(यह लेख 2003 के अंत में लिखा गया था जब अटल बिहारी वाजपेयी के
नेतृत्त्व में एनडीए की सरकार केंद्र में सत्ता में थी तथा आने वाले लोकसभा के
चुनाव की तैयारी में वामपंथी पार्टियां कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के लिए भूमिका
तैयार कर रही थीं और नेतागण लेखों तथा वक्तव्यों के जरिए सांप्रदायिकता को मुख्य
मुद्दा होने का दावा कर रहे थे। चुनाव के बाद यूपीए की पहली सरकार वामपंथी मोर्चे
के समर्थन से सत्ता में आई थी। लेख हंस के फरवरी 2004 के अंक में छपा था। लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है और वामपंथी पार्टियां फिर
सांप्रदायिकता को मुख्य मुद्दा दर्शाकर 2014 के चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ हाथ
मिलाने की भूमिका तैयार कर रही हैं। इतिहास
अपने को दोहराता है पर पहली बार वह त्रासदी होता है और दूसरी बार फरेब।)
सांप्रदायिकता
की गैर - मार्क्सवादी समझ
(सुरेश
श्रीवास्तव)
किसी
परिस्थति या प्रक्रिया की वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित समझ ही मामार्क्सवादी समझ है
पर हर तथाकथित मामार्क्सवादी समझ वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित हो यह आवश्यक नहीं
है। परिणाम के आधार पर दृष्टिकोण निर्धारित कर और उसे सही मानते हुए कारकों के
प्रभाव का विश्लेषण करना अवैज्ञानिक प्रणाली है जबकि कारकों के प्रभाव का विश्लेषण
करते हुए सही निष्कर्ष पर पहुंचना ही वैज्ञानिक प्रणाली है।
आज सभी
राजनैतिक दलों के सारे कार्यकलाप, विचार-विमर्श, विचारधारा, गठबंधन आदि
सभी स्तरों पर दो भागों - सांप्रदायिकता तथा धर्मनिर्पेक्षता - में बंटे हुए हैं।
लगता है कि अवाम और राष्ट्र के लिए यही दो मुद्दे मुख्य हैं बाकी सब गौण हैं।
प्रत्यक्ष तौर पर एक ओर कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पाले, जिसे भाजपा तथा उसके सहयोगी छद्म-धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, के नेतृत्व का दम भरती नजर आती है तो दूसरी ओर भाजपा और
उनके संघीय-सहयोगी,
जिन्हें कांग्रेस तथा अन्य सहयोगी संघ-परिवार कहते हैं, सांप्रदायिक पाले का नेतृत्व करते नजर आते हैं। अन्य
क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों को साधने के लिए कभी कांग्रेस और कभी भाजपा के
साथ खड़े नजर आते हैं। मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियां भाकपा तथा माकपा दुविधाग्रस्त
कहीं कांग्रेस के साथ तो कहीं कांग्रेस के विरुद्ध नजर आतीं हैं। मंदिर का ताला
खुलवाना,
शाहबानो के मामले पर संविधान में संशोधन तथा व्यक्तिगत, सामाजिक तथा शासकीय कार्यों में धार्मिक अनुष्ठानों जैसे
कार्यों के बावजूद उन्हें कांग्रेस सांप्रदायिक नजर नहीं आती है और दर्जनों
पार्टियों के साथ सत्ता के उद्देश्य से गठबंधन के लिए हिंदुत्व के अपने कई मुद्दों
को ताक पर रख देने वाली भाजपा हर रूप में सांप्रदायिक ही नजर आती है।
समाज
धर्म आधारित समूहों या संप्रदायों में विभाजित है, एक ही धर्म को मानने वालों में समरसता है तथा एक धर्मावलंबी समूह के हित दूसरे
धर्मावलंबी समूह के हितों को खारिज करते हैं, यह विचार ही सांप्रदायिकता का आधार है। यदि कोई राजनैतिक दल राजसत्ता का उपयोग
विभिन्न धर्मावलंबी समूहों के आपसी हितों के टकराव की स्थिति में किसी धर्म विशेष
के आधार पर,
किसी एक संप्रदाय का पक्षपात करते हुए किसी दूसरे संप्रदाय
के अनुयाइयों का दमन करने के लिए करता है तो उसे दूसरे दल सांप्रदायिक कहना पसंद
करते हैं। जो राजनैतिक दल राजसत्ता का उपयोग धर्म आधारित पक्षपात न करने की वकालत
करते हैं वे अपने को धर्मनिरपेक्ष कहलाना पसंद करते हैं। जाति, भौगोलिक स्थिति या आर्थिक आधार पर पक्षपात सारे राजनैतिक दल
करते हैं,
पर उसे वे निरपेक्षता की श्रेणी में रखना पसंद करते हैं।
चूंकि
किसी राजनैतिक दल या राजसत्ता का, धर्म आधारित
पक्षपात ही सांप्रदायिक होना न होना तय करता है इस कारण सांप्रदायिकता की
वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित (मार्क्सवादी) समझ के लिए यह समझना आवश्यक है कि धर्म
किसी राजनैतिक दल की विचारधारा और कार्यकलापों को किस रूप में और किस हद तक
प्रभावित करता है।
विचार
व्यक्ति के कार्यकलापों को चेतन और अर्धचेतन दोनों स्तरों पर प्रभावित करते हैं और
विचारों का निर्माण व्यक्ति के अपने परिवेश के साथ अंतवर््यवहार से होता है।
व्यक्ति का अपने परिवेश के साथ अंतवर््यवहार, वैचारिक स्तर पर अन्य व्यक्तियों और समूहों को भी प्रभावित करता है। यह
प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। पूर्व के कार्यकलाप और विचार व्यक्ति के संस्कार
बन जाते हैं जो उसके वर्तमान तथा भविष्य के कार्यकलापों तथा विचारों की प्रक्रिया
को बहुत हद तक निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार समूह के कार्यकलापों को उसकी
विचारधारा,
घोषित और अघोषित दोनों स्तर पर, प्रभावित करती है और विचारधारा का विकास समूह के सदस्यों के
विचारों के विकास और विभिन्न समूहों के अंतर्व्यवहार पर निर्भर करता है।
धर्म
एक विचारधारा है जो प्रकृति एवं जीव, विशेषकर मानव,
की उत्पत्ति की व्याख्या करती है, उनकी उत्पत्ति का श्रेय ईश्वर के रूप में किसी पराशक्ति को
देती है तथा मानव जीवन की सार्थकता के लिए उस पराशक्ति की उपासना को अपरिहार्य
मानती है। विभिन्न विचारधाराएं मानव जीवन और समाज के विभिन्न आयामों की व्याख्या
और अपने समूहों के सदस्यों के कार्यकलापों की दिशा निर्धारित करती हैं। सभी
विचारधाराओं में धर्म की भूमिका प्रमुख है क्योंकि वह व्यक्ति के चिंतन और
कार्यकलापों को,
बाल्यावस्था से परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप में प्रभावित करते
हुए युवावस्था तक आते आते,
संस्कारों में परिवर्तित कर देता है। यही संस्कार जीवन
पर्यन्त व्यक्ति के विचारों तथा कार्यकलापों और उसके द्वारा समूहों की विचारधारा
तथा कार्यकलापों को निर्धारित करते रहते हैं।
धर्म
तथा मार्क्सवाद ऐसी विचारधाराएं हैं जो न केवल मानव के व्यक्तिगत और सामाजिक
कार्यकलापों के सहीपन को परिभाषित करतीं हैं बल्कि प्रकृति और मानव की उत्पत्ति का
विश्लेषण भी करतीं हैं। पर जहां मार्क्सवाद विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष पर पहुंचने
की चेष्टा और निष्कर्ष की अशुद्धि की स्थिति में पुनर्विश्लेषण कर एक नए निष्कर्ष
पर पहुंचने की चेष्टा है वहीं धर्म निष्कर्ष को निर्धारित कर विश्लेषण को निष्कर्ष
के अनुरूप समायोजित करने की चेष्टा है। अन्य विचारधाराएं या विचारधारा के विभिन्न
आयाम मानव समाज,
राजसत्ता, मानव संबंधों, अर्थ-व्यवस्था, शासन प्रणाली आदि को परिभाषित और प्रभावित करने की चेष्टाएं हैं। क्योंकि ये
सारी विचारधाराएं धर्म आधारित मान्यताओं को सच मानते हुए विश्लेषण करती हैं इस
कारण ये सभी धर्म की विभिन्न शाखाएं ही हैं।
मार्क्सवाद
मानव समाज की उत्पत्ति और उसके विकास को प्रकृति की सामान्य प्रक्रिया के रूप में
देखता इस कारण विचारधारा के विभिन्न आयामों को मूलतः मार्क्सवाद के विस्तार के रूप
में ही दर्शाता है। इसके विपरीत धर्म मानव समाज की उत्पत्ति और उसके विकास को किसी
विशिष्ट दैवीय क्रिया-कलाप के रूप में देखता है तथा मानव समाज के विभिन्न आयामों
को मानव के विभिन्न कार्य-कलापों के रूप में देखता है इस कारण विचारधाराओं के
विभिन्न आयामों का मूल विचार धर्म आधारित होने के बावजूद उन्हें धर्म से अलग
दर्शाता है।
धार्मिक
आस्था के अनुसार ईश्वर ने सर्वगुण संपन्न जीव के रूप में मानव की रचना की और मानव
अपनी सभी विशेषताओं के साथ अनादि काल से मौजूद है। मार्क्सवाद के अनुसार मानव और
मानव समाज जैविक विकास की प्रक्रिया के चरण हैं और मानव की वर्तमान विशेषताएं
सामाजिक विकास की देन हैं। इस कारण मानव की मूल प्रवृत्ति सहयोग व प्रतिस्पर्धा
तथा निहितार्थ व नि:स्वार्थ आधारित है और यही मानव समाज के विकास का वैचारिक आधार
है। प्राकृतिक संसाधनों का व्यक्तिगत तथा सामूहिक उपयोग के लिए संदोहन करना समाज
के विकास का भौतिक आधार है। सामूहिक हित, व्यक्ति हित को निष्पन्न करता है क्योंकि व्यक्ति समूह का ही एक अंश है तथा
व्यक्तिगत हित सामूहिक हित को निष्पन्न करता है चाहे वह परोक्ष रूप में अन्य
व्यक्ति के हितों को ख़ारिज ही क्यों न करता हो, दो परस्पर विरोधी विचार हैं। जो विचारधाराएं व्यक्ति को मुख्य और समाज को उसके
संदर्भ में गौण मानतीं हैं उनका मूल धर्म में है और जो समाज को मुख्य मानतीं हैं
उनका मूल वैज्ञानिक चिंतन (मार्क्सवाद) में है।
अन्य
समूहों के मुक़ाबले राजसत्ता, समाज की विकास
प्रक्रिया में सबसे शक्तिशाली संरचना के रूप में उभरी है। सभी राजनैतिक समूहों का
अंतिम लक्ष्य राजसत्ता पर काबिज़ होना है। किसी भी राजनैतिक दल की विचारधारा का
विकास उसके सदस्यों के विचारों और स्वार्थों तथा उसके अन्य सामाजिक समूहों के साथ
अंतर्व्यवहार पर निर्भर करता है।
यह
विचार,
कि जाति, भाषा, प्रदेश, धर्म आधारित
समूहों के बीच हितों की टकराहट ही आम आदमी की दयनीयता और समस्याओं का मूल है, एक मायाजाल की भांति है जिसकी ओट में शोषक वर्ग शोषित वर्ग
को विभिन्न समूहों में विभाजित करते हुए उसका शोषण जारी रख सकता है। समाज में शोषक
वर्ग के लिए अन्य वर्गों के शोषण को वैध ठहराने के लिए आस्था आधारित धर्म सबसे
उपयुक्त विचारधारा है और शोषित वर्गों के बीच वैमनस्य सबसे उपयुक्त साधन है। धर्म
का आधार परलौकिक है तथा धर्म आधारित विचार बाल्यकाल से युवावस्था आने तक अर्धचेतन
मन में गहरे पैठ जाते हैं और व्यक्ति की आस्था और संस्कारों का रूप ले लेते हैं।
भौतिक आधार न होने के कारण धार्मिक मायाजाल को काटना संभव नहीं होता है। इस कारण
उन सारे राजनैतिक दलों,
जिनमें शोषक वर्ग का वर्चस्व है, की विचारधारा ग़ैर-मार्क्सवादी या धर्म आधारित ही होगी।
धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश आदि के आधार पर शोषित वर्गों का विभाजन करना अधिक
सहज है क्योंकि राजसत्ता हर समूह के शोषक वर्ग के हितों का पोषण करने के बावजूद
निरपेक्षता का दिखावा करते हुए शोषित वर्ग को विभाजित रख सकती है। पर जब वर्ग
संघर्षों के चलते शोषित वर्ग जागरूक होने लगता है तो वह जाति, भाषा, प्रदेश आदि को
निराधार समझते हुए एकजुट होने लगता है। जाति, भाषा,
प्रदेश आदि आधारित हित भौतिक स्तर पर कार्य करते हैं इस
कारण जागरुकता बढ़ने के साथ शोषित वर्ग को उनके आधार पर किया गया शोषण नजर आने लगता
है। ऐसे में शोषक वर्ग के लिए निरपेक्षता का मुखौटा उतार कर धर्म के आधार पर शोषित
वर्ग का विभाजन करना ही एकमात्र रास्ता रह जाता है।
राजसत्ता
की दौड़ और निजी टकराहट के चलते अनेकों राजनैतिक पार्टियां अस्तित्व में आती रहतीं
हैं। मूल रूप से विचारधारा के आधार पर सभी राजनैतिक पार्टियां दो भागों में बंटीं
होतीं हैं। एक वे जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है तथा
दूसरी वे जिनका मूल मार्क्सवाद और दृष्टिकोण वैज्ञानिक है। सभी राजनैतिक दलों, जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है, में शोषक वर्ग का अपने संसाधनों के चलते वर्चस्व होता है।
राजनैतिक दल जिनकी विचारधारा मार्क्सवाद आधारित और चिंतन वैज्ञानिक होता है, शोषित वर्ग के उद्धार में समाज का हित देखते हैं। इस कारण
उनमें सर्वहारा वर्ग का वर्चस्व होता है।
जैसे
जैसे वर्ग संघर्ष बढ़ता है सर्वहारा वर्ग आधारित पार्टियां जहां एकजुट होती हैं
वहीं शोषक वर्ग के हितों की रक्षा के लिए गैर-मार्क्सवादी पार्टियां कंधे से कंधा
मिलाने लगती हैं। वर्ग संघर्ष के अंतिम चरण में धर्म के आधार पर समाज का विभाजन और
साम्प्रदायिक हिंसा,
शोषक वर्ग के अंतिम हथियार के रूप में, अनिवार्य हैं।
सभी
राजनैतिक पार्टियों जिनका नेतृत्व धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों में आस्था
रखता है या जिन्होंने कभी न कभी चुनावी लाभ के लिए साम्प्रदायिक ताकतों से समझौता
किया है के बीच में भेद न करना, वर्ग संघर्ष
के अंतिम चरण में वे सब एकजुट होकर साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा को आख़िरी
हथियार के रूप में इस्तेमाल करेंगीं इसके लिए सर्वहारा वर्ग को मानसिक रूप से
तैयार करना तथा साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए मजदूर, किसान और अन्य शोषित वर्गों के संघर्ष और उनकी एकजुटता में
विश्वास करना - यह है साम्प्रदायिकता की मार्क्सवादी समझ।
एक ओर
समझौतापरस्त और धार्मिक आस्था आधारित राजनैतिक दलों तथा दूसरी ओर भाजपा (गठबंधन
चलाने के लिए अपना एजंडा आए दिन बदलना और भिन्न भिन्न समुदायों के समक्ष भिन्न
भिन्न झूठ बोलना समझौतापरस्ती के अलावा क्या है ?) और खुले मंचों से साम्प्रदायिक कार्यक्रम चलाने वालों के बीच भेद करना और
जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था की रक्षा के लिए साम्प्रदायिक हिंसा से लड़ने के नाम
पर समझौतापरस्त ताकतों से हाथ मिलाना (जो अंततः मजदूर, किसान और अन्य शोषित वर्गों के संघर्ष को कमज़ोर ही करेगा) -
यह है साम्प्रदायिकता की ग़ैर-मार्क्सवादी समझ।
सुरेश
श्रीवास्तव
12-11-2003
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