Friday, 20 May 2016

सोसायटी फ़ॉर साइंस के सोशल मीडिया ग्रुप के साथियों से अपील

सोसायटी फ़ॉर साइंस के सोशल मीडिया ग्रुप के साथियों से अपील

फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर ग्रुप बनाये हुए लगभग दस महीने हो गये हैं और सदस्य संख्या 250 पार कर चुकी है, पर जिस उद्देश्य के लिए ग्रुप बनाये गये थे उसको हासिल करने की दिशा में नाममात्र की भी प्रगति नहीं हुई है। सैद्धांतिक विमर्श को आगे बढ़ाने के मक़सद से मार्क्सदर्शन के ब्लॉग, फेसबुक तथा व्हाट्सएप पर पोस्ट की गयी मेरी लगभग सौ टिप्पणियों पर इक्का दुक्का प्रश्नों को छोड़ कर सारा विमर्श 'लाइक' तक सीमित रह गया है। अधिकतर सदस्यों की अपनी-अपनी टाइमलाइन पर उनके अपने-अपने तरीके के पोस्ट नजर आते हैं जिनमें सेल्फी, कटाक्ष, चुटकुले, आंदोलन तथा समस्याओं आदि से संबंधित समाचार, इस या उस पार्टी की आलोचना, नसीहतें, गरियाना आदि सभी कुछ नजर आता है, सिवाय सोसायटी फ़ॉर साइंस के मंच पर विमर्श में सक्रिय भागीदारी तथा सैद्धांतिक समझ विकसित करने के किसी भी गंभीर प्रयास के।
अंसंवेदनशीलता, अमीर ग़रीब के बीच बढ़ती खाई, दलितों तथा स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा, निर्बल पर सबल द्वारा अत्याचार, सरकार की उदासीनता, भ्रष्टाचार, साम्राज्यवाद आदि विषयों पर गर्मागर्म बहसें हर जगह सुनायी देती हैं, और कुछ न कर सकने की बेबसी के बीच युवावर्ग की छटपटाहट और बेसब्री भी हर जगह महसूस की जा सकती है। समस्याओं के कारणों तथा समाधान की रणनीति के ऊपर मतैक्य से अधिक मतभेद नजर आते हैं, बावजूद इसके कि बहुत बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि मार्क्सवाद के द्वारा ही इन सामाजिक समस्याओं का निदान किया जा सकता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत - द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - को मैंने व्यावहारिक जीवन में हर व्यक्तिगत तथा पारिवारिक मसले को समझने-सुलझाने में सक्षम पाया है, और जो प्रकृति का मूलभूत नियम होने के कारण हर प्रकार के पूर्वाग्रहों को बेनकाब करने में सक्षम है, वह लोगों के बीच मतभेद दूर कर एकजुटता क़ायम करने तथा उन्हें सामाजिक समस्याओं को हल कर सकने में मदद नहीं कर पा रहा है क्योंकि हर किसी का (पूर्व)आग्रह है कि मार्क्सवाद के नाम से जाने जानेवाले सिद्धांत की उसकी अपनी समझ, तथा उसकी अपनी कल्पना का समाजवाद तथा उसकी राह ही सही है और सभी को उसके द्वारा सुझाये रास्ते पर लामबंद हो जाना चाहिए। मार्क्सवाद की मूलभूत अंतर्वस्तु को समझने समझाने के विमर्श से हर कोई कतराता है। शायद मार्क्सवाद के बारे में, अपनी समझ की कमी को स्वीकारने में मूर्धन्यों का अहं आड़े आ जाता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अनगिनत नेताओं के अनगिनत पूर्वाग्रहों के चलते, वामपंथी आंदोलन अनगिनत शाखाओं में बँटा हुआ है।
ऐसे में सीमित पर अत्याधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य में सोसायटी द्वारा एक क़दम भी आगे न बढ़ पाने का दोष सदस्यों के ऊपर थोपना सही नहीं होगा। ग्रुप के इन 250 सदस्यों की महत्वाकांक्षा नेता बनने की हो ऐसा नहीं है। वे सभी आम निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी हैं जो उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुके हैं जहाँ नेतृत्व कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने के उनके अवसर निकल चुके हैं। पर जो लोग थोड़ा बहुत वक़्त निकाल कर फेसबुक तथा व्हाट्सएप पर गंभीर टिप्पणियों को पढ़ने तथा लाइक करने का समय निकालते हैं क्या यह उनका अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग होना नहीं दर्शाता है? पर वे सब, कुछ एक को छोड़कर, सोसायटी फ़ॉर साइंस के मंच पर वैचारिक विमर्श में सक्रिय भागीदारी क्यों नहीं निभाना चाहते हैं? चूँकि सोसायटी फ़ॉर साइंस का गठन मेरी पहल पर किया गया है, इसलिए कारण और निदान ढूँढने का दायित्व भी मेरा ही बनता है।
किसी संगठन की कार्य प्रणाली तथा गतिविधि का सही आंकलन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर ही किया जा सकता है। विश्लेषण करते समय किसी भी संगठन को एक जैविक चैतन्य संरचना के रूप में देखा जाना चाहिए जिसकी सांगठनिक चेतना उसके अपने सदस्यों की व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होती है। संगठन और व्यक्तियों की चेतना के बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है अर्थात वे एक ही समय पर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। व्यक्ति के लिए उसकी अपनी चेतना मुख्य होती है पर संगठन के लिए व्यक्तिगत चेतना गौण होती है तथा उनके बीच का संबंध करणात्मक न होकर द्वंद्वात्मक होता है। संगठन, व्यक्तियों के समूह से भिन्न होता है।
व्यक्ति एक दूसरे के साथ वैचारिक स्तर पर किसी उद्देश्य को हासिल करने के उद्देश्य से ही जुड़ते हैं। उद्देश्य स्पष्ट होना तथा उद्देश्य प्राप्ति की प्रक्रिया में लोगों का एक दूसरे का पूरक होना, दीर्घकालीन एकजुटता के लिए ज़रूरी है अन्यथा समूह संगठन बनने से पहले ही बिखर जाता है। उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले निरंतर प्रयास के दौरान ही लोगों की सामूहिक चेतना विकसित होती है और एक स्तर पर आकर सामूहिक चेतना संगठन की चेतना का रूप ले लेती है। बड़ी संख्या में लोगों के जुड़ने तथा साझा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर किये जाने वाले प्रयास से ही सामूहिक चेतना, गुणात्मक रूप से भिन्न, संगठन की चेतना में परिवर्तित होती है। यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के, मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के नियम के अनुरूप ही होता है। यही विचार और व्यवहार का द्वंद्वात्मक संबंध है।
इस गुणात्मक परिवर्तन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयाम है जिसे आम तौर पर लोग, मार्क्सवादी चिंतन के अभाव में नजरंदाज कर देते हैं। निम्न स्तर पर समूह में विशिष्ट व्यक्ति या नेतृत्व की सोच ही समूह की सोच को नियंत्रित करती है, पर गुणात्मक परिवर्तन के बाद संगठन की चेतना स्वायत्त हो जाती है। नेतृत्व, उस स्वायत्त चेतना का प्रतीक मात्र होता है। नेतृत्व स्वयं संगठन की चेतना के नियंत्रण में होता है। इसी सिद्धांत के आधार पर मार्क्स ने निम्न स्तर की बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था तथा उच्च स्तर की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के अंतर को समझाया था। पर हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी मार्क्सवाद की सही समझ के अभाव में समझ ही नहीं पाते हैं कि विकसित पूँजीवाद में पूँजीपति पूँजी का मालिक नहीं रह जाता है बल्कि पूँजी का वाहक बन कर रह जाता है। पूँजी के लिए जब माल्या जैसा व्यक्ति काम का नहीं रह जाता है तो निकाल कर फेंक दिया जाता है।      
ढाई सौ से ज्यादा लोगों द्वारा सोसायटी के ग्रुप के साथ जुड़ना अपने आप में उनकी सदिच्छा को दर्शाता है। यह सही है कि कुछ लोग केवल अपने अहं तथा समाज में अपनी विशिष्ट पहचान की अभिलाषा तुष्ट करने के लिए ही सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, पर अधिकांश दुविधाग्रस्त हैं। अपनी सामाजिक आर्थिक परिस्थिति के कारण निम्न मध्यवर्गीय हमेशा ही हर सामाजिक क्रांति का अभिन्न अंग होता है पर उसका रवैया भी अक्सर ढुलमुल ही रहता है। वह विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी होता है और संपन्नों की संपन्नता से ललचाया भी। निम्न मध्यवर्गीय एक ही समय पर समाजवादी भी होता है और अर्थवादी भी। दूरदर्शिता के अभाव में, वह अपने हित को सामूहिक हित के साथ जोड़कर नहीं देख पाता है। इसी वर्ग से वे लोग भी निकलते हैं जो जागरूक होकर, नये विचारों का निर्माण कर, तथा परिवर्तनकारी शक्तियों को एकजुट कर क्रांतिकारी परिवर्तनों को अंजाम देते हैं।
सोसायटी फ़ॉर साइंस की परिकल्पना इस समझ के आधार पर की गयी है कि वामपंथी आंदोलन में बिखराव का एकमात्र कारण है, बुद्धिजीवियों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव होना तथा मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ का संशोधनवाद से प्रदूषित होना, जिसके कारण लोग अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा नहीं पा पाते हैं। सिद्धांत में संशोधनवाद की व्याप्ति को दूर करने का तथा वामपंथी आंदोलन में एकजुटता सुनिश्चित करने का एकमात्र उपाय है, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धियों के बीच सैद्धांतिक विमर्श के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना। सोसायटी फ़ॉर साइंस का गठन इसी सीमित उद्देश्य के साथ किया गया है। सोसायटी का नाम - Society for Socially Conscious Intellectuals ENlightenment and CEphalisation (सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के ज्ञानोदय तथा एकजुटता के लिए) - सोसायटी के उद्देश्य तथा कार्यनीति को स्पष्ट करता है।
सोसायटी फ़ॉर साइंस ने अपने लिए बहुत सीमित उद्देश्य चुना है, और मुझे इसके लिए हर तरफ से आलोचना भी झेलना पड़ती है। वामपंथी साथियों का कटाक्ष होता है, दार्शनिकों ने व्याख्या तो बहुत की है, सवाल तो बदलने का है। सदस्यों का प्रश्न होता है कि यथार्थ के धरातल पर क्या करना है। हर कोई किसी न किसी प्रकार की राजनैतिक दख़ल के लिए उतावला है। ' सिद्धांतहीनता तथा अतिसक्रियता का चोली-दामन का साथ है ' इसलिए सिद्धांतविहीन परिवेश में इस प्रकार की आलोचना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। यह बात तय है कि व्याप्त संशोधनवाद से छुटकारा पाये बिना एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता है और संशोधनवाद से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है एकाग्र विषय-केंद्रित विमर्श। आमतौर पर बुद्धिजीवियों के बीच होनेवाले विमर्श शीघ्र ही विषय से भटक जाते हैं और विमर्श वाद-विवाद का रूप ले लेते हैं। हर कोई अपने पूर्वाग्रह से अनभिज्ञ, अपनी ही समझ को सही मानते हुए हर तरह के आँकड़ों तथा तथ्यों से अपनी बात को सही सिद्ध करने में अपना ध्यान विषय की अधिरचना पर ही केंद्रित किये रहता है। जाहिर है ऐसे में विषय की अंतर्वस्तु को नियंत्रित करने वाले द्वंद्वों की पहचान नजरंदाज हो जाती है।
क्योंकि सामाजिक संरचना का अस्तित्व वैचारिक है, इसलिए आवश्यक है कि सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करने में रुचि रखने वाले बुद्धिजीवी अपनी अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित करें, तथा पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने के लिए सामाजिक-आर्थिक कोटियों - वर्ग तथा वर्गचरित्र, राज्य, राजसत्ता, उत्पादन संबंध, वर्ग-संघर्ष, अंतर्विरोध आदि - को उनके मूल अर्थात चेतना-अस्तित्व, मूल्य, मुद्रा, पूँजी आदि में निहित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों के आधार पर समझने का प्रयास करें, न कि तथ्यों तथा आँकड़ों के आधार पर। व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना की विकास प्रक्रिया पर लागू होनेवाले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुसार, अमूर्त चिंतन विकसित करने का एकमात्र उपाय है, चीजों के दार्शनिक आयाम पर विमर्श करना, तथा पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करने का एकमात्र उपाय है, चीजों को उनके मूल से पकड़ना। इसी को ध्यान में रखते हुए सोसायटी ने अपना उद्देश्य तथा कार्यनीति निर्धारित की है। सोसायटी अपने ब्लॉग तथा सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर किसी भी सामाजिक विषय के एक आयाम पर केंद्रित लेखों के जरिए सदस्यों को विमर्श के लिए आमंत्रित करती है।
सोसायटी द्वारा की जानेवाली पहल तो ठीक है, पर सदस्य विमर्श में सक्रिय भागीदारी क्यों नहीं कर रहे हैं। उनकी भागीदारी उदासीन 'लाइक' से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है, यह अहम प्रश्न है। उनकी उदासीनता का कारण तथा उसका निदान दोनों ढूँढना ज़रूरी है।
सोसायटी के फ़ेसबुक ग्रुप से लगभग ढाई सौ लोग जुड़े हैं, पर जहाँ मार्च के महीने तक लगभग 180 सदस्य, ग्रुप के पोस्ट को देखते थे वहाँ अब बमुश्किल पंद्रह-बीस लोग ही किसी पोस्ट को देखने की ज़हमत उठाते हैं। जाहिर है लगभग एक तिहाई लोगों को सामाजिक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। वे केवल आत्मतुष्टि के लिए ज्यादा से ज्यादा ग्रुपों में अपनी सदस्यता दिखाकर और मीडिया में मित्रों की संख्या बढ़ाकर अपने विशिष्ट व्यक्ति होने की लालसा पूरी कर लेते हैं। बाकी में से  पच्चानबे प्रतिशत ऐसे रहे होंगे जिनकी अपनी परिस्थितियों के कारण किसी भी प्रकार की सक्रिय भागीदारी की इच्छा मर चुकी है और जिनकी अभिलाषा है कि समस्याओं का समाधान कोई और ढूँढ दे और निदान भी कोई और कर दे। वे पाँच साल में एक बार वोट डालने वाले मतदाता की तरह किसी भी हस्तक्षेप में अपने लिए कोई भी सक्रिय भागीदारी नहीं देख पाते हैं।
पूरी संख्या में से पाँच प्रतिशत ही हैं जो लाइक करने की ज़हमत उठाते हैं या फिर छोटी मोटी टिप्पणी करने की हिम्मत जुटा पाते हैं। किसी समुदाय की पाँच प्रतिशत आबादी ही, समुदाय की तर्कबुद्धि की वाहक होती है जो समूह की कार्यनीति की दिशा को निर्धारित करती है, या यूँ कहें कि सामूहिक रूप से यही सदस्य उन विचारों का निर्माण करते हैं जो उनके बीच उस एकजुटता का कारण बनते हैं जो समुदाय को गुणात्मक रूप से भिन्न, चेतन संरचना अर्थात संगठन का स्वरूप प्रदान करती है।
ये दस बारह सदस्य, अपनी व्यक्तिगत सजग चेतना के बावजूद, सोसायटी के ग्रुप को उस स्तर तक क्यों नहीं पहुँचा पा रहे हैं जहाँ ग्रुप, सुरेश श्रीवास्तव के नियंत्रण तथा दिशा निर्देश के स्तर से ऊपर उठकर एक स्वायत्त संरचना के रूप में अपनी दिशा स्वयं निर्धारित करने लगे। इसके दो कारण हैं। एक तो उन्हें अपनी क्षमता पर यह विश्वास नहीं है कि वे सिद्धांत को बिना किसी जानकार अग्रणी की मदद के भी समझ सकते हैं। दूसरा उन्हें आसपास वह परिवेश नजर नहीं आता है जिसके बीच रहकर वे अपनी अमूर्त चिंतन की, तथा पूर्वाग्रहों को हटाकर वस्तुपरक विश्लेषण कर सकने की, क्षमता को विकसित कर सकें। वे गण्यमान्य लेखकों, आलोचकों, वक्ताओं, सिद्धांतकारों आदि के लेखन तथा वक्तव्यों के जरिए सिद्धांत को परिभाषित करना तथा समझना चाहते हैं। इसी के कारण वे अंतहीन चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं। लेखकों तथा वक्ताओं का संवाद एकतरफ़ा तथा पूर्वाग्रह ग्रसित होता है। वक़्ता तथा श्रोता के पास अपनी शंकाओं के समाधान का अवसर नहीं होता है। शंकाओं का समाधान न हो पाने के कारण उनका आत्मविश्वास कमजोर होता जाता है।
ग्रुप पर, सजग सदस्यों से मेरा अनुरोध है कि वे हर लेख पर अपना विचार बिना किसी झिझक अपनी भाषा में अवश्य व्यक्त करें चाहे वे लेख में निहित विचार से सहमत हों या न हों। इससे दो फ़ायदे होंगे, एक तो वह माहौल बनेगा जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक विकास के लिए ज़रूरी है, यही चेतना तथा अस्तित्व का द्वंद्वात्क संबंध है। दूसरा आपसी विमर्श के जरिए उन पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सकेगा, जिनको एकतरफ़ा संवाद के जरिए दूर करना असंभव है। सही विचार के विकास के लिए विपरीत विचारों का संघर्ष आवश्यक है यही द्वंद्वात्मक विकास का नियम है।
मूर्धन्यों की हताशा तथा आत्ममुग्धता के नये दौर में, नई पीढ़ी के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ।

सुरेश श्रीवास्तव
20 मई, 2016

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