Thursday, 3 September 2015

आरक्षण : व्यक्तिगत न्याय की ओट में सामूहिक अन्याय

आरक्षण : व्यक्तिगत न्याय की ओट में सामूहिक अन्याय
(सुरेश श्रीवास्तव का यह लेख 'मार्क्स दर्शन' के अप्रैल-जून 2011 के अंक में छपा था और आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था)

            व्यक्तियों से समाज बनता है या व्यक्ति समाज का अंग है। ये दोनों कथन समानार्थी प्रतीत होते हैं पर अर्थ का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर अंतर समझना कठिन नहीं है। अंतर्निहित अति सूक्ष्म अंतर के कारण इन दोनों कथनों पर आधारित विचार विस्तरण पर परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का निर्माण करते हैं।
            पहली धारणा में ध्यान व्यक्ति पर केंद्रित होने के कारण अंतर्सम्बंधों का और उनके अंतर्विरोधों तथा परिवर्तनों का सही आंकलन संभव नहीं है। किसी समाज के सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति और मानसिकता को एकसा मान लिया जाता है। व्यक्ति के विकास और परिवर्तन को समाज के विकास और परिवर्तन का पर्याय मान लिया जाता है। एक व्यक्ति की उपलब्धि को सारे समाज की उपलब्धि मान लिया जाता है। एक व्यक्ति की प्रगति को समाज की प्रगति मान लिया जाता है।
            दूसरी धारणा में ध्यान समाज पर केंद्रित होने के कारण अंतर्सम्बंधों और उनके अंतर्विरोधों तथा परिवर्तनों का सही आंकलन संभव हो सकता है। समाज का विकास समय काल पर निर्भर करता है न कि व्यक्ति विशेष पर। समकालीनों के संदर्भ में व्यक्ति विशिष्ट नजर आ सकते हैं पर समाज के संदर्भ में व्यक्ति विशेष की उपस्थिति या अनुपस्थिति गौण हो जाती है। सामाजिक विकास की दिशा और गति प्राकृतिक नियमों से निर्धारित होती है न कि विशिष्ट व्यक्तियों की इच्छा से।
            वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में, सामाजिक न्याय की व्याख्या, पहली धारणा के आधार पर करने के कारण व्यक्तिगत न्याय को सामाजिक न्याय का पर्याय मान लिया जाता है। निहित स्वार्थ के चलते कुछ व्यक्तियों के न्याय की चादर से सारे समाज के साथ किये जा रहे अन्याय को ढक दिया जाता है। भारतीय समाज में पिछड़ों को आरक्षण सामाजिक न्याय की अवधारणा के अनुकूल है या विपरीत है यह दृष्टिकोण भी इस पर निर्भर करेगा कि आरक्षण का विचार ऊपर दिए गए पहले कथन पर आधारित है या दूसरे पर।
            सदियों से भारतीय समाज कई छोटे-छोटे समाजों, जिनके अपने सदस्यों में, कुछ मानदंडों पर, समानता है पर दूसरे समाजों के साथ भिन्नता और टकराहट है, में बंटा नजर आता है परंतु यथार्थ में सारा भारतीय समाज और उसके छोटे-छोटे समाज मुख्यतः दो परस्पर विरोधी वर्गों में बंटे हैं। एक वर्ग वह है जिसका प्राकृतिक संसाधनों, सामाजिक परिसंपत्ति और उत्पादन के साधनों पर आधिपत्य, उस वर्ग के सदस्यों के व्यक्तिगत या सामूहिक स्वामित्व के रूप में, है और इस वर्ग के सदस्य अपने आर्थिक तथा सामाजिक हितों की पूर्ति के लिए इन्हीं साधनों का प्रयोग करते हैं। दूसरा वर्ग वह है जो अपने सदस्यों के व्यक्तिगत या सामूहिक श्रम द्वारा साधनों का उपयोग कर प्राकृतिक संसाधनों को उपयोगी उत्पाद में परिवर्तित करता। जाहिर है उत्पाद पर स्वामित्व पहले वर्ग का ही होता है। दूसरे वर्ग को उत्पाद के अंदर निहित उसके श्रम के तुल्य मुआवजा मिला है या नहीं यह आंकलन इस बात पर निर्भर करेगा कि आंकलन का दृष्टिकोण ऊपर लिखे दोनों कथनों में किस पर आधारित है।
            सामाजिक परिसंपत्ति में सदियों में हुई वृद्धि दर्शाती है कि सामूहिक रूप से समाज ने खर्च से अधिक उत्पादन किया है। तकनीक के विकास के साथ उत्पादकता बढ़ती है जिसके फलस्वरुप वेतन और लाभ में वृद्धि अवश्यंभावी है। ऊपरी तौर पर श्रमिक को उसके श्रम का उचित मुआवजा दिया जाता है पर वास्तव में मुआवजा उसके मूल्य से कम होता है। उत्पाद में श्रम के मूल्य और श्रम के मुआवजे का अंतर (अतिरिक्त श्रम), बचत के रूप में सदियों से संचित होता रहा है। चूंकि संसाधनों पर स्वामित्व वाले वर्ग का ही उत्पाद पर अधिकार होता है इस कारण संचित बचत पर भी उसी का स्वामित्व होता है। यही कारण है कि तकनीक के विकास के साथ उत्पादकता और सामूहिक संपत्ति बढ़ने के बावजूद संपन्न और विपन्न वर्गों के बीच की खाई बढ़ती जाती है। अगर भिन्न वर्गों के वेतनभोगियों के वेतन और उद्यमियों के लाभ का विश्लेषण किया जाए तो यह बात साफ-साफ देखी जा सकती है कि जहां उत्पाद के मूल्य में उत्पादक श्रम के योगदान के मुकाबले उत्पादक श्रम का मुआवजा या वेतन कम होता है वहीं गैर-उत्पादक श्रम का मुआवजा अधिक होता है जबकि सामाजिक न्याय का तकाजा है कि श्रम का मुआवजा उत्पादन में मूल्य के अनुपात में होना चाहिए।
            समाज और अर्थव्यवस्था में आर्थिकोपार्जन करने वाले विभिन्न व्यक्तियों को उत्पादन में योगदान के आधार पर मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। एक वे जिनका श्रम सीधे-सीधे उत्पादन में काम आता है या उससे सीधे-सीधे जुड़ा होता है। दूसरे वे जिनके पास संसाधनों का प्रत्यक्ष या परोक्ष स्वामित्व होता है। तीसरे वे जो विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करते हैं। सेवाएं भी उनकी प्रकृति के आधार पर दो भागों में बांटी जा सकती हैं, पहली वे जो उत्पादन, उसके संसाधनों के विकास और उसके वितरण को सुगम बनाती हैं तथा दूसरी वे जो संसाधनों के स्वामित्व की देख-रेख करती हैं और उसे मान्यता प्रदान करती हैं।
            तकनीक के विकास के साथ अनुपातिक वृद्धि के क्रम में सबसे नीचे उत्पादन से जुड़े श्रम का वेतन, फिर उससे जुड़ी सेवाओं का वेतन, उससे ऊपर स्वामित्व से जुड़ी सेवाएं और सबसे ऊपर स्वामित्व से अर्जित लाभ। जहां सबसे नीचे के क्रम पर वार्षिक वृद्धि दर बमुश्किल दस प्रतिशत होती है वहीं सबसे ऊंचे क्रम पर वृद्धि दर दसियों प्रतिशत से लेकर कई सौ प्रतिशत तक है। सामूहिक साधनों और सुविधाओं का उपभोग भी इसी क्रम में है।
            शुरू में हर व्यक्ति उत्पादक श्रम करता था और उत्पादन उत्पादकों के उपभोग के लिए किया जाता था। परंतु तकनीक के विकास के साथ श्रम की उत्पादकता बढ़ी और उसके साथ उपभोग से अधिक उत्पादन भी। यहीं से समाज का दो वर्गों में विभाजन शुरू हुआ। एक वर्ग जो उत्पादन में जुटा था दूसरा जो अतिरिक्त उत्पादन पर आधिपत्य हासिल करने में व्यस्त था। अतिरिक्त उत्पादन पर आधिपत्य के साथ दूसरे वर्ग की ताकत बढ़ती गई और जहां शुरू में आधिपत्य हासिल करने और उसकी रखवाली करने में उसे श्रम करना पड़ता था वहीं ताकत बढ़ने के साथ उसने पहले वर्ग के कुछ लोगों का श्रम अपना आधिपत्य हासिल करने और उसकी रखवाली करने के लिए खरीदना शुरू कर दिया। शुरू में जहां दूसरा वर्ग पहले वर्ग पर अपनी पकड़ बनाने के लिए शारीरिक बल का प्रयोग करता था वहीं अब तकनीक के विकास और संसाधनों पर अपने आधिपत्य के कारण वैचारिक और मानसिक स्तर पर पकड़ बनाना संभव हो गया। धर्म और जाति आधारित विचारधाराओं के प्रादुर्भाव से यह पकड़ व्यक्तिगत स्तर से उठकर सामाजिक और सामूहिक स्तर पर पहुंच गई। वर्चस्व शारीरिक स्तर पर कम और मानसिक स्तर पर अधिक होने के कारण दूसरे वर्ग का संसाधनों पर आधिपत्य और पहले वर्ग पर पकड़ अधिक कारगर और मान्य हो गई।
            संसाधन सदियों से संचित अतिरिक्त श्रम है और नैतिक तौर पर सारे समाज का उस पर अधिकार है। संसाधनों पर जब तक एक वर्ग विशेष का आधिपत्य है तब तक सामाजिक न्याय की बात बेमानी है। सामाजिक न्याय तभी संभव है जब संसाधनों का स्वामित्व सामूहिक रूप से समाज के पास होगा न कि एक वर्ग विशेष के पास और उत्पादन सामाजिक उपयोग और उपभोग के लिए होगा न कि चंद विशिष्ट व्यक्तियों की हवस और तृष्णा पूर्ति के लिए। जाहिर है विशिष्ट वर्ग को यह स्थिति किसी भी हाल में स्वीकार नहीं है जबकि सामाजिक न्याय और आम जन के लिए यही अनिवार्य है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच टकराव और सामाजिक न्याय की दिशा में समाज को ले जाने के लिए आम जन का संघर्ष अपरिहार्य है। कोई भी कदम जो इस संघर्ष को आगे ले जाता है या तीव्र करता है, स्वागत योग्य है।
            सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है कि दलित और पिछड़े वर्ग के सदस्यों की क्षमता इस प्रकार विकसित की जाए कि वे एक बड़ी संख्या में, न कि सीमित संख्या में, उच्च जातियों के सदस्यों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए समाज के विकास में योगदान दे सकें। जाहिर है कम उम्र से क्षमताएं विकसित करने की आवश्यकता है न कि स्पर्धा का मानदंड नीचा करने की। चूंकि बच्चों की क्षमताएं विकसित होने में दस से बीस वर्ष लगते हैं, अंतरिम दौर में जब कि एक पूरी पीढ़ी विकसित हो रही है, आरक्षण का प्रावधान, यह सुनिश्चित करते हुए कि सामाजिक न्याय की प्रक्रिया किसी भी प्रकार से क्षीण न हो, किया जा सकता है।
            आरक्षण की अवधारणा है कि जो सदियों के सामाजिक शोषण और वर्जना के कारण दलित और पिछड़े हुए हैं उनके पिछड़ेपन की उचित क्षतिपूर्ति की जाए इस कारण आरक्षण का उद्देश्य उचित स्पर्धा के लिए, वंचना के कारण उपजी, अक्षमता को निरस्त करने की कोशिश करना है। इस संदर्भ में एक व्यक्ति, जिसके कम-से-कम एक अभिभावक को आरक्षण का लाभ लेते हुए एक दशक से अधिक हो गया है, उस व्यक्ति, जिसके किसी भी अभिभावक को आरक्षण का लाभ नहीं मिला है, की तुलना में दलित या पिछड़ा नहीं माना जा सकता है। अगर मलाईदार तबके को आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया जाता है तो सामाजिक न्याय का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
            किसी भी वर्ग में व्यक्तियों की व्यक्तिगत, शारीरिक और मानसिक क्षमता बराबर नहीं होती है। संघर्षरत वर्ग में कुछ व्यक्ति संघर्ष को दिशा देने और उसकी धार तेज करने में और सदस्यों की तुलना में अधिक सक्षम होते हैं। ऐसे व्यक्ति जहां शोषित वर्ग के लिए मूल्यवान होते हैं वहीं शोषक वर्ग के लिए राह के रोड़े होते हैं। शुरू में विद्रोह की आवाज दबाने के लिए शारीरिक बल का खुला प्रयोग किया जाता था पर कालांतर में विद्रोहियों को बीन कर संघर्ष की धार कुंद करने में प्रलोभन ज्यादा आसान और कारगर होने लगे।
            वर्तमान में सरकारी नौकरियों में और उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा संस्थानों में दलित और पिछड़ों के लिए आरक्षण की मांग इस धारणा पर आधारित है कि सदियों से दबी कुचली जाति के लोगों से सीमित अवसरों को हासिल करने के लिए ऊंची जाति के लोगों के साथ बराबरी से प्रतियोगिता की मांग करना न्यायोचित नहीं है और उनको मुख्य धारा में लाने के लिए और उनकी क्षमता बढ़ाने के लिए, उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक कमजोरी को देखते हुए, यह आवश्यक है कि उनके लिए कुछ स्थान आरक्षित कर दिए जाएं ताकि उनको गैर-बराबर प्रतियोगिता का सामना न करना पड़े। अवसर मिल जाने पर समय के साथ वे क्षमताएं हासिल कर लेंगे और इस प्रकार यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक कारगर कदम होगा।
            इस धारणा में मूलभूत गलती यह है कि दलित और पिछड़ी जाति के कुछ लोगों को पूरे वर्ग का पर्याय मान लिया गया है, उन्हें प्राप्त अवसरों का सारे वर्ग को प्राप्त अवसरों से घालमेल कर दिया गया है। उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार को सारे दलित और पिछड़े वर्ग की क्षमता और सामाजिक स्थिति में सुधार का पर्याय मान लिया गया है।
            दूसरी गलती -मात्रात्मक परिवर्तन ही गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते हैं- के सिद्धांत को लागू करने में है। छोटे-छोटे परिवर्तन मिलकर क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं, थोड़े-थोड़े लोगों की स्थिति में सुधार लाकर अंततः सारे समाज में सुधार लाया जा सकता है, कदम-ब-कदम चल कर मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन का सिद्धांत तब लागू होता है जब मात्रात्मक परिवर्तन जुड़ते जाते हैं और कदम-ब-कदम चल कर मंजिल पर तब पहुंचा जा सकता है जब अगला कदम पिछले कदम से आगे ले जाए। अगर पिछला मात्रात्मक परिवर्तन अगले मात्रात्मक परिवर्तन का विरोधी हो जाए तो मात्रात्मक परिवर्तन कभी भी गुणात्मक परिवर्तन में परिवर्तित नहीं हो सकता है। एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलकर कभी भी मंजिल पर नहीं पहुंचा जा सकता है।
            जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिल जाता है वे यह भूलकर, कि उनके दलित और पिछड़े होने का एकमात्र कारण संसाधनों और परिसंपत्तियों का सामूहिक स्वामित्व न होकर व्यक्तिगत स्वामित्व होना है, स्वयं व्यक्तिगत स्वामित्व के न केवल पैरोकार हो जाते हैं बल्कि स्वयं भी उस होड़ में शामिल हो जाते हैं। अपनी सुधरी स्थिति का लाभ उठाकर गैरबराबरी की प्रतियोगिता में अपने ही वर्ग के अन्य पिछड़ों को उनके अवसरों से वंचित कर देते हैं। इस कारण वर्तमान आरक्षण प्रक्रिया सामाजिक न्याय के संघर्ष में मारीचिका के सिवाय कुछ भी नहीं है।
            दलित और पिछड़े वर्ग के दस क्षमतावान व्यक्तियों, जो सामाजिक न्याय को समझ और उसके लिए संघर्ष कर सकते हैं, में से एक को आरक्षण का लाभ दे कर सामाजिक न्याय की दुहाई दी जाती है और उस दिशा में इसे एक कदम बताया जाता है। पर यह एक आरक्षण बाकी नौ के लिए प्रलोभन का काम करता है। वे एक झूठी आशा के साथ, कि शायद कभी उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल जाए, आरक्षण की मारीचिका के पीछे दौड़ते रह जाते हैं। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण वे समझ नहीं पाते कि जहां एक को आरक्षण का लाभ मिलना तय है वहीं नौ को न मिलना भी तय है। समय के साथ उनके दिलों में जल रही विद्रोह की ज्वाला शांत हो जाती है। यह एक आरक्षण न केवल सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की धार कुंद कर देता है बल्कि संघर्ष को दस कदम पीछे धकेल देता है।
'जाहिर है मलाईदार तबके के पार्थक्य बिना आरक्षण सामाजिक न्याय के लिए घातक है।'

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