Sunday, 23 June 2013

क्योंकि सपने देखना आपकी नियति है

क्योंकि सपने देखना आपकी नियति है।
(हंस के मार्च 2008 के अंक में राजेन्द्र यादव जी का संपादकीय छपा था, शीर्षक था "आप ही बताइए, ऐसे अंधेरे समय में मुझे सपने क्यों आने चाहिए"। इस पर एक प्रतिक्रिया के रूप में यह पत्र राजेन्द्र यादव जी को लिखा गया था।)

बड़े भाईतुल्य आदरणीय राजेन्द्र जी,
मार्च के हंस में आपका संपादकीय पढ़ा। अपने प्रति आपके स्नेह को देखते हुए आपके क्षमादान के प्रति आश्वस्त होकर अपने उद्गार व्यक्त करने की धृष्टता कर रहा हूं।
अंधेरा तो हमेशा ही काला होता है क्योंकि काला होना ही उसकी प्रकृति है पर औरों को संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाले की बात में इतनी हताशा वाजिब नहीं। सपने तो जीवन की अभिव्यक्ति हैं। जब तक पर्दे पर समाप्त लिखा नहीं आ जाता है सपने देखना हम सभी की नियति है। सपने स्मृति और कल्पना का मिश्रण ही हैं इस कारण जब तक मस्तिष्क जीवित है सोते जागते सपने तो देखना ही होगा। हां सपने आशा के हैं या हताशा के यह निर्भर करता है कि जीवन के इस मुकाम पर व्यक्ति अपनी निजी उपलब्धियों से संतुष्ट है या असंतुष्ट।
तीन महीने पहले आपने मार्क्सवाद को सबसे विकसित अजेय विचारधारा तथा लाखों बुद्धिजीवियों और जुझारू जनता की प्राणशक्ति कहा था। यहां भी आपने कहा है कि मार्क्सवाद तार्किक और वैज्ञानिक सोच पर बल देता था, इसलिए सारे मेधावी युवा उसके साथ थे। शायद आप भी। पर बुरा न मानें युवाओं का एक बड़ा हिस्सा मार्क्सवाद से तार्किक से अधिक भावनात्मक रूप से जुड़ता था और आज भी स्थिति में अधिक फर्क नहीं है। युवावस्था में मार्क्सवाद द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का पर्याय न होकर एक तिलस्म होता है। समय के साथ मार्क्सवाद की समझ परिपक्व होगी या उससे मोहभंग होगा यह इस पर निर्भर करेगा कि व्यक्ति को निजी या सामाजिक तौर पर जीवन में होने वाले उतार-चढ़ावों की कसौटी पर मार्क्सवाद को परखने का कितना अवसर मिला है। युवावस्था के अपने अनेकों तथाकथित मार्क्सवादी साथियों का मैंने मार्क्सवाद से मोहभंग होते देखा है। यहां तक कि सत्तर के दशक के शुरुआती दौर में नक्सलवाद के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने वालों को आज के दौर में भाजपा के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में देखकर मुझे अचरज भी नहीं होता है।
सारी समस्या की जड़ वैज्ञानिक मानसिकता का अभाव और उसके चलते मार्क्सवाद के भ्रूण विचार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अधपकी समझ है। किसी महान विचारक ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति दर्शन-विहीन नहीं होता है। दर्शन का होना व्यक्ति के चयनाधिकार के दायरे के बाहर है। दायरे में जो है वह है उसकी विचारधारा का अल्हड़पन में अल्हड़ तरीके से बटोरे विचारों का संचयन होना या उसके द्वारा परिपक्व युक्तिपूर्वक तरीके से चुने गये विचारों की तार्किक श्रंखला होना। मार्क्सवाद के कुछ अंशों को विश्रंखलित विचारों के रूप में अपनाने वाले उसे केवल समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष के एक हथियार के रूप में देखते हैं। पर मार्क्सवाद को परिपक्व तरीके से एक विचारधारा के रूप में समझनेवाले जानते हैं कि मार्क्सवाद एक संपूर्ण वैचारिक प्रक्रिया और विश्लेषण की पद्धति है जो व्यक्ति को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा वैचारिक आधार प्रदान करता है जो उसे सारी प्रकृति के साथ-साथ सारी मानवीय तथा सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने और उन्हें बदल सकने की क्षमता प्रदान करता है। इसी कारण जहां प्रथम श्रेणी के अनुयायियों के मोहभंग की संभावना निरंतर बनी रहती क्योंकि उन्हें राजनीति के अलावा मार्क्सवाद का उपयोग कहीं और नजर नहीं आता है वहीं दूसरी श्रेणी के अनुयायियों का विश्वास मार्क्सवाद में दिनोंदिन सुदृढ़ होता जाता है क्योंकि उन्हें दैनिक जीवन में हर कहीं मार्क्सवाद को उपयोग करने और उसकी सार्थकता परखने का मौका मिलता है ।

अधूरे मार्क्सवादी स्वयं को संपूर्ण मानव समाज से अलग देखते हैं इस कारण उनकी सोच व्यक्तिवादी होती है। वे मानते हैं कि कुछ व्यक्ति विशिष्ट गुणों से संपन्न होते हैं और ये चुनिंदा व्यक्ति ही समाज को बदलने की क्षमता रखते हैं और वे ही समाज में होने वाले परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी होते हैं। कुछ-कुछ धर्म में अवतार या ईश्वर के दूत की अवधारणा जैसा। परिपक्व मार्क्सवादी मानते हैं कि किसी चरण में अपने समकक्षों की तुलना में कुछ व्यक्ति विशिष्ट हो सकते हैं पर वे भी औरों की तरह ही अपने समय और परिवेश की उपज होते हैं और समाज में होने वाले परिवर्तनों के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं न कि व्यक्तिगत रूप से।
परिपक्व मार्क्सवादी आर्थिक उत्पादन और संबंधों को मानव समाज का आधार मानते हैं, उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के आधार पर विभाजित वर्गों के संघर्ष को सामाजिक समस्याओं की जड़ मानते हैं और इसी कारण उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व को सभी सामाजिक समस्याओं के निराकरण के लिए आवश्यक मानते हैं। विकास प्रक्रिया की निरंतरता को स्वीकारते हुए वे हर छोटे-बड़े संघर्ष, जो समाज को उत्पादन के साधनों के सामूहिक स्वामित्व की ओर ढकेलता है, को वर्ग संघर्ष के एक चरण के रूप में ही देखते हैं।
अपरिपक्व मार्क्सवादी मानवीय प्रकृति तथा भावनाओं को समाज का आधार मानते हुए उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व में कोई बुराई नहीं देखते हैं। उन्हें अगर सामाजिक समस्याओं में कहीं आर्थिक उत्पादन की भूमिका नजर आती भी है तो वह भूमंडलीकरण तथा अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के वर्चस्व तक सीमित रह जाती है। व्यक्तिवादी सोच के कारण वे व्यक्तियों और समूहों की सामाजिक अस्मिता के लिए व्यक्तिवादी संघर्षों को साधन और अंतिम लक्ष्य मानते हैं। वे दलितों, आदिवासियों तथा स्त्रियों के संघर्षों की अलग-अलग सफलता के प्रति आश्वस्त रहते हैं। पीड़ितों के प्रति उनकी हमदर्दी भावनात्मक अधिक, तार्किक कम होती है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, सामाजिक विकास के लिए उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व की अनिवार्यता के विचार पर आधारित है जब कि यथार्थ यह है कि वह समाज को विनाश की ओर ले जाती है। एंगेल्स ने कहा था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था केवल एक आर्थिक व्यवस्था भर नहीं है जो समाज के लिए इस कारण हानिकारक है कि वह अमीर को और अमीर बनाती है तथा गरीब को और अधिक गरीब और आपसी संघर्ष को बढ़ावा देती है बल्कि वह एक वैचारिक व्यवस्था भी है जो समाज को विखंडित कर व्यक्ति को एक भावना रहित जीव में परिवर्तित कर देती है जो सारे समाज के लिए आत्मघाती है।
आप भी वाम विचारधारा में अपने अटूट विश्वास के बावजूद अनेकों बिंदुओं पर मार्क्सवाद से विचलित नजर आते हैं या यूं कहूं कि आपकी बातों में विरोधाभास नजर आता है। गांधी, अंबेडकर और मायावती व्यक्तिवादी सोच के नेता हैं और मार्क्सवाद के घोषित विरोधी हैं। पर आप उन्हें सब को साथ लेकर चलने वाले, दलितों के प्रतिनिधि और दलित अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। जिन समूहों के प्रतीक आप उन्हें मानते हैं वे सभी समूह स्वयं ही साधन-संपन्न और साधन-विहीनों में बंट गये हैं। ये प्रतीक संपन्न लोगों द्वारा अपने निजी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए स्थापित किये जाते हैं और उपयोगिता समाप्त होने पर दरकिनार कर दिये जाते हैं। आजादी के बाद गांधीजी से जब-जब लोगों ने सवाल पूछा कि आप कहते थे कि देश का बंटवारा आपकी लाश पर होगा पर अब जब बंटवारा हो गया है तो आपने उसके खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा करने की कोशिश भी नहीं की, यहां तक कि आपने अनशन भी नहीं किया जो हमेशा आपका अंतिम अस्त्र होता है। ऐसा क्यों। गांधीजी का उत्तर होता था कि मैं तीस साल तक बहुत बड़ी गलतफहमी में जीता रहा कि देश मुझे सुनता है जबकि सच्चाई यह है कि देश मुझे नहीं कांग्रेस को सुनता है और आज जब कांग्रेस में मेरी सुननेवाला कोई नहीं है तो देश में मुझे कौन सुनेगा।
मार्क्सवाद से आपके विचलित होने का दावा करने का दुस्साहस मैं किस आधार पर कर रहा हूं? आपको याद होगा एक बार आपसे चर्चा के दौरान मैंने कहा था कि मार्क्सवाद और धर्म का मूल भेद है कि जहां मार्क्सवाद भौतिक जगत के बाहर किसी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वहीं धर्म भौतिक जगत से बाहर चैतन्य शक्ति के अस्तित्व को मानता है। आपका प्रश्न था कि विचार, मानवीय भावनाएं और संस्कृति आदि को भौतिक कैसे कहा जा सकता है। जब मैंने अपनी बात का औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की तो आपने मुझे अपना विचार लिपिबद्ध करने के लिए कहा था और बाद में मेरा वह लेख हंस में भी छपा था।
सोवियत संघ के विघटन को स्टालिन की तानाशाही के रूप में देखना या चीन में चौकड़ी शासन को यथार्थ मानना मार्क्सवादी समझ नहीं है। सिंगूर या नंदीग्राम में जो कुछ हुआ उसके लिए न आपको आत्मधिक्कार की जरूरत है न विचलित होने की। आपने समस्या को ठीक ही पहचाना है। कम्युनिस्ट पार्टियों में सबसे बड़ा हथियार ही रहा है, आत्मालोचना, निरंतर अपने को संशोधित, परिवर्धित करते रहना। क्या बंगाल के वामपंथियों में यह प्रक्रिया बिल्कुल बंद हो गई है? जमीनी स्तर पर आत्ममंथन क्या वहां आज भी चालू है? उत्तर है, हां भी और नहीं भी।
हर कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा मार्क्सवाद होती है इस कारण उनमें व्यक्तिगत नेतृत्व से अधिक महत्व सामूहिक नेतृत्व का होता है। और यह मानना कि शीर्ष नेतृत्व को मार्क्सवाद की आधारभूत समझ नहीं है अपने आप में गलत है। शीर्ष नेतृत्व के सामने पहली प्राथमिकता होती है राजसत्ता पर काबिज होना। और उसके लिए जनता के एक बड़े हिस्से का समर्थन आवश्यक होता है। पार्टी काडर भी उसी जनता में से आता है। पार्टी काडर की समझ अधूरी है इसका इल्म भी पार्टी नेतृत्व को होता है। पर पार्टी नेतृत्व के पास जादू की छड़ी नहीं होती है जो रातों-रात काडर की मार्क्सवादी समझ पूरी कर दे। जनता, काडर और स्वयं नेतृत्व की समझ संघर्ष के दौरान ही विकसित होती है। पर जहां सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया कुछ वर्षों का संघर्ष होता है वहीं मार्क्सवादी समझ के विकास की प्रक्रिया दशकों में होती है।
एक और बात आपने मार्क्सवाद के लिए कही है। चूंकि सभी विचारधाराओं में वही सबसे वैज्ञानिक है इसलिए वैज्ञानिक परीक्षणों की तरह उसे बार-बार असफल भी होना है और नये परीक्षणों के प्रयोग भी करने हैं। मैं इसमें कुछ संशोधन करना चाहूंगा। मार्क्सवाद मूल रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रकृति को समझने की वैज्ञानिक पद्धति है। वह न असफल है न उसमें संशोधन की आवश्यकता है। हां उसके आधार पर मानव समाज के विकास की प्रक्रिया की समझ और उस समझ के आधार पर विकास की उस प्रक्रिया में बदलाव तथा इच्छित परिणाम हासिल करने के लिए उठाये गये कदमों में गलतियां हो सकती हैं। और समझ और कार्यप्रणाली में निरंतर विकास की आवश्यकता मार्क्सवादी विचारधारा में ही निर्देशित है।
आपको सभी ओर अंधकार नजर आता है क्योंकि आपको कोई सामाजिक आंदोलन नजर नहीं आता है, ऐसा कोई विचार भी नहीं दिखाई देता जो संगठित होकर स्थितियों के बदलने के दबाव पैदा करे ........ कम से कम हिंदी क्षेत्र में। आप लगभग तय मान कर चल रहे हैं कि अडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी केंद्र में अपनी सरकार बनाने जा रही है और मोदी उप-प्रधानमंत्री होंगे। आप एक ओर दुविधाग्रस्त हैं कि कहां और किससे जुड़ें, किसके लिए जुड़ें और दूसरी ओर आपको विशिष्ट व्यक्तियों से ही आशा बंधती है। यह भी आपके मन के किसी कोने में घर किये बैठी उस व्यक्तिवादी सोच के कारण है जो गैर-मार्क्सवादी दृष्टिकोण से आती है। और हताशा इस हद तक कि साहित्य, भविष्य और आदमी से विश्वास ही उठ जाए। फिर आप प्रश्न भी करते हैं "आप ही बताइए, ऐसे अंधेरे समय में मुझे सपने क्यों आने चाहिए"।
आपको सपने इसलिए आने चाहिए क्योंकि आपके सपने, आपकी व्यक्तिवादी सोच के बावजूद, केवल आपके अपने नहीं हैं। वे मुझ जैसे बहुतों के हैं। उम्र के इस पड़ाव में आपको सब ओर अंधकार नजर आता है पर पिछले दो दशकों से आपने जो मशाल उठा रखी है उसकी रोशनी हमें आगे बढ़ने का रास्ता दिखा रही है और घोर अंधेरी गुफा के अंत में भविष्य के चमकते सूरज का आभास देती है।
आपने पचीस साल पहले रचनात्मक लेखन छोड़ कर हिंदी की एक मासिक पत्रिका निकालने का निर्णय किया और महीने में कुछ पृष्ठों के रूप में उसका संपादकीय लिखते आ रहे हैं। एक सभा में नामवर सिंह जी ने मंच से कहा था कि राजेन्द्र यादव जैसे एक सफल साहित्यकार ने न जाने किन कारणों से लिखना छोड़ दिया है पर हिंदी साहित्य के लिए यह एक बहुत बड़ी हानि है। पर मैं उनसे न सहमत था न हूं। अल्पसंख्या में होने के बावजूद मुझ जैसे लोगों के लिए हंस के संपादकीय के चार-छह पृष्ठ, वैचारिक और चिंतन के स्तर पर, चार-पांच सौ पृष्ठ के उपन्यास के मुकाबले कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।
अर्धचेतन या अवचेतन मन पर किसी का वश नहीं होता इसलिए नींद में सपने न आने की चिंता न करें पर जागते हुए सपने देखना कृपया बंद न करें और मैं विश्वास दिलाता हूं कि फिल्मी पर्दे पर लिखे समाप्त की तरह आपके सपनों के लिए समाप्त कभी नहीं लिखा जायेगा क्योंकि आपके सपने देखते रहने के लिए मेधावी युवाओं की पीढ़ियां अनवरत मंच पर आती रहेंगी।
सादर
सुरेश श्रीवास्तव
25 मार्च, 2008
203/क-588, ग्रेटर कैलाश-2

नई दिल्ली - 110048

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