Thursday, 24 September 2015

बाबा साहब किसके?

कल 20 सितंबर 2015, भाकपा द्वारा लखनऊ में सोशल मीडिया पर कार्यशाला तथा मथुरा में अंबेडकर समारोह और माकपा द्वारा दिल्ली में दलित संसद। शोषण के विरुद्ध संघर्ष के संदर्भ में, भारतीय वामपंथी एक लंबे अरसे से अंबेडकर और मार्क्स को एक ही खाँचे में फ़िट करने की कोशिश करते आ रहे हैं। वामपंथी इस कोशिश से होने वाले नुकसान का आंकलन क्यों नहीं कर पा रहे हैं, मेरी लिए समझ से परे है। मैं मार्क्स को वैज्ञानिक-समाजवाद का जनक मानता हूँ और अंबेडकर को काल्पनिक-समाजवाद का एक अध्येता, उस काल्पनिक-समाजवाद का जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने निम्न-मध्य-वर्गीय बुद्धिजीवी की, कल्पना की उड़ान कहा था। उनकी कोशिश मुझे गोल छेद में चौकोर खूँटी ठोकने की कोशिश की तरह ही लगती है।
 बचपन में मेरे पिता जी ने एक कहानी सुनाई थी जो यहाँ प्रासंगिक है। एक किसान सारा साल मेहनत करता था और अपनी जरूरतों के लिए साहूकार से पैसे उधार लेता रहता था। फ़सल आने पर उसे बेचकर हासिल पैसे से साहूकार का क़र्ज़ चुकाता था और बचे पैसों से कुछ दिन तक अपनी ज़रूरतें पूरी कर पाता था, पर फिर महाजन से उधार लेने के लिए मजबूर हो जाता था। एक दिन उसने महाजन से पूछा, " मैं सारा साल मेहनत करता हूँ फिर भी मुझे पैसों की कमी रहती है और तुम कुछ भी नहीं करते हो फिर भी तुम्हें पैसे की कमी नहीं होती है, ऐसा क्यों?" साहूकार ने जवाब दिया, " मेरे पास पैसा है और पैसा पैसे को खींचता है।" कुछ दिन बाद किसान सुबह सुबह शहर पहुँचा और एक दुकान के सामने खड़ा हो गया। दुकान खुलने पर दुकानदार ने भगवान की पूजा की और अपना कैशबाक्स खोल कर उसकी भी पूजा करने लगा। किसान ने दूर से ही एक रुपये का सिक्का कैशबाक्स में उछाल दिया। दुकानदार ने किसान की तरफ़ देखा और चुपचाप अपना काम करने लगा। किसान सारा दिन वहीं खड़ा रहा। शाम को जब दुकान बंद करने का समय आया तो दुकानदार ने किसान से पूछा कि वह किस चीज का इंतज़ार कर रहा था। किसान ने कहा, " मैंने सुना था पैसा पैसे को खींचता है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि मेरा पैसा कब तुम्हारे पैसे को खींच कर लाता है।" दुकानदार ने जवाब दिया, " तुम्हें अभी भी समझ नहीं आया। मेरे पैसे ने तुम्हारे पैसे को पहले ही खींच लिया है अब तुम घर जाओ।"
 कहानी सुनाने के बाद पिता जी ने समझाया था कि अपनी फ़सल बोने के लिए अपनी ख़ुद की ज़मीन तैयार करना चाहिए। अगर दूसरे की ज़मीन में फ़सल बोने की कोशिश करोगे, तो फ़सल तैयार होने पर फ़सल काटने का अधिकार भी उसी का होगा जिसकी ज़मीन है। मार्क्स ने समझाया था कि शोषण का आधार है सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत अधिकार में हस्तांतरण, और शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए आवश्यक है कि मज़दूर वर्ग को समझाया जाय कि शोषण का आधार आर्थिक संबंधों में निहित है और उत्पादन प्रक्रियाओं के बदलने के साथ-साथ अतिरिक्त मूल्य के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी किस प्रकार बदलती है। अगर वामपंथी, शोषण का आधार जाति प्रथा में ढूंड़ेंगे तो राजनैतिक फ़ायदा तो मायावती, रामविलास और माँझी ही उठायेंगे, और अगर सांप्रदायिकता में ढूँढेंगे तो फ़ायदा, कांग्रेस, मुलायम और लालू उठायेंगे।
 पर 20 सितंबर का वामपंथियों के लिए क्या महत्व है, यह मुझे समझ नहीं आया है। बुर्जुआ पार्टियों के लिए तो इसलिए महत्वपूर्ण है कि 1932, के इसी दिन गांधी जी ने आमरण अनशन की घोषणा कर, अंबेडकर को मना लिया था कि वे दलितों को सामूहिक सशक्तीकरण की ओर ले जाने वाली, अलग चुनाव क्षेत्र की मांग को छोड़कर, सम्मिलित चुनाव क्षेत्र के अंतर्गत सीटों के आरक्षण (पूना पैकेट) को मान लें। इसके जरिए शोषक वर्ग ने सुनिश्चित कर लिया था कि दलितों में से सक्षम व्यक्तियों को निजी हितों की पूर्ति के जरिए शोषण व्यवस्था का ही मोहरा बना दिया जाय। अंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण पद देना और आजाद भारत में स्वयं चुनाव न जीत सकने पर राज्यसभा में भेजना इसी रणनीति का हिस्सा था। शायद व्यक्तिगत रूप से अंबेडकर इसको न समझ पाये हों, पर क्या सामूहिक रूप से वामपंथी भी इसको नहीं समझ पा रहे हैं या यहाँ भी व्यक्तिवादी सोच ही हावी है।

सुरेश श्रीवास्तव
21 सितंबर, 2015

1 comment: