Friday, 28 June 2013

हमीं ने तो दिये हैं ये कुंद हथियार

(सुरेश श्रीवास्तव का यह लेख हंस के दिसंबर 2010 के अंक में छपा था)

हमीं ने तो दिये हैं ये कुंद हथियार

(श्री राजेन्द्र यादव के हंस के अक्टूबर अंक में छपे संपादकीय 'तुम्हीं ने तो दिये हैं ये हथियार' पर एक टिप्पणी)

9 अक्टूबर 2010
आदरणीय राजेन्द्र भाई साहब,
एक जाने-माने लेखक द्वारा एक स्थापित लेखिका के लिए की गई टिप्पणी से उपजे विवाद के संदर्भ से नारी-विमर्श पर 8 सितंबर 2010 को लिखे गये मेरे विचारों को दर किनार करते हुए आपने आग्रह किया था कि हंस के अक्टूबर अंक में छपे आपके संपादकीय को पढ़ कर मैं नारी-विमर्श पर पुनः अपने विचार लिखूं। आपके आदेशानुसार, अक्टूबर के आपके संपादकीय के संदर्भ से मैं एक बार फिर नारी विमर्श पर अपने विचार लिख कर आपके पास भेज रहा हूं।
पर चाहे मैं पहले अपने विचार लिखूं फिर आपके पढ़ूं या पहले आपके पढ़ूं फिर अपने लिखूं, कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि हम मार्क्सवाद की अपनी-अपनी तथा एक दूसरे की समझ से अच्छी तरह परिचित हैं। जहां आपकी समझ मे समाज व्यक्तियों से बनता हैं इस कारण व्यक्ति का विकास और स्वतंत्रता प्राथमिक है तथा विचार, कला, संस्कृति आदि भौतिक से अलग भी कुछ हैं और उनकी अपनी स्वायत्तता है, वहीं मेरी समझ में समाज व्यक्ति से भिन्न एक जैविक अस्तित्व है इस कारण उसके विकास के अपने नियम हैं तथा विचार, कला, संस्कृति आदि सभी कुछ भौतिक हैं और समाज की अधिरचना का हिस्सा हैं जो उत्पादन साधनों तथा संबंधों पर निर्भर करती है।
मार्क्सवाद, प्रकृति को समझने की वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित चिंतन विश्लेषण पद्धति है जिसमें किसी आंकलन या विश्लेषण के सही या गलत होने की कसौटी होती है उसमें प्रयुक्त विचारों की तार्किकता तथा समन्वयता। किसी आंकलन या विश्लेषण में विचारों की अतार्किकता तथा असंबद्धता या विचारों में अंतर्विरोध उस आंकलन या विश्लेषण की सच्चाई को संदेहास्पद बना देते हैं। 
नारी-मुक्ति तथा नारी-विमर्श के बारे में भी आपके तथा मेरे आंकलन में कौन कितना सही तथा कौन कितना गलत है यह इस पर निर्भर करता है कि किसके आंकलन तथा विश्लेषण में अभिव्यक्त विचारों में कितनी अतार्किकता, कितनी असंबद्धता तथा कितने अंतर्विरोधों की मौजूदगी है। 
अफ्रीकी देशों से जहाज भर-भर कर ले जाये गये अश्वेत लोगों से 'मेहनत के हाड़ तोड़ काम लिए जाते थे, हंटरों के बल पर, उनके भीतर की आत्मा, चेतना और आत्मसम्मान को निरंतर कुचलने के लिए शारीरिक यातनाओं के साथ' 'उनके सोचने, महसूस करने की शक्ति को समाप्त करने की प्रक्रिया भी चलती रहती थी''इस प्रकार उन्होंने अपनी गुलामी के दस्तावेजों को उन्हीं मालिकों के खिलाफ हथियारों में बदल डाला।' भारत की अस्पृश्य जातियों को भी आपने श्रम और उत्पादन से जुड़ी शक्तियों के रूप में चिन्हित किया है। क्या आपकी ये दलीलें मेरे इस विचार का समर्थन नहीं करती हैं कि उत्पादन संबंध ही आत्मा, चेतना, आत्मसम्मान तथा विचारों और कला तथा संस्कृति जैसे अमूर्त अवयवों का आधार हैं। और यथार्थ यही है कि उत्पादन संबंध न केवल गुलामों तथा अछूतों के विचारों का आधार हैं वे स्त्री सहित सारे मानव समाज का वैचारिक आधार हैं।
आपकी टिप्पणी 'ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां दलितों ने अपनी नियति को मुक्ति में बदला' जाहिर करती है कि आपको दलित मुक्त नजर आते हैं क्योंकि कुछ दलित 'नक्सली होकर अपने सदियों पहले के आतातायी मालिकों के गले काट रहे हैं। संसद और विधान सभाओं में उनसे गले मिल रहे हैं, अफसर अधिकारी बनकर उनके गलों पर सवार हैं।' - मैं चमार की बेटी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हूं - 'कहकर ललकारने की आवाजें सुनाई देती हैं' और इसीलिए आपको लगता है कि 'अब वे हमारी दया और सहानुभूति पर निर्भर नहीं हैं।' यह आपका पूर्वाग्रह, कि व्यक्तियों से समाज बनता है, ही है जिसके कारण आपको चंद सक्षम सबल दलितों की सम्पन्नता और सबलता में सारे दलित समाज की मुक्ति नजर आती है। आपको उत्तर प्रदेश सहित सारे देश में विपन्न निर्बल दलितों की गुलामी और उन पर सामूहिक रूप से हो रहा अत्याचार नजर नहीं आता है। और शायद इसी रूप में आप चंद स्त्रियों की आजादी में सारी स्त्री जाति की आजादी भी देखते हैं। जिस तरह आप उत्पादन संबंधों को विचार, कला, साहित्य और संस्कृति का आधार मानने के लिए तैयार नहीं हैं उसी प्रकार आप यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि आर्थिक आजादी के बिना, न दलित जातियों का उद्धार है और न औरत जाति का।
अगर अतार्किक मान्यताओं और अवधारणाओं को आधार बनाकर कोई विश्लेषण या आंकलन किया जायेगा तो उसके सही होने की आशा नहीं की जा सकती है। आपने मान लिया है कि आज चंद दलितों की आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक संपन्नता एक क्रांतिकारी सामाजिक रूपांतरण है और इसी परिप्रेक्ष्य में आप स्त्रियों की स्थिति को समझने का प्रयास कर रहे हैं।         
आज के नारी-विमर्श का आपका आंकलन आपकी चंद मान्यताओं पर आधारित है।
- जिस चीज को सबसे अधिक कुचला, नियंत्रित और अनुशासित किया गया वह (है) उसकी यौनिकता।
- पुरुष अपनी मर्दानगी के लिए बीस जगह मुंह मार सकता था......उसकी मर्दानगी इसी में थी कि वह कितनी औरतों से अपने संबंध रख सकता था।
- सारे धर्मशास्त्र, सामाजिक मर्यादायें, बंधन, संस्कृति, लक्ष्मण रेखाएं सिर्फ स्त्री के लिए थीं।
- वेश्या स्वतंत्र नारी है पर पत्नी नहीं क्योंकि पुरुष जब चाहे उसके साथ सेक्स कर सकता था पर उसके स्वयं के लिए अपनी स्वतंत्र यौनिकता की बात सोचना पाप और अपराध था।
- जब स्त्री ने स्वयं अपनी कहानी कागज पर लिखनी शुरु की वे उसके कन्फेशन्स थे।
- कथा साहित्य में हजारों कहानियां, उपन्यास और आत्मकथाएं अवैध संबंधों की या उनके लिए ललकती स्त्री की कहानियां हैं। झ्र्और ये कहानियां नारी-विमर्श तथा नारी-मुक्ति की प्रतिनिधि कहानियां हैं। पर फिल्मों तथा टीवी सीरियलों की सारी नायिकाएं जिस तरह अपने शरीर और मुद्राओं का प्रदर्शन करती हैं वे हमारे बीच की नहीं हैं इस कारण कसी हुई जीन्स और छोटे कपड़ों में सड़कों पर घूमती लाखों लड़कियां आपको बेशर्म नजर आती हैं।
            - आत्मविश्वास से खिलखिलाती, छातियां ताने बिंदास लड़कियां जो छोटे-छोटे कस्बों और वर्गों में भी हर जगह नजर आती हैं, आम मध्यवर्गीय परिवारों का ही हिस्सा हैं पर आपके अनुसार वे बहू-बेटी के रूप में परिवार में स्वीकार्य नहीं हैं।
            व्यक्ति के जीवन और अस्तित्व का आधार है जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति - भोजन तथा शारीरिक सुरक्षा सहित यौनिच्छा की पूर्ति - और भोजन तथा शारीरिक सुरक्षा के लिए आवश्यक, सामूहिक उत्पादन ही मानवसमाज के गठन का आधार है। जहां विचार, भाषा, संस्कृति आदि, सामूहिक उत्पादन-वितरण को अधिक सुगम बनाने के लिए विकसित हुई अधिरचना है वहीं उत्पादन-वितरण में अंतर्निहित संघर्ष ही एक समूह द्वारा दूसरे समूह की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति पर नियंत्रण के लिए विकसित अधिरचना के लिए उत्तरदायी है। इस प्रक्रिया में जिसे सबसे अधिक कुचला, नियंत्रित और अनुशासित किया गया है वह है पेट की भूख न कि पेट के नीचे की भूख। (आपके संपादकीय के अंत में दी गई आपकी टिप्पणी मेरी बात का समर्थन है।) जिन पुरुषों के बीस जगह मुंह मारने की बात आप कर रहे वे चंद साधन संपन्न पुरुष ही हो सकते हैं व्यापक पुरुष समाज नहीं, और साधन संपन्न पुरुष ही क्यों, स्त्रियां भी तो। आप स्वयं ही वाइफ-स्वैपिंग तथा जिगोलो की बात कर रहे हैं। और आज तो रक्तदान की जगह युवावर्ग में वीर्यदान का भी प्रचलन हो चला है पर वे वीर्यदान अपनी यौनक्षुधा को शांत करने के लिए नहीं करते हैं बल्कि अपने आर्थिक हित की पूर्ति के लिए करते हैं। करोड़ों लोग अपनी मर्दानगी की सार्थकता
इसमें नहीं देखते हैं कि वे कितनी औरतों से संबंध रख सकते हैं बल्कि इसमें देखते हैं कि अपने तथा अपने परिवार के लिए दो जून का भोजन जुटा पाते हैं या नहीं।
            सारे धर्मशास्त्र, सामाजिक मर्यादायें, बंधन, लक्ष्मण रेखाएं सिर्फ स्त्री के लिए नहीं वरन साधनविहीन सारी मानवजाति के लिए बने हैं चाहे वे पुरुष हों या स्त्री या बच्चे, क्योंकि नियंत्रण करनेवाले साधन संपन्न लोग होते हैं। जन्म लेने से पहले से लेकर मरने के बाद तक मनुष्य अनेकों मर्यादाओं से बंधा है जिनमें अधिकांश उसको निरंतर उस स्वतंत्रता तथा उन चीजों से वंचित रखती हैं जो, एक सभ्य समाज के अंग के रूप में उसे हासिल होना चाहिए। सारी वर्जनाए साधनविहीनों के लिए होती हैं साधन संपन्नों के लिए नहीं। सारी सामजिक मर्यादाएं एक वाक्य से परिभाषित होती हैं - समरथ को नहीं दोष गुसार्इं।
            वर्ग विभाजित समाज में न ही वेश्या और ना ही पत्नी स्वतंत्र नारी है क्योंकि जहां वेश्या को अपने और अपने बच्चे के लिए जीवन के साधन टुकड़ों-टुकड़ों में जुटाने के लिए अपनी यौन सहमति का ढोंग करते हुए बार-बार अलग-अलग पुरुषों का बलात्कार सहना पड़ता है वहीं पत्नी को अपने और अपने बच्चे के लिए जीवन के साधन एकमुश्त जुटाने के लिए अपनी यौन सहमति का ढोंग करते हुए बार-बार एक ही पुरुष का बलात्कार सहना पड़ता है। और आम स्त्री अपने ये कन्फेशन्स, कुछ संपन्न स्त्रियों के द्वारा कागज पर लिखे जाने से बहुत पहले से दर्ज करती रही हैं। उसे पढ़ने और समझने के लिए जरुरत होती है उस दृष्टि और संवेदना की जो सामाजिक सहिष्णुता के लिए अनिवार्य शर्त है।
            नारी-मुक्ति की मेरी अवधारणा आपकी अवधारणा से भिन्न है। जहां तक देह की आजादी का प्रश्न है तो उसमें कुछ हजार कहानियों या आत्मकथाओं का योगदान नगन्य है। लाखों मध्यवर्गीय युवतियां जो अपनी देह को आजादी से प्रदर्शित करती हैं उनमें से अधिकांश ने न तो वे कहानियां पढ़ी होंगी और ना ही वे आत्मकथाएं। उनकी ढिठाई (Bravado) में योगदान है आज के मनोरंजन के दृश्य श्रव्य माध्यमों में दिखाई जानेवाली नारी देह तथा कंडोम व विभिन्न प्रकार के अंतर्वस्त्रों के विज्ञापनों का और उनकी अभिप्रेरणा का आधार है विवाह का बाजार जिसमें कपड़ों में ढंकी लजाई सिकुड़ी सिमटी कन्या का मोल लगाने वाला आज के पढ़े लिखे युवकों के बीच में मिलना बहुत मुश्किल है। और युवकों की मजबूरी भी उसी बाजार के कारण है जिसमें सेक्सी पत्नी का आधिपत्य और उसका प्रदर्शन प्रतिष्ठा प्रतीक माना जाता है। आप मानें या न मानें आज के समाज में नारी-मुक्ति और देह-मुक्ति के मानदंड तय होंगे उन्हीं उत्पादन संबंधों तथा उसी अर्थव्यवस्था से जो स्त्री या स्त्री देह को एक पण्य उत्पाद के रूप में ही देखती है न कि कुछ काल्पनिक कहानियों या आत्मकथाओं से।   
सादर, शुभकामनाओं सहित
सुरेश श्रीवास्तव

(9810128813)

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