Monday, 9 May 2016

पाठकों के मुखातिब




पाठकों के मुखातिब
(त्रैमासिक पत्रिका मार्क्स दर्शन के वर्ष 1 अंक 4, जुलाई-सितम्बर 2011 का संपादकीय)

            पचीस साल पारिवारिक तथा सांसारिक दलदल में संघर्ष करने के बाद उबरने पर पाया कि चारों ओर अफरा-तफरी मची है, हर तरफ हालात को कोसने तथा बदले जाने की मांग का प्रलाप सुनाई दे रहा है। लगा यह आसन्न क्रांतिकारी परिवर्तन का ऊषाकाल है। सामाजिक दायित्व के निर्वहन की उत्कट इच्छा अपनी भूमिका तलाशने के लिए मजबूर कर रही थी। मार्क्सवादी सोच ने समझाया कि, उम्र के इस पड़ाव में मेरी जैसी समझ के लिए तार्किक रूप से काले-सफेद अक्षरों की दुनिया में ही सर्वाधिक उपयुक्त भूमिका मिल सकने की संभावना है।
            पर शीघ्र ही समझ आ गया कि हिंदी लेखन-पठन का जो माहौल पिछले साठ सालों में विकसित हुआ है उसमें मुझ जैसे के लिए कोई जगह नहीं है। जिसे मैं ऊषाकाल समझ रह था वह तो अनंतकालीन दीर्घ रात्रि थी जिसके ऊषाकाल का दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं था। चारों ओर मची अफरा-तफरी और हर तरफ हालात को कोसने तथा बदले जाने की मांग का जो प्रलाप सुनाई दे रहा था वह तो पूंजीवाद के वितान तले, उसी की दौलत की रोशनी में, उसी के निदेशन में खेली जाने वाली नाटिकाएं हैं जो दर्शक-दीर्घा में हाशिये पर बैठी 90 करोड़ की शोषित जनता को मुदित और भ्रमित करने के लिए खेली जा रही हैं। सारे किरदार जो कुछ भी कर रहे हैं वह इस शोषण व्यवस्था को बरकरार रखने तथा मजबूती प्रदान करने के लिए ही कर रहे हैं और उनके अपने आर्थिक हितों की पूर्ति भी 90 करोड़ की आबादी की लूट के एक हिस्से से पूरी हो रही है। यथार्थ से सभी बेखबर हैं और कुछ इस भ्रम में जी रहे हैं कि वे 90 करोड़ की आबादी की लूट में शामिल नहीं हैं बल्कि उसे शोषण से निजात दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। हाशिये पर बैठी जनता न तो मुदित है और न ही भ्रमित, हां सारे किरदार जरूर, अपनी-अपनी अक्ल की कमी और सन्निपात के अनुसार, मुदित भी हैं और भ्रमित भी। सारी भीड़ में इक्का-दुक्का हैं जो पूरी तरह जागरूक हैं, सारे रंगकर्म को अच्छी तरह समझ रहे हैं पर न तो इस नक्कारखाने में उनकी तूती की आवाज सुनने वाला कोई है और न ही उनके पास एकजुट होने का कोई रास्ता है।
            किरदारों को निदेशित तथा नियंत्रित करने की प्रक्रिया भी बड़ी ही सरल है।
            पूंजीवाद के वितान तले व्याप्त है वैचारिक व्योम जिसकी अंतर्वस्तु है निजी स्वार्थ जो अदृश्य डोरियों से कठपुतलियों को नियंत्रित करता है, तथा व्याप्त है मुद्रा तथा पूंजी की जगमग जो किरदारों को निरंतर सम्मोहन की अवस्था में रखती है। यह तो है परोक्ष वातावरण। प्रत्यक्ष में होता है प्रजातंत्र का आवरण जो आभास देता है कि हर एक आजाद है और कोई किसी डोर से नियंत्रित नहीं है, हर एक को समान अधिकार हैं, बिना किसी भेद-भाव के, और ऊंच-नीच का भेद प्रारब्धजन्य है उसके लिए न ही पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है और न ही कुछ किया जा सकता है।
            केंद्र में शीर्ष पर एक समूह है (राजसत्ता) जिसके जरिये सारी व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है और जो स्वायत्तता तथा निरपेक्षता के आवरण से ढंका रहता है। प्रजातंत्र के जाल का विस्तार हाशिये पर बैठी जनता तक जाता है तथा यह भ्रम पैदा करता है मानो इस समूह का नियंत्रण हाशिये पर बैठी जनता के हाथ में है। यथार्थ का आभास कराने के लिए कभी-कभी जनता के सुझावों के अनुरूप इसकी साज-सज्जा में कुछ सतही परिवर्तन भी कर दिये जाते हैं पर मूल संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है। रंगमंच पर मौजूद 20 करोड़ की आबादी अपने-अपने किरदारों के आधार पर विचार श्रंखलाओं से बंधी भिन्न-भिन्न समूहों के रूप में अपना किरदार निभाती रहती है। सर्वाधिक संपन्न केंद्र के सबसे नजदीक के घेरे में अपना खेल खेलते हैं और घटती संपन्नता के साथ खेल का दायरा भी केंद्र से दूर होता जाता है। चूंकि संपन्नता केंद्र की नजदीकी से सीधी-सीधे जुड़ी हुई है इस कारण जाने-अनजाने हर किसी का प्रयास केंद्र के अधिक से अधिक नजदीक के दायरे में पहुंचने का होता है और इस प्रयास में वह अपने सभी मूल्यों के अवमूल्यन की कीमत चुकाता चला जाता है।
            पटकथा भी बड़ी सीधी-सादी सपाट है।
            समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान तो किया नहीं जा सकता है क्योंकि समस्याएं उसी व्यवस्था की प्राणवायु हैं जो उन्हें जन्म देती है या यूं कहें कि पूंजीवादी व्यवस्था को अपनी निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए समस्याओं को पैदा करना जरूरी है। पर 90 करोड़ की आबादी को गुमराह करने के लिए बलि के बकरों यानि कि समस्या के लिए जिम्मेदार लोगों और समूहों की पहचान जरूरी है। इस कारण सभी के लिए एक रंगकर्म सुनिश्चित कर दिया गया है। अपनी तुलना में केंद्र के अधिक नजदीक समूहों की आलोचना करना तथा केंद्र से अधिक दूर समूहों की आलोचना सुनना। सारा रंगकर्म इसी आलोचना प्रत्यालोचना पर आधारित है।
            चूंकि समाज के गठन का आधार है लोगों के बीच विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया इस कारण ऐसे लोगों, जो विचारों तथा सूचना के विस्तार में संलग्न हैं, के समूह सर्वव्यापक हैं। यही वे समूह हैं जो सही विचारों के विस्तार के जरिए 90 करोड़ की आबादी को जागरूक कर संगठित होने तथा पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। विडम्बना यह है कि इन समूहों का सदस्य गलतफहमी में है कि इसी व्यवस्था द्वारा लिखी पटकथा के अनुसार नाटक खेलते हुए भी केंद्र के नजदीक पहुंच कर तथा उस पर काबिज हो कर व्यवस्था को बदला जा सकता है। वह यह भूल जाता है कि केंद्र के नजदीक पहुंचने की प्रक्रिया और नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन एक दूसरे के पूरक हैं और केंद्र के नजदीक पहुंचने तक उसके सारे मूल्यों का अवमूल्यन हो चुका होता है। केंद्र में होने के लिए अनिवार्य शर्त है मूल्यों की पूर्ण आहुति।
             लेनिन ने कहा था, 'राजनीति में लोग हमेशा ही छलावे तथा गलतफहमी के शिकार रहे हैं, अज्ञानी होने के कारण, और होते रहेंगे जब तक कि वे सभी नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वक्तव्यों, घोषणाओं तथा वायदों के पीछे एक या दूसरे वर्ग के हितों की पड़ताल करना नहीं सीख लेते हैं। सुधार तथा संशोधनों के पैरोकार, पुरानी व्यवस्था के ठेकेदारों के द्वारा, हमेशा ठगे जायेंगे जब तक कि वे यह नहीं समझ लेते हैं कि हर पुरानी व्यवस्था, चाहे कितनी भी असभ्य तथा सड़ी हुई नजर क्यों न आती हो, विशिष्ट शासक वर्गों की ताकतों के द्वारा ही अस्तित्व में बरकरार रखी जाती है। और उन वर्गों के प्रतिरोध को ध्वस्त करने का सिर्फ एक ही रास्ता है, और वह है, हमारे चारों ओर के इसी समाज में उन शक्तियों, जो उस क्षमता, जो पुरातन को बुहार कर नये का निर्माण कर सकने में सक्षम है, का गठन कर सकती हैं तथा, जिन्हें अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण, करना चाहिए, को ढूंढ़ निकालना और संघर्ष के लिए उन्हें जागरूक तथा संगठित करना। (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 14)। लेनिन के ही शब्दों में, 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है।' (माक्र्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 17)। विचार-विमर्श के मंच के रूप में सैद्धांतिक लेखों के जरिए मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को समझने तथा मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर आज कल के हालात की पड़ताल करने के व्यावहारिक ज्ञान का अवसर अपने पाठकों-लेखकों को हासिल कराने को ही मार्क्स दर्शन ने अपना कर्म निर्धारित किया है। आशा है हमारे लेखक तथा पाठक मार्क्स दर्शन के उद्देश्य में निहित इस द्वंद्व को समझ कर, सैद्धांतिक तथा आज के हालात पर आलोचनात्मक, अपने लेखों तथा टिप्पणियों से मार्क्स दर्शन के इस अभियान को सफल बनाने में भरपूर सहयोग प्रदान करेंगे।
            इस बार 'विमर्श' में हमने अनिल राजिमवाले के लेख पर पाठक के रूप में दिनेश बैस की टिप्पणी, फिर उस पर लेखक का स्पष्टीकरण और अंत में सारांश संपादकीय हस्तक्षेप के रूप में छापा है, लेखक-पाठक के रूप में जी.पी. मिश्र के लेख पर बिंदुवार प्रतिक्रिया ' मार्क्सवादी नजर से' के अंतर्गत छापी है, तथा सीताराम येचुरी का एक पुराना प्रकाशित लेख तथा उस लेख पर सुरेश श्रीवास्तव की प्रकाशित प्रतिक्रिया भी ' मार्क्सवादी नजर से' के अंतर्गत छापी है ताकि पाठकों को मार्क्स दर्शन के उद्देश्य का व्यावहारिक रूप समझ आ सके। 'इस दौर में जब अवसरवाद के प्रवचन का रिवाज तथा अति संकीर्ण व्यावहारिक सक्रियता के प्रति आसक्ति का चोली दामन का साथ है, इस विचार (क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है) का आग्रह, बार-बार जितना भी किया जाये, कम है।' (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 17)। मार्क्स दर्शन के उद्देश्य के लिए पाठकों का सक्रिय योगदान हमारे लिए अत्यंत बहुमूल्य है।  

सुरेश श्रीवास्तव
संपादक



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