मार्क्सवाद - विचार और व्यवहार
(सुरेश
श्रीवास्तव का यह लेख हंस के अप्रैल 2007 के अंक में छपा था।)
मई 2006 के हंस के अंक में इस लेखक का एक लेख छपा था 'वैज्ञानिक बनाम अवैज्ञानिक दृष्टिकोण' जिसमें लेखक ने वैज्ञानिक तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अंतर
को इस प्रकार परिभाषित किया था - इस ब्राहृांड या प्रकृति और इस में निहित सभी कुछ
का आधार भौतिक है और सभी कुछ अनादि अनंत एवं परिवर्तनशील है, यह अवधारणा ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मूल है। इसके विपरीत
अवधारणा कि इस प्रकृति में भौतिक से अलग ऐसा कुछ है जिसका आधार भौतिक नहीं है, अध्यात्मिक दृष्टिकोण का मूल है। इस पर किसी भी प्रकार की
विपरीत प्रक्रिया के अभाव में यह मानकर आगे बढ़ा जा सकता है कि वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के आधार की यह परिभाषा सही है।
लेख के
अंत में लेखक ने टिप्पणी की थी कि 'सोवियत यूनियन में समाजवादी क्रांति विफल क्यों हुई, समाजवाद के प्रयोग गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी दूर करने में असफल क्यों हैं, मार्क्सवादी चिंतन में व्यक्तिगत भावनाओं का स्थान क्यों
नहीं है आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सही आंकलन किए
बिना मार्क्सवादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विरोधाभास दूर नहीं होगा'। व्यक्तिगत तौर पर कई पाठकों ने इन प्रश्नों पर लेखक के
विचार जानने की उत्सुकता व्यक्त की है पर अपने उपर्लिखित वक्तव्य पर पुनर्विचार कर
लेखक इसके उलट निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मार्क्सवादी दृष्टिकोण और वैज्ञानिक
दृष्टिकोण का विरोधाभास दूर किए बिना बाकी सारे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं ढूंढ़ा
जा सकता है। इस विरोधाभास को दूर करने के लिए मार्क्सवाद की सही समझ आवश्यक है।
मार्क्सवाद
की सही समझ के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की थोड़ी विस्तृत व्याख्या
आवश्यक है।
साइंस या विज्ञान क्या है? प्रकृति में
हो रहे किसी दृग्विषय या प्रक्रिया की सही-सही खोज और समझ ही विज्ञान है । सही-सही
समझ के लिए किसी प्रक्रिया के न केवल आंतरिक अवयवों और उनके आपसी संबंधों को समझना
वश्यक है बल्कि उसका बाह्य अवयवों और प्रक्रियाओं के साथ अंतर्व्यवहार समझना भी
उतना ही आवश्यक है । प्रकृति में हो रही अनगिनत प्रक्रियाओं की सही समझ मानव समाज
के हाथों में वह अस्त्र है जिसके द्वारा मानव समाज प्रक्रियाओं की दिशा मानव जाति
के लिए बेहतर और आरामदायक सुविधाएं जुटाने के लिए अपने विवेकानुसार बदल पाता है।
(समझ के विवेकी या अविवेकी इस्तेमाल से विज्ञान की परिभाषा का कुछ लेना देना नहीं
है।) यदि प्रक्रियाओं की समझ सही नहीं है तो अपेक्षित परिणाम हासिल करने के लिए
सही कार्यक्रम का निर्धारण संभव नहीं है। प्रक्रियाओं की वैज्ञानिक खोज के तीन चरण
हैं –
1. निरीक्षण
2. विश्लेषण और
प्रतिपादन
3. प्रयोग
अगर प्रयोग में अपेक्षित परिणाम नहीं आता है तो
विश्लेषण और प्रतिपादन का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है और प्रयोग की प्रक्रिया
दोहराई जाती है। जब प्रयोग में अपेक्षित परिणाम आने लगते हैं तो विश्लेषण और
प्रतिपादन को मान्यता प्राप्त हो जाती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है? वह दृष्टिकोण जो किसी दृग्विषय या प्रक्रिया को सही सही, अपने पूर्वाग्रहों या
हितों से प्रभावित हुए बिना, देखने तथा समझने की कोशिश करता है वैज्ञानिक
दृष्टिकोण कहलाता है। जटिलता के अनुरूप
प्रक्रिया क्षणिक या दीर्घकालिक - कुछ नेनोसेकेंड (सेकेंड का सौ करोड़वां हिस्सा)
से लेकर लाखों वर्ष की अवधि की - हो सकती है। मनुष्य जीवन की तुलना में अल्पकालिक
किसी प्रक्रिया का अध्ययन आसान है क्योंकि एक ही व्यक्ति प्रयोग और पुनर्विश्लेषण
को अनेकों बार दोहरा कर प्रक्रिया की सही समझ को प्रमाणित कर सकता है। दीर्घकालिक
प्रक्रियाओं के अध्ययन में समस्याएं हैं। ऐसी प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण
अनेक व्यक्तियों के योगदान से ही संभव है। अध्ययन आगे बढ़ाने के लिए एक व्यक्ति
अपने निरीक्षण तथा विश्लेषण का अभिलेख दूसरों को सौंपता है। जाहिर है अगर निरीक्षण
या अभिलेख में कोई त्रुटि है तो प्रक्रिया का विश्लेषण भी त्रुटिहीन नहीं होगा।
अगर निरीक्षण या अभिलेख में उन्नत यंत्रों का प्रयोग किया गया है तो त्रुटि की
संभावना कम हो जाती है पर यदि निरीक्षण या अभिलेख व्यक्ति विशेष की समझ और
व्याख्या पर निर्भर है तो त्रुटि की संभावना, व्यक्ति की निर्णय-क्षमता पर निर्भर होने के कारण, बढ़ जाती है और इसी कारण सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत सामाजिक
प्रक्रियाओं के अध्ययन में यह खतरा सबसे अधिक होता है। अति दीर्घकालिक प्रक्रियाओं, जैसे कि सामाजिक विकास, राष्ट्र-राज्य का विकास, आर्थिक विकास, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, शासन प्रणाली आदि के अध्ययन में गंभीर त्रुटियों की संभावना अधिक प्रबल है
क्योंकि निरीक्षण तथा व्याख्या पूरी तरह व्यक्ति की समझदारी तथा पूर्वाग्रह पर
निर्भर होते हैं।
कोई भी
चिंतन पूर्ण रूप से मौलिक नहीं होता है। मार्क्सवाद भी अनेकों पुराने चिंतकों के
चिंतन पर आधारित है पर वह मौलिक इस रूप में है कि वह अनेकों चिंतकों की
विचारधाराओं में से सही विचारों को लेकर एक सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत की गई
विचारधारा है जो न केवल विचार तक सीमित है वरन कर्म के लिए एक कारक भी है। मार्क्सवाद
एक विचारधारा है जिसके आधार पर सामाजिक विकास प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन
लाने और विचारधारा की और अधिक पुख्ता समझ विकसित करने में मार्क्स के अलावा एंगल्स, लेनिन, स्तालिन और
माओद्जेदुंग जैसे अनेकों चिंतकों का योगदान भी है पर प्रकृति के मूलभूत सिद्धांत
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ मार्क्स की अनोखी देन है और यही मार्क्सवादी
विचारधारा का आधार है।
मार्क्स
के पहले के चिंतकों का चिंतन या तो प्रकृति के विभिन्न आयामों की व्याख्या, किसी न किसी रूप में पराभौतिक को भौतिक प्रकृति का आधार
मानते हुए,
तक सीमित रहा है और अगर कहीं बेहतर समाज की परिकल्पना की भी
गई तो उसकी प्राप्ति का तरीका सामाजिक इकाई (व्यक्ति) के आध्यात्मिक उत्थान में ही
दर्शाया गया न कि सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन में।
इसके
बिल्कुल उलट मार्क्स ने अनगिनत घटनाओं और प्रक्रियाओं के विश्लेषण, अनेकों विषयों के स्नातकोत्तर स्तर तक के पाठ¬क्रमों के अध्ययन और अनेकों विद्वान चिंतकों की विचारधाराओं
के समावेशन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि संपूर्ण प्रकृति, सभी दृग्विषय और घटनाएं भौतिक जगत की अभिव्यक्ति हैं
पराभौतिक कुछ भी नहीं है तथा हर पदार्थ, समूह,
संरचना और व्यवस्था आंतरिक तथा बाह्र विरोधी प्राचलों (Parameters) के द्वंद्व के कारण सतत परिवर्तनशील है तथा परिवर्तन की दिशा हावी
विकासोन्मुख प्राचल द्वारा निर्धारित होती है। इस निष्कर्ष के साथ ही मार्क्स का
जो अमूल्य क्रांतिकारी योगदान है और जो पिछले सारे चिंतकों को उनकी तुलना में बौना
बना देता है वह है बेहतर समाज के लिए सामाजिक व्यवस्था के प्राचलों और उनके द्वंद
को पहचानने की पद्धति का विकास और समाज के विकास को संचालित करने वाली तकनीक का
दर्शन। मार्क्स के निष्कर्षों के अनुसार सामाजिक परिवर्तन को इच्छित दिशा देने के
लिए सामाजिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है न कि व्यक्ति के
परिवर्तन पर।
मार्क्स
ने प्रथम चरण में वैचारिक स्तर पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद के दर्शन की समझ विकसित की और इस दर्शन को अनेकों प्राकृतिक घटनाओं और
दृष्टांतों के आधार पर सत्यापित किया।
अति
सूक्ष्म स्तर पर जड़ पदार्थ की यांत्रिक गति (Displacement
with respect to time) की आधारभूत प्रक्रियाओं के संश्लेशण से जटिल
पदार्थों का निर्माण होता है पर जड़ पदार्थ की गति का प्रकृति का आधारभूत सामान्य
नियम पदार्थों के मूल स्तर पर अपरिवर्तनीय रहता है। आधारभूत जड़ पदार्थों के संयोजन
(Combination) से विभिन्न प्रकार के परमाणुओं का निर्माण
होता है और परमाणुओं के संयोजन से अणुओं का। संयोजन में भाग लेनेवाले अवयवों की
संख्या बढ़ने के साथ क्रम-परिवर्तन (Permutation) की
संभावनाएं बढ़ती जाती हैं जिससे अधिक-से-अधिक क्लिष्ट परमाणुओं और अणुओं का निर्माण
होता है। यह प्रकृति की निरंतर परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया है। इसी विकास क्रम
में एक स्तर ऐसा आता है जहां जड़ यौगिकों से आधिक क्लिष्ट जैव यौगिकों (Organic
compounds) का अस्तित्व आ जाता है और अगले चरण में जैव यौगिकों के
अणुओं के संश्लेषण से अत्याधिक क्लिष्ट प्रोटीन और डी.एन.ए. के अणुओं का निर्माण
हुआ है जो जीवन निर्माण की आधारशिलाएं (Building blocks)
हैं। इन्हीं प्रोटीन और डी.एन.ए. के अणुओं के अति क्लिष्ट संश्लेषण से जैव-कोशिका
का निर्माण हुआ और उन्हीं के विभिन्न क्रम संयोजनों से अनेकों प्रकार की कोशिकाओं
और जीवों का निर्माण हुआ है। एक-कोशीय जीव से बहुकोशीय, मेरुदंड-विहीन, मेरुदंडीय,
स्तनपायी, वानर और
उदग्र-जीव के विकास क्रम की अनेकों सीढ़ियां चढ़ती हुई मानव-जाति अपने वर्तमान
स्वरूप में पहुंची है। जहां हर अगली सीढ़ी पर कुछ नए लक्षण हासिल हुए वहीं पिछली
सीढ़ी के कुछ लक्षण सुविधानुसार संजोये रहे।
मार्क्स
ने विकास क्रम के हर स्तर की प्रक्रिया का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि
विरोधी तत्वों के बीच द्वंद्व का प्रकृति का आधरभूत नियम न केवल निर्विवाद रूप से
हर स्तर पर विद्यमान है बल्कि विभिन्न परिवर्तनों और विकास चरणों का कारण भी है और
आधार भी।
वैचारिक
स्तर पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दर्शन की समझ विकसित
और सत्यापित करने के बाद दूसरे चरण के रूप में मार्क्स ने मानव समाज के विकास-क्रम
का विश्लेषण किया और ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा विकसित की। प्रत्येक जीव की
भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एकाकी से परिवार और परिवार से समूह के विकास की
समझ के आधार पर मार्क्स ने निष्कर्ष निकाला कि सारी मानव जाति और मानव समाज के
विकास का आधार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए गए कार्य-कलाप हैं। तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक और
राजनैतिक विकास तथा राज्य,
राजसत्ता तथा राष्ट्र-राज्य के अभ्युदय का आधार भौतिक
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए गए कार्य-कलाप ही हैं न कि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों
की सनक तथा यह सारी विकास प्रक्रिया तथा विकास के अनेक चरण विभिन्न समूहों के
आर्थिक हितों के द्वंद्व के कारण हैं। मार्क्स ने अपने काल से पहले के अनेकों
समूहों,
समाजों, राज्यों और
राष्ट्रों के इतिहास का विस्तृत विश्लेषण कर ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा को
सत्यापित किया।
तीसरे
चरण में,
सत्यापित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद की
अवधारणाओं के आधार पर मार्क्स ने बाह्यकलन (Extrapolation) कर अपने काल से आगे के मानव समाज की संभावित दिशाओं का आंकलन किया। मार्क्स
ने पाया कि भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जरूरी प्राकृतिक तथा सामूहिक
संसाधनों के स्वामित्व के आधार पर समाज दो वर्गों में बंटा है। एक वर्ग जो
संसाधनों पर काबिज है दूसरा वह जो अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन
के उन साधनों का,
जो दूसरे वर्ग के कब्जे में हैं, प्रयोग दूसरे वर्ग की शर्तों पर करने के लिए बाध्य है।
शर्तों में उत्पादक वर्ग के लिए सबसे घातक शर्त है कि सारे उत्पादन का एक बड़ा
हिस्सा मालिक वर्ग को सौंपना पड़ता है जिसका शोषक वर्ग साधनों पर अपने अधिकार को और
अधिक मजबूत करने के लिए उपयोग करता है। उत्पादन के निजी स्वामित्व की इस प्रणाली
में दो प्रकार के अंतद्र्वंद्व अंतर्निहित हैं। एक ओर शोषित वर्ग गैर-बराबरी की
शर्तों से छुटकारा पाने और उत्पादन के साधनों के तथा उत्पाद के सामूहिक स्वामित्व
में अपना हित देखते हुए शोषक वर्ग के विरुद्ध सतत संघर्षरत रहता है। दूसरी ओर शोषक
वर्ग के विभिन्न समूहों में उत्पादन के साधनों, जिनमें श्रमिक भी शामिल है, पर
अधिक-से-अधिक अधिकार के लिए निरंतर संघर्ष चलता रहता है। हितों की यह टकराहट
वास्तव में अस्तित्व की लड़ाई है इस कारण इन संघर्षों में हिंसा अंतर्निहित है।
अपनी इस समझ के आधार पर मार्क्स ने वर्ग-विभाजित समाज और वर्ग-संघर्ष की अवधारणा
विकसित की। पिछले सामाजिक विकास की विभिन्न पायदानों - दासप्रथा, सामंतशाही, पूंजीवाद तथा उपनिवेशवाद
- का गहन अध्ययन कर और हर समाज को वर्गों में विभाजित और हर परिवर्तन को
वर्ग-संघर्ष की परिणति दर्शा कर मार्क्स ने अपनी वर्ग-विभाजित समाज और वर्ग-संघर्ष
की अवधारणा को सत्यापित किया।
अपनी
इस अवधारणा के सत्यापन के बाद मार्क्स ने मानव समाज के विकास के अगले चरण की
परिकल्पना की। इस परिकल्पना के अनुसार उत्पादन के साधनों के तकनीकी विकास और मानव
समाज की उत्पादन क्षमता बढ़ने के साथ संसाधनों पर अधिकार के लिए संघर्ष भी तीव्र
होते जाएंगे। चूंकि राजसत्ता संसाधनों पर स्वामित्व वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व
करती है इस कारण शोषक वर्गों के बीच स्वमित्व की स्पर्धा की परिणति राष्ट्रों के
बीच युद्धों और महायुद्धों में होगी। दूसरी ओर उत्पादन के साधनों की तकनीकी प्रगति
के साथ शोषित वर्ग की जागरूता और एकजुटता बढ़ती जाएगी और शोषक और शोषित वर्ग के बीच
का संघर्ष भी तीव्र होता जाएगा जिसकी परिणति एक ऐसे नई व्यवस्था में होगी जिसमें
संसाधन समाज के सामूहिक स्वामित्व में होंगे तथा उत्पादन उत्पादकों के सामूहिक उपयोग
के लिए होगा न कि कुछ लोगों के उपभोग और संसाधनों पर निजी स्वामित्व बनाए रखने के
लिए। ऐसी समाजवादी व्यवस्था में राजसत्ता उत्पादक वर्ग का प्रतिनिधित्व करेगी और
संसाधनों का सामूहिक स्वामित्व सुनिश्चित करेगी। इसी विकास क्रम में अंततः, उत्पादक वर्ग की जागरूकता बढ़ने के साथ, एक ऐसा समाज अस्तित्व में आएगा जहां निजी स्वामित्व की सारी
संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी और राजसत्ता स्वयं विलीन हो जाएगी और ऐसे समाज को मार्क्स
ने साम्यवादी समाज कहा।
उन्नीसवीं
सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी में श्रमिक संघर्ष, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध, फ्रांस में
गणतंत्र और रूस की सर्वहारा क्रांति, अनेकों उपनिवेशों की आजादी और चीन, कोरिया,
क्यूबा, वियतनाम आदि
देशों में हुर्इं समाजवादी क्रांतियां मार्क्स की अवधारणाओं और परिकल्पनाओं को
नियमानुकूल सिद्ध करते हैं।
संक्षेप
में मार्क्सवाद के चार आयाम हैं। पहला है प्रकृति के मूलभूत नियम द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद की पहचान जो ईश्वर या भौतिक जगत से परे किसी चेतन शक्ति के अस्तित्व को
पूरी तरह नकारता है। दूसरा आयाम है द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर सामाजिक
विकास के नियम ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा जो दर्शाता है कि संसाधनों और उत्पादन
के बंटवारे के लिए विभिन्न समूहों के हितों के बीच का द्वंद्व ही सारे आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विकास का आधार है। तीसरा आयाम है
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा के आधार पर भविष्य के
मानव समाज की परिकल्पना। तथा चौथा आयाम है मानव जाति के व्यापक हित का पोषण करने
वाले समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अग्रगामी तत्वों की जीत और प्रतिगामी
तत्वों की हार सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक तत्वों और समूहों का मार्गदर्शन करना।
मार्क्सवाद
के पहले दो मूलभूत आयाम इतने साफ और पारदर्शी हैं कि उन के बारे में न केवल सारे
वैज्ञानिक एकमत हैं बल्कि अध्यात्मवादी भी अपनी धारणाओं को सिद्ध करने के लिए उनका
सहारा लेते हैं। तीसरे और चौथे आयाम के विषय अत्याधिक क्लिष्ट हैं। उनमें अनगिनत
अवयव हैं और मार्क्सवाद की मूल अवधारणा के अनुरूप क्रम-परिवर्तन (Permutation) के कारण अनगिनत संयोजनों तथा परिणामों की
संभावनाएं,
विकास क्रम की सीढ़ियां चढ़ने के साथ, व्यापक होती जाती हैं। यही कारण है कि विभिन्न समाजों के
विकास क्रम में विरोधाभासी परिणाम नजर आते हैं - इंग्लैंड में अत्याधिक विकसित
पूंजीवाद के बावजूद सर्वहारा क्रांति न होना, रूस में अर्धविकसित पूंजीवाद के बावजूद सर्वहारा क्रांति की सफलता, चीन में कृषक-वर्ग द्वारा क्रांति या सोवियत संघ का विघटन -
लेकिन इन सभी का सही विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि सभी प्रक्रियाएं और परिणाम मार्क्सवाद
की अवधारणाओं के अनुरूप ही हैं कहीं भी कुछ भी रत्ती भर भी मार्क्सवाद के बाहर या
विरोध में नहीं है। जिन्हें विरोध नजर आता है कहीं न कहीं उनके विश्लेषण में कमी
के कारण ही यह विरोधाभास होता है। मार्क्सवाद से मौखिक सहमति जताना इस बात की
गारंटी नहीं है कि व्यक्ति क्रियान्वयन में भी मार्क्सवाद का अनुसरण कर रहा है या
एक क्षेत्र में मार्क्सवाद का अनुसरण अन्य क्षेत्रों में मार्क्सवाद के अनुसरण की
गारंटी नहीं है।
मानव
समाज के विकास के अगले चरण की परिकल्पना, कि शोषक और शोषित वर्ग के बीच के संघर्ष की परिणति एक ऐसी नई समाजवादी
व्यवस्था में होगी जिसमें संसाधन समाज के सामूहिक स्वामित्व में होंगे तथा उत्पादन
उत्पादकों के सामूहिक उपयोग के लिए होगा न कि कुछ लोगों के उपभोग और संसाधनों पर
निजी स्वामित्व बनाए रखने के लिए तथा ऐसी समाजवादी व्यवस्था में राजसत्ता उत्पादक
वर्ग का प्रतिनिधित्व करेगी और संसाधनों का सामूहिक स्वामित्व सुनिश्चित करेगी, मार्क्स के विश्लेषण के साथ उनकी आकांक्षा की भी द्योतक है।
मार्क्सवाद
की मूल अवधारणा को देखें तो शोषक और शोषित वर्ग के बीच संघर्ष में शोषक-वर्ग की
जीत की संभावना को नकारना गैर-मार्क्सवादी नजरिया होगा। तकनीकी विकास के साथ
शोषक-वर्ग की जागरूकता (चालाकी) भी बढ़ेगी, शोषित-वर्ग में उपयोग के साथ-साथ उपभोग की मानसिकता भी बढ़ेगी, शोषक-वर्ग द्वारा शोषित-वर्ग के जागरूक तबके को अपनी ओर
मिलाने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाए जाएंगे (जो कि हमेशा से होता रहा है) और इस सारे
यथार्थ के साथ शोषक-वर्ग की जीत की संभावना भी बरकरार रहेगी। सारे विकास क्रम में
किन्हीं पड़ावों पर शोषक-वर्ग की जीत की, संभावना से कहीं ज्यादा सुनिश्चितता होगी। वास्तव में सारी विकास प्रक्रिया
इतनी क्लिष्ट है और उसमें इतने असंख्य अवयव हैं कि विकास-क्रम सीधी रेखा में न होकर
लहरदार होगा जिसमें किन्हीं चरणों में शोषक-वर्ग हावी नजर आएगा। यह सब कुछ इतना
पारदर्शी है कि यह मान लेना कि मार्क्स को इसका ज्ञान नहीं था, अज्ञानता की चरम सीमा ही कहा जा सकता है।
समाजवादी
व्यवस्था तथा साम्यवादी समाज की परिकल्पना मार्क्स की आकांक्षा का ही द्योतक है न
कि निष्कर्ष का। शोषक-वर्ग की निरंतर जीत की परिणति सारी मानव जाति के संपूर्ण
विनाश में होगी न कि इतिहास के अंत - पूंजीवाद - में, जिसकी परिकल्पना कोई विवेकी स्वप्न में भी नहीं करना
चाहेगा। मार्क्स ने सारी मानव जाति के संपूर्ण विनाश की संभावना को जानते हुए भी
उसकी परिकल्पना नहीं कि जो उनके मानवीय पहलू को दर्शाता है वैज्ञानिक पहलू को
नकारता नहीं है।
मार्क्सवाद
के पहले तीन आयामों की यथार्थता और सार्थकता सुनिश्चित होने के बाद मानव-जाति के लिए चौथे आयाम की सार्थकता में शक
की गुंजाइश ही नहीं रह जाती है।
लेखक
अन्य प्रश्नों पर अपने विचार व्यक्त करने से पहले इस विश्लेषण पर पाठकों और
बुद्धिजीवियों की प्रक्रिया का इंतजार करना चाहता है। शायद कुछ अंशों पर कुछ मतभेद
हों जिनका निराकरण किए बिना अन्य प्रश्नों का उत्तर सार्थक नहीं होगा।
सुरेश
श्रीवास्तव
09 अक्तूबर 2006
No comments:
Post a Comment