Monday, 9 May 2016

सुधी साथी,
मार्क्स दर्शन के ब्लाग से आपको मार्क्सवाद को समझने में मदद मिली यह जानकर ख़ुशी हुई, और आभार व्यक्त करने के लिए आपका धन्यवाद।
आपने मुझ से, बर्न्सटाइन तथा कॉत्स्की से लेकर ग्राम्शी तथा मार्क्यूज़ जैसे विचारकों की सैद्धांतिक आलोचनाओं पर प्रकाश डालने का आग्रह किया है। मैं निवेदन करना चाहूँगा कि मार्क्स के समय से ही अनेकों मूर्धन्य आलोचक मार्क्सवाद में संशोधन कर उसको विकसित करने का दावा करते रहे हैं और मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन ने विस्तार से समझा दिया था कि इस प्रकृति की अंतर्वस्तु अर्थात मूलाधार ही मार्क्सवावाद है और वही अंतिम सत्य है। मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु, प्रकृति के अंतहीन अस्तित्व और उसमें होने वाले अंतहीन परिवर्तन की मूलभूत समझ, अर्थात द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ही है। प्रकृति में किसी भी स्तर पर होने वाले किसी भी परिवर्तन की सही-सही व्याख्या केवल द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर ही की जा सकती है। किसी परिघटना के आंतरिक प्राकृतिक द्वंद्वों को नकार कर, सुविधानुसार अपने पूर्वाग्रहों को उस परिघटना के प्राकृतिक द्वंद्व घोषित करते हुए, उस परिघटना की व्याख्या करना गलत ही होगा। किसी सामाजिक परिस्थिति या प्रक्रिया की सही-सही मार्क्सवादी समझ, मार्क्सवाद के मूलभूत नियम और उस पर आधारित सह-सही समझ के आधार पर ही, विकसित की जा सकती है। किसी सामाजिक परिस्थिति या प्रक्रिया की समझ, उस परिस्थिति या प्रक्रिया का विश्लेषण मार्क्सवाद के अपरिवर्तनीय नियमों के आधार पर न करके, अपने पूर्वाग्रहों को संशोधित मार्क्सवाद घोषित करते हुए, उनके आधार पर किया गया विश्लेषण गलत की होगा। और गलत समझ के आधार पर ही आगे का ज्ञान विकसित करने की परंपरा, अर्थात मार्क्सवाद को संशोधित करते जाना, निम्न मध्यवर्गीय विचारकों ने तभी से शुरू कर दी थी जब मार्क्स तथा एंगेल्स सहित मार्क्सवादियों ने, वैज्ञानिक समाजवाद को सर्वहारा चेतना में ला दिया था। संशोधनवादियों की दलील कि 'मार्क्स ने स्वयं कहा था कि सब कुछ निरंतर बदल रहा है, विकसित हो रहा है, कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है, इसलिए मार्क्सवाद को भी परिस्थिति के अनुसार विकसित किया जाना आवश्यक है', इस तरह है जैसे कि कोई कहे कि, ' प्रकृति का नियम है कि जो कुछ अस्तित्व में आया है वह एक दिन समाप्त भी अवश्य होगा और इसलिए इस प्रकृति का भी किसी दिन अंत अवश्य होगा।' संशोधनवादियों की यही दलील उन्हें भाववादियों के साथ खड़ा कर देती है।
संशोधनवाद के प्रारूप अनगिनत हो सकते हैं और अनेकों संशोधनवादियों ने संशोधित मार्क्सवाद के अपने-अपने प्रारूपों का अंबार खड़ा कर दिया है। मुझे उन पर टिप्पणी करने और बहस में उलझने में न कोई रुचि है और न कोई बुद्धिमानी नजर आती है।
अगर एक त्रिभुज की तीनों भुजाएं, अलग अलग, दूसरे त्रिभुज की संगत भुजाओं के बराबर हों तो दोंनो त्रिभुज सर्वांगसम होते हैं। उनके संगत कोण भी बराबर होंगे तथा उनके अन्य सभी गुण तथा माप जैसे कि, क्षेत्रफल, परिमिति, भुजाओं के अनुपात आदि भी बराबर होंगे। पर यह कह देना गलत होगा कि अगर एक त्रिभुज के कोण दूसरे त्रिभुज के संगत कोणों के बराबर हैं तो भुजायें भी बराबर होंगी। सर्वांगसम त्रिभुजों के गुणों में तथा समरूप त्रिभुजों के गुणों में कुछ समानताएँ तो हो सकती हैं, पर इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सर्वांगसम होना तथा समरूप होना एक ही बात है।
मैं सोसायटी फ़ॉर साइंस के माध्यम से, तथा व्यक्तिगत स्तर पर भी सभी से आग्रह करता रहा हूँ कि, मौजूदा दौर की जरूरत है कि सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवी हालात और उनमें वांछित हस्तक्षेप का विश्लेषण करते समय विमर्श सिद्धांत तथा सैद्धांतिक नियमों के आधार करें, न कि व्यक्तियों के नामों तथा उनके लेखन के संदर्भ से। मार्क्स की मृत्यु के बाद जब किसी ने एंगेल्स से पूछा, "आप मार्क्सवादी किसको कहेंगे" तो एंगेल्स का उत्तर था, " मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी भी परिस्थिति में उसी तरह सोचे जैसे उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता"।              आशा है सार्थक विमर्श के द्वारा आजकल के हालात को मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर समझने में हम एक दूसरे की मदद कर सकेंगे।
आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
सुरेश श्रीवास्तव
2 मई, 2016

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