तू ही
राहबर, तू ही राहजन
"श्रम आधारित
मूल्य का सिद्धांत," प्रसिद्ध
वामपंथी अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर पटनायक लिखते हैं, "मेरी
राय में,
मूल
रूप से, एक तरफ़ मुद्रा के रूप में जिन्स, तथा
दूसरी ओर मुद्रा के अलावा सामूहिक रूप से हर प्रकार की क्रय-विक्रय
योग्य वस्तुओं,
के
बीच तुलनात्मक विनिमय अनुपात से संबंध रखता है" ("The Labour Theory of Value, in my view, is concerned
basically with the relative exchange ratio between the money commodity on the
one hand and the world of non-money commodities, taken together, on the other
hand." - A Restatement of the Labour Theory of Value, Prabhat Patnayak, Working
Paper No. 2014/01, presented at CESP,
JNU. )
जो
कि मूल्य की पूरी तरह गैर-मार्क्सवादी समझ है। वे भी अन्य वामपंथियों की तरह मार्क्सवाद
के दार्शनिक आयाम से पूरी तरह अनभिज्ञ, चेतना तथा अस्तित्व
के द्वंद्वात्मक संबंध को न समझ पाने के कारण, मार्क्सवाद
की श्रम आधारित मूल्य की अवधारणा को न तो ख़ुद समझ पाते हैं और न दूसरों को समझा पाते
हैं। उनकी मूल अवधारणा ही गलत है क्योंकि वे मुद्रा के आधार पर मूल्य को समझने का प्रयास
करते हैं। अर्थव्यवस्था में उत्पादों के आदान-प्रदान
में उनकी मात्रात्मक तुलना के लिए आवश्यक मानक के रूप में मुद्रा का चलन, सभ्यता
के विकास के बहुत बाद के चरण में आया है।
मार्क्स
लिखते हैं,
" इससे
पहले कि मनुष्य उनके मतलब उजागर कर सके, उन विशेषताओं, जो
उत्पादों को जिंस के रूप में पहचान दिलाती हैं और जिनका निर्धारण जिंस के व्यापार की
अनिवार्य प्राथमिक शर्त है, ने सामाजिक
जीवन की सुस्पष्ट प्राकृतिक संरचनाओं के रूप में पहचान पहले ही बना ली थी। मनुष्य को
उन विशेषताओं के इतिहास में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि उसकी नजरों में वे अपरिवर्तनीय हैं।
इसके फलस्वरूप,
वह
केवल जिंस की क़ीमतों का विश्लेषण था जिसके आधार पर मूल्य के परिमाण का निर्धारण किया
गया, और वह केवल सभी जिंसों की, मुद्रा
में साधारण अभिव्यक्ति थी जिसके आधार पर मूल्य को,
उनके
विशिष्ट गुण के रूप में मान्यता मिली। हालाँकि जिंसों की पूरी दुनिया में से, अंतत: यह
मुद्रा स्वरूप ही है जो व्यक्तिगत श्रम के सामूहिक चरित्र तथा व्यक्तिगत उत्पादकों
के बीच के सामाजिक संबंधों को, उजागर करने
की जगह छुपाता है।"
("The characters that
stamp products as
commodities, and whose
establishment is a necessary
preliminary to the
circulation of commodities,
have already acquired
the stability of
natural, self understood forms
of social life,
before man seeks
to decipher, not
their historical character,
for in his eyes
they are immutable,
but their meaning.
Consequently it was
the analysis of
the prices of commodities that
alone led to
the determination of the magnitude
of value, and
it was the common
expression of all
commodities in money
that alone led
to the establishment
of their characters as
values. It is,
however, just this
ultimate money form
of the world
of commodities that actually
conceals, instead of
disclosing, the social
character of private
labour, and the
social relations between the
individual producers.")
उत्पादक
श्रम क्या है? पूर्व
निर्धारित उद्देश्य के साथ, मस्तिष्क के
नियंत्रण द्वारा शरीर के अंगों के संचालन से प्राकृतिक रूप से हासिल पदार्थों में अपेक्षित
परिवर्तन करना। बिल्कुल आदिम अवस्था में पदार्थों का उत्पादन स्वयं के व्यक्तिगत उपभोग
के लिए किया जाता था पर समय के साथ श्रमिक की कुशलता तथा उत्पादकता बढ़ी और बढ़ते उत्पादन
के साथ उत्पादों की विविधता भी बढ़ी। बढ़ती विविधता ने श्रम विभाजन को आधार प्रदान
किया और बढ़ी हुई विविधता और उत्पादकता ने उत्पादन के उद्देश्य में नया आयाम जोड़ दिया।
वस्तुओं का उत्पादन स्वयं के उपभोग के लिए न किया जाकर दूसरों के उपभोग और अदला-बदली
के लिए किया जाने लगा।
किन्हीं
दो वस्तुओं की अदला-बदली में उनकी अदला-बदली
की मात्रा का अनुपात निर्धारण करने के लिए आवश्यक है कि उन दोनों के अंदर, उनके
अस्तित्व से संबद्ध, ऐसा कोई एक समान भौतिक गुण मौजूद हो
जिसका परिमाण मापा जा सके तथा जिसके माप के आधार पर दोनों की अदला-बदली
के लिए अनुपात निर्धारित किया जा सके। मानव द्वारा उत्पादित वस्तुएँ, मानव
की किसी मांग की पूर्ति करती हैं और इसी में उनकी उपयोगिता है। हर उत्पाद की कोई न
कोई उपयोगिता है और इसलिए उसका उपयोगी मूल्य भी है, पर
अलग-अलग
उत्पादों की उपयोगिता में एक समान ऐसा कोई प्रत्यक्ष गुण नहीं है जिसे मापा जा सके, और
अलग-अलग
प्रकार की वस्तुओं की उपयोगिता की मात्रात्मक तुलना उनकी अलग-अलग
उपयोगिता के आधार पर भी नहीं की जा सकती थी, इसके बावजूद
व्यावहारिक तौर पर अदला-बदली में वस्तुओं की मात्रा के बीच निश्चित
अनुपात हमेशा से होता रहा है जिसके बिना विनिमय संभव नहीं है। पिछले ढाई हज़ार साल
से चिंतकों के लिए यह समान भौतिक गुण, जिसका परिमाण
मापा जा सके तथा जिसे विनिमय मूल्य कहा गया, एक पहेली बना
हुआ था,
कि
नाना-नाना
प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ जिनके रूप या गुणों में कोई भी समानता नहीं थी, उनके
आदान-प्रदान
में उनकी मात्राओं का स्वत: निर्धारण जिस
मूल्य के आधार पर होता है, उसका वास्तविक
स्वरूप क्या है और वह उत्पादों में किस रूप में विद्यमान रहता है।
मार्क्स
समझाते हैं,
कि
महान दार्शनिक अरस्तू (अरिस्टोटल), जिन्होंने
सबसे पहले,
विचार, समाज, प्रकृति
आदि संरचनाओं का विश्लेषण किया था, ने मूल्य का
विश्लेषण करने का भी प्रयास किया था और कहा था, " समतुल्य (जिनकी
आपस में तुलना की जा सके) के बिना विनिमय नहीं हो सकता है, और
समतुल्य सम्मेय
(एक
ही मापदंड से मापा जा सकने वाला) के बिना नहीं
हो सकता है।"
यहाँ
आ कर वे
(अरस्तू) ठहर
जाते हैं और आगे मूल्य का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं, "लेकिन
यथार्थ में यह असंभव है कि विभिन्न चीज़ें इस प्रकार सम्मेय हो सकें, अर्थात
गुणात्मक रूप से एक सी हो सकें। इस तरह की बराबरी ऐसी किसी चीज में ही हो सकती है जो
उनकी वास्तविक प्रकृति से पूरी तरह अलग हो, और परिणाम स्वरूप
व्यावहारिक जरूरत पूरी करने के लिए ही एक कामचलाऊ व्यवस्था अस्तित्व में आई।"
उत्पादों
में विनिमय के लिए आवश्यक जिस सम्मेय गुण को पहचानने में चिंतक ढाई हज़ार साल तक असफल
रहे,
उसकी
पहचान मार्क्स ने किसी भी उत्पाद को बनाने में लगनेवाले 'सामाजिक
औसत,
आधारभूत' आवश्यक
उत्पादक श्रम के रूप में की है जो उत्पादन के दौरान उत्पाद में संचित श्रम के रूप में
अंतर्निहित हो जाता है। जिस पहेली को सुलझाने में अन्य चिंतक असफल रहे, उसे
मार्क्स,
चेतना
और अस्तित्व के बीच के संबंध तथा प्रकृति में द्वंद्वात्मक विकास की प्रक्रिया के बारे
में,
अपनी
दार्शनिक समझ के कारण हल कर सके। मार्क्स समझाते हैं कि उत्पादक मानवीय श्रम के दो
आयाम होते हैं,
एक
जो विनिमय मूल्य का आधार है दूसरा जो उपयोगी मूल्य का आधार है। मूल्य के इस गुण को
समझने के लिए हमें यहाँ रुक कर प्रकृति के मूलभूत नियमों पर एक नजर डाल लेना ज़रूरी
है।
प्रकृति
विज्ञान में पदार्थ की अनश्वरता का नियम (Conservation of mass) तथा उर्जा की
अनश्वरता का नियम(Conservation of energy) निर्विवाद
रूप से सिद्ध किये जा चुके हैं तथा यह भी सर्वमान्य है कि इस ब्रह्मांड में सारा पदार्थ
सूक्ष्मतम कणों से बना है जो निरंतर गति में हैं। भौतिकी के अनुसार हर वस्तु अपनी स्थिर
या गति की स्थिति में ही रहती है जब तक कि उस पर कोई बाहरी बल न लगे। वस्तु चाहे स्थिर
हो या गति में हो उसके अंदर किसी न किसी प्रकार की ऊर्जा मौजूद रहती है, और
हर प्रकार की ऊर्जा मूलत: गतिमान पदार्थ है। गतिविहीन पदार्थ या
ऊर्जा विहीन पदार्थ या पदार्थ विहीन उर्जा की कल्पना बेमानी है। जब किसी वस्तु की स्थिति
को बदलने का प्रयास किया जाता है तो बदली जानेवाली वस्तु बदलाव का विरोध करती है और बदलने के लिए बल का प्रयोग करना
पड़ता है। स्थिति के बदलाव की प्रक्रिया का कारक बाहरी बल ही है। बाहरी बल के बिना
पदार्थ की स्थिति में बदलाव की कल्पना बेमानी है। बदलने की प्रक्रिया में कार्य होता
है और बदलाव करने वाली वस्तु के अंदर की संचित ऊर्जा खर्च होती है, जो
बदल रही वस्तु की ऊर्जा में जुड़ जाती है। बदलाव करनेवाली वस्तु की संचित ऊर्जा में
कमी और उसके द्वारा किया गया कार्य दोनों बराबर होते हैं। सूक्ष्मतम कणों के रूप में
निरंतर गतिशील पदार्थ और उनके आपसी अंतर्व्यवहार में एक दूसरे की गति को प्रभावित करते
रहना ही प्रकृति का अंतिम सत्य है। मार्क्सवाद प्रकृति के इस यथार्थ को द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद के प्रथम सूत्र, विपर्यओं की एकता और संघर्ष (Unity and struggle of opposites),
के
रूप में परिभाषित करता है।
छोटी
छोटी चीजों के मिलने से बड़ी चीज का बनना या बड़ी चीज के बँटने पर छोटी छोटी चीजों
का बनना प्रकृति के एक ही नियम के दो पहलू हैं। सूक्ष्मतम कणों से मिलकर परमाणु बनता
है,
परमाणुओं
के मिलने से अणु और अणुओं से पिंड बनता है, और इसी प्रकार
पिंड के बंटने से अणु तथा अणु के बँटने से परमाणु बनते हैं। छोटी चीजों के सीमित मात्रा
में मिलने से बनी चीज के गुण वही रहते हैं जो उसको बनानेवाली चीजों के होते हैं, पर
मात्रा बढ़ते जाने पर एक स्तर ऐसा आता है जब एक गुणात्मक रूप से भिन्न चीज अस्तित्व
में आ जाती है। अवयवों के अपने गुण परोक्ष में चले जाते हैं और सामूहिक रूप से एक वस्तु
के रूप में परिवेश के साथ व्यवहार में प्रत्यक्ष गुण, अवयवों
के निजी गुणों से पूरी तरह भिन्न होते हैं और यही स्थिति बड़ी चीज के बँटने पर होती
है। मार्क्सवाद प्रकृति के इस यथार्थ को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के द्वितीय सूत्र, मात्रात्मक
परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन (Quantitative change leads to qualitative change) के रूप में
परिभाषित करता है।
पदार्थ
निरंतर गति में है और इसीलिए प्रकृति में हर चीज, और
हर परिस्थिति निरंतर, अनवरत बदल रही है। मात्रात्मक परिवर्तन, जिसमें
चीज़ें अपने निजी गुणों के साथ नजर आती हैं, अंतत: गुणात्मक
परिवर्तन का कारण बनता है और गुणात्मक रूप से भिन्न चीज़ें अस्तित्व में आती हैं। किसी
भी चीज का अस्तित्व में आना गुणात्मक परिवर्तन है, जितने
समय तक वह अस्तित्व में है, उसमें हो रहा
परिवर्तन मात्रात्मक परिवर्तन होता है, और उसके अस्तित्व
का मिटना या किसी अन्य रूप में परिवर्तित हो जाना गुणात्मक परिवर्तन है।
कार्य =
बल x विस्थापन दूरी
तथा, कार्य = ऊर्जा।
कार्य तथा ऊर्जा समतुल्य हैं। कार्य सक्रिय
अवस्था है जिसमें अंतर्निहित ऊर्जा एक वस्तु से दूसरी वस्तु में अंतरित होती है। बदलने
की प्रक्रिया में संचित ऊर्जा कार्य में परिणित होती है और बदली हुई परिस्थिति में
कार्य पुन:
ऊर्जा
में परिवर्तित हो जाता है। ऊर्जा-कार्य-ऊर्जा
एक पूरी प्रक्रिया है और कार्य करनेवाली वस्तु की उर्जा में जितनी कमी होती है, कार्य
से प्रभावित होने वाली वस्तुओं की संचित उर्जा में उतनी ही बढोतरी होती है।
किसी
भी चीज की कार्य करने की शक्ति उसकी
काम कर सकने की दर होती है, अर्थात इकाई
समय में काम कर सकने की क्षमता।
P = W / T, जहाँ P शक्ति
है,
W किया गया कार्य है तथा T कार्य करने में लगाया गया समय।
अर्थात
W = P x T
अगर
शक्ति P नियत है तो W (किया
गया कार्य), T (समय)
के सीधे अनुपात में होगा।
अगर
थोड़ा थोड़ा कार्य, थोड़े-थोड़े समय में किया जाय तो कुल कार्य, कुल समय के अनुपात
में होगा।
अर्थात W=w1+w2+w3+…….= Pt1+Pt2+Pt3+……
W = P(t1+t2+t3+………….) = T
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ
विकसित कर लेने के बाद मार्क्स के लिए पहेली हल करना बड़ा आसान था। किसी भी उपयोगी
वस्तु के उत्पादन में लगा हुआ कुल विशिष्ट श्रम ही उसे वह विशिष्टता प्रदान करता
है, जो उसे उपयोगी मूल्य प्रदान करती है। पर कोई भी विशिष्ट उत्पाद है तो छोटे-छोटे
साधारण बदलावों का कुल जोड़, और छोटे-छोटे बदलाव अपने आप में छोटे-छोटे साधारण
कार्य ही हैं जिनमें आपस में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। इस प्रकार कोई भी विशिष्ट श्रम
भी, छोटे-छोटे श्रम कार्यों का ही जोड़ है जिनमें आपस में कोई भेद नहीं है।
इस प्रकार अलग-अलग उत्पादों का
उपयोगी-मूल्य उनमें अंतर्निहित उस कुशल-श्रम के कारण होता है जो अन्य श्रमों से
गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इसी कारण उपयोगी मूल्य सम्मेय नहीं हैं। पर किसी भी
उत्पाद को बनाने में लगने वाले समय के रूप में, उत्पाद में लगा हुआ श्रमकाल उस
साधारण श्रम को प्रदर्शित करता है जो सम्मेय है। इस कारण, गुणात्मक रूप से भिन्न उत्पादों
की तुलना भी उनमें लगे श्रमकाल के आधार पर की जा सकती है। मानवीय श्रम की यह
विशेषता जो छोटे-छोटे साधारण औसत श्रमकाल को, गुणात्मक रूप से भिन्न विशिष्ट-श्रमकाल
में परिवर्तित करती है, उसी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुरूप है जिसे
मार्क्स से पहले के चिंतक पहचानने में असफल रहे, और जिसे आज के चिंतक, जो
मार्क्सवाद के निरंतर विकसित होते रहने के दावे के साथ मार्क्सवाद में संशोधन करने
में जुटे हुए हैं, भी समझ पाने में अससमर्थ हैं।
जिन लोगों को मार्क्सवाद के दार्शनिक
आयाम की समझ नहीं है उनके लिए चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को समझ
पाना संभव नहीं है। और इसीलिए उनके लिए यह समझ पाना भी असंभव है कि जिस सम्मेय
तत्व और नियम के आधार पर उपभोक्ता और उत्पादक अपने-अपने उत्पादों की अदला-बदली विनिमय
के रूप में सहज ही करने लगे थे, उसको मार्क्स से पहले के चिंतक क्यों नहीं समझ
पाये थे।
शुरुआती चरण
में उत्पादों का आदान प्रदान, उपयोग आधारित
वस्तुओं की अदला-बदली
के रूप में ही होता था और अदला-बदली की जाने
वाली वस्तुओं के उत्पादकों की रुचि अपने-अपने उत्पाद
में न होकर,
उपभोक्ता
के रूप में हासिल की जाने वाली वस्तु की उपयोगिता में होती थी, पर
दोनों उत्पादक,
उपभोक्ता
के रूप में सीधे एक दूसरे के संपर्क में होते थे इस कारण आदान-प्रदान
के दौरान समरूप-मूल्य उत्पादकों की सजग चेतना में प्रकट
ही नहीं होता था और वस्तुओं के आदान-प्रदान में
उनकी तुलनात्मक मात्रा स्वत: ही, उनकी
उपयोगिता के समतुल्य अंतर्निहित मूल्य के आधार पर हो जाती थी, अमूर्त
मूल्य जिसके आधार पर विनिमय के दौरान उत्पादों की मात्रा निर्धारित होती थी न लोगों
के संज्ञान में होता था और न ही उसके नापने के लिए किसी मानक की ज़रूरत होती थी।
सामाजिक
विकास के उस स्तर पर पहुँचने के बाद, जहाँ उत्पादक
शक्तियाँ तथा उत्पादकता इतनी विकसित हो गईं कि भौगोलिक व्यापकता तथा उत्पादों की बहुलता
के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क संभव नहीं रह गया था, उत्पादों
की अदला-बदली
का स्थान उत्पादों के विनिमय ने ले लिया और उत्पादन करने में उत्पादक का उद्देश्य भी
बदल गया। उत्पादक को न तो अपने उत्पाद का स्वयं उपभोग करना होता था और न ही उसे उस
उपभोक्ता का पता होता था जो उसके उत्पाद का उपभोग करेगा। अब उत्पादक का उद्देश्य हो
गया था,
पूरी
कुशलता तथा क्षमता के साथ उत्पादन करना ताकि अपने उत्पाद के बदले, उन
विविध उत्पादों को हासिल किया जा सके जिनकी उसे स्वयं जरूरत थी। पर उत्पादकों को अपेक्षित सभी उत्पाद एक ही समय पर
एक ही जगह हासिल न हो सकने के कारण अब एक ऐसे उत्पाद की जरूरत थी जिसकी उत्पादक को
जरूरत न हो पर जिसका जरूरत पड़ने पर वांछित उत्पाद के साथ विनिमय किया जा सके। और ऐसे
सर्वमान्य उत्पाद की भूमिका खाद्यान्न तथा मवेशी निभाने लगे। यहाँ आकर उत्पाद, जिंस
में परिवर्तित हो जाता है।
उत्पाद
तथा जिंस में क्या फर्क है ये समझना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि आम तौर पर, भाववादी
चिंतन के कारण लोग भौतिक चीजों के मूर्त रूप को किसी अमूर्त विचार के साथ जोड़ कर नहीं
देख पाते हैं। उनके लिए चेतना तथा अस्तित्व पूरी तरह असंबद्ध चीज़ें हैं। पैदा की गयी
वस्तु के आकार,
रंग-रूप
में किसी भी परिवर्तन के न होने के बावजूद, एक ही वस्तु
एक ही समय पर दो अलग अलग वस्तुएँ कैसे हो सकती है? क्या
किसी वस्तु को उत्पाद की जगह जिंस कहने से वस्तु का चरित्र बदल जाता है? नहीं
वस्तु की संरचना और प्रकृति तो वही रहती है पर, मानव
मस्तिष्क में उसका प्रतिबिंब व्यक्ति की मन:स्थिति पर निर्भर
होने के कारण,
एक
ही वस्तु को एक ही समय पर अलग-अलग व्यक्ति
अलग-अलग
रूप में देख सकते हैं, और एक ही व्यक्ति एक ही वस्तु को अलग-अलग
समय पर अलग-अलग
रूप में देख सकता है। विनिमय की प्रक्रिया में एक ही समय पर दो अलग-अलग
व्यक्ति और दो अलग-अलग
उत्पाद हिस्सा ले रहे होते हैं।
विनिमय
के उद्देश्य से पैदा की गयी वस्तु में उत्पादक, किसी
विशिष्ट उपभोक्ता की आवश्यकता न देखते हुए केवल अपने द्वारा किये गये साधारण संचित
श्रम को देखता है। इसके विपरीत विनिमय के दौरान हासिल की जाने वाली वस्तु में वह स्वयं
की किसी मांग को संतुष्ट कर सकने वाले विशिष्ट श्रम को देखता है। भौगोलिक व्यापकता
तथा उत्पादों की बहुलता के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच बिचौलिये के रूप में एक
नया व्यक्ति आ गया जिसकी रुचि किसी उत्पाद में न होकर विनिमय प्रक्रिया के दौरान कमाये
जा सकने वाले मुनाफ़े में होती है।
सामाजिक
विकास के उस स्तर पर पहुँचने के बाद, जहाँ उत्पादक
शक्तियाँ तथा उत्पादकता इतनी विकसित हो गईं कि भौगोलिक व्यापकता तथा उत्पादों की बहुलता
के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क संभव नहीं रह गया था, उत्पादों
की अदला-बदली
का स्थान उत्पादों के विनिमय ने ले लिया और उत्पादक
तथा उपभोक्ता के बीच, बिचौलिये के रूप में एक नया व्यक्ति
आ गया जिसकी रुचि किसी उत्पाद में न होकर, उस अतिरिक्त
मूल्य में होती है जो हर विनिमय में उत्पादक तथा उपभोक्ता के, किसी
उत्पाद के मूल्य के अपने-अपने आंकलन में होने वाले अंतर के कारण, प्रकट
होता है,
और
जिसे बिचौलिया ख़रीदने-बेचने की प्रक्रिया के दौरान हासिल कर
सकता है। किसी उत्पाद के मूल्य के दोहरे आंकलन का कारण है उसमें लगने वाले श्रम का
दोहरा स्वरूप। चूंकि विनिमय में बिचौलिये की रुचि किसी भी उत्पाद में न होकर, विनिमय
प्रक्रिया के दौरान प्रकट होने वाले अतिरिक्त मूल्य में होती है, इस
कारण विनिमय के दौरान मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने के लिए ऐसे उत्पाद की आवश्यकता
थी जो मूर्त रूप में मूल्य का पर्याय बन सके। अपने प्राकृतिक
गुणों के कारण सोने चाँदी जैसी कीमती धातुओं ने सभी उत्पादों में अंतर्निहित विनिमय-मूल्य
के मूर्त रूप का प्रतिनिधित्व करने की भूमिका हासिल कर ली। क्योंकि मूल्य की तुलना
मूल्य से ही की जा सकती है इस कारण सोने या चांदी की एक निश्चित मात्रा के अंदर अंतर्निहित
मूल्य को, मूल्य की इकाई
मान लिया गया व सोने या चाँदी की निश्चित मात्रा को मूल्य का मानक मान लिया गया, और
विनिमय को सुविधाजनक बनाने के लिए बहुमूल्य धातुओं की निश्चित वज़न के सिक्के ढाल दिये
गये। इन सिक्कों के बदले में उत्पादक, बिचौलिया और
उपभोक्ता अपनी सुविधा के अनुसार कभी भी किसी भी उत्पाद को हासिल कर सकते थे और सिक्के
में अंतर्निहित धातु का मूल्य सभी उत्पादों के मूल्य का पर्याय बन गया। इस प्रकार,
एक अमूर्त अस्तित्व - मूल्य - का
रूपांतरण, मूर्त अस्तित्व - धातु के सिक्कों
- के रूप में हो गया।
कालांतर में व्यापार के विस्तार के साथ
बहुमूल्य धातु के सिक्कों के उपयोग में व्यवहारिक कठिनाइयाँ
आने लगीं। अलग-अलग
जगह अलग-लग
समय पर पैदा की जाने के कारण धातुओं का स्वयं का मूल्य स्थिर नहीं रहता था तथा समय
के साथ होने वाले घिसावट के कारण सिक्कों में मौजूद धातु की मात्रा घटती जाती थी। इस
समस्या से निबटने के लिए व्यावहारिक रूप में बहुमूल्य धातु की निश्चित मात्रा के आधार
पर ढाले गये सिक्कों का स्थान, राजसत्ता द्वारा
सत्यापित मनी या करेंसी ने ले लिया जिनका घोषित मूल्य उनके अपने उत्पादन मूल्य से पूरी
तरह असंबद्ध था। उन पर सत्यापन के रूप में राजमुद्रा अंकित होने के कारण उन्हें मुद्रा
कहा जाने लगा। किसी उपभोक्ता के हाथ में बहुमूल्य धातु के सिक्कों के नष्ट होने के
बाद या किसी कारण से दूसरे के द्वारा स्वीकार न किये जाने की स्थिति में भी, उसमें
मौजूद बराबर मूल्य की धातु मौजूद होने के कारण उपभोक्ता अपना मूल्य नहीं खोता था पर
इसके उलट मुद्रा से विनिमय के अलावा किसी और रूप में मूल्य हासिल न होने के कारण मुद्रा
सामाजिक चेतना में आसानी से स्वीकार्य नहीं हो पा रही थी। मुद्रा को पूरी तरह स्वीकार्य
बनाने के लिए राजसत्ता को हस्तक्षेप करना पड़ा और मुद्रा को स्वीकार करने से इनकार
करने को दंडनीय अपराध बना दिया गया। धीरे-धीरे राजसत्ता
समर्थित आश्वासन, मूल्य का पर्याय हो गया। अमूर्त मूल्य ने, धातु
के सिक्कों के रूप में अपना मूर्त रूप छोड़ कर, पुन: राजसत्ता
समर्थित आश्वासन के साथ मुद्रा के रूप में अमूर्त रूप धारण कर लिया। अब मुद्रा या मनी
ही मूल्य का पर्याय हो गया। मुद्रा या मनी के, सामाजिक
चेतना में घर कर लेने के बाद उत्पादों के विनिमय में उनकी मात्रा का अनुपातिक निर्धारण
मूल्य की जगह मुद्रा के आधार पर होने लगा। मुद्रा के मानक के आधार पर व्यक्त की गयी
क़ीमत ही सामाजिक चेतना में मूल्य मानी जाने लगी। मुद्रा और क़ीमत के पूरी तरह सामाजिक
अवचेतना में घर कर जाने के बाद
बैंकों
तथा महाजनों के करारपत्रों का वही स्थान हो गया जो राजसत्ता के आश्वासनों का मुद्रा
को स्वीकार्य बनाने में था। अर्थव्यवस्था के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पा लेने के
बाद तथा बैंकों के करारपत्रों की स्वीकार्यता के बाद, अलग-अलग
राष्ट्रों की मुद्रा स्वयं विनिमय उत्पाद में परिवर्तित हो गयी है।
अपनी
संशोधनवादी समझ के कारण, स्वघोषित-मार्क्सवादी न तो स्वयं अतिरिक्त मूल्य उत्पादन
की प्रक्रिया को समझ पाते हैं, न कामगार को समझा पाते हैं कि व्यक्तिगत रूप में श्रम
का उचित विनिमय मूल्य चुका दिये जाने के बाद भी मौजूदा व्यवस्था कामगार का सामूहिक
शोषण किस प्रकार करती है। और जब तक कामगार को यह नहीं समझ आता है तब तक वह इसी
व्यवस्था को सही व्यवस्था समझता रहेगा और इसी व्यवस्था के नियंत्रकों को ही अपने
मुक्तिदाता के रूप में देखता रहेगा।
सुरेश श्रीवास्तव
16 दिसम्बर, 2015
(यह लेख ,जिसने मुझे मार्क्सवाद को
समझने में मेरी मदद की, उसकी तीसरी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली)