(लेख अनभै सांचा के अप्रैल-जून 2013 के अंक में भी छपा है)
भगतसिंह - क्रांतिकारी बनाम चिंतक
(सुरेश श्रीवास्तव)
(त्रैमासिक पत्रिका मार्क्स दर्शन के प्रमुख संपादक सुरेश श्रीवास्तव द्वारा 28 सितम्बर 2012 को बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी में 'अभियान' द्वारा आयोजित गोष्ठी में दिया गया आधार वक्तव्य)
प्रिय नौजवान साथियो,
विविधता इस प्रकृति का नियम है और हम सभी अनेकों-अनेक कार्य-कलाप अपने-अपने मकसदों से प्रेरित हो कर करते रहते हैं। हर जीव की सहज प्रवृत्ति अपने अस्तित्व को बचाने की है पर अन्य जीवों से भिन्न, मानव के अस्तित्व की सुरक्षा सामाजिक परिवेश में ही सुनिश्चित होती है। यह अलग बात है कि सजग रूप से अपने अस्तित्व की सुरक्षा, कोई व्यक्ति समाज की सुरक्षा से जोड़ कर करता है, और कोई समाज की सुरक्षा की कीमत पर करता है।
आज आप सब यहां शहीद भगतसिंह को याद करने और उनके व्यक्तित्व के अनुरूप उनके बारे में कुछ रोचक बातें सुनने के मकसद से इकट्ठे हुए हैं। पिछले 80 सालों में भगतसिंह के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है और हम सब के मन में एक महान क्रांतिकारी, जिसने 23 साल की अल्पायु में देश की आजादी के लिए अपनी जान हंसते-हंसते कुर्बान कर दी, की छवि एक आराध्य के रूप में बनी हुई है। आमतौर पर हम अपने देवता अपनी-अपनी सुविधा और साफ शब्दों में कहूं तो अपने-अपने हितों के अनुसार गढ़ते हैं, और इसी कारण न केवल महान व्यक्तियों बल्कि ईश्वर के बारे में भी अलग-अलग लोग अलग-अलग राय रखते हैं और यह राय सुविधानुसार बदलती भी रहती है। अपनी मानसिकता के अनुसार हर व्यक्ति अपने आराध्यों के चरित्र के उच्च पक्ष को तो आलोकित करने का पर तुच्छ पक्ष को ओझल करने का प्रयास करता है। अपने आराध्यों के प्रति पूज्य भाव के कारण लोग उनकी आलोचना से भी कतराते हैं। पर प्रकृति का सच हमारी मनोकामना के अनुसार नहीं चलता है बल्कि अपनी मनोकामना को प्राकृतिक नियमों के अनुसार ढालना ही सुखी-संतुष्ट जीवन की शर्त है।
आप सब उम्मीद कर रहे होंगे कि मैं शहीद भगतसिंह के बारे में ऐसा कुछ बोलूंगा जो आप को प्रिय लगे पर शायद मैं ऐसा नहीं कर पाउंगा। 'सत्यं वद प्रियं वद' के हितोपदेश का अनुसरण मेरे लिए बहुत मुश्किल होता है, खास कर जब बात सामूहिक सामाजिक हित की हो तथा श्रोतागण वे हों जिनके सामने अपने भविष्य की अनिश्चितताएं और आशंकाएं मुंह बाये खड़ी हों, और जिनकी निजी सोच न केवल उनके अपने भविष्य को प्रभावित करेगी बल्कि करोड़ों ऐसे लोगों के भविष्य को भी प्रभावित करेगी जिनको, हर समय अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्ष में जुटे रहने के कारण, सोच-विचार करने का समय ही नहीं मिलता है। आप सब ने अपने सामने मुझे अपनी बात रखने का यह मौका और समय दिया है तो मेरा दायित्व है कि मैं अपने वक्तव्य में आपकी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखूं।
आगे बढ़ने से पहले मैं आप से पूछना चाहूंगा कि आप भारत की मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में अपनी पढ़ाई खत्म कर किस प्रकार की नौकरी या आमदनी की उम्मीद करते हैं। यह सवाल आपके अपने अस्तित्व के लिए सबसे अहम है। मेरे एक परिचित एक निजी महाविद्यालय में कार्यरत हैं जहां इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट की पढ़ाई होती है। वे विद्यार्थियों का प्रशिक्षण तथा प्रस्थापन देखते हैं। उनके अनुसार उच्च स्तर के शिक्षण संस्थानों में संस्थान स्तर पर चुने गये प्रत्याशियों की आमतौर पर शुरुआती तनख्वाहें 20-25 हजार प्रतिमाह होती हैं, मध्यम दर्जे के संस्थानों में 15-20 हजार रुपये प्रतिमाह और निचले दर्जे के संस्थानों के अभ्यार्थी आमतौर पर 12-15 हजार रुपये प्रतिमाह पाते हैं। गैर प्रशिक्षित वर्ग की तनख्वाहें 8-10 हजार से अधिक नहीं हैं।
देश का सकल घरेलू उत्पाद इस साल 90 लाख करोड़ रुपये होने का आंकलन है। देश की 120 करोड़ की आबादी में औसत प्रति व्यक्ति 75 हजार रुपये बनता है। देश की 85 करोड़ आबादी 15 हजार रुपये सालाना से कम पर जीती है, और उसके हिस्से में आता है कुल 12 लाख करोड़ रुपये। बाकी 35 करोड़ की आबादी की मानसिकता में, जीवन स्तर के सुधार के अपने प्रयासों में हाशिये पर जी रही, 85 करोड़ की आबादी का कहीं कोई वजूद नहीं है, सिवाय सतही संवेदना के। 85 करोड़ को छोड़ दें तो 35 करोड़ के हिस्से में आने वाले 78 करोड़ में प्रति व्यक्ति औसत बनता है लगभग 20 हजार रुपये महीना। इस 35 करोड़ में से 30 करोड़ की निम्न मध्य वर्ग कि आबादी को यथार्थ में मिलता है 75 हजार रुपये सालाना प्रति व्यक्ति (चार सदस्यों के परिवार की आमदनी 3 लाख रुपये सालाना के हिसाब से), यानि इस 30 करोड़ आबादी के हिस्से में आता है 22 लाख करोड़ रुपये सालाना। और बची हुई उच्च सम्पन्न वर्ग की 5 करोड़ आबादी के हिस्से में आता है 50 लाख करोड़ रुपयें सालाना अर्थात प्रति व्यक्ति 10 लाख रुपये सालाना या चार व्यक्तियों के सम्पन्न परिवार के हिस्से में 40 लाख रुपये सालाना। पिछले सप्ताह मैं अखबार में कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की वर्ष 2011-12 की तनख्वाहों के बारे में पढ़ रहा था। नवीन जिंदल जो संसद सदस्य भी हैं की सालाना तनख्वाह थी 73.4 करोड़ रु, कलानिथि मारान तथा कावेरी मारान प्रत्येक की 57 करोड़ रु, पवन मुंजाल तथा बी.एल. मुंजाल प्रत्येक की 34.5 करोड़ रु। 10 सबसे बड़े अधिकारियों के बीच 387 करोड़ रु की तनख्वाहें बांटी गईं।
मैं आंकड़ों की बात ज्यादा नहीं करूंगा। मैं सिद्धांत की बात करना चाहूंगा। बाकी आप पर निर्भर करेगा कि सैद्धांतिक सच्चाई के बरक्स आप अपनी आकांक्षाओं को यथार्थ के साथ किस प्रकार जोड़ना चाहते हैं।
आम तौर पर लेखक, साहित्यकार व इतिहासकार, भगतसिंह के व्यक्तित्व और क्रांतिकारी कार्य कलापों के विभिन्न आयामों को अपने-अपने हितों और पूर्वाग्रहों के अनुसार पाठकों के सामने पेश करते हैं और इसमें भगतसिंह की वैचारिक विकास प्रक्रिया, जो हर दौर में नई पीढ़ी को अपना रास्ता ढूंढने में मदद कर सकती है, नेपथ्य में खो जाती है।
भारतीय समाज में एक तबका ऐसा है जिसका हित इस बात में है कि नई पीढ़ी की सोच में अंध राष्ट्रभक्ति का जुनून सवार रहे ताकि वह सभी राष्ट्रीय समस्याओं का स्रोत विदेशी मूल में और समाधान के किसी भी विचार का स्रोत पूरी तरह शुद्ध राष्ट्रीय मूल में ही ढूंढे। और यह समूह भगतसिंह के व्यक्तित्व को एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में पेश करता है जो राष्ट्रभक्ति के जुनून से ओतप्रोत था और जिसके लिए विदेशी हुकूमत से देश को आजादी दिलाने का मकसद जान से भी ज्यादा प्यारा था। यह तबका भगतसिंह के जन्मदिन तथा शहीददिवस को एक पर्व के रूप में मनाने और उन्हें देवता के रूप में प्रतिष्ठित करने को अपना धर्म समझता है।
दूसरे एक तबके का हित निम्न-मध्य-वर्ग की अनिश्चितता में है ताकि निम्न-मध्य-वर्ग अपनी सम्पन्नता का सपना इसी राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था के अंदर ही देखता रहे और समतामूलक समाज की मारीचिका को यथार्थ समझ कर काल्पनिक समाजवाद के पीछे ही दौड़ता रहे। यह तबका भगतसिंह की तस्वीर एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में पेश करता है जो न केवल देश की जनता को विदेशी शासकों की गुलामी से निजात दिलाना चाहता था बल्कि आजाद भारत में एक समतामूलक समाज अर्थात समजवाद की स्थापना का सपना भी देखता था। यह तबका समाजवाद को अपने स्वार्थ और हितों के अनुसार परिभाषित कर उसको भगतसिंह के सपने के रूप में नई पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करता रहता है।
तीसरा तबका वह है जो शोषण विहीन समाज की स्थापना के लिए शोषित वर्ग के नेतृत्व का दावा करता है और इस दायित्व को पूरा करने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उस पर आधारित सिद्धांत की अपनी समझ के पुख्ता होने का दावा करता है। यह तबका भगतसिंह की पुख्ता मार्क्सवादी बनने की ओर अग्रसर क्रांतिकारी के रूप में पहचान करता है और उनके समाजवाद की स्थापना के लक्ष्य, अपने कम्युनिस्ट होने की घोषणा और मार्क्स तथा लेनिन से प्रेरित होने के दावे को दलीलों के रूप में इस्तेमाल करता है। यह तबका मार्क्सवाद की अपनी आधी अधूरी समझ का, भगतसिंह की मार्क्सवाद की समझ के संदर्भ से, परिपक्व समझ होने का दावा करता रहता है।
भगतसिंह को सही-सही समझने के लिए उनके विचारों को पूरी विकास प्रक्रिया, गुणात्मक रूप से भिन्न तीन अलग-अलग चरणों, के साथ समझना होगा। भगतसिंह का वैचारिक आंकलन उनके अपने वक्तव्यों तथा सैद्धांतिक दावों और सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए न कि इस बात पर कि इतिहासकारों या साहित्यकारों की उनके बारे में क्या राय है। इसी को ध्यान में रखते हुए, आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ महत्वपूर्ण तारीखों, उनके कुछ वक्तव्यों तथा कुछ वाक्यांशों को उद्धृत करना चाहूंगा।
1907, सितम्बर - भगतसिंह का जन्म
1922, फरवरी - गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस
1923, - गृह-त्याग तथा एच.आर.ए. के क्रांतिकारियों के साथ संपर्क
1925, अगस्त - काकोरी काण्ड
1926, - नौजवान भारत सभा की स्थापना, काकोरी विद्रोहियों को फांसी
1926, साल का अंत - भगतसिंह का पूरी तरह नास्तिक हो जाना
1928, - नौजवान भारत सभा का पुनर्गठन
1928, सितम्बर - एच.एस.आर.ए की स्थापना
1928, दिसम्बर - सांडर्स की हत्या
1929, अप्रैल - सेंट्रल असेम्बली में बम और गिरफ्तारी
1930, अप्रैल - सांडर्स हत्या के मुकदमे के लिए ट्रिब्यूनल का गठन
1930, नवम्बर - फांसी की सजा का आदेश
1931, मार्च - फांसी
आजादी के आंदोलन के गांधी जी के तरीके से मोहभंग हो जाने के बाद घर छोड़ने से लेकर काकोरी कांड के क्रांतिकारियों के मृत्यु दंड तक की अपनी चार साल की वैचारिक यात्रा के बारे में स्वीकारोक्ति के तौर पर, अपनी मृत्यु से चंद दिन पहले लिखे अपने लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में, उन्होंने लिखा था - 'Up to that period I was only a romantic idealist revolutionary. Uptil then we were to follow. Now came the time to shoulder the whole responsibility. .... That was a turning point in my revolutionary career. "Study" was the cry that reverberated in the corridors of my mind. Study to enable yourself to face the arguments advanced by the opposition. Study to arm yourself with arguments in favour of your cult. I began to study. My previous faith and convictions underwent a remarkable modification.' यानि 'उस दौर तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी भर था। उस समय तक हमें अनुकरण करना था। अब समय आ गया था सारी जिम्मेदारी को कंधों पर लेने का। ...... वही मेरे क्रांतिकारी जीवन का प्रस्थान बिंदु था। 'अध्ययन करो' की पुकार मेरे मस्तिष्क के गलियारों में गूंज रही थी। अध्ययन करो, अपने आप को विरोधियों के द्वारा पेश की गई दलीलों का मुकाबला कर सकने योग्य बनाने के लिए। अध्ययन करो अपनी धारणा के समर्थन के लिए अपने आप को तर्कों से लैस करने के लिए। मैंने पढ़ना शुरु कर दिया। मेरी पुरानी आस्थाओं तथा विश्वासों में असाधारण परिवर्तन हो गया।'
इसी में वे आगे लिखते हैं, 'I studied Bakunin, the anarchist leader, something of Marx, the father of communism and much of Lenin. ....... By the end of 1926 I had been convinced as to baselessness of the theory of existence of an Almighty Supreme Being who created, guided and controlled the universe....... I had become a pronounced atheist.' यानि 'मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को, थोड़ा कुछ कम्युनिज्म के प्रणेता मार्क्स का और लेनिन का बहुत कुछ पढ़ा। ........ 1926 के अंत तक, सर्वशक्तिमान सर्वभौमिक संरचना जिसने संसार की रचना की, जो उसे संचालित और नियंत्रित करता है, की मौजूदगी के सिद्धांत की बेहूदगी के बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त हो चुका था। ..... मैं पूरी तरह घोषित नास्तिक बन चुका था।'
इसके बाद 1927-28 के दो वर्षों में भगतसिंह ने संगठनात्मक स्तर पर दो महत्वपूर्ण काम किए, नौजवान भारत सभा का पुनर्गठन तथा हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन। पर इसी दौर के अंत में उन्होंने दो ऐसे रोमांटिक आदर्शवादी काम किये जो उनके और उनके उद्देश्य के लिए आत्मघाती सिद्ध हुए। एक था सांडर्स की हत्या करना और दूसरा था सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने के बाद अपनी गिरफ्तारी देना।
8 अप्रैल 1929 से 23 मार्च 1931 के दो वर्ष के बंदी जीवन के दौरान लिखे उनके लेख और पत्र उनकी वैचारिक विकास प्रक्रिया पर अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
6 जून 1929 को सेशन्स कोर्ट में दिये गये अपने वक्तव्य में भगतसिंह ने लिखा था, 'A grim struggle will ensure involving the overthrow of all obstacles, and the establishment of the dictatorship of the proletariat' यानि 'एक तीव्र संघर्ष सारी बाधाओं को उखाड़ फेंकना और सर्वहारा के अधिनायकत्व को स्थापित करना सुनिश्चित करेगा।'
1930 के उत्तरार्ध में सुखदेव को लिखे अपने पत्र के शुरु में ही भगतसिंह लिखते हैं, 'I realise that the changed situation has affected us differently. The things you hated outside have now become essential to you. In the same way, the things I used to support strongly are of no significance to me anymore.' यानि 'मैं जानता हूं कि बदली हुई परिस्थिति ने हम दोनों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित किया है। बाहर तुम्हें जिन चीजों से नफरत थी वे ही अब तुम्हारे लिए जरूरी हो गई हैं। इसी प्रकार, मैं जिन चीजों का दृढ़ता से समर्थन करता था उनकी अब मेरे लिए कोई अहमियत नहीं रह गई है।'
और जनवरी 1930 में लाला रामसरन दास की पुस्तक ' Dreamland' की प्रस्तावना में भगतसिंह लिखते हैं, 'I am a materialist and my interpretation of the phenomenon would be causal.' यानि 'मैं भौतिकवादी हूं और दृग्विषयों की मेरी व्याख्या करणात्मक होगी'। इसी प्रस्तावना में वे आगे लिखते हैं, 'The Communist society that we want to build' यानि 'कम्युनिस्ट समाज जो हम बनाना चाहते हैं' और 'The socialist society can not be brought about by violent means, but that it should grow and evolve from within. ...... We the revolutionaries are striving to capture power in our hands and to organize a revolutionary government which should employ all its resources for mass education, as is being done in Russia today.' यानि 'हिंसा के जरिए समाजवादी समाज अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता है, उसे तो आंतरिक तौर पर ही बढ़ना और विकसित होना चाहिए। ..... हम क्रांतिकारी अपने हाथों में राजसत्ता हासिल करने और एक क्रांतिकारी सरकार, जो सारे संसाधनों को व्यापक शिक्षा में लगाये जैसे कि आज रूस में किया जा रहा है, का गठन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।'
युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए, 2 फरवरी 1931 को भगतसिंह ने एक संदेश लिखा था। उस में वे दूसरे और तीसरे पैराग्राफ में रूसी क्रांति के संदर्भ से लेनिन की कार्य प्रणाली का वर्णन करते हैं फिर चौथे पैराग्राफ में लिखते हैं, 'About tactics and strategy one should study life-work of Lenin' यानि 'रणकौशल तथा रणनीति के बारे मे लेनिन के जीवन-कार्य के बारे में पढ़ना चाहिए।' इसी संदेश में वे आगे सरकारी मशीनरी के बारे में लिखते हैं, 'We want to snatch and handle it to utilise it for the consummation of our ideal, i.e. social reconstruction on new, i.e. Marxist, basis.' यानि 'हम उसे अपने आदर्शों की पूर्ति अर्थात नये यानि मार्क्सवादी आधार पर समाज के पुनर्निर्माण के लिए छीनना और नियंत्रित करना चाहते हैं।' वे आगे लिखते हैं, 'We require - to use the term so dear to Lenin - the "professional revolutionaries".' अर्थात 'हमें जरूरत है - अगर उन शब्दों को प्रयोग करें जो लेनिन को इतने प्रिय थे - पेशेवर क्रांतिकारियों की।' अंत में वे लिखते हैं, 'I have got the same ideas, same convictions, same zeal and same spirit as I used to have outside, perhaps - nay, decidedly - better. Hence I warn my readers to be careful while reading my words. ...... I am not a terrorist and I never was, except perhaps in the beginning of my revolutionary career' यानि 'मेरे विचार वही हैं, मेरी आस्थाएं वही हैं, वही उत्साह और वही भावना जैसे बाहर थे, शायद - नहीं, निश्चय ही - उनसे बेहतर। इसलिए मैं अपने पाठकों को आगाह करता हूं मेरे शब्दों को पढ़ते समय सावधान रहें। ..... मैं दहशतगर्द नहीं हूं और न कभी था, सिवाय शायद अपने क्रांतिकारी जीवन के शुरुआती दौर के।' अपनी मृत्यु से चंद दिन पहले लिखे अपने लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में उन्होंने लिखा था, 'You go and oppose the prevailing faith, you go and criticise a hero, a great man, who is generally believed to be above criticism because he is thought to be infallible, the strength of your argument shall force the multitude to decry you as vainglorious. This is due to the mental stagnation. Criticism and independent thinking are the two indispensable qualities of a revolutionary.' अर्थात 'आप आगे बढ़कर प्रचलित आस्थाओं का विरोध करते हैं, आप आगे आकर एक हीरो, एक महान आदमी जिसे आमतौर पर आलोचना से ऊपर माना जाता है क्योंकि उसका अमोघ होना सर्वमान्य है, की आलोचना करते हैं, आप के तर्क की शक्ति, जनसाधारण को मजबूर करेगी कि वह आप को दंभी कह कर दुत्कारे। ऐसा मानसिक जड़ता के कारण होता है। आलोचना तथा आजाद चिंतन एक क्रांतिकारी के दो अपरिहार्य गुण हैं।' और 'I am a realist. I have been trying to overpower the instinct in me by the help of reason. I have not always been successful in achieving this end. But man's duty is to try and endeavour, success depends upon chance and environment. ....... Where direct proofs are lacking philosophy occupies the important place.' अर्थात 'मैं एक यथार्थवादी हूं। मैं अपने अंदर की सहज प्रवृत्तियों पर अपने तर्क द्वारा काबू पाने की कोशिश कर रहा हूं। इस नतीजे को हासिल करने में मैं कामयाब, हमेशा नहीं रहा हूं पर इंसान का कर्तव्य है कोशिश और सतत प्रयास करना, सफलता संयोग तथा माहौल पर निर्भर करती है। ..... जहां प्रत्यक्ष प्रमाण पूरे नहीं पड़ रहे हैं वहां दर्शन विशेष स्थान ग्रहण कर लेता है।'
फांसी से चंद दिन पहले मिलने आई छोटी बहन से उन्होंने कहा था 'रोती क्यों हो। यह सच है कि चंद दिनों में हमें फांसी हो जायेगी और उसके बाद लोग हमें भूल जायेंगे। पर यह भी सच है कि अंग्रेजों को 15 साल में यह देश छोड़ कर जाना होगा क्योंकि उनकी जड़ें खोखली हो चुकी हैं। और उसके बाद जो निजाम आयेगा वह लूट-खसोट का निजाम होगा क्योंकि कांग्रेस पूंजीपतियों तथा व्यापारियों की लड़ाई लड़ रही है। फिर एक समय ऐसा आयेगा जब लोग हमें पुनः याद करना शुरु करेंगे और तब जो परिवर्तन होगा वह मेहनतकश को उसका हक दिलवायेगा।'
इस सब से यह बात साफ हो जाती है कि उन्होंने कम्युनिज्म तथा समाजवाद के बारे में पढ़ा था और समाजवाद को मानव जाति की भलाई के लिए अपरिहार्य मानते थे, कि वे मार्क्सवाद तथा रूसी क्रांति से पूरी तरह प्रभावित थे और भारत में उसी तरह के सर्वहारा के अधिनायकत्व की स्थापना का सपना देखते थे। लेनिन को वे अपना आदर्श मानते थे, परंतु उन्होंने मार्क्स या एंगेल्स को अधिक नहीं पढ़ा था। एक बात साफ है कि वे मार्क्सवाद से पूरी तरह से अभिभूत थे और सजग तौर पर उनकी सोच काफी हद तक मार्क्सवाद से प्रभावित थी। पर बुनियादी तौर पर मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से वे पूरी तरह अनभिज्ञ थे जैसा कि उनके द्वारा 'Dialectical' की जगह 'Causal' शब्द का प्रयोग किया जाना दर्शाता है।
भगतसिंह की वैचारिक प्रक्रिया को समझने के लिए मार्क्सवाद की चंद मूल बातों को समझना तथा ध्यान में रखना जरूरी है।
मार्क्सवाद में प्रकृति को समझने की पद्धति द्वंद्वात्मक है और व्याख्या भौतिकवादी है। कार्ल मार्क्स ने फॉयरबाख के भौतिकवाद तथा हेगेल के द्वंद्ववाद के आधार पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अपनी मार्क्सवादी समझ विकसित की थी।
मार्क्स ने निम्न मध्यवर्ग की मानसिकता के बारे में लिखा था, 'एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च मध्यवर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी। वह एक ही समय पर पूंजीपति भी है और जनता का आदमी भी। ........ निम्न पूंजीपति आने वाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।'
और लेनिन ने निम्न मध्यवर्गीय आंदोलनकारियों के बारे में लिखा था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं।'
मार्क्स ने सैद्धांतिक समझ के बारे में लिखा था, 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनकाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के जरिए समझना।'
और एंगेल्स ने लिखा था, 'सैद्धांतिक चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।'
साथियो आप लोगों को आज के विषय के लिए यह भूमिका बहुत लंबी मालूम हो सकती है, पर इसे समझ लेने के बाद भगतसिंह के क्रांतिकारी और वैचारिक आयामों की तस्वीरें आपको पूरी तरह साफ नजर आ जाएंगी। भूमिका की पूरी समझ के बिना दोनों तस्वीरें एक दूसरे को आच्छादित कर धुंधला कर देती हैं।
भगतसिंह का पारिवारिक परिवेश धार्मिक रूप से उदारवादी और राजनैतिक तौर पर राष्ट्रवादी था। उनके दादा सहित पूरा परिवार आर्यसमाजी था और पिता तथा एक चाचा गांधीवादी क्रांतिकारी तथा दूसरे चाचा उग्रवादी क्रांतिकारी थे।
भगतसिंह की शिक्षा डी.ए.वी. स्कूल और नेशनल कालेज लाहौर में हुई जहां माहौल क्रांतिकारियों तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से भरा हुआ था। यहां उन्हें द्वारकादास लाइब्रोरी हासिल थी जिसमें क्रांतिकारी और मार्क्सवादी साहित्य की भरमार थी।
इस परिवेश के कारण वे 12 साल की अल्पायु से स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रुचि लेने लगे थे और 16 साल की उम्र में असहयोग आंदोलन से मोहभंग होने के बाद उग्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन की राह पर चल पड़े थे। यहां उनकी तुलना लेनिन से करना आवश्यक है। लेनिन के बड़े भाई अलेक्जेंडर को 21 साल की अल्पायु में रूस की राजशाही के खिलाफ विद्रोह के आरोप में फांसी की सजा दे दी गई थी। उस समय लेनिन की आयु भी 17 साल थी। भाई की फांसी पर लेनिन के शब्द थे, 'यह मेरा रास्ता नहीं होगा।' उस समय सारे यूरोप में मार्क्सवाद, अनेकों संशोधनवादी तथा अतिवादी स्वरूपों के साथ, मजदूर वर्ग की विचारधारा के रूप में प्रचलन में था। लेनिन के सामने सफल क्रांति का कोई उदाहरण नहीं था इस कारण उन्होंने समर में कूदने से पहले मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया, उसके दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हासिल की और क्रांति का आह्वान करने के पहले रूस के कम्युनिस्ट आंदोलन में मौजूद दक्षिणपंथी तथा वामपंथी संशोधनवादी तत्त्वों को बेनकाब कर बोल्शेविक पार्टी का गठन किया। इसके विपरीत भगतसिंह के पास रूस की सफल क्रांति का उदाहरण था और उससे प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हासिल किये बिना क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े थे।
अपने क्रांतिकारी जीवन के शुरुआती चार साल उन्होंने सक्रिय आंदोलन में गुजारे जिसमें सैद्धांतिक समझ विकसित करने का अवसर लगभग नहीं के बराबर था। गहन सैद्धांतिक अध्ययन का अवसर 1927-28 के दो वर्षों में मिला जरूर पर जाहिर है क्रांतिकारी सक्रियता के कारण अध्ययन रूस की क्रांति तथा लेनिन की कार्यप्रणाली पर ही केंद्रित रहा क्योंकि उन्होंने कार्ल मार्क्स या फ्रेडरिक एंगेल्स की रचनाओं को लगभग नहीं के बराबर ही पढ़ा था। अंतिम दो वर्षों के बंदी जीवन में भी उन्हें मार्क्सवाद के क्रांति तथा राज्य से संबंधित आयामों के बारे में पढ़ने तथा समझने का मौका तो मिला पर दार्शनिक आयाम को पढ़ने या समझने का मौका बिल्कुल नहीं मिला और इस कारण वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ ही रहे। उस समय मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की चर्चा भारतीय राजनैतिक आंदोलन में दूर-दूर तक नहीं थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जो उस समय तक अस्तित्व में आ चुकी थी, का शीर्ष नेतृत्व भी मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से पूरी तरह अनभिज्ञ था। निम्न मध्य वर्ग से आये इन लोगों की मानसिकता के बारे में मार्क्स और लेनिन की टिप्पणियां तथा व्याख्याएं अक्षरशः लागू होती थीं और दुर्भाग्यवश सभी कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति आज भी वही है।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि भगतसिंह अपने क्रांतिकारी आयाम में सजग रूप से पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए पूर्णरूप से समर्पित तथा संघर्षरत थे। पर वैचारिक आयाम में वे अपने आपको अपनी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं कर पाये थे क्योंकि उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण उन्हें मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझने का मौका ही नहीं मिला था। और मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना न तो शोषण की प्रक्रिया को समझा जा सकता और न ही समाज के विकास को सही दिशा देने के लिए कोई सजग प्रयास सफलता पूर्वक पूरा किया जा सकता है।
मुझे आशा है आप सब युवा, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम, जो वास्तव में दर्शन (पारंपरिक अर्थ में) न होकर विज्ञान है, को समझने का प्रयास करेंगे। और मैं भरोसा दिला सकता हूं कि हर विज्ञान की तरह यह भी आपके लिए अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में उपयोगी सिद्ध होगा।
सुनहरे भविष्य के लिए आप सब को ढेरों शुभकामनाएं।
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
भगतसिंह - क्रांतिकारी बनाम चिंतक
(सुरेश श्रीवास्तव)
(त्रैमासिक पत्रिका मार्क्स दर्शन के प्रमुख संपादक सुरेश श्रीवास्तव द्वारा 28 सितम्बर 2012 को बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी में 'अभियान' द्वारा आयोजित गोष्ठी में दिया गया आधार वक्तव्य)
प्रिय नौजवान साथियो,
विविधता इस प्रकृति का नियम है और हम सभी अनेकों-अनेक कार्य-कलाप अपने-अपने मकसदों से प्रेरित हो कर करते रहते हैं। हर जीव की सहज प्रवृत्ति अपने अस्तित्व को बचाने की है पर अन्य जीवों से भिन्न, मानव के अस्तित्व की सुरक्षा सामाजिक परिवेश में ही सुनिश्चित होती है। यह अलग बात है कि सजग रूप से अपने अस्तित्व की सुरक्षा, कोई व्यक्ति समाज की सुरक्षा से जोड़ कर करता है, और कोई समाज की सुरक्षा की कीमत पर करता है।
आज आप सब यहां शहीद भगतसिंह को याद करने और उनके व्यक्तित्व के अनुरूप उनके बारे में कुछ रोचक बातें सुनने के मकसद से इकट्ठे हुए हैं। पिछले 80 सालों में भगतसिंह के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है और हम सब के मन में एक महान क्रांतिकारी, जिसने 23 साल की अल्पायु में देश की आजादी के लिए अपनी जान हंसते-हंसते कुर्बान कर दी, की छवि एक आराध्य के रूप में बनी हुई है। आमतौर पर हम अपने देवता अपनी-अपनी सुविधा और साफ शब्दों में कहूं तो अपने-अपने हितों के अनुसार गढ़ते हैं, और इसी कारण न केवल महान व्यक्तियों बल्कि ईश्वर के बारे में भी अलग-अलग लोग अलग-अलग राय रखते हैं और यह राय सुविधानुसार बदलती भी रहती है। अपनी मानसिकता के अनुसार हर व्यक्ति अपने आराध्यों के चरित्र के उच्च पक्ष को तो आलोकित करने का पर तुच्छ पक्ष को ओझल करने का प्रयास करता है। अपने आराध्यों के प्रति पूज्य भाव के कारण लोग उनकी आलोचना से भी कतराते हैं। पर प्रकृति का सच हमारी मनोकामना के अनुसार नहीं चलता है बल्कि अपनी मनोकामना को प्राकृतिक नियमों के अनुसार ढालना ही सुखी-संतुष्ट जीवन की शर्त है।
आप सब उम्मीद कर रहे होंगे कि मैं शहीद भगतसिंह के बारे में ऐसा कुछ बोलूंगा जो आप को प्रिय लगे पर शायद मैं ऐसा नहीं कर पाउंगा। 'सत्यं वद प्रियं वद' के हितोपदेश का अनुसरण मेरे लिए बहुत मुश्किल होता है, खास कर जब बात सामूहिक सामाजिक हित की हो तथा श्रोतागण वे हों जिनके सामने अपने भविष्य की अनिश्चितताएं और आशंकाएं मुंह बाये खड़ी हों, और जिनकी निजी सोच न केवल उनके अपने भविष्य को प्रभावित करेगी बल्कि करोड़ों ऐसे लोगों के भविष्य को भी प्रभावित करेगी जिनको, हर समय अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्ष में जुटे रहने के कारण, सोच-विचार करने का समय ही नहीं मिलता है। आप सब ने अपने सामने मुझे अपनी बात रखने का यह मौका और समय दिया है तो मेरा दायित्व है कि मैं अपने वक्तव्य में आपकी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखूं।
आगे बढ़ने से पहले मैं आप से पूछना चाहूंगा कि आप भारत की मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में अपनी पढ़ाई खत्म कर किस प्रकार की नौकरी या आमदनी की उम्मीद करते हैं। यह सवाल आपके अपने अस्तित्व के लिए सबसे अहम है। मेरे एक परिचित एक निजी महाविद्यालय में कार्यरत हैं जहां इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट की पढ़ाई होती है। वे विद्यार्थियों का प्रशिक्षण तथा प्रस्थापन देखते हैं। उनके अनुसार उच्च स्तर के शिक्षण संस्थानों में संस्थान स्तर पर चुने गये प्रत्याशियों की आमतौर पर शुरुआती तनख्वाहें 20-25 हजार प्रतिमाह होती हैं, मध्यम दर्जे के संस्थानों में 15-20 हजार रुपये प्रतिमाह और निचले दर्जे के संस्थानों के अभ्यार्थी आमतौर पर 12-15 हजार रुपये प्रतिमाह पाते हैं। गैर प्रशिक्षित वर्ग की तनख्वाहें 8-10 हजार से अधिक नहीं हैं।
देश का सकल घरेलू उत्पाद इस साल 90 लाख करोड़ रुपये होने का आंकलन है। देश की 120 करोड़ की आबादी में औसत प्रति व्यक्ति 75 हजार रुपये बनता है। देश की 85 करोड़ आबादी 15 हजार रुपये सालाना से कम पर जीती है, और उसके हिस्से में आता है कुल 12 लाख करोड़ रुपये। बाकी 35 करोड़ की आबादी की मानसिकता में, जीवन स्तर के सुधार के अपने प्रयासों में हाशिये पर जी रही, 85 करोड़ की आबादी का कहीं कोई वजूद नहीं है, सिवाय सतही संवेदना के। 85 करोड़ को छोड़ दें तो 35 करोड़ के हिस्से में आने वाले 78 करोड़ में प्रति व्यक्ति औसत बनता है लगभग 20 हजार रुपये महीना। इस 35 करोड़ में से 30 करोड़ की निम्न मध्य वर्ग कि आबादी को यथार्थ में मिलता है 75 हजार रुपये सालाना प्रति व्यक्ति (चार सदस्यों के परिवार की आमदनी 3 लाख रुपये सालाना के हिसाब से), यानि इस 30 करोड़ आबादी के हिस्से में आता है 22 लाख करोड़ रुपये सालाना। और बची हुई उच्च सम्पन्न वर्ग की 5 करोड़ आबादी के हिस्से में आता है 50 लाख करोड़ रुपयें सालाना अर्थात प्रति व्यक्ति 10 लाख रुपये सालाना या चार व्यक्तियों के सम्पन्न परिवार के हिस्से में 40 लाख रुपये सालाना। पिछले सप्ताह मैं अखबार में कम्पनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की वर्ष 2011-12 की तनख्वाहों के बारे में पढ़ रहा था। नवीन जिंदल जो संसद सदस्य भी हैं की सालाना तनख्वाह थी 73.4 करोड़ रु, कलानिथि मारान तथा कावेरी मारान प्रत्येक की 57 करोड़ रु, पवन मुंजाल तथा बी.एल. मुंजाल प्रत्येक की 34.5 करोड़ रु। 10 सबसे बड़े अधिकारियों के बीच 387 करोड़ रु की तनख्वाहें बांटी गईं।
मैं आंकड़ों की बात ज्यादा नहीं करूंगा। मैं सिद्धांत की बात करना चाहूंगा। बाकी आप पर निर्भर करेगा कि सैद्धांतिक सच्चाई के बरक्स आप अपनी आकांक्षाओं को यथार्थ के साथ किस प्रकार जोड़ना चाहते हैं।
आम तौर पर लेखक, साहित्यकार व इतिहासकार, भगतसिंह के व्यक्तित्व और क्रांतिकारी कार्य कलापों के विभिन्न आयामों को अपने-अपने हितों और पूर्वाग्रहों के अनुसार पाठकों के सामने पेश करते हैं और इसमें भगतसिंह की वैचारिक विकास प्रक्रिया, जो हर दौर में नई पीढ़ी को अपना रास्ता ढूंढने में मदद कर सकती है, नेपथ्य में खो जाती है।
भारतीय समाज में एक तबका ऐसा है जिसका हित इस बात में है कि नई पीढ़ी की सोच में अंध राष्ट्रभक्ति का जुनून सवार रहे ताकि वह सभी राष्ट्रीय समस्याओं का स्रोत विदेशी मूल में और समाधान के किसी भी विचार का स्रोत पूरी तरह शुद्ध राष्ट्रीय मूल में ही ढूंढे। और यह समूह भगतसिंह के व्यक्तित्व को एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में पेश करता है जो राष्ट्रभक्ति के जुनून से ओतप्रोत था और जिसके लिए विदेशी हुकूमत से देश को आजादी दिलाने का मकसद जान से भी ज्यादा प्यारा था। यह तबका भगतसिंह के जन्मदिन तथा शहीददिवस को एक पर्व के रूप में मनाने और उन्हें देवता के रूप में प्रतिष्ठित करने को अपना धर्म समझता है।
दूसरे एक तबके का हित निम्न-मध्य-वर्ग की अनिश्चितता में है ताकि निम्न-मध्य-वर्ग अपनी सम्पन्नता का सपना इसी राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था के अंदर ही देखता रहे और समतामूलक समाज की मारीचिका को यथार्थ समझ कर काल्पनिक समाजवाद के पीछे ही दौड़ता रहे। यह तबका भगतसिंह की तस्वीर एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में पेश करता है जो न केवल देश की जनता को विदेशी शासकों की गुलामी से निजात दिलाना चाहता था बल्कि आजाद भारत में एक समतामूलक समाज अर्थात समजवाद की स्थापना का सपना भी देखता था। यह तबका समाजवाद को अपने स्वार्थ और हितों के अनुसार परिभाषित कर उसको भगतसिंह के सपने के रूप में नई पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करता रहता है।
तीसरा तबका वह है जो शोषण विहीन समाज की स्थापना के लिए शोषित वर्ग के नेतृत्व का दावा करता है और इस दायित्व को पूरा करने के लिए आवश्यक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उस पर आधारित सिद्धांत की अपनी समझ के पुख्ता होने का दावा करता है। यह तबका भगतसिंह की पुख्ता मार्क्सवादी बनने की ओर अग्रसर क्रांतिकारी के रूप में पहचान करता है और उनके समाजवाद की स्थापना के लक्ष्य, अपने कम्युनिस्ट होने की घोषणा और मार्क्स तथा लेनिन से प्रेरित होने के दावे को दलीलों के रूप में इस्तेमाल करता है। यह तबका मार्क्सवाद की अपनी आधी अधूरी समझ का, भगतसिंह की मार्क्सवाद की समझ के संदर्भ से, परिपक्व समझ होने का दावा करता रहता है।
भगतसिंह को सही-सही समझने के लिए उनके विचारों को पूरी विकास प्रक्रिया, गुणात्मक रूप से भिन्न तीन अलग-अलग चरणों, के साथ समझना होगा। भगतसिंह का वैचारिक आंकलन उनके अपने वक्तव्यों तथा सैद्धांतिक दावों और सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए न कि इस बात पर कि इतिहासकारों या साहित्यकारों की उनके बारे में क्या राय है। इसी को ध्यान में रखते हुए, आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ महत्वपूर्ण तारीखों, उनके कुछ वक्तव्यों तथा कुछ वाक्यांशों को उद्धृत करना चाहूंगा।
1907, सितम्बर - भगतसिंह का जन्म
1922, फरवरी - गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस
1923, - गृह-त्याग तथा एच.आर.ए. के क्रांतिकारियों के साथ संपर्क
1925, अगस्त - काकोरी काण्ड
1926, - नौजवान भारत सभा की स्थापना, काकोरी विद्रोहियों को फांसी
1926, साल का अंत - भगतसिंह का पूरी तरह नास्तिक हो जाना
1928, - नौजवान भारत सभा का पुनर्गठन
1928, सितम्बर - एच.एस.आर.ए की स्थापना
1928, दिसम्बर - सांडर्स की हत्या
1929, अप्रैल - सेंट्रल असेम्बली में बम और गिरफ्तारी
1930, अप्रैल - सांडर्स हत्या के मुकदमे के लिए ट्रिब्यूनल का गठन
1930, नवम्बर - फांसी की सजा का आदेश
1931, मार्च - फांसी
आजादी के आंदोलन के गांधी जी के तरीके से मोहभंग हो जाने के बाद घर छोड़ने से लेकर काकोरी कांड के क्रांतिकारियों के मृत्यु दंड तक की अपनी चार साल की वैचारिक यात्रा के बारे में स्वीकारोक्ति के तौर पर, अपनी मृत्यु से चंद दिन पहले लिखे अपने लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में, उन्होंने लिखा था - 'Up to that period I was only a romantic idealist revolutionary. Uptil then we were to follow. Now came the time to shoulder the whole responsibility. .... That was a turning point in my revolutionary career. "Study" was the cry that reverberated in the corridors of my mind. Study to enable yourself to face the arguments advanced by the opposition. Study to arm yourself with arguments in favour of your cult. I began to study. My previous faith and convictions underwent a remarkable modification.' यानि 'उस दौर तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी भर था। उस समय तक हमें अनुकरण करना था। अब समय आ गया था सारी जिम्मेदारी को कंधों पर लेने का। ...... वही मेरे क्रांतिकारी जीवन का प्रस्थान बिंदु था। 'अध्ययन करो' की पुकार मेरे मस्तिष्क के गलियारों में गूंज रही थी। अध्ययन करो, अपने आप को विरोधियों के द्वारा पेश की गई दलीलों का मुकाबला कर सकने योग्य बनाने के लिए। अध्ययन करो अपनी धारणा के समर्थन के लिए अपने आप को तर्कों से लैस करने के लिए। मैंने पढ़ना शुरु कर दिया। मेरी पुरानी आस्थाओं तथा विश्वासों में असाधारण परिवर्तन हो गया।'
इसी में वे आगे लिखते हैं, 'I studied Bakunin, the anarchist leader, something of Marx, the father of communism and much of Lenin. ....... By the end of 1926 I had been convinced as to baselessness of the theory of existence of an Almighty Supreme Being who created, guided and controlled the universe....... I had become a pronounced atheist.' यानि 'मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को, थोड़ा कुछ कम्युनिज्म के प्रणेता मार्क्स का और लेनिन का बहुत कुछ पढ़ा। ........ 1926 के अंत तक, सर्वशक्तिमान सर्वभौमिक संरचना जिसने संसार की रचना की, जो उसे संचालित और नियंत्रित करता है, की मौजूदगी के सिद्धांत की बेहूदगी के बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त हो चुका था। ..... मैं पूरी तरह घोषित नास्तिक बन चुका था।'
इसके बाद 1927-28 के दो वर्षों में भगतसिंह ने संगठनात्मक स्तर पर दो महत्वपूर्ण काम किए, नौजवान भारत सभा का पुनर्गठन तथा हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन। पर इसी दौर के अंत में उन्होंने दो ऐसे रोमांटिक आदर्शवादी काम किये जो उनके और उनके उद्देश्य के लिए आत्मघाती सिद्ध हुए। एक था सांडर्स की हत्या करना और दूसरा था सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने के बाद अपनी गिरफ्तारी देना।
8 अप्रैल 1929 से 23 मार्च 1931 के दो वर्ष के बंदी जीवन के दौरान लिखे उनके लेख और पत्र उनकी वैचारिक विकास प्रक्रिया पर अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।
6 जून 1929 को सेशन्स कोर्ट में दिये गये अपने वक्तव्य में भगतसिंह ने लिखा था, 'A grim struggle will ensure involving the overthrow of all obstacles, and the establishment of the dictatorship of the proletariat' यानि 'एक तीव्र संघर्ष सारी बाधाओं को उखाड़ फेंकना और सर्वहारा के अधिनायकत्व को स्थापित करना सुनिश्चित करेगा।'
1930 के उत्तरार्ध में सुखदेव को लिखे अपने पत्र के शुरु में ही भगतसिंह लिखते हैं, 'I realise that the changed situation has affected us differently. The things you hated outside have now become essential to you. In the same way, the things I used to support strongly are of no significance to me anymore.' यानि 'मैं जानता हूं कि बदली हुई परिस्थिति ने हम दोनों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित किया है। बाहर तुम्हें जिन चीजों से नफरत थी वे ही अब तुम्हारे लिए जरूरी हो गई हैं। इसी प्रकार, मैं जिन चीजों का दृढ़ता से समर्थन करता था उनकी अब मेरे लिए कोई अहमियत नहीं रह गई है।'
और जनवरी 1930 में लाला रामसरन दास की पुस्तक ' Dreamland' की प्रस्तावना में भगतसिंह लिखते हैं, 'I am a materialist and my interpretation of the phenomenon would be causal.' यानि 'मैं भौतिकवादी हूं और दृग्विषयों की मेरी व्याख्या करणात्मक होगी'। इसी प्रस्तावना में वे आगे लिखते हैं, 'The Communist society that we want to build' यानि 'कम्युनिस्ट समाज जो हम बनाना चाहते हैं' और 'The socialist society can not be brought about by violent means, but that it should grow and evolve from within. ...... We the revolutionaries are striving to capture power in our hands and to organize a revolutionary government which should employ all its resources for mass education, as is being done in Russia today.' यानि 'हिंसा के जरिए समाजवादी समाज अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता है, उसे तो आंतरिक तौर पर ही बढ़ना और विकसित होना चाहिए। ..... हम क्रांतिकारी अपने हाथों में राजसत्ता हासिल करने और एक क्रांतिकारी सरकार, जो सारे संसाधनों को व्यापक शिक्षा में लगाये जैसे कि आज रूस में किया जा रहा है, का गठन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।'
युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए, 2 फरवरी 1931 को भगतसिंह ने एक संदेश लिखा था। उस में वे दूसरे और तीसरे पैराग्राफ में रूसी क्रांति के संदर्भ से लेनिन की कार्य प्रणाली का वर्णन करते हैं फिर चौथे पैराग्राफ में लिखते हैं, 'About tactics and strategy one should study life-work of Lenin' यानि 'रणकौशल तथा रणनीति के बारे मे लेनिन के जीवन-कार्य के बारे में पढ़ना चाहिए।' इसी संदेश में वे आगे सरकारी मशीनरी के बारे में लिखते हैं, 'We want to snatch and handle it to utilise it for the consummation of our ideal, i.e. social reconstruction on new, i.e. Marxist, basis.' यानि 'हम उसे अपने आदर्शों की पूर्ति अर्थात नये यानि मार्क्सवादी आधार पर समाज के पुनर्निर्माण के लिए छीनना और नियंत्रित करना चाहते हैं।' वे आगे लिखते हैं, 'We require - to use the term so dear to Lenin - the "professional revolutionaries".' अर्थात 'हमें जरूरत है - अगर उन शब्दों को प्रयोग करें जो लेनिन को इतने प्रिय थे - पेशेवर क्रांतिकारियों की।' अंत में वे लिखते हैं, 'I have got the same ideas, same convictions, same zeal and same spirit as I used to have outside, perhaps - nay, decidedly - better. Hence I warn my readers to be careful while reading my words. ...... I am not a terrorist and I never was, except perhaps in the beginning of my revolutionary career' यानि 'मेरे विचार वही हैं, मेरी आस्थाएं वही हैं, वही उत्साह और वही भावना जैसे बाहर थे, शायद - नहीं, निश्चय ही - उनसे बेहतर। इसलिए मैं अपने पाठकों को आगाह करता हूं मेरे शब्दों को पढ़ते समय सावधान रहें। ..... मैं दहशतगर्द नहीं हूं और न कभी था, सिवाय शायद अपने क्रांतिकारी जीवन के शुरुआती दौर के।' अपनी मृत्यु से चंद दिन पहले लिखे अपने लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में उन्होंने लिखा था, 'You go and oppose the prevailing faith, you go and criticise a hero, a great man, who is generally believed to be above criticism because he is thought to be infallible, the strength of your argument shall force the multitude to decry you as vainglorious. This is due to the mental stagnation. Criticism and independent thinking are the two indispensable qualities of a revolutionary.' अर्थात 'आप आगे बढ़कर प्रचलित आस्थाओं का विरोध करते हैं, आप आगे आकर एक हीरो, एक महान आदमी जिसे आमतौर पर आलोचना से ऊपर माना जाता है क्योंकि उसका अमोघ होना सर्वमान्य है, की आलोचना करते हैं, आप के तर्क की शक्ति, जनसाधारण को मजबूर करेगी कि वह आप को दंभी कह कर दुत्कारे। ऐसा मानसिक जड़ता के कारण होता है। आलोचना तथा आजाद चिंतन एक क्रांतिकारी के दो अपरिहार्य गुण हैं।' और 'I am a realist. I have been trying to overpower the instinct in me by the help of reason. I have not always been successful in achieving this end. But man's duty is to try and endeavour, success depends upon chance and environment. ....... Where direct proofs are lacking philosophy occupies the important place.' अर्थात 'मैं एक यथार्थवादी हूं। मैं अपने अंदर की सहज प्रवृत्तियों पर अपने तर्क द्वारा काबू पाने की कोशिश कर रहा हूं। इस नतीजे को हासिल करने में मैं कामयाब, हमेशा नहीं रहा हूं पर इंसान का कर्तव्य है कोशिश और सतत प्रयास करना, सफलता संयोग तथा माहौल पर निर्भर करती है। ..... जहां प्रत्यक्ष प्रमाण पूरे नहीं पड़ रहे हैं वहां दर्शन विशेष स्थान ग्रहण कर लेता है।'
फांसी से चंद दिन पहले मिलने आई छोटी बहन से उन्होंने कहा था 'रोती क्यों हो। यह सच है कि चंद दिनों में हमें फांसी हो जायेगी और उसके बाद लोग हमें भूल जायेंगे। पर यह भी सच है कि अंग्रेजों को 15 साल में यह देश छोड़ कर जाना होगा क्योंकि उनकी जड़ें खोखली हो चुकी हैं। और उसके बाद जो निजाम आयेगा वह लूट-खसोट का निजाम होगा क्योंकि कांग्रेस पूंजीपतियों तथा व्यापारियों की लड़ाई लड़ रही है। फिर एक समय ऐसा आयेगा जब लोग हमें पुनः याद करना शुरु करेंगे और तब जो परिवर्तन होगा वह मेहनतकश को उसका हक दिलवायेगा।'
इस सब से यह बात साफ हो जाती है कि उन्होंने कम्युनिज्म तथा समाजवाद के बारे में पढ़ा था और समाजवाद को मानव जाति की भलाई के लिए अपरिहार्य मानते थे, कि वे मार्क्सवाद तथा रूसी क्रांति से पूरी तरह प्रभावित थे और भारत में उसी तरह के सर्वहारा के अधिनायकत्व की स्थापना का सपना देखते थे। लेनिन को वे अपना आदर्श मानते थे, परंतु उन्होंने मार्क्स या एंगेल्स को अधिक नहीं पढ़ा था। एक बात साफ है कि वे मार्क्सवाद से पूरी तरह से अभिभूत थे और सजग तौर पर उनकी सोच काफी हद तक मार्क्सवाद से प्रभावित थी। पर बुनियादी तौर पर मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से वे पूरी तरह अनभिज्ञ थे जैसा कि उनके द्वारा 'Dialectical' की जगह 'Causal' शब्द का प्रयोग किया जाना दर्शाता है।
भगतसिंह की वैचारिक प्रक्रिया को समझने के लिए मार्क्सवाद की चंद मूल बातों को समझना तथा ध्यान में रखना जरूरी है।
मार्क्सवाद में प्रकृति को समझने की पद्धति द्वंद्वात्मक है और व्याख्या भौतिकवादी है। कार्ल मार्क्स ने फॉयरबाख के भौतिकवाद तथा हेगेल के द्वंद्ववाद के आधार पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अपनी मार्क्सवादी समझ विकसित की थी।
मार्क्स ने निम्न मध्यवर्ग की मानसिकता के बारे में लिखा था, 'एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च मध्यवर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी। वह एक ही समय पर पूंजीपति भी है और जनता का आदमी भी। ........ निम्न पूंजीपति आने वाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।'
और लेनिन ने निम्न मध्यवर्गीय आंदोलनकारियों के बारे में लिखा था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं।'
मार्क्स ने सैद्धांतिक समझ के बारे में लिखा था, 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनकाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के जरिए समझना।'
और एंगेल्स ने लिखा था, 'सैद्धांतिक चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।'
साथियो आप लोगों को आज के विषय के लिए यह भूमिका बहुत लंबी मालूम हो सकती है, पर इसे समझ लेने के बाद भगतसिंह के क्रांतिकारी और वैचारिक आयामों की तस्वीरें आपको पूरी तरह साफ नजर आ जाएंगी। भूमिका की पूरी समझ के बिना दोनों तस्वीरें एक दूसरे को आच्छादित कर धुंधला कर देती हैं।
भगतसिंह का पारिवारिक परिवेश धार्मिक रूप से उदारवादी और राजनैतिक तौर पर राष्ट्रवादी था। उनके दादा सहित पूरा परिवार आर्यसमाजी था और पिता तथा एक चाचा गांधीवादी क्रांतिकारी तथा दूसरे चाचा उग्रवादी क्रांतिकारी थे।
भगतसिंह की शिक्षा डी.ए.वी. स्कूल और नेशनल कालेज लाहौर में हुई जहां माहौल क्रांतिकारियों तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से भरा हुआ था। यहां उन्हें द्वारकादास लाइब्रोरी हासिल थी जिसमें क्रांतिकारी और मार्क्सवादी साहित्य की भरमार थी।
इस परिवेश के कारण वे 12 साल की अल्पायु से स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रुचि लेने लगे थे और 16 साल की उम्र में असहयोग आंदोलन से मोहभंग होने के बाद उग्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन की राह पर चल पड़े थे। यहां उनकी तुलना लेनिन से करना आवश्यक है। लेनिन के बड़े भाई अलेक्जेंडर को 21 साल की अल्पायु में रूस की राजशाही के खिलाफ विद्रोह के आरोप में फांसी की सजा दे दी गई थी। उस समय लेनिन की आयु भी 17 साल थी। भाई की फांसी पर लेनिन के शब्द थे, 'यह मेरा रास्ता नहीं होगा।' उस समय सारे यूरोप में मार्क्सवाद, अनेकों संशोधनवादी तथा अतिवादी स्वरूपों के साथ, मजदूर वर्ग की विचारधारा के रूप में प्रचलन में था। लेनिन के सामने सफल क्रांति का कोई उदाहरण नहीं था इस कारण उन्होंने समर में कूदने से पहले मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया, उसके दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हासिल की और क्रांति का आह्वान करने के पहले रूस के कम्युनिस्ट आंदोलन में मौजूद दक्षिणपंथी तथा वामपंथी संशोधनवादी तत्त्वों को बेनकाब कर बोल्शेविक पार्टी का गठन किया। इसके विपरीत भगतसिंह के पास रूस की सफल क्रांति का उदाहरण था और उससे प्रभावित होकर वे मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हासिल किये बिना क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े थे।
अपने क्रांतिकारी जीवन के शुरुआती चार साल उन्होंने सक्रिय आंदोलन में गुजारे जिसमें सैद्धांतिक समझ विकसित करने का अवसर लगभग नहीं के बराबर था। गहन सैद्धांतिक अध्ययन का अवसर 1927-28 के दो वर्षों में मिला जरूर पर जाहिर है क्रांतिकारी सक्रियता के कारण अध्ययन रूस की क्रांति तथा लेनिन की कार्यप्रणाली पर ही केंद्रित रहा क्योंकि उन्होंने कार्ल मार्क्स या फ्रेडरिक एंगेल्स की रचनाओं को लगभग नहीं के बराबर ही पढ़ा था। अंतिम दो वर्षों के बंदी जीवन में भी उन्हें मार्क्सवाद के क्रांति तथा राज्य से संबंधित आयामों के बारे में पढ़ने तथा समझने का मौका तो मिला पर दार्शनिक आयाम को पढ़ने या समझने का मौका बिल्कुल नहीं मिला और इस कारण वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ ही रहे। उस समय मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की चर्चा भारतीय राजनैतिक आंदोलन में दूर-दूर तक नहीं थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जो उस समय तक अस्तित्व में आ चुकी थी, का शीर्ष नेतृत्व भी मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से पूरी तरह अनभिज्ञ था। निम्न मध्य वर्ग से आये इन लोगों की मानसिकता के बारे में मार्क्स और लेनिन की टिप्पणियां तथा व्याख्याएं अक्षरशः लागू होती थीं और दुर्भाग्यवश सभी कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति आज भी वही है।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि भगतसिंह अपने क्रांतिकारी आयाम में सजग रूप से पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए पूर्णरूप से समर्पित तथा संघर्षरत थे। पर वैचारिक आयाम में वे अपने आपको अपनी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं कर पाये थे क्योंकि उस समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण उन्हें मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझने का मौका ही नहीं मिला था। और मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना न तो शोषण की प्रक्रिया को समझा जा सकता और न ही समाज के विकास को सही दिशा देने के लिए कोई सजग प्रयास सफलता पूर्वक पूरा किया जा सकता है।
मुझे आशा है आप सब युवा, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम, जो वास्तव में दर्शन (पारंपरिक अर्थ में) न होकर विज्ञान है, को समझने का प्रयास करेंगे। और मैं भरोसा दिला सकता हूं कि हर विज्ञान की तरह यह भी आपके लिए अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में उपयोगी सिद्ध होगा।
सुनहरे भविष्य के लिए आप सब को ढेरों शुभकामनाएं।
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
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