वैज्ञानिक बनाम अवैज्ञानिक दृष्टिकोण
(सुरेश श्रीवास्तव का यह लेख हंस के मई 2006 के अंक में छपा था)
मार्क्सवादी
विचारधारा में आस्था रखने वाले अधिकांश बुद्धिजीवी अपना वैज्ञानिक मिजाज न होने के
कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कसौटी पर असफल हो जाते हैं परंतु आमजन अपने आदर्श
बुद्धिजीवी में अटूट आस्था के चलते उसके विचारों और विश्लेषणों को ब्रह्म-वाक्य
मानकर या तो स्वीकार कर लेता है या संशय की स्थिति में भी उस पर प्रश्न करने से
कतराता है। हानि दोनों की ही है। बुद्धिजीवी अपने अनुयायियों के अनुमोदन के चलते
अपने विचार और विश्लेषण के औचित्य के प्रति आश्वस्त गलत बुनियाद के ऊपर ही आगे
बढ़ता रहता है और अनुयायी अपने आदर्श में अंध-आस्था के चलते गलत रास्ते का अनुसरण
करता चला जाता है। अंधा अंधे को कुएं की ओर ले जाता है।
इस ब्राहृांड या प्रकृति और इस में
निहित सभी कुछ का आधार भौतिक है और सभी कुछ अनादि अनंत एवं परिवर्तनशील है, यह अवधारणा ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मूल है। इसके विपरीत
अवधारणा कि इस प्रकृति में भौतिक से अलग ऐसा कुछ है जिसका आधार भौतिक नहीं है, अध्यात्मिक दृष्टिकोण का मूल है। और वैज्ञानिक मिजाज और
दृष्टिकोण की कसौटी क्या हो सकती है? अवधारणा का स्तर वैचारिक है - मानव मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाएं - इस
कारण कसौटी भी वैचारिक स्तर पर ही होनी है। निसंदेह मूल प्रश्न - क्या मानव विचार, विवेक, विश्लेषण, कल्पना, संवेदना, प्रेम आदि भावनाओं और अभिव्यक्तियों इत्यादि का स्रोत भौतिक
है या इससे इतर कुछ और - का उत्तर ही दृष्टिकोण का वैज्ञानिक या आध्यात्मिक होना
तय करेगा। मानव मन की ये भावनाएं और अभिव्यक्तियां जो भिन्न-भिन्न प्राणियों में
भिन्न-भिन्न स्तर पर विद्यमान होती हैं, मस्तिष्क में होने वाली रासायनिक एवं विद्युत प्रक्रियाओं का फल हैं या इन
प्रक्रियाओं से इतर भी कुछ है जो इन भावनाओं और अभिव्यक्तियों का कारक है।
अध्यात्मिक दृष्टिकोण का आधार हमेशा से दूसरी अवधारणा रही है जबकि वैज्ञानिक
दृष्टिकोण का आधार,
शायद की हिचकिचाहट के साथ, सदैव ही पहली अवधारणा रही है जो वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के साथ-साथ अधिक
मुखर होती चली गई है।
कैट-स्कैन, एम.आर.आई. और पी.ई.टी. जैसी तकनीकियों के विकास के साथ मानव
मस्तिष्क की भीतरी संरचना एवं उसमें होने वाली प्रक्रियाओं की समझ भी विकसित होती
गई है। मस्तिष्क विशेषज्ञ अब एक मत हैं कि मानव मस्तिष्क में होने वाली सारी
प्रक्रियाएं मस्तिष्क कोशिकाओं और स्नायु कोशिकाओं के बीच विद्युत चिंगारियों तथा
रसायनों के रूप में संकेतों के आदान-प्रदान के द्वारा ही होती हैं। ये आदान-प्रदान
परिपथों के जरिए होते हैं। इन परिपथों की तुलना कम्प्युटर के प्रिंटेड सरकिट या
माइक्रोप्रोसेसर से की जा सकती है। परिपथों के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत जटिल
है।
शिशु जन्म के समय जहां मस्तिष्क
कोशिकाओं की संख्या खरबों में होती है वहीं पर परिपथों की संख्या नगण्य होती है।
यूं कहें कि शिशु मस्तिष्क एक खाली कागज की तरह होता है जिस पर अनगिनत बिंदु
(मस्तिष्क कोशिकाएं) रखे होते हैं पर रेखाएं (स्नायु परिपथ) थोड़े से बिंदुओं के
बीच ही खिंची होती हैं। समय के साथ-साथ शारीरिक विकास तथा परिवेश के साथ अंतर्व्यवहार
अर्थात अनुभव के साथ-साथ नई रेखाएं खिंचती जाती हैं यानि नये परिपथों का निर्माण
होता जाता है। इन परिपथों का जल ही मस्तिष्क के अंदर होने वाली जटिलतम प्रक्रियाओं
तथा उनके निष्कर्षों का निर्धारण करता है। सारा मस्तिष्क कई भागों में बंटा होता
है तथा हर भाग अपने परिपथों के जाल तथा प्रक्रियाओं के साथ विशिष्ट कार्यों के लिए
उत्तरदायी होता है। निरंतर विनाश और निर्माण की प्रक्रिया के तहत परिपथों के जाल
में परिवर्तन होता रहता है। सारी
प्रक्रिया अत्यंत जटिल होने के बावजूद मस्तिष्क के परिपथ और प्रक्रियाएं मूल रूप
में एक साधारण कम्प्यूटर की भांति ही हैं। पर जहां साधारण कम्प्यूटर के परिपथों का
जाल निर्माण के बाद अपरिवर्तनीय होता है वहीं मस्तिष्क के परिपथों के जाल का कुछ
भाग निरंतर परिवर्तित होता रहता है और कुछ भाग जो साधारणतया सारे परिपथों का
संचालन करता है,
आमतौर पर अपरिवर्तनीय होता है खासकर वह भाग जो परिवर्तन का
विरोध करता है।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि कम्प्यूटर
के आविष्कार का मूल विचार दर्शनशास्त्र की विचार और तर्क की धारणा पर आधारित है।
दर्शनशास्त्र के अनुसार किसी विचार या तर्क को छोटे-छोटे प्रश्नों में उस स्तर तक
विभाजित किया जा सकता है जहां हर प्रश्न का उत्तर केवल 'हां'
या 'न'
में ही संभव हो। दूसरे शब्दों में हर विचार या तर्क
छोटे-छोटे तर्कों,
जो केवल 'हां' या 'न'
के रूप में ही होते हैं, का योग होता है। यही 'हां'/'न'
जहां विचारों या तर्कों का मूल है वहीं कम्प्यूटर का भी मूल
है। विचार और तर्क की भौतिक समझ के आधार पर ही न केवल कम्प्यूटर के क्षेत्र में
नये-नये विकास हो रहे हैं बल्कि मानवीय मस्तिष्क के विभिन्न आयामों की समझ भी बढ़ती
जा रही है। कम्प्यूटर के क्षेत्र में न्युरल सरकिट, फजी लाजिक,
आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स आदि का विकास मानवीय मस्तिष्क की संरचना की समझ के आधार पर ही संभव
हुआ है। दर्द निवारक दवाओं,
मानसिक रोगों की चिकित्सा, अपराधी की जांच में पोलीग्राफ (झूठ पकड़ने की मशीन) तथा नारकॉटिक ब्रोन मैपिंग
आदि का विकास मानव मस्तिष्क के भौतिक आधार की समझ के कारण ही संभव हुआ है।
एक विचार और उसकी अभिव्यक्ति में फर्क
समझना आवश्यक है। विचार मस्तिष्क कोशिकाओं के बीच संकेतों के आदान-प्रदान की
प्रक्रियाओं का योग है। जब इन संकेतों का आदान-प्रदान स्नायु तंतुओं के द्वारा
शरीर की अन्य कोशिकाओं के साथ होता है, खास कर मांसपेशियों के साथ तो वह विचार की अभिव्यक्ति के रूप में व्यक्त होता
है। क्या मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं को केवल मस्तिष्क की कोशिकाओं के बीच 'हां'/'न'
संकेतों के योग के रूप में देखा जा सकता है? अगर 'हां'/'न'
संकेतों के योग कम्प्यूटर में स्क्रीन पर अक्षर, शब्द, वाक्य और
विचार लिख सकते हैं,
स्टील मिलों में लौह अयस्क को गला कर अनेकों प्रकार की
स्वचलित कारों,
मशीनों और रोबोट में परिवर्तित कर सकते हैं तो उनका योग
शरीर के अंगों का संचालन क्यों नहीं कर सकता है।
टेलीग्राफ में डॉट/डैश के संकेतों से
शब्दों और वाक्यों के रूप में सूचना या विचार को एक जगह से दूसरी जगह प्रेषित किया
जा सकता है। डाट डैश की श्रंखला में बदलाव से पूरी सूचना या विचार बदला जा सकता
है। सिर्फ एक बिंदु से 'मदिर' या 'मंदिर' का सारा
परिदृश्य ही बदल जाता है और जहां तक दोनों शब्दों के भावों का संबंध है मस्तिष्क
के अंदर की पूरी प्रक्रिया ही बदल जाती है। विचार मनुष्य के व्यवहार का संचालन
करते हैं इससे सहमत होते हुए भी इस बात पर अड़ा जा सकता है कि विचार भौतिक जगत से
अलग कुछ है पर सूक्ष्म स्तर पर की हुई जांच यही दर्शाती है कि विचार मूल रूप से 'हां'/'न'
के संकेतों की क्लिष्ट श्रंखलाबद्ध प्रक्रिया ही है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता तथा
सार्थकता को स्वीकार करने के बावजूद अनेकों चिंतक और बुद्धिजीवी विचार और मानवीय
भावनाओं को भौतिक जगत से इतर क्यों मानते हैं इसका कारण जाने बिना विचार की
आध्यात्मिक धारणा को खारिज करना तार्किक रूप से सही नहीं होगा।
कोई भी विचार या भावना अनेकों मानसिक
प्रक्रियाओं का योग है जब कि अभिव्यक्ति उन प्रक्रियाओं का वह निष्कर्ष है जो
स्नायु तंतुओं के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित करता है। मानसिक
प्रक्रियाओं का उन प्रक्रियाओं के निष्कर्ष के साथ घालमेल करना गलत है। मानसिक
प्रक्रियाएं स्नायु तंतुओं के जरिये शरीर के विभिन्न अंगों का संचालन करती हैं जो
व्यवहार के रूप में प्रकट होता है। भौंहों का सिकुड़ना एक निष्कर्ष है जो अनेकों
मानसिक प्रक्रियाओं के रूप में एक विचार - क्रोध - की अभिव्यक्ति हो सकती है या
किन्हीं दूसरी प्रक्रियाओं के रूप में एक अन्य विचार - आश्चर्य - की अभिव्यक्ति हो
सकती है। आंसू बहना एक निष्कर्ष है जो दुख की भी अभिव्यक्ति हो सकती है और हर्ष की
भी। विचार को भौतिक स्तर की प्रक्रिया के रूप में न देखकर उसे एक चीज या अस्तित्व
के रूप में देखना पहली गलती है।
जिस प्रकार ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी
विचारों और संस्कारों के रूप में आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करता है उसी प्रकार
अज्ञान भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में बरकरार रहता है। बचपन में जब शिशु की
तार्किक क्षमता विकसित नहीं हुई होती है वह जहां भौतिक जगत की बुनियादी समझ अपने
निजी अनुभव से हासिल करता है वहीं पर आध्यात्मिक सोच अपने आस-पास के सामाजिक
परिवेश में व्याप्त विचारों पर आधारित होती है। ये विचार सदियों पहले के सीमित
ज्ञान के आधार पर विकसित हुए होते हैं। विज्ञान की प्रगति ने जहां इनमें से अनेकों
विचारों में प्रत्यक्ष विरोधाभासों को दर्शा कर उन्हें बदलने के लिए मजबूर किया है
वहीं पर अनेकों गलत विचार और व्याख्याएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी अभी भी बरकरार हैं खासकर
वैचारिक स्तर पर। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही मान्यता को हमेशा सही मानना दूसरी गलती
है। यहां पर वस्तुपरक अनुभवों और उनके तार्किक विस्तार पर आधारित ज्ञान तथा आस्था
पर आधारित मान्यताओं में फर्क करना आवश्यक है।
मानव शिशु के विकास के शुरुआती वर्षों
में मस्तिष्क के उस भाग के परिपथ विकसित होते हैं जो आगे आने वाले वर्षों में
मस्तिष्क के भीतर प्रवेश करने वाले संकेतों और संदेशों की ग्राह्यता निर्धारित
करते हैं। उन वर्षों में अगर गलत धारणाएं और विचार घर गए हैं तो आने वाले वर्षों
में न केवल उन्हें निकालना मुश्किल होता है बल्कि वे और बहुत से गलत विचारों और
धारणाओं को मान्य बनाने के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। रेल के साधारण डिब्बे में
पहले घुस जाने वाला बाद के समय में तय करता है कि किसे घुसने दिया जाए और किसे
नहीं। पांच सौ साल पहले अमरीका में जबरदस्ती घुस जाने वाले आज तय करते हैं कि
अमरीका में अब किसे घुसने दिया जाए और किसे नहीं। विज्ञान की प्रगति के साथ
अध्यात्म के पैरोकार अपने तर्कों को बदलने के लिए बाध्य तो होते हैं पर अपनी
बुनियादी सोच पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। यह तीसरी गलती है।
निहित स्वार्थ हर मनुष्य के सारे जीवन
को - विचारों सहित - हर स्तर पर प्रभावित करते रहते हैं। ये स्वार्थ चेतन से अधिक
अर्धचेतन स्तर पर प्रभावित करते हैं यानि परिपथों के उस स्तर पर जो अन्य परिपथों
का तथा नये परिपथों के निर्माण का संचालन करता है। इस स्तर पर नये विचारों की घुस
पैठ कराना किसी बाहरी व्यक्ति के लिए तो असंभव ही है स्वयं व्यक्ति के लिए भी लगभग
असंभव है। चूंकि यह क्षेत्र सारी सोच को प्रभावित करता है इस कारण जागरूक से
जागरूक इंसान के लिए भी व्यक्तिपरक न हो कर वस्तुपरक होना लगभग असंभव कार्य होता
है। विचार कार्य से अधिक महत्वपूर्ण है, बौद्धिक श्रम शारीरिक श्रम से अधिक मूल्यवान है, बुद्धिजीवियों की सेवा करना श्रमजीवियों का कर्त्तव्य है, श्रम का विभाजन प्रकृति प्रदत्त है न कि समाज निर्धारित आदि
धारणाएं बुद्धिजीवियों के निजी स्वार्थ से प्रेरित हैं न कि यथार्थ और तार्किक
निष्कर्ष। दोष बुद्धिजीवियों की ईमानदारी में न हो कर उनकी समझ में है। अगर
बुद्धिजीवी को सच्चाई समझना है तो उसे ईमानदारी से स्वयं को कटघरे में खड़ा करना
चाहिए। किसी अवधारणा का समर्थन करने और उसके विपरीत किसी अवधारणा को खारिज करने से
पहले बुद्धिजीवी को ईमानदारी से अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि किसी अवधारणा का
समर्थन करने या किसी अवधारणा को खारिज करने में कहीं उसका अपना स्वार्थ तो निहित
नहीं है। ईमानदारी से पूछा गया प्रश्न वैज्ञानिक मिजाज और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
विकसित करने की पहली पायदान है।
(सोवियत
यूनियन में समाजवादी क्रांति विफल क्यों हुई, समाजवाद के प्रयोग गरीबी, बेरोजगारी
और भुखमरी दूर करने में असफल क्यों हैं, मार्क्सवादी चिंतन में व्यक्तिगत भावनाओं
का स्थान क्यों नहीं है आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित
सही आंकलन किये बिना मार्क्सवादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विरोधाभास
दूर नहीं होगा। इन प्रश्नों पर फिर कभी।)
सुरेश
श्रीवास्तव
फरवरी
2006
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