्धिक चिंतन की जगह, व्यक्तिगत आलोचनाओं पर आप ज़्यादा तवज्जों देते नजर आ रहे हैं। शायद अपने प्रशंसकों के क्रश के दबाव से आप मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
कोई अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को अधिक महत्व दे या समाजिक सरोकारों को, इसका चुनाव तो उस व्यक्ति को ही करना होता है पर मार्क्सवादी होने के नाते मेरा मानना है कि व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित एक दूसरे के पूरक हैं और उनके द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को पूरी तरह आत्मसात न कर लिया जाय। मुझे नहीं पता कि आप मार्क्सवाद से किस हद तक सहमत हैं, पर आपकी टिप्पणियों से एक बात साफ़ है कि मार्क्सवाद के बारे में आपका ज्ञान भी अधिकांश मार्क्सवादियों की तरह सतही है। मार्क्स ने समझाया था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है और पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब वह तब करता जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल से समझना।' पिछले 90 साल से भारत में वामपंथी आंदोलन का जो हाल है उसका एक ही कारण है कि अधिकांश को मूल्य तथा मुद्रा का, या पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया तथा पूँजीवादी उत्पादन-व्यवस्था का, या काल्पनिक-समाजवाद तथा वैज्ञानिक-समाजवाद का अंतर ही नहीं पता है। एंगेल्स ने समझाया था, ' अमूर्त चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण, केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में ही है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का और कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।' और इन मूल श्रेणियों से संबंधित विषयों पर सार्वजनिक विमर्श करने पर कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने सदस्यों के ऊपर कर्फ़्यू लगा रखा है। शायद, सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए, उन्हें लोक लुभावन नारे तथा तात्कालिक आंदोलन ज़्यादा कारगर नजर आते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कारगर आंदोलन चलाने के लिए उनके सदस्यों की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विश्लेषण की क्षमता विकसित होना आवश्यक है, ये ख़तरा अवश्य है कि ये बात अंधानुकरण की प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ जाती है। पर आपके लिए तो ऐसा कोई ख़तरा नहीं है। सैद्धांतिक विषयों को सार्वजनिक विमर्श के दायरे में लाना आपके व्यावसायिक हितों के ख़िलाफ़ भी नहीं जाता है।
मार्क्स ने पी. अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में लिखा था, “……निम्न मध्यवर्गीय आनेवाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।” तथा “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च वर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी।” आप युवा वर्ग में लोकप्रिय भी हैं और अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग भी हैं। आप ज़िंदगी के उस मुक़ाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ आप अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों से संतुष्ट महसूस कर अपने प्रयासों को या तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अगली सीढ़ी ओर मोड़ सकते हैं या सामाजिक दायित्व निर्वहन की ओर। यह, ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए वक़्त के द्वारा आपको दिया गया मौक़ा है, चुनाव आपको करना है।
शुभकामनाओं सहित
सुरेश श्रीवास्तव
3 सितंबर, 2015
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