Friday, 28 June 2013

तीसरे मोर्चे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

(मार्क्स दर्शन के जुलाई-सितम्बर 2012 में छपे लेख का सारांश)

तीसरे मोर्चे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
(सुरेश श्रीवास्तव)

इस अंक में हम सुरेश श्रीवास्तव का एक लंबा लेख छाप रहे हैं। इस लेख के अंश अलग-अलग पहले भी छप चुके हैं। एक अंश हंस के फरवरी 2004 के अंक में चुनाव से ठीक पहले छपा था तथा 2009 के चुनाव से ठीक पहले पूरा लेख एक पैंफलेट के रूप में छपा था। जिस गलती के प्रति इन लेखों में आगाह किया गया था और जिसे वामपंथी नेतृत्व बार-बार दोहराता रहा है वह है, संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों का गलत विश्लेषण और जिसका मूल कारण है नेतृत्व की मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ। 2014 के चुनाव से पहले यह पेंफलेट हूबहू फिर से छापा जा रहा है क्योंकि वामपंथी नेतृत्व फिर उन्हीं गलतियों को दोहराने पर आमादा है - बुर्जुआ संसद में कुछ सीटें हासिल करने के लिए अवसरवादी पार्टियों के साथ अवसरवादी समझौते और उन समझौतों के सत्यापन पर काडर की मुहर के मकसद से काडर को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए वही घिसी-पिटी दलीलें।
            लेनिन ने लिखा था बेझिझक एक गलती को स्वीकार करना, उसके कारणों को सुनिश्चित करना, उन परिस्थितियों का विश्लेषण करना जिनके कारण गलती हुई, और उसके सुधार के उपायों को ढूंढना - यह एक गंभीर पार्टी का मानदंड है। इस कसौटी पर भारतीय वामपंथियों ने साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि एक गुट हैं, जनता की पार्टी नहीं हैं, बल्कि बौद्धिकवादियों तथा कुछ कामगारों जो बौद्धिकवाद के निकृष्टतम लक्षणों की नकल करते हैं, की एक मंडली भर हैं।
            मार्क्स ने लिखा था इतिहास अपने को दोहराता है पर पहली बार वह त्रासदी होता है और दूसरी बार फरेब। वामपंथी नेतृत्व ने अपने काडर तथा मेहनतकश जनता के साथ बार-बार फरेब किया है।
                        इस पैंफलेट के अंत में लिखा गया था सांप्रदायिकता के हमले से बचने के लिए भाजपा के विरोधी के रूप में कांग्रेस को समर्थन कर उसे मजबूत करना गलत होगा। आज के संदर्भ में जोड़ा जा सकता है और संशोधनवादी नजरिए के कारण मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध करने के लिए कांग्रेस के विरोधी के रूप में सुषमा स्वराज द्वारा पेश किये गये प्रस्ताव का समर्थन कर भाजपा को मजबूत करना गलत होगा। यहां प्रासंगिक होगा जो लेनिन ने संशोधनवादियों के फरेब को उजागर करते हुआ लिखा था। ध्वस्त प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के अवशेषों पर लघु-उत्पादन अपने आप को, निरंतर गिरते पोषण स्तर के द्वारा, दीर्घकालिक भुखमरी के द्वारा, लम्बे होते कार्य दिवस के द्वारा तथा पशुधन की गुणवत्ता तथा देख-भाल में ह्यास के द्वारा, बरकरार रख पाता है, एक शब्द में, उसी प्रणाली के द्वारा जिस के द्वारा हस्तशिल्प उत्पादन ने पूंजीवादी उत्पादन से मुक़ाबले में अपने को थामे रखा था। पूंजीवादी समाज में विज्ञान तथा तकनीकी की हर प्रगति अनिवार्य रूप से बिना किसी मुरव्वत के लघु-उत्पादन के आधार को खोखला करती है, और यह समाजवादी राजनैतिक अर्थशास्त्री का दायित्व है कि इस प्रक्रिया, अक्सर क्लिष्ट तथा पेचीदी, की उसके सभी रूपों में पड़ताल करे और लघु-उत्पादक को दर्शाए कि पूंजीवाद के तहत उसका अपने बल पर बचे रहना असंभव है, पूंजीवादी व्यवस्था के तहत कृषक आधारित कृषि-उत्पादन का कोई भविष्य नहीं है और किसान के लिए सर्वहारा के दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। इस प्रश्न पर संशोधनवादियों ने अपराध किया है, वैज्ञानिकता के अर्थ में, एकपक्षीय तथ्यों को चुन कर और संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के संदर्भ से काट कर सतही तौर पर सर्वव्यापक दिखा कर। राजनैतिक दृष्टिकोण से उन्होंने अपराध किया है इस तथ्य के आधार पर कि चाहे या अनचाहे उन्होंने किसानों को, क्रांतिकारी सर्वहारा के नजरिये की जगह छोटे मालिकों के नजरिये को (अर्थात बुर्जुआ नजरिये को) अपनाने का आग्रह किया।
हम आशा करते हैं कि वामपंथी पार्टियों का काडर, संशोधनवादी रुझानों (दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दोनों) को समझने के लिए मार्क्सवाद के सभी आयामों विशेषकर दार्शनिक आयाम की सही समझ हासिल करेगा और अपने नेतृत्व की आलोचना करने से परहेज नहीं करेगा।
संपादक
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तीसरा मोर्चा : समय की मांग

सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व वित्तीय पूंजी के केंद्रीकरण में शोषक वर्ग के विभिन्न समूहों में टकराहट की जगह एकजुटता नजर आती है जिसमें बहुत से बुद्धिजीवी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के चलते मार्क्स की ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा को नकारते हुए इतिहास के अंत की घोषणा कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि किन्हीं पड़ावों पर शोषक वर्ग की जीत की संभावना मार्क्सवादी चिंतन और विश्लेषण के लिए अनहोनी नहीं है।
            अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए औरों के साथ मिलकर समूह का गठन मानव की एक सहज क्रिया है। सामाजिक विकास के साथ मानव की दिनचर्या में विभिन्न कार्य-कलापों की संख्या भी बढ़ती गई है और साथ ही समूहों की भी। इस  कारण समाज विभिन्न समूहों में बंटा नजर आता है तथा हर व्यक्ति अनेकों समूहों में मौजूद नजर आता है। एक व्यक्ति का हित दूसरे व्यक्ति के हित का एक समूह में पूरक हो सकता है तो दूसरे में विरोधी और यह इस पर निर्भर करेगा कि उसके उद्देश्य की पूर्ति सहयोग से होती है या विरोध से। जो चीज व्यक्ति पर लागू होती है वही समूह पर भी लागू होती है अर्थात समूहों में भी सहयोग तथा विरोध की स्थिति हो सकती है। चूंकि मानव के अस्तित्व तथा जीवन का आधार प्राकृतिक तथा मानव निर्मित संसाधनों के उपयोग पर निर्भर है इस कारण जिस समाज में प्राकृतिक तथा मानव निर्मित संसाधनों पर कुछ लोगों का स्वमित्व होता है और शेष को संसाधनों के उपयोग के लिए उनके रहमो-करम पर निर्भर रहना होता है उस समाज में संपन्न-वर्ग तथा वंचित-वर्ग के बीच हमेशा संघर्ष की स्थिति रहेगी।
            प्रत्यक्ष रूप से अनेकों सामूहिक गतिविधियां सामूहिक संसाधनों के उपभोग से असंबद्ध नजर आती हैं पर परोक्ष में सभी व्यक्तियों तथा समूहों की सभी गतिविधियां किसी न किसी रूप में सामूहिक संसाधनों के स्वामित्व तथा उपभोग के विचार से प्रभावित रहती हैं। शोषण व्यवस्था को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से अन्य समूहों के मुकाबले राजसत्ता, समाज की विकास प्रक्रिया में सबसे शक्तिशाली संरचना के रूप में उभरी है। शुरुआती दौर में शोषण व्यवस्था को कायम रखने के लिए राजसत्ता के लिए हिंसा का प्रयोग आसान था पर शोषित वर्ग की जागरूकता तथा एकजुटता बढ़ने के साथ-साथ हिंसा का प्रयोग कठिन होता चला गया। संघर्ष की तीव्रता कम करने के उद्देश्य से शोषक वर्ग ने राष्ट्र राज्य की अवधारणा विकसित की और शोषित वर्ग को भ्रमित करने के लिए लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था सबसे अधिक कारगर साबित हुई है।
            समाज पर नियंत्रण तथा उसके संचालन के लिए राजसत्ता सबसे शक्तिशाली संरचना है इसीलिए हर वर्ग या समूह राजसत्ता पर नियंत्रण के लिए अपने-अपने हितों के अनुरूप राजनैतिक समूहों का गठन करता है। सभी राजनैतिक समूहों का अंतिम लक्ष्य राजसत्ता पर काबिज होना है। सभी राजनैतिक दल अपने कार्य-कलापों मे अपनी-अपनी विचारधारा द्वारा संचालित होते हैं। किसी भी राजनैतिक दल की विचारधारा का विकास उसके सदस्यों के विचारों और स्वार्थों तथा उसके अन्य सामाजिक समूहों के साथ अंतवर््यवहार पर निर्भर करता है। चूंकि हर व्यक्ति तथा हर समूह की मानसिकता सामूहिक संसाधनों के स्वामित्व तथा उपभोग के प्रश्न से किसी न किसी रूप में जुड़ी होती है इस कारण हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में राजनैतिक समूहों को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है।
            जैसा कि पहले दर्शाया गया है वर्ग विभाजित समाज में संघर्ष दो स्तर पर कार्यरत है। एक ओर तो शोषित वर्ग शोषक वर्ग के विरुद्ध संघर्षरत है दूसरी ओर शोषक वर्ग के विभिन्न समूहों में आपसी संघर्ष है। पहले संघर्ष के लिए शोषक वर्ग शोषित वर्ग को भ्रमित करने के लिए ऐसे संगठनों का समर्थन करता है जो शोषित वर्ग के हितों के लिए काम करते नजर आएं पर परोक्ष में शोषित वर्ग में विघटन पैदा कर शोषक वर्ग के हाथ मजबूत करें और शोषित वर्ग के संघर्ष को गुमराह करें।
            दूसरे संघर्ष के लिए भी विभिन्न समूहों का प्रादुर्भाव होता है। अपने वर्ग चरित्र के कारण एक ओर वे आपस में टकराते हैं तो दूसरी ओर शोषित वर्ग से। 
            यह विचार, कि जाति, भाषा, प्रदेश, धर्म आधारित समूहों के बीच हितों की टकराहट ही आम आदमी की दयनीयता और समस्याओं का मूल है, एक मायाजाल की भांति है जिसकी ओट में शोषक वर्ग शोषित वर्ग को विभिन्न समूहों में विभाजित करते हुए उसका शोषण जारी रख सकता है। समाज में शोषक वर्ग के लिए अन्य वर्गों के शोषण को वैध ठहराने के लिए आस्था आधारित धर्म सबसे उपयुक्त विचारधारा है और शोषित वर्गों के बीच वैमनस्य सबसे उपयुक्त साधन है।
            राजसत्ता की दौड़ और निजी टकराहट के चलते अनेकों राजनैतिक पार्टियां अस्तित्व में आती रहतीं हैं। वर्ग हितों के आधार पर सभी पार्टियां मूल रूप से दो खेमों में बंटीं होती हैं। एक वे जो शोषित वर्ग की एकजुटता को मजबूत करती हैं और दूसरी वे जो शोषित वर्ग की एकजुटता को कमजोर करती हैं। विचारधारा के आधार पर भी सभी राजनैतिक पार्टियां दो भागों में बंटीं होतीं हैं। एक वे जिनकी विचारधारा का मूल माकर््सवाद और दृष्टिकोण वैज्ञानिक है तथा दूसरी वे जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है। सभी राजनैतिक दलों, जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है, में शोषक वर्ग का अपने हितों और संसाधनों के चलते वर्चस्व होता है। राजनैतिक दल जिनकी विचारधारा मार्क्सवाद आधारित और चिंतन वैज्ञानिक होता है, शोषित वर्ग के उद्धार में समाज का हित देखते हैं। इस कारण उनमें सर्वहारा वर्ग का वर्चस्व होता है।
            राजनैतिक परिवेश में अनेकों पार्टियां अपने वर्चस्व के लिए जूझती नजर आती हैं। गैर-मार्क्सवादी विचारधारा वाली पार्टियों की धक्का-मुक्की सैद्धांतिक भी हो सकती है पर विशेष रूप से निजी स्वार्थों की टकराहट के चलते ही होती है पर मार्क्सवादी विचारधारा वाली पार्टियों की धक्का-मुक्की मूलतः सैद्धांतिक ही है। वामपंथी पार्टियों के बीच मतभेद सामाज की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों के आंकलन में भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचने के कारण उपजते हैं।
            भारत एक राजनैतिक इकाई होने के बावजूद आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिकता के स्तर पर अनेकों राष्ट्रों का संघ है। शोषित वर्ग की लड़ाई के लिए सारे भारत को एकरूप अस्तित्व मान कर संघर्ष के लिए नीति तय करना वामपंथी पार्टियों की सबसे बड़ी भूल है। अनेकों वामपंथी पार्टियों की उपस्थिति जनता में भ्रम पैदा किए हुए है।
            राष्ट्रीय स्तर पर दो बुर्जुआ पार्टियों के विकल्प के बीच तथा क्षेत्रीय स्तर पर भी दो या दो से अधिक व्यक्तिवादी पार्टियों के विकल्प के बीच ही जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने की मजबूरी है। वामपंथी पार्टियों का दायित्व है कि वे आपस में एका पैदा करें और भारतीय जनता के सामने एक मार्क्सवादी विचारधारा आधारित विकल्प पेश करें। अनेकों वामपंथी पार्टियों के बीच अनेकों मतभेद हो सकते हैं पर उसके बावजूद न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर एकजुटता पैदा की जा सकती है। सबसे बड़ी पार्टी के नाते सीपीएम की जिम्मेवारी है कि सभी वामपंथी पार्टियों का आह्वान करे कि आम-सहमति के आधार पर न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करें जिसके आधार पर एक जुट होकर जनता के सामने तीसरा विकल्प पेश किया जा सके।
            न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा उसकी बेरोकटोक आवाजाही के लिए वैश्वीकरण की नीतियां शोषित वर्ग की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। कांग्रेस तथा भाजपा ऊपरी तौर पर सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे की विरोधी नजर आ सकती हैं पर मूल रूप में दोनों पार्टियां शोषक वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के सबसे बड़े पैरोकार के नाते शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करने में एकजुट हैं। शोषित वर्ग की लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां प्रमुख मुद्दा है या उसके साथ-साथ सांप्रदायिकता भी अपने आप में महत्वपूर्ण मुद्दा है इस प्रश्न का उत्तर तीसरे विकल्प के लिए आम-सहमति का आधार तैयार करेगा।
            अगर सांप्रदायिकता को भी अपने आप में एक मुद्दा माना जाता है तो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस से भी सहयोग करना होगा क्योंकि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का केंद्र संघ परिवार तथा उसका राजनैतिक दल भाजपा ही है और केंद्र में जनता के सामने उसका विकल्प कांग्रेस के अलावा कोई नहीं है। पर कांग्रेस से सहयोग अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण को मजबूत करेगा और शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करेगा। इस दुविधाजनक परिस्थिति का निदान संभव है अगर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियों तथा सांप्रदायिकता के संबंध को समझ लिया जाए।
             अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां आधारभूत रूप में प्राकृतिक और मानव-निर्मित संसाधनों पर शोषक वर्ग की पकड़ मजबूत करने का ही प्रयास है और इसके खिलाफ किए जा रहे शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करने के लिए सभी हथकंडे अपनाए जाएंगे। उसकी एकजुटता को कमजोर करने के लिए धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश आदि के आधार पर शोषित वर्ग को भ्रमित करने का हर संभव प्रयास किया जाएगा और अलग-अलग मुद्दों के लिए अलग-अलग समूहों का गठन भी होगा। इन सभी समूहों में आपस में, निजी हितों के चलते, अपने-अपने वर्चस्व के संघर्ष भी होंगे।
            राष्ट्रीय स्तर की दोनों प्रमुख पार्टियां कांग्रेस तथा भाजपा राजनैतिक संघर्ष के दो ध्रुव दिखाई दे सकते हैं पर मूल रूप में वर्ग संघर्ष में दोनों एक ही ध्रुव के दो रूप हैं। सीपीएम के एक प्रमुख नेता के शब्दों में "अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप ही पूंजीवादी-सामंती पार्टियों ने धर्म को राजनीति से अलग रखते हुए हमेशा धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत की ध्वजा को उठाए नहीं रखा। संकट की घड़ी में, जिसे हाल के काल में 80 के मध्य के बाद का काल कहा जा सकता है, कांग्रेस ने हिंदू सांप्रदायिकतावादियों और मुस्लिम तत्त्ववादियों के प्रति समझौतापरस्ती का रुख अपनाया। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के ताले को खोलना, 1986 में शाहबानो मामले में अदालत की राय को उलट देना और अयोध्या आंदोलन से इस प्रकार निपटना कि 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया, इस बात के नग्न उदाहरण हैं कि किस प्रकार शासक दल ने चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक ताकतों से समझौता किया।"  
             न केवल कांग्रेस और भाजपा ने बल्कि अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने भी समय-समय पर संप्रदायिकतावादी ताकतों से समझौता किया है। विभिन्न क्षेत्रीय दल आम राजनीति में जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के आधार पर विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं पर नाजुक परिस्थितियों में उन्होंने बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक सांप्रदायिक ताकतों के साथ समझौता कर वर्ग संघर्ष की लड़ाई में शोषित वर्ग को नुकसान ही पहुंचाया है। राजनीति के समर क्षेत्र में जो भी दल धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के नाम पर संगठित हैं वे सभी मूल रूप में शोषक वर्ग के हित साधक हैं। कांग्रेस इन सब में अग्रणी है। यहां कांग्रेस के चरित्र को समझने के लिए इतिहास पर एक नजर डालना जरूरी है।
            1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आम जनता ने धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के भेद को भूलकर एकजुट हो कर अंग्रेज शासकों तथा सामंत और व्यापारी वर्ग के रूप में उनके सहयोगियों के विरुद्ध संघर्ष किया था। आम जनता की एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजी पूंजीपतियों ने कांग्रेस की स्थापना की थी। कांग्रेस ने धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के आधार पर शोषित वर्ग की एकजुटता को खण्ड-खण्ड कर जन-संघर्ष को कमजोर करने का काम बखूबी अंजाम दिया। एक ओर हिंदू मुसलमानों के बीच धर्म के आधार पर इस हद तक वैमनस्य फैलाया कि उसकी परिणति लाखों बेगुनाहों के कत्ले-आम के साथ देश के विभाजन में हुई तो दूसरी ओर पूंजीपति तथा सामंत वर्ग के हाथ सत्ता हस्तांतरण के जरिए जन-संघर्ष की आग को ठंडा कर दिया। जहां और संगठन अलग अलग  विभाजनकारी भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं वहीं कांग्रेस हर विभाजनकारी भावना का प्रयोग करती है।
            कांग्रेस तथा भाजपा दोनों ही अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप राजसत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी प्रचलित छवि के विपरीत नीतियां अपना सकती हैं। पर मूल रूप में शोषक वर्ग का प्रतिनिधि होने के नाते सत्तानशीन होने पर दोनों ही वे ही नीतियां अपनाती हैं जिनके विरोध का दिखावा वे विरोधी दल के रूप में करती नजर आती हैं। और दिल्ली में बैठी सरकार अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां 1991 से आज तक एक ही तरह चलाती रही है चाहे केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार हो या भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार हो या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार हो।
            पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास दर्शाता है कि किस प्रकार जहां कांग्रेस ने सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा दिया वहीं भाजपा ने सांप्रदायिक ताकतों से दूरी बनाए रखी।
            1991 में सत्ता में आने के बाद नरसिम्हाराव सरकार ने राम-जन्मभूमि में कार-सेवा के नाम पर हिंदुत्ववादी ताकतों को देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की खुली छूट दी, कार सेवकों को अयोध्या में एकत्रित होने दिया और उत्तर प्रदेश की कल्याणसिंह सरकार की ओर से तब तक आंखें बंद कर रखीं जब तक बाबरी मस्जिद ध्वस्त नहीं कर दी गई।
            इसके विपरीत जिस भाजपा ने 1996 में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे को छोड़ने से साफ इनकार करते हुए सरकार से इस्तीफा दे दिया था उसी भाजपा ने उन्हीं अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एनडीए के रूप में सांप्रदायिक ताकतों से दूरी बनाते हुए 1998 से 2004 तक गठबंधन सरकार चलाई।
            किसी भी वामपंथी पार्टी का किसी भी गैर-वामपंथी पार्टी के साथ गठबंधन जनता को गुमराह करेगा और वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग को कमजोर करेगा। वामदलों को समझना होगा कि भारत के आज के राजनैतिक परिदृश्य में इस बात की संभावना कहीं नहीं है कि बाकी सभी दल भाजपा के साथ इस हद तक एकजुट हो जाएं कि भाजपा अपनी सांप्रदायिक नीतियां लागू कर सके और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को भी इसकी आवश्यकता नहीं है जब तक केंद्र की सत्ता वामदलों की जद में नहीं आ जाती है।
            सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से रोकने के लिए वामदलों के पास दो विकल्प हैं। एक अपने संघर्ष को इतना कमजोर रखें कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को वामदलों के संघर्ष से खतरा नजर न आए। दूसरा है जनता की एकजुटता को इतना मजबूत करें कि राष्ट्रवादी ताकतें वामदलों के साथ चलने में ही अपना भला देखने लगें। जाहिर है पहला विकल्प वामपंथी ताकतों के लिए घातक है।
            मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले वामपंथी दलों की जिम्मेदारी है कि आपसी सहमति के आधार पर एक मोर्चा बनाएं जो जनता को कांग्रेस तथा भाजपा के विकल्प के रूप में नजर आए। भारत एक विशाल विविधताओं वाला देश है और भिन्न क्षेत्रों में संघर्ष की नीति भी भिन्न होगी। अगर सभी वामपंथी दल इसके बारे में सजग होंगे तो आमसहमति में कोई अड़चन नहीं आएगी।
            इसमें संभावना से अधिक सुनिश्चिति है कि सांप्रदायिक ताकतें अपने हमले तेज करेंगी। पर संघर्ष के अंतिम पड़ाव में इसके लिए वामपंथी दलों को खुद को तथा जनता को तैयार करना होगा। आमतौर से किसी भी धर्म का अनुकरण करने वाली मेहनतकश जनता की मानसिकता सांप्रदायिक नहीं होती है। और सारे देश में बहुमत इसी वर्ग का है। इस वर्ग की जनता को कट्टरवादी नेतृत्व उसी जगह गुमराह करने में सफल हो पाता है जहां इस वर्ग में वामदलों ने सही रूप में संघर्ष का बीड़ा नहीं उठाया है। मेहनतकश जनता के बीच सही नीतियों के साथ शोषण के खिलाफ संघर्ष कर सही नेतृत्व का विकल्प जनता के सामने रखना ही सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।
            सांप्रदायिकता के हमले से बचने के लिए भाजपा के विरोधी के रूप में कांग्रेस को समर्थन कर उसे मजबूत करना गलत होगा।
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