Friday 28 June 2013

खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश



क्या मार्क्सवादियों  को खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करना चाहिेये?
(सुरेश श्रीवास्तव)

मार्क्स ने कहा था 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर स्वयं भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनक़ाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के ज़रिये  समझना।' और एंटी ड्युहरिंग की प्रस्तावना में ऐंगेल्स ने लिखा था 'लेकिन सैद्धांतिक चिंतन प्रकृति प्रदत्त गुण है अगर केवल प्राकृतिक क्षमता की बात करें तो। इस क्षमता को विकसित किया जाना चाहिये, उसे परिष्कृत किया जाना चाहिये, और उसके परिमार्जिन का अभी तक और कोई तरीक़ा नहीं है सिवाय इसके कि पिछले दर्शन का अध्ययन किया जाये।' 
वामपंथी जिसका विरोध कर रहे हैं वह है मल्टी ब्रैंडेड खुदरा व्यापार में पूर्ण स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश। सैद्धांतिक रूप से वे ब्रैंडेड माल के खुदरा व्यापार में पूूर्ण-स्वामित्व आधारित विदेशी निवेश के विरोध में नहीं हैं। अर्थात अगर कोई विदेशी संगठन एक ही ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री के लिए प्रतिष्ठान स्थापित करना चाहता है तो उसके ऐसा पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करने पर वामपंथियों को कोई ऐतराज़ नहीं है पर अगर वह अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री पूर्ण स्वामित्व के अंतर्गत करना चाहता है तो वामपंथियों को ऐतराज़ है। वामपंथियों के विरोध का आधार यह दलील है कि छोटे-छोटे दुकानदार व व्यापारी जो अपनी आजीविका अनेकों ब्रैंड के माल की खुदरा बिक्री आधारित स्वरोज़गार के ज़रिए कमाते हैं उनके लिए विदेशी निवेशकों के सामने प्रतिस्पर्धा में टिक पाना असंभव होगा और करोड़ों दुकानों के बंद होने से एक ओर करोड़ों दुकानदार तथा व्यापारी बेरोज़गार हो जायेंगे और दूसरी ओर बड़े संस्थानों के एकाधिकार के कारण जहां लघु उद्योगों तथा किसानों को उनके उत्पादों का मूल्य कम मिलेगा वहीं उपभोक्ता को अधिक मूल्य चुकाना पड़ेगा।
ऊपर उठाये गये प्रश्न का सही उत्तर वामपंथियों की दलील के सही-सही सैद्धांतिक विश्लेषण के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है।
सारे विवाद के केंद्र में है उत्पाद तथा उत्पाद का मूल्य, और विवाद है उत्पादक या श्रमिक तथा वितरक या बिचौलिये के बीच क्रेता द्वारा चुकायी गयी क़ीमत के उचित बँटवारे को लेकर। जहाँ मार्क्सवादियों को मार्क्स द्वारा स्थापित मूल्य की अवधारणा से आज भी पूरा इत्तफ़ाक़ है वहीं वामपंथियों ने विज्ञान, तकनीकी तथा संचार के क्षेत्र में पिछले 150 सालों में हुए अभूतपूर्व विकास की दलीलें देते हुए न केवल मार्क्स की मूल्य की अवधारणा को बल्कि मार्क्सवाद की अनेकों सैद्धांतिक अवधारणाओं को भी संशोधित कर अपने साथ-साथ जनता को भी भ्रमित किया है। मार्क्सवाद की मूल्य की व्याख्या को छोड़ देने के बाद वामपंथी न शोषण की प्रक्रिया को समझ पा रहे हैं और ना ही पूँजी तथा पूँजीवाद की संरचना (अंतर्वस्तु तथा अधिरचना) और उनके आंतरिक द्वंद्वों को। आइये हम यहाँ उठाये गये विवाद के विभिन्न पहलुओं के अवयवों का अलग-अलग और एकीकृत विश्लेषण करें।
मार्क्सवाद के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों को सामूहिक मानवीय श्रम द्वारा मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया ही मानव समाज के गठन का आधार है। भिन्न-भिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं में एक ही चीज़ है जो बिना किसी अपवाद सामान्य रूप से विद्यमान है और वह है उत्पाद में अन्तर्निहित संचित श्रम। अर्थात सामाजिक रूप से आवश्यक वह श्रम जो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पदार्थ को विभिन्न चरणों में परिवर्तित कर अंततः उत्पाद के रूप में किसी मानवीय मांग की आपूर्ति करता है। मांग का उद्गम शारीरिक है या वैचारिक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। समय के साथ-साथ मानव के संचित सामूहिक ज्ञान में इज़ाफा होता जाता है और इसके साथ ही बढ़ती जाती हैं उत्पादक शक्तियाँ। मानव समाज का सामूहिक ज्ञान और उत्पादक शक्तियां एक दूसरे की पूरक हैं और दोनों का निरंतर विकास प्रकृति का शाश्वत नियम है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही श्रम शक्ति की उत्पादकता भी बढ़ती जाती है।

उत्पादक शक्तियों के बढ़ने के साथ ही अस्तित्व में आया श्रम-विभाजन। जहां पहले जीवनोपयोगी सारे उत्पाद एक ही परिवार या समूह द्वारा पैदा किये जाते थे और समूह की न्यूनतम माँगों की आपूर्ति ही कर पाते थे वहीं अब एक परिवार एक ही उत्पाद बनाने लगा था पर उसकी मात्रा अनेकों परिवारों तथा समूहों की बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति करने में सक्षम थी। श्रम विभाजन के साथ ही अस्तित्व में आ गई विभिन्न उत्पादक-उपभो़क्ताओं के बीच उत्पादों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया। उस स्तर पर सामाजिक संरचना में हर व्यक्ति एक समय पर उपभोक्ता के रूप में था तो किसी और समय पर उत्पादक के रूप में। इस कारण आदान-प्रदान की प्रक्रिया में उत्पादों की तुलनात्मक मात्रा सहज और अनजाने ही उनमें निहित संचित श्रम के आधार पर तय हो जाती थी। सामाजिक रूप से मान्य आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया में उत्पादों की तुलना का मापदंड, उनमें अन्तर्निहित सामाजिक रूप से आवश्यक मानवीय श्रम, सामाजिक चेतना का अंग था और उसके लिए किसी अनुपयोगी भौतिक पदार्थ की ज़रूरत नहीं थी।
अगले चरण में उन्नत औज़ारों तथा यातायात के साधनों के कारण उत्पादन और आदान-प्रदान उस स्तर पर पहुँच गये जहाँ हर उत्पादक को हर उत्पाद की जरूरत नहीं थी और उत्पादक-उपभोक्ता के बीच सीधा संबंध संभव नहीं रह गया था। इसलिए आवश्यकता हुई एक बिचौलिए की जो उत्पादकों से उत्पाद लेकर उपभोक्ताओं तक पहुंचा सके और अपनी सेवाओं के बदले अपनी ज़रूरत के उत्पाद हासिल कर सके। उत्पादन-उपभोग की श्रंखला में न केवल कामगार का उत्पादक कार्य बल्कि उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुँचाने में लगने वाला बिचौलिये का कार्य भी, प्राकृतिक पदार्थों को मानवीय उपभोग के लिए परिवर्तित करने की प्रक्रिया का ही एक चरण हो गया और कामगार के उत्पादक श्रम के साथ उसका श्रम भी उत्पाद में अन्तर्निहित संचित मानवीय श्रम का हिस्सा हो गया। अब मानव समाज के गठन का आधार उत्पादन-उपभोग की श्रंखला से बढ़ कर उत्पादन-वितरण-उपभोग की श्रंखला में बदल गया। जीवनोपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान का स्थान ले लिया उत्पादों के विनिमय ने।        
निरंतर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही बिचौलिये को निरंतर बढ़ती मात्रा में विविध प्रकार के ऐसे उत्पादों का विनिमय करना होता था जिनका उसके अपने लिये कोई उपयोग नहीं था इसलिए आवश्यकता थी सर्वमान्य एक ऐसे उत्पाद की जिसके बदले में सभी उत्पादों का आदान-प्रदान किया जा सके। अपने भौतिक गुणों के कारण सोने-चाँदी ने वह आवश्यकता पूरी की और उत्पादों के आपसी आदान-प्रदान का स्थान ले लिया क़ीमती धातुओं के माध्यम से होने वाले विनिमय ने।
  धीरे-धीरे सभी उत्पादों का विनिमय सोने-चाँदी के बदले में होने लगा। और उत्पादक, उपभोक्ता और  बिचौलिया सभी उत्पादों का उपयोगी मूल्य उनमें अंतर्निहित संचित मानवीय श्रम के रूप में न देख कर सोने-चांदी की मात्रा के रूप में देखने लगे। शनै-शनै सामाजिक चेतना में विनिमय मूल्य ही मूल्य का पर्याय बन गया।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ श्रमिक उससे कहीं अधिक मूल्य पैदा करने लगता है जितना उसके स्वयं के रख रखाव तथा निरंतरता के लिए आवश्यक उत्पादों का कुल मिलाकर होता है। दूसरे शब्दों में वह 'अतिरिक्त मूल्य' पैदा करने लगता है। सोने-चाँदी की निश्चित मात्रा के बदले में कामगार, उत्पादक के तौर पर बिचौलिये को जितना संचित-श्रम सौंपता है, अपभोक्ता के तौर पर उससे कम पाता है। अर्थात कामगार के लिए किसी भी उत्पाद का क्रय मूल्य उसके विक्रय मूल्य से अधिक होता है। इसके बिल्कुल उलट बिचौलिया कम क़ीमत पर ख़रीद कर उसी उत्पाद को अधिक क़ीमत पर बेचता है। बिचौलिये को होने वाली कमाई का संबंध उसके श्रम से न हो कर उसके द्वारा ख़रीदे और बेचे गये उत्पादों के मूल्य के अंतर से हो गया है। जितना ज़्यादा विनिमय उतनी ही अधिक कमाई।
उत्पादन-उपभोग की प्रक्रिया में श्रम विभाजन के आधार पर उत्पादक तथा बिचौलियों की मौजूदगी के वाबजूद, उत्पाद का वितरण आदान-प्रदान के आधार पर होने के कारण, अभी तक समाज आर्थिक हितों के आधार पर वर्गों में विभाजित नहीं था क्योंकि हर कोई किसी न किसी रूप में उत्पादक था। पर उत्पादों का वितरण विनिमय मूल्य के आधार पर होने के कारण बिचौलिये का हित उसके श्रम से असंबद्ध हो कर अतिरिक्त मूल्य से संबद्ध हो गया और अतिरिक्त मूल्य में उत्पादक तथा बिचौलिये के हित परस्पर विरोधी होने के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया, उत्पादक और बिचौलिया।
उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास सामाजिक-संरचना की प्रकृति है और जहाँ पहले कच्चे माल को उत्पाद में परिवर्तित करने की प्रक्रिया एक ही कामगार द्वारा पूरी की जाती थी वहीं अब पूरी प्रक्रिया अनेकों चरणों में बंट कर अनेकों कामगारों द्वारा पूरी की जाने लगी। कई चरणों में बंटी प्रक्रिया ने जहां प्रत्यक्ष रूप से कामगारों को विभाजित किया वहीं परोक्ष तौर पर पूरी उत्पादन क्रिया ने अवचेतन स्तर पर कामगारों को एक किया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ, श्रमिक, श्रम-विभाजन और यांत्रिक तथा स्वचलित मशीनों के प्रयोग के कारण, एक निश्चित श्रम-काल में, पहले के मुकाबले कहीं अधिक उत्पाद पैदा करने लगता है और हर उत्पाद में पहले के मुकाबले कम श्रम अंतर्निहित होने लगता है अर्थात उत्पादों का मूल्य कम होता जाता है।
 धीमे-धीमे उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में होने लगा कि उत्पादों का विनिमय समाज की भौगोलिक सीमाओं के पार अपरिहार्य हो गया। विस्तृत विनिमय ने क़बीलाई सीमाओं को तोड़ कर राज्यों के गठन का रास्ता खोल दिया। राज्यों के गठन के साथ क़बीलाई सत्ता का स्थान राजसत्ता ने ले लिया।
भौतिक उत्पाद होने के नाते सोना-चाँदी उपभोग की वस्तुएँ भी थीं और अलग-अलग क्षेत्रों में तकनीकी विकास का स्तर अलग-अलग होने के कारण उनका मूल्य भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होता था। विनिमय के क्षेत्र के भौगोलिक विस्तार के कारण सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई के आधार पर होने वाले विनिमय में विसंगतियाँ पैदा होने लगीं। और विसंगतियों को दूर करने के लिए राज्य द्वारा प्रमाणित मानक इकाई अर्थात सिक्के या मुद्रा ने विनिमय के मानक के रूप में सोने-चाँदी की मात्रात्मक इकाई का स्थान ले लिया। राज्य द्वारा प्रमाणित होने के कारण मुद्रा के भौतिक स्वरूप (अधिरचना) का प्रतिबिंब सामाजिक चेतना में मुद्रा के मूल्य (आंतरिक रचना) का पर्याय बनता चला गया और वास्तविक मूल्य उसके विनिमय मूल्य से असंबद्ध होता चला गया और अंततः सामाजिक रूप से स्वीकार्य मुद्रा के विनिमय मूल्य का सिक्कों में अंतर्निहित संचित श्रम अर्थात सोने-चाँदी की मात्रा से कोई संबंद्ध नहीं रह गया। अब विनिमय की मानक मुद्रा का रूपांतरण एक भौतिक उत्पाद की जगह सामाजिक-वैचारिक उत्पाद के रूप में हो गया। अब मुद्रा पर्याय हो गई सामाजिक रूप से मान्य इस आश्वासन की कि राजसत्ता के द्वारा सत्यापित मुद्रा के बदले में निश्चित मानवीय श्रम हासिल किया जा सकता है - पहले से किया जा चुका संचित श्रम, उत्पाद के रूप में, या भविष्य में श्रम-शक्ति द्वारा निर्धारित समय में किया जा सकने वाला श्रम, मज़ूरी के रूप में।
सामाजिक रूप से मान्य आश्वासन के साथ उत्पाद के मूल्य ने, उत्पाद के भौतिक स्वरूप अर्थात उसमें अंतर्निहित संचित-श्रम से पूरी तरह से असंबद्ध, सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। मुद्रा का भौतिक स्वरूप कुछ भी हो उसका स्वयं का, क़ीमत या विनिमय के मानक की इकाई के रूप में, मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक वस्तु है, राजसत्ता के आश्वासन का पर्याय। इसके साथ ही एक और नई परिस्थिति पैदा हुई। पहले मानवीय-श्रम मुद्रा के भौतिक अस्तित्व से संबद्ध था इस कारण बिचौलियों के पास संपत्ति के रूप में संचित मानवीय श्रम की सीमा थी और हेराफेरी की संभावना कम थी पर मानवीय-श्रम के, मुद्रा के राजसत्ता प्रदत्त आश्वासन के वैचारिक स्वरूप के साथ संबद्ध हो जाने के कारण हेराफेरी करना आसान हो गया था। पहले प्राकृतिक संपदा सामूहिक स्वामित्व में होने के कारण कामगार को सहज सुलभ थी और उत्पादन के औज़ार कामगार के स्वामित्व में थे इस कारण उत्पाद और उसमें अंतर्निहित अतिरिक्त मूल्य भी कामगार के आधिपत्य में रहता था पर अब बदली हुई परिस्थिति में बिचौलियों ने राजसत्ता की मदद से प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण करना शुरु कर दिया। इसके साथ ही संचित संपत्ति पर अधिकार के चलते उत्पादन के साधनों में विकास का सारा फ़ायदा भी बिचौलियों को ही मिलने लगा और पूरी उत्पादन-वितरण प्रक्रिया बिचौलियों के नियंत्रण में सिमटने लगी। बिचौलियों ने राजसत्ता के साथ मिलकर हेराफेरी करना और नये उन्नत उत्पादन के साधनों के ज़रिए सस्ते मूल्य पर उत्पादन करना शुरु कर दिया। फलस्वरूप पारंपरिक उत्पादन के साथ हस्तकारों का प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव हो गया। श्रम के औज़ारों के बिक जाने के बाद कामगार के पास अपना जीवन चलाने के लिए अपनी श्रम-शक्ति के अलावा बेचने लायक कुछ भी नहीं बचा था।
अब बाज़ार में एक ओर बिचौलिया था जिसके पास निजी संपत्ति के रूप में उत्पादन के सारे साधन हासिल थे पर उत्पादन करने के लिए आवश्यक श्रम-शक्ति नहीं थी, और दूसरी ओर था श्रमिक जिसके पास श्रम-शक्ति तो थी पर श्रम के साधन नहीं थे जिनके ज़रिए वह उत्पादन कर अपने लिए जीवन के साधन जुटा सकता। और यहीं से शुरुआत होती है श्रम की जगह श्रम-शक्ति की ख़रीद-फ़रोख़्त की और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की। अब कामगार उत्पादक न हो कर स्वयं उत्पाद बन गया। मार्क्स के पहले के सभी अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को पहचानने में नाकाम रहे। ग़ैर-मार्क्सवादी अभी भी नहीं समझ पाते हैं कि श्रमिक को दी जाने वाली मज़दूरी उसकी श्रम-शक्ति की एक निश्चित अवधि की क़ीमत होती है न कि उस अवधि में श्रम-शक्ति द्वारा उत्पाद में अंतरित किये गये श्रम के रूप में पैदा किये गये मूल्य की।
मार्क्सवाद के अनुसार मानव समाज एक जैविक संरचना है, अपने अवयवों से गुणात्मक रूप से भिन्न। एक सामाजिक-आर्थिक संरचना जिसके मानव रूपी अवयव जीवन निर्माण और निरंतरता की जैविक प्रकृति के कारण सामाजिक-आर्थिक क्रिया-कलापों के ज़रिए एक दूसरे जुड़े रहते हैं। यह जुड़ाव मूलत: वैचारिक है और इस कारण यह जैविक संरचना एक वैचारिक चेतना है जिसका अपना भौतिक स्वरूप कोई नहीं है पर भौतिक आधार मानवीय इकाइयाँ हैं जिनके सामूहिक व्यवहार के ज़रिए उसका प्रकटीकरण होता है। समाज की सामूहिक चेतना मानव की व्यक्तिगत चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न है। एक व्यक्ति अलग-अलग समय पर या एक ही समय पर, गुणात्मक रूप से भिन्न दो अलग-अलग सामाजिक चेतनाओं का वाहक हो सकता है। इस कारण आज भी एक ही राज्य की सीमाओं के अंदर तीनों विभिन्न प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी देखी जा सकती है। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से अनभिज्ञ होने के कारण सभी वामपंथी तथा ग़ैर-मार्क्सवादी समाज की संरचना को सही-सही समझ पाने में असमर्थ हैं।
 पूँजीवादी समाज एक विशिष्ठ सामाजिक-आर्थिक संरचना (Socio-economic Formation) है, और पूँजीवाद उसकी चेतना है। इस समाज की भौतिक-सामाजिक चेतना (Material-social Consciousness) का भौतिक आधार है संपदा और उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व में, ग़ैर-कामगारों के हाथों में होना, न केवल स्वामी के जीवनकाल में बल्कि मृत्यु के बाद भी वसीयत के अधिकार के रूप में। और जिसकी वैचारिक-सामाजिक चेतना (Ideological-social Consciousness) का आधार है उत्पादन संबंध, उद्यमी तथा सर्वहारा के बीच संबंध जो इस अवधारणा पर आधारित है कि उत्पादन प्रक्रिया की चालक शक्ति उद्यमी की इच्छा शक्ति है न कि श्रमिक की श्रम-शक्ति, और मज़दूर को दी जाने वाली मजूरी उसके श्रम की क़ीमत है न कि एक निश्चित कार्य-काल के लिए ख़रीदी गयी उसकी श्रम-शक्ति की। और इस कारण मज़दूर के द्वारा उत्पाद में जोड़े गये श्रम अर्थात उस के मूल्य में की गई वृद्धि पर मालिक का पूरा-पूरा हक़ है न कि श्रमिक का। इस कारण श्रमिक को उसकी श्रम-शक्ति का मूल्य चुकाने के बाद बचा हुआ अतिरिक्त मूल्य मुनाफ़े के रूप में पूँजी के लागत मूल्य में जुड़ जाता और संचित मूल्य के रूप में पूँजी के निरंतर इज़ाफ़े का आधार है़। इस सामाजिक-चेतना में निजी स्वामित्व की अवधारणा का मूर्त रूप है पूँजीपति और साधन-रहित श्रम-शक्ति का मूर्त रूप है सर्वहारा। पूँजीवाद की अंतर्वस्तु है पूँजीवादी उत्पादन-संबंध अर्थात उत्पादन प्रक्रिया में पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे में इच्छा-शक्ति तथा श्रम-शक्ति के बीच संबंध, यानि साधन-संपन्न निजी स्वामित्व की अवधारणा तथा साधन-वंचित श्रम-शक्ति के बीच अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन तथा बँटवारे में उनका अंतर्संबंध, और उसकी अधिरचना है राजसत्ता तथा वे सारे प्रतिष्ठान जो पूँजीवादी समाज को जीवन-शक्ति तथा निरंतरता प्रदान करते हैं। वामपंथियों की सारी नासमझी का कारण है अधिरचना को अंतर्वस्तु समझ लेना।
वामपंथियों की समझ की एक और बड़ी कमी है, वह है उनकी पूँजी के बारे में समझ। वे न पूँजी और संपत्ति के भेद को समझते हैं और न पूँजी की अंतर्वस्तु और अधिरचना में भेद कर पाते हैं। संपत्ति संचित श्रम की निष्क्रिय अवस्था है जो निष्क्रिय होने के कारण स्वत: वृद्धि में सक्षम नहीं है। पूँजी संचित-श्रम की सक्रिय अवस्था है जिस के अंतर्गत संचित-श्रम या मूल्य, उत्पाद के उत्पादन-उपभोग-चक्र की चालक शक्ति के रूप में, अपनी सक्रिय भूमिका के जरिए श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हासिल कर स्वयं की वृद्धि करता है।
उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पाद्य (Object of labour) तथा श्रम-साधन (Means of labour) में पहले से किया जा चुका संचित-श्रम उत्पाद में हस्तांतरित होता है जब कि श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया श्रम उत्पाद में अंतरित होता है। हस्तांतरण में लागत के रूप में मूल्य का एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर केवल स्थांतरण होता है, नया मूल्य पैदा नहीं होता है। लागत पूँजी श्रम-साधन से उत्पाद्य में हस्तान्तरित होती है, उस के मूल्य में कोई इज़ाफ़ा नहीं होता है। पर श्रम-शक्ति द्वारा पैदा किया गया मूल्य, श्रम-शक्ति ख़रीदने के लिए मजूरी के रूप में श्रमिक को भुगतान किये गये मूल्य से अधिक होता है और यही वह अतिरिक्त मूल्य है जो पूँजी के स्व-विस्तार का आधार है। यही अतिरिक्त मूल्य है जो मुनाफ़े के रूप में उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया में लगी पूँजी के विभिन्न रूपों के बीच बँटता है। इसी की बंदरबाँट के लिए विभिन्न पूँजीपति निरंतर संघर्षरत रहते हैं। बड़ा पूँजी समूह अपनी बड़ी ताक़त के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का बड़ा हिस्सा हड़प लेता है और इसी प्रक्रिया के ज़रिए पूँजी का विस्तार तथा एकत्रीकरण होता रहता है।
 जैसा ऊपर दर्शाया गया है राजसत्ता के आश्वासन के साथ उत्पादों के मूल्य ने पूरी तरह सामाजिक-वैचारिक चेतना में अवस्थित एक विचार का रूप ले लिया और मुद्रा उस विचार का मूर्त रूप बन गई। पूँजी के एकत्रीकरण के साथ-साथ पूँजी के केंद्र, महाजन तथा बैंक स्वयं इतने शक्तिशाली हो गये कि उनके स्वयं के आश्वासनों ने राजसत्ता के आश्वासनों की भूमिका निभाना शुरु कर दिया। पूंजीवाद के शुरुआती दौर में पूंजी वितरण के क्षेत्र में ही सक्रिय थी इस कारण अतिरिक्त मूल्य पूरी तरह उसके आधिपत्य में नहीं था। पर श्रम-साधनों के विकास और सर्वहारा के प्रसार के साथ पूँजी ने उत्पादन के क्षेत्र पर भी अधिकार करना शुरु कर दिया। अब मूल्य के उत्पादन और वितरण दोनों पर अधिकार होने के साथ ही पूँजी ने समाज की वैचारिक-चेतना को भी अपने प्रभाव में ले लिया। समाज की वैचारिक-चेतना में वर्चस्व हासिल करने के साथ ही पूँजीवाद ने सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के पारंपरिक उत्पादन आधार तथा संबंधों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ पूंजी के लिए राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमायें बेमानी होने लगीं। आर्थिक गतिविधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप हासिल कर लेने के बाद राजसत्ता के आश्वासनों का स्थान महाजनों और बैंकों के आश्वासनों ने ले लिया और मूल्य के मूर्त रूप का स्थान महाजनों की हुंडियों और बैंकों की गारंटियों ने।
औद्योगिक विकास एक साथ अलग-अलग राज्यों में होने के साथ-साथ पूँजी के भी अलग-अलग केंद्र विकसित होने लगते हैं। शुरुआती दौर में पूँजीवाद को अपने विकास और सुरक्षा के लिए राज्य की भौतिक शक्ति की आवश्यकता थी और उसे राज्य की स्वायत्तता के अंतर्गत रहना पड़ता था। पूंजी के अलग-अलग केंद्रों की पहचान अपने-अपने राज्य के भौतिक अस्तित्व से की जाती थी। असमान विकास के कारण पूँजी के अलग-अलग केंद्रों के बीच संघर्ष राज्यों के बीच संघर्ष के रूप में प्रकट होता है। पर अपनी उच्चतम अवस्था में पहुंचने पर पूंजी का चरित्र स्थानीय से हट कर वैश्विक हो जाता है, मूल्य के मानक राज्य के आश्वासन की जगह महाजनों तथा बैंकों के आश्वासन ले लेते हैं। बड़ी पूंजी का छोटी पूँजी के ऊपर प्रभुत्व, अपने भौतिक स्वरूप में बड़े साम्राज्यों के अपने उपनिवेशों के ऊपर वित्तीय तथा आर्थिक आधिपत्य के रूप में नज़र आता है।
अलग-अलग राज्यों में राजसत्ता समर्थित मुद्रा अभी भी उत्पादन-वितरण का माध्यम थी पर ब्रेटन-वुड्स समझौते के अंतर्गत मूल्य का मानक अमेरिकी डालर स्वीकार कर लिए जाने के बाद पूँजी के लिए अबाध अंतर्राष्ट्रीय गतिविधि का रास्ता भी साफ़ हो गया। अब पूँजी का वैश्विक स्वरूप पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक चेतना का हिस्सा हो गया था, उत्पादों के किसी भी भौतिक स्वरूप से पूरी तरह असंबद्ध, राजसत्ताओं द्वारा समर्थित मुद्रा से भी असंबद्ध। उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया का क्षेत्र वैश्विक हो जाने के कारण अब उत्पादन-वितरण-उपभोग प्रक्रिया की चालक-शक्ति के रूप में पूँजी का कार्यक्षेत्र पूरी तरह से दो भिन्न स्तरों में बंट गया है।
किसी भी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के अंदर विनिमय मूल्य का मानक मुद्रा ही है, और पूँजी का कार्य है उत्पादन-वितरण-उपभोग की प्रक्रिया के संचालन के लिए उत्पादन के साधन और श्रम-शक्ति जुटाने के लिए आवश्यक संचित श्रम अर्थात मूल्य यानि मुद्रा की व्यवस्था करना।
 उत्पादक-शक्तियों के भौतिक स्वरूप के संचालन के लिए मूल्य के मूर्त रूप मुद्रा के प्रबंधन के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूँजी के कार्य का आयाम पूरी तरह वैचारिक-सामाजिक-चेतना के दायरे में सीमित हो गया है, - विभिन्न राज्यों के बीच मूल्य के निर्बाध आवागमन के लिए मुद्रा की व्यवस्था और प्रबंधन करना, भौतिक स्तर पर न हो कर वैचारिक स्तर पर-, और इस प्रक्रिया में मुद्रा स्वयं एक विनिमय उत्पाद बन जाती है। श्रम-शक्ति द्वारा अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन एक राष्ट्र-राज्य की सीमा के अंदर ही किया जाता है पर उसका विनिमय और वितरण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है। इस कारण एकीकृत वित्तीय पूँजी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रा की ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए अतिरिक्त-मूल्य को बटोरने लगती है। अब एकीकृत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की रुचि केवल मुद्रा के स्वामित्व में रह गई है। उत्पादन के भौतिक साधनों का स्वामित्व व्यापक स्तर पर शेयर तथा स्टॉक के रूप में आम जनता को सौंप कर, अब पूँजी की रुचि रह गई है व्यापक जनता की अवचेतना में निजी स्वामित्व के विचार को सुदृढ़ कर पूँजीवादी वैचारिक-सामाजिक-चेतना का आधार पुख़्ता करना ताकि अतिरिक्त मूल्य का विनियमन तथा पूँजी के साथ विलय सहज सुचारू चलता रहे।
उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था उस स्तर पर पहुँच चुकी है जहां एक उत्पादन केंद्र लाखों करोड़ों उपभोक्ताओं की मांग की आपूर्ति करता है और इस कारण ज़रूरी है कि वितरण व्यवस्था भी उसी स्तर तक विकसित तथा केंद्रीकृत हो। जहाँ पहले कुछ एक ग्राहकों की रोज़ाना की ज़रूरतों की आपूर्ति छोटी-छोटी दुकानों के ज़रिये पूरी की जाती थी वहीं अब उपभोक्ता चाहता है कि उसकी सभी ज़रूरतों की आपूर्ति एक ही माॅल या स्टोर के ज़रिए हो जाय।। मल्टी ब्रांड का खुदरा वितरण एक बड़े स्टोर या माॅल द्वारा करने पर बिचौलिए तथा उपभोक्ता दोनों के श्रम तथा समय दोनों की बचत होती है इससे वितरण प्रक्रिया में उत्पाद में जुड़ने वाले मूल्य में कटौती होती है। ज़ाहिर है छोटे दुकानदार के ज़रिए उपभोक्ता तक पहुं़चने वाले उत्पाद के मुक़ाबले बड़े स्टोर या माॅल के ज़रिए पहुँचने वाले उत्पाद का मूल्य कम होता है । साथ ही गुणवत्ता की आश्वस्तता के कारण तथा अपने स्वयं के समय तथा श्रम की बचत के कारण ग्राहक अधिक क़ीमत देने के लिए भी तैयार रहता है। उस स्तर की वितरण व्यवस्था की स्थापना, विशाल पूँजी निवेश तथा विकसित वितरण व्यवस्था के विशिष्ट तकनीकी ज्ञान के बिना असंभव है।
ज़ाहिर है मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना विकसित होती भारतीय अर्थव्यवस्था, विशाल बाज़ार तथा उपभोक्ता की आकाँक्षा के पूरी तरह अनुकूल है। पूंजी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्तर हासिल कर लेने के बाद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि खुदरा व्यापार में निवेशित पूँजी का नियंत्रण करने वाला संस्थान देश में स्थित है या देश के बाहर स्थित है। उपभोक्ता तो हर कोई है और उनकी तुलना में छोटे बिचौलियों की संख्या नगण्य है। इस कारण मल्टी ब्रांड के खुदरा व्यापार में बड़े-बड़े माॅल तथा स्टोर की स्थापना का किसी भी रूप में विरोध जन आकांक्षाओं के विरुद्ध होने के कारण असफल होने के लिए अभिशप्त है।
बड़े स्तर की वितरण व्यवस्था के मुकाबले में प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए छोटे दुकानदार के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपना जीवन स्तर घटाये और इसके ज़रिए वितरण में लगने वाली अपनी श्रम-शक्ति का तथा अपने श्रम का मूल्य घटाये। वह अपनी निम्न-मध्य वर्गीय मानसिकता के कारण 14 घंटे रोज़ ख़र्च की गई अपनी श्रम-शक्ति तथा माल की ढुलाई में ख़र्च किये गये अपने श्रम के सही मूल्याँकन से अनजान, बड़ी पूंजी की संघठित वितरण व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा में, निरंतर अपने जीवन स्तर को घटा कर ही टिका रह पाता है।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी ने छोटे दुकानदार को भी, अपनी निम्न-मध्य-वर्गीय मानसिकता के बावजूद, सर्वहारा के समकक्ष खड़ा कर दिया है। निम्नतम स्तर पर भी अपने संस्थान के निजी स्वामित्व की अवधारणा के कारण छोटा दुकानदार निम्न मध्य-वर्गीय मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पाता है और अनजाने ही पूँजीवादी चेतना का वाहक बना रहता है। सर्वहारा वर्ग का दायित्व है कि वह छोटे दुकानदार को समझाये कि उसके अपने हित में है कि वह पूँजीवादी नज़रिये को छोड़ कर सर्वहारा के नजरिये को अपनाये क्योंकि यही मानव समाज के हित में है। और इस रूप में मार्क्सवादियों को मल्टी-ब्रांड उत्पाद के खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का समर्थन करना चाहिये ताकि भौतिक परिस्थितियाँ पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को बेनक़ाब कर सर्वहारा वर्ग की एकजुटता को मज़बूत कर सकें।

सुरेश श्रीवास्तव
जनवरी, 2013


तीसरे मोर्चे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

(मार्क्स दर्शन के जुलाई-सितम्बर 2012 में छपे लेख का सारांश)

तीसरे मोर्चे का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
(सुरेश श्रीवास्तव)

इस अंक में हम सुरेश श्रीवास्तव का एक लंबा लेख छाप रहे हैं। इस लेख के अंश अलग-अलग पहले भी छप चुके हैं। एक अंश हंस के फरवरी 2004 के अंक में चुनाव से ठीक पहले छपा था तथा 2009 के चुनाव से ठीक पहले पूरा लेख एक पैंफलेट के रूप में छपा था। जिस गलती के प्रति इन लेखों में आगाह किया गया था और जिसे वामपंथी नेतृत्व बार-बार दोहराता रहा है वह है, संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों का गलत विश्लेषण और जिसका मूल कारण है नेतृत्व की मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ। 2014 के चुनाव से पहले यह पेंफलेट हूबहू फिर से छापा जा रहा है क्योंकि वामपंथी नेतृत्व फिर उन्हीं गलतियों को दोहराने पर आमादा है - बुर्जुआ संसद में कुछ सीटें हासिल करने के लिए अवसरवादी पार्टियों के साथ अवसरवादी समझौते और उन समझौतों के सत्यापन पर काडर की मुहर के मकसद से काडर को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए वही घिसी-पिटी दलीलें।
            लेनिन ने लिखा था बेझिझक एक गलती को स्वीकार करना, उसके कारणों को सुनिश्चित करना, उन परिस्थितियों का विश्लेषण करना जिनके कारण गलती हुई, और उसके सुधार के उपायों को ढूंढना - यह एक गंभीर पार्टी का मानदंड है। इस कसौटी पर भारतीय वामपंथियों ने साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि एक गुट हैं, जनता की पार्टी नहीं हैं, बल्कि बौद्धिकवादियों तथा कुछ कामगारों जो बौद्धिकवाद के निकृष्टतम लक्षणों की नकल करते हैं, की एक मंडली भर हैं।
            मार्क्स ने लिखा था इतिहास अपने को दोहराता है पर पहली बार वह त्रासदी होता है और दूसरी बार फरेब। वामपंथी नेतृत्व ने अपने काडर तथा मेहनतकश जनता के साथ बार-बार फरेब किया है।
                        इस पैंफलेट के अंत में लिखा गया था सांप्रदायिकता के हमले से बचने के लिए भाजपा के विरोधी के रूप में कांग्रेस को समर्थन कर उसे मजबूत करना गलत होगा। आज के संदर्भ में जोड़ा जा सकता है और संशोधनवादी नजरिए के कारण मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का विरोध करने के लिए कांग्रेस के विरोधी के रूप में सुषमा स्वराज द्वारा पेश किये गये प्रस्ताव का समर्थन कर भाजपा को मजबूत करना गलत होगा। यहां प्रासंगिक होगा जो लेनिन ने संशोधनवादियों के फरेब को उजागर करते हुआ लिखा था। ध्वस्त प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के अवशेषों पर लघु-उत्पादन अपने आप को, निरंतर गिरते पोषण स्तर के द्वारा, दीर्घकालिक भुखमरी के द्वारा, लम्बे होते कार्य दिवस के द्वारा तथा पशुधन की गुणवत्ता तथा देख-भाल में ह्यास के द्वारा, बरकरार रख पाता है, एक शब्द में, उसी प्रणाली के द्वारा जिस के द्वारा हस्तशिल्प उत्पादन ने पूंजीवादी उत्पादन से मुक़ाबले में अपने को थामे रखा था। पूंजीवादी समाज में विज्ञान तथा तकनीकी की हर प्रगति अनिवार्य रूप से बिना किसी मुरव्वत के लघु-उत्पादन के आधार को खोखला करती है, और यह समाजवादी राजनैतिक अर्थशास्त्री का दायित्व है कि इस प्रक्रिया, अक्सर क्लिष्ट तथा पेचीदी, की उसके सभी रूपों में पड़ताल करे और लघु-उत्पादक को दर्शाए कि पूंजीवाद के तहत उसका अपने बल पर बचे रहना असंभव है, पूंजीवादी व्यवस्था के तहत कृषक आधारित कृषि-उत्पादन का कोई भविष्य नहीं है और किसान के लिए सर्वहारा के दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। इस प्रश्न पर संशोधनवादियों ने अपराध किया है, वैज्ञानिकता के अर्थ में, एकपक्षीय तथ्यों को चुन कर और संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के संदर्भ से काट कर सतही तौर पर सर्वव्यापक दिखा कर। राजनैतिक दृष्टिकोण से उन्होंने अपराध किया है इस तथ्य के आधार पर कि चाहे या अनचाहे उन्होंने किसानों को, क्रांतिकारी सर्वहारा के नजरिये की जगह छोटे मालिकों के नजरिये को (अर्थात बुर्जुआ नजरिये को) अपनाने का आग्रह किया।
हम आशा करते हैं कि वामपंथी पार्टियों का काडर, संशोधनवादी रुझानों (दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दोनों) को समझने के लिए मार्क्सवाद के सभी आयामों विशेषकर दार्शनिक आयाम की सही समझ हासिल करेगा और अपने नेतृत्व की आलोचना करने से परहेज नहीं करेगा।
संपादक
************
तीसरा मोर्चा : समय की मांग

सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व वित्तीय पूंजी के केंद्रीकरण में शोषक वर्ग के विभिन्न समूहों में टकराहट की जगह एकजुटता नजर आती है जिसमें बहुत से बुद्धिजीवी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के चलते मार्क्स की ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा को नकारते हुए इतिहास के अंत की घोषणा कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि किन्हीं पड़ावों पर शोषक वर्ग की जीत की संभावना मार्क्सवादी चिंतन और विश्लेषण के लिए अनहोनी नहीं है।
            अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए औरों के साथ मिलकर समूह का गठन मानव की एक सहज क्रिया है। सामाजिक विकास के साथ मानव की दिनचर्या में विभिन्न कार्य-कलापों की संख्या भी बढ़ती गई है और साथ ही समूहों की भी। इस  कारण समाज विभिन्न समूहों में बंटा नजर आता है तथा हर व्यक्ति अनेकों समूहों में मौजूद नजर आता है। एक व्यक्ति का हित दूसरे व्यक्ति के हित का एक समूह में पूरक हो सकता है तो दूसरे में विरोधी और यह इस पर निर्भर करेगा कि उसके उद्देश्य की पूर्ति सहयोग से होती है या विरोध से। जो चीज व्यक्ति पर लागू होती है वही समूह पर भी लागू होती है अर्थात समूहों में भी सहयोग तथा विरोध की स्थिति हो सकती है। चूंकि मानव के अस्तित्व तथा जीवन का आधार प्राकृतिक तथा मानव निर्मित संसाधनों के उपयोग पर निर्भर है इस कारण जिस समाज में प्राकृतिक तथा मानव निर्मित संसाधनों पर कुछ लोगों का स्वमित्व होता है और शेष को संसाधनों के उपयोग के लिए उनके रहमो-करम पर निर्भर रहना होता है उस समाज में संपन्न-वर्ग तथा वंचित-वर्ग के बीच हमेशा संघर्ष की स्थिति रहेगी।
            प्रत्यक्ष रूप से अनेकों सामूहिक गतिविधियां सामूहिक संसाधनों के उपभोग से असंबद्ध नजर आती हैं पर परोक्ष में सभी व्यक्तियों तथा समूहों की सभी गतिविधियां किसी न किसी रूप में सामूहिक संसाधनों के स्वामित्व तथा उपभोग के विचार से प्रभावित रहती हैं। शोषण व्यवस्था को व्यवस्थित करने के उद्देश्य से अन्य समूहों के मुकाबले राजसत्ता, समाज की विकास प्रक्रिया में सबसे शक्तिशाली संरचना के रूप में उभरी है। शुरुआती दौर में शोषण व्यवस्था को कायम रखने के लिए राजसत्ता के लिए हिंसा का प्रयोग आसान था पर शोषित वर्ग की जागरूकता तथा एकजुटता बढ़ने के साथ-साथ हिंसा का प्रयोग कठिन होता चला गया। संघर्ष की तीव्रता कम करने के उद्देश्य से शोषक वर्ग ने राष्ट्र राज्य की अवधारणा विकसित की और शोषित वर्ग को भ्रमित करने के लिए लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था सबसे अधिक कारगर साबित हुई है।
            समाज पर नियंत्रण तथा उसके संचालन के लिए राजसत्ता सबसे शक्तिशाली संरचना है इसीलिए हर वर्ग या समूह राजसत्ता पर नियंत्रण के लिए अपने-अपने हितों के अनुरूप राजनैतिक समूहों का गठन करता है। सभी राजनैतिक समूहों का अंतिम लक्ष्य राजसत्ता पर काबिज होना है। सभी राजनैतिक दल अपने कार्य-कलापों मे अपनी-अपनी विचारधारा द्वारा संचालित होते हैं। किसी भी राजनैतिक दल की विचारधारा का विकास उसके सदस्यों के विचारों और स्वार्थों तथा उसके अन्य सामाजिक समूहों के साथ अंतवर््यवहार पर निर्भर करता है। चूंकि हर व्यक्ति तथा हर समूह की मानसिकता सामूहिक संसाधनों के स्वामित्व तथा उपभोग के प्रश्न से किसी न किसी रूप में जुड़ी होती है इस कारण हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में राजनैतिक समूहों को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है।
            जैसा कि पहले दर्शाया गया है वर्ग विभाजित समाज में संघर्ष दो स्तर पर कार्यरत है। एक ओर तो शोषित वर्ग शोषक वर्ग के विरुद्ध संघर्षरत है दूसरी ओर शोषक वर्ग के विभिन्न समूहों में आपसी संघर्ष है। पहले संघर्ष के लिए शोषक वर्ग शोषित वर्ग को भ्रमित करने के लिए ऐसे संगठनों का समर्थन करता है जो शोषित वर्ग के हितों के लिए काम करते नजर आएं पर परोक्ष में शोषित वर्ग में विघटन पैदा कर शोषक वर्ग के हाथ मजबूत करें और शोषित वर्ग के संघर्ष को गुमराह करें।
            दूसरे संघर्ष के लिए भी विभिन्न समूहों का प्रादुर्भाव होता है। अपने वर्ग चरित्र के कारण एक ओर वे आपस में टकराते हैं तो दूसरी ओर शोषित वर्ग से। 
            यह विचार, कि जाति, भाषा, प्रदेश, धर्म आधारित समूहों के बीच हितों की टकराहट ही आम आदमी की दयनीयता और समस्याओं का मूल है, एक मायाजाल की भांति है जिसकी ओट में शोषक वर्ग शोषित वर्ग को विभिन्न समूहों में विभाजित करते हुए उसका शोषण जारी रख सकता है। समाज में शोषक वर्ग के लिए अन्य वर्गों के शोषण को वैध ठहराने के लिए आस्था आधारित धर्म सबसे उपयुक्त विचारधारा है और शोषित वर्गों के बीच वैमनस्य सबसे उपयुक्त साधन है।
            राजसत्ता की दौड़ और निजी टकराहट के चलते अनेकों राजनैतिक पार्टियां अस्तित्व में आती रहतीं हैं। वर्ग हितों के आधार पर सभी पार्टियां मूल रूप से दो खेमों में बंटीं होती हैं। एक वे जो शोषित वर्ग की एकजुटता को मजबूत करती हैं और दूसरी वे जो शोषित वर्ग की एकजुटता को कमजोर करती हैं। विचारधारा के आधार पर भी सभी राजनैतिक पार्टियां दो भागों में बंटीं होतीं हैं। एक वे जिनकी विचारधारा का मूल माकर््सवाद और दृष्टिकोण वैज्ञानिक है तथा दूसरी वे जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है। सभी राजनैतिक दलों, जिनकी विचारधारा का मूल धर्म व दृष्टिकोण अवैज्ञानिक है, में शोषक वर्ग का अपने हितों और संसाधनों के चलते वर्चस्व होता है। राजनैतिक दल जिनकी विचारधारा मार्क्सवाद आधारित और चिंतन वैज्ञानिक होता है, शोषित वर्ग के उद्धार में समाज का हित देखते हैं। इस कारण उनमें सर्वहारा वर्ग का वर्चस्व होता है।
            राजनैतिक परिवेश में अनेकों पार्टियां अपने वर्चस्व के लिए जूझती नजर आती हैं। गैर-मार्क्सवादी विचारधारा वाली पार्टियों की धक्का-मुक्की सैद्धांतिक भी हो सकती है पर विशेष रूप से निजी स्वार्थों की टकराहट के चलते ही होती है पर मार्क्सवादी विचारधारा वाली पार्टियों की धक्का-मुक्की मूलतः सैद्धांतिक ही है। वामपंथी पार्टियों के बीच मतभेद सामाज की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों के आंकलन में भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचने के कारण उपजते हैं।
            भारत एक राजनैतिक इकाई होने के बावजूद आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिकता के स्तर पर अनेकों राष्ट्रों का संघ है। शोषित वर्ग की लड़ाई के लिए सारे भारत को एकरूप अस्तित्व मान कर संघर्ष के लिए नीति तय करना वामपंथी पार्टियों की सबसे बड़ी भूल है। अनेकों वामपंथी पार्टियों की उपस्थिति जनता में भ्रम पैदा किए हुए है।
            राष्ट्रीय स्तर पर दो बुर्जुआ पार्टियों के विकल्प के बीच तथा क्षेत्रीय स्तर पर भी दो या दो से अधिक व्यक्तिवादी पार्टियों के विकल्प के बीच ही जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने की मजबूरी है। वामपंथी पार्टियों का दायित्व है कि वे आपस में एका पैदा करें और भारतीय जनता के सामने एक मार्क्सवादी विचारधारा आधारित विकल्प पेश करें। अनेकों वामपंथी पार्टियों के बीच अनेकों मतभेद हो सकते हैं पर उसके बावजूद न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर एकजुटता पैदा की जा सकती है। सबसे बड़ी पार्टी के नाते सीपीएम की जिम्मेवारी है कि सभी वामपंथी पार्टियों का आह्वान करे कि आम-सहमति के आधार पर न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करें जिसके आधार पर एक जुट होकर जनता के सामने तीसरा विकल्प पेश किया जा सके।
            न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा उसकी बेरोकटोक आवाजाही के लिए वैश्वीकरण की नीतियां शोषित वर्ग की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। कांग्रेस तथा भाजपा ऊपरी तौर पर सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे की विरोधी नजर आ सकती हैं पर मूल रूप में दोनों पार्टियां शोषक वर्ग की नुमाइंदगी करती हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के सबसे बड़े पैरोकार के नाते शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करने में एकजुट हैं। शोषित वर्ग की लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां प्रमुख मुद्दा है या उसके साथ-साथ सांप्रदायिकता भी अपने आप में महत्वपूर्ण मुद्दा है इस प्रश्न का उत्तर तीसरे विकल्प के लिए आम-सहमति का आधार तैयार करेगा।
            अगर सांप्रदायिकता को भी अपने आप में एक मुद्दा माना जाता है तो सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस से भी सहयोग करना होगा क्योंकि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का केंद्र संघ परिवार तथा उसका राजनैतिक दल भाजपा ही है और केंद्र में जनता के सामने उसका विकल्प कांग्रेस के अलावा कोई नहीं है। पर कांग्रेस से सहयोग अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण को मजबूत करेगा और शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करेगा। इस दुविधाजनक परिस्थिति का निदान संभव है अगर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियों तथा सांप्रदायिकता के संबंध को समझ लिया जाए।
             अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां आधारभूत रूप में प्राकृतिक और मानव-निर्मित संसाधनों पर शोषक वर्ग की पकड़ मजबूत करने का ही प्रयास है और इसके खिलाफ किए जा रहे शोषित वर्ग के संघर्ष को कमजोर करने के लिए सभी हथकंडे अपनाए जाएंगे। उसकी एकजुटता को कमजोर करने के लिए धर्म, जाति, भाषा, प्रदेश आदि के आधार पर शोषित वर्ग को भ्रमित करने का हर संभव प्रयास किया जाएगा और अलग-अलग मुद्दों के लिए अलग-अलग समूहों का गठन भी होगा। इन सभी समूहों में आपस में, निजी हितों के चलते, अपने-अपने वर्चस्व के संघर्ष भी होंगे।
            राष्ट्रीय स्तर की दोनों प्रमुख पार्टियां कांग्रेस तथा भाजपा राजनैतिक संघर्ष के दो ध्रुव दिखाई दे सकते हैं पर मूल रूप में वर्ग संघर्ष में दोनों एक ही ध्रुव के दो रूप हैं। सीपीएम के एक प्रमुख नेता के शब्दों में "अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप ही पूंजीवादी-सामंती पार्टियों ने धर्म को राजनीति से अलग रखते हुए हमेशा धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत की ध्वजा को उठाए नहीं रखा। संकट की घड़ी में, जिसे हाल के काल में 80 के मध्य के बाद का काल कहा जा सकता है, कांग्रेस ने हिंदू सांप्रदायिकतावादियों और मुस्लिम तत्त्ववादियों के प्रति समझौतापरस्ती का रुख अपनाया। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के ताले को खोलना, 1986 में शाहबानो मामले में अदालत की राय को उलट देना और अयोध्या आंदोलन से इस प्रकार निपटना कि 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया, इस बात के नग्न उदाहरण हैं कि किस प्रकार शासक दल ने चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक ताकतों से समझौता किया।"  
             न केवल कांग्रेस और भाजपा ने बल्कि अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने भी समय-समय पर संप्रदायिकतावादी ताकतों से समझौता किया है। विभिन्न क्षेत्रीय दल आम राजनीति में जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के आधार पर विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं पर नाजुक परिस्थितियों में उन्होंने बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक सांप्रदायिक ताकतों के साथ समझौता कर वर्ग संघर्ष की लड़ाई में शोषित वर्ग को नुकसान ही पहुंचाया है। राजनीति के समर क्षेत्र में जो भी दल धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के नाम पर संगठित हैं वे सभी मूल रूप में शोषक वर्ग के हित साधक हैं। कांग्रेस इन सब में अग्रणी है। यहां कांग्रेस के चरित्र को समझने के लिए इतिहास पर एक नजर डालना जरूरी है।
            1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आम जनता ने धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के भेद को भूलकर एकजुट हो कर अंग्रेज शासकों तथा सामंत और व्यापारी वर्ग के रूप में उनके सहयोगियों के विरुद्ध संघर्ष किया था। आम जनता की एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजी पूंजीपतियों ने कांग्रेस की स्थापना की थी। कांग्रेस ने धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के आधार पर शोषित वर्ग की एकजुटता को खण्ड-खण्ड कर जन-संघर्ष को कमजोर करने का काम बखूबी अंजाम दिया। एक ओर हिंदू मुसलमानों के बीच धर्म के आधार पर इस हद तक वैमनस्य फैलाया कि उसकी परिणति लाखों बेगुनाहों के कत्ले-आम के साथ देश के विभाजन में हुई तो दूसरी ओर पूंजीपति तथा सामंत वर्ग के हाथ सत्ता हस्तांतरण के जरिए जन-संघर्ष की आग को ठंडा कर दिया। जहां और संगठन अलग अलग  विभाजनकारी भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं वहीं कांग्रेस हर विभाजनकारी भावना का प्रयोग करती है।
            कांग्रेस तथा भाजपा दोनों ही अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप राजसत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी प्रचलित छवि के विपरीत नीतियां अपना सकती हैं। पर मूल रूप में शोषक वर्ग का प्रतिनिधि होने के नाते सत्तानशीन होने पर दोनों ही वे ही नीतियां अपनाती हैं जिनके विरोध का दिखावा वे विरोधी दल के रूप में करती नजर आती हैं। और दिल्ली में बैठी सरकार अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा वैश्वीकरण की नीतियां 1991 से आज तक एक ही तरह चलाती रही है चाहे केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार हो या भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार हो या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार हो।
            पिछले पंद्रह वर्षों का इतिहास दर्शाता है कि किस प्रकार जहां कांग्रेस ने सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा दिया वहीं भाजपा ने सांप्रदायिक ताकतों से दूरी बनाए रखी।
            1991 में सत्ता में आने के बाद नरसिम्हाराव सरकार ने राम-जन्मभूमि में कार-सेवा के नाम पर हिंदुत्ववादी ताकतों को देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की खुली छूट दी, कार सेवकों को अयोध्या में एकत्रित होने दिया और उत्तर प्रदेश की कल्याणसिंह सरकार की ओर से तब तक आंखें बंद कर रखीं जब तक बाबरी मस्जिद ध्वस्त नहीं कर दी गई।
            इसके विपरीत जिस भाजपा ने 1996 में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे को छोड़ने से साफ इनकार करते हुए सरकार से इस्तीफा दे दिया था उसी भाजपा ने उन्हीं अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एनडीए के रूप में सांप्रदायिक ताकतों से दूरी बनाते हुए 1998 से 2004 तक गठबंधन सरकार चलाई।
            किसी भी वामपंथी पार्टी का किसी भी गैर-वामपंथी पार्टी के साथ गठबंधन जनता को गुमराह करेगा और वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग को कमजोर करेगा। वामदलों को समझना होगा कि भारत के आज के राजनैतिक परिदृश्य में इस बात की संभावना कहीं नहीं है कि बाकी सभी दल भाजपा के साथ इस हद तक एकजुट हो जाएं कि भाजपा अपनी सांप्रदायिक नीतियां लागू कर सके और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को भी इसकी आवश्यकता नहीं है जब तक केंद्र की सत्ता वामदलों की जद में नहीं आ जाती है।
            सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से रोकने के लिए वामदलों के पास दो विकल्प हैं। एक अपने संघर्ष को इतना कमजोर रखें कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को वामदलों के संघर्ष से खतरा नजर न आए। दूसरा है जनता की एकजुटता को इतना मजबूत करें कि राष्ट्रवादी ताकतें वामदलों के साथ चलने में ही अपना भला देखने लगें। जाहिर है पहला विकल्प वामपंथी ताकतों के लिए घातक है।
            मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले वामपंथी दलों की जिम्मेदारी है कि आपसी सहमति के आधार पर एक मोर्चा बनाएं जो जनता को कांग्रेस तथा भाजपा के विकल्प के रूप में नजर आए। भारत एक विशाल विविधताओं वाला देश है और भिन्न क्षेत्रों में संघर्ष की नीति भी भिन्न होगी। अगर सभी वामपंथी दल इसके बारे में सजग होंगे तो आमसहमति में कोई अड़चन नहीं आएगी।
            इसमें संभावना से अधिक सुनिश्चिति है कि सांप्रदायिक ताकतें अपने हमले तेज करेंगी। पर संघर्ष के अंतिम पड़ाव में इसके लिए वामपंथी दलों को खुद को तथा जनता को तैयार करना होगा। आमतौर से किसी भी धर्म का अनुकरण करने वाली मेहनतकश जनता की मानसिकता सांप्रदायिक नहीं होती है। और सारे देश में बहुमत इसी वर्ग का है। इस वर्ग की जनता को कट्टरवादी नेतृत्व उसी जगह गुमराह करने में सफल हो पाता है जहां इस वर्ग में वामदलों ने सही रूप में संघर्ष का बीड़ा नहीं उठाया है। मेहनतकश जनता के बीच सही नीतियों के साथ शोषण के खिलाफ संघर्ष कर सही नेतृत्व का विकल्प जनता के सामने रखना ही सांप्रदायिकता के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।
            सांप्रदायिकता के हमले से बचने के लिए भाजपा के विरोधी के रूप में कांग्रेस को समर्थन कर उसे मजबूत करना गलत होगा।
**************************


हमीं ने तो दिये हैं ये कुंद हथियार

(सुरेश श्रीवास्तव का यह लेख हंस के दिसंबर 2010 के अंक में छपा था)

हमीं ने तो दिये हैं ये कुंद हथियार

(श्री राजेन्द्र यादव के हंस के अक्टूबर अंक में छपे संपादकीय 'तुम्हीं ने तो दिये हैं ये हथियार' पर एक टिप्पणी)

9 अक्टूबर 2010
आदरणीय राजेन्द्र भाई साहब,
एक जाने-माने लेखक द्वारा एक स्थापित लेखिका के लिए की गई टिप्पणी से उपजे विवाद के संदर्भ से नारी-विमर्श पर 8 सितंबर 2010 को लिखे गये मेरे विचारों को दर किनार करते हुए आपने आग्रह किया था कि हंस के अक्टूबर अंक में छपे आपके संपादकीय को पढ़ कर मैं नारी-विमर्श पर पुनः अपने विचार लिखूं। आपके आदेशानुसार, अक्टूबर के आपके संपादकीय के संदर्भ से मैं एक बार फिर नारी विमर्श पर अपने विचार लिख कर आपके पास भेज रहा हूं।
पर चाहे मैं पहले अपने विचार लिखूं फिर आपके पढ़ूं या पहले आपके पढ़ूं फिर अपने लिखूं, कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि हम मार्क्सवाद की अपनी-अपनी तथा एक दूसरे की समझ से अच्छी तरह परिचित हैं। जहां आपकी समझ मे समाज व्यक्तियों से बनता हैं इस कारण व्यक्ति का विकास और स्वतंत्रता प्राथमिक है तथा विचार, कला, संस्कृति आदि भौतिक से अलग भी कुछ हैं और उनकी अपनी स्वायत्तता है, वहीं मेरी समझ में समाज व्यक्ति से भिन्न एक जैविक अस्तित्व है इस कारण उसके विकास के अपने नियम हैं तथा विचार, कला, संस्कृति आदि सभी कुछ भौतिक हैं और समाज की अधिरचना का हिस्सा हैं जो उत्पादन साधनों तथा संबंधों पर निर्भर करती है।
मार्क्सवाद, प्रकृति को समझने की वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित चिंतन विश्लेषण पद्धति है जिसमें किसी आंकलन या विश्लेषण के सही या गलत होने की कसौटी होती है उसमें प्रयुक्त विचारों की तार्किकता तथा समन्वयता। किसी आंकलन या विश्लेषण में विचारों की अतार्किकता तथा असंबद्धता या विचारों में अंतर्विरोध उस आंकलन या विश्लेषण की सच्चाई को संदेहास्पद बना देते हैं। 
नारी-मुक्ति तथा नारी-विमर्श के बारे में भी आपके तथा मेरे आंकलन में कौन कितना सही तथा कौन कितना गलत है यह इस पर निर्भर करता है कि किसके आंकलन तथा विश्लेषण में अभिव्यक्त विचारों में कितनी अतार्किकता, कितनी असंबद्धता तथा कितने अंतर्विरोधों की मौजूदगी है। 
अफ्रीकी देशों से जहाज भर-भर कर ले जाये गये अश्वेत लोगों से 'मेहनत के हाड़ तोड़ काम लिए जाते थे, हंटरों के बल पर, उनके भीतर की आत्मा, चेतना और आत्मसम्मान को निरंतर कुचलने के लिए शारीरिक यातनाओं के साथ' 'उनके सोचने, महसूस करने की शक्ति को समाप्त करने की प्रक्रिया भी चलती रहती थी''इस प्रकार उन्होंने अपनी गुलामी के दस्तावेजों को उन्हीं मालिकों के खिलाफ हथियारों में बदल डाला।' भारत की अस्पृश्य जातियों को भी आपने श्रम और उत्पादन से जुड़ी शक्तियों के रूप में चिन्हित किया है। क्या आपकी ये दलीलें मेरे इस विचार का समर्थन नहीं करती हैं कि उत्पादन संबंध ही आत्मा, चेतना, आत्मसम्मान तथा विचारों और कला तथा संस्कृति जैसे अमूर्त अवयवों का आधार हैं। और यथार्थ यही है कि उत्पादन संबंध न केवल गुलामों तथा अछूतों के विचारों का आधार हैं वे स्त्री सहित सारे मानव समाज का वैचारिक आधार हैं।
आपकी टिप्पणी 'ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां दलितों ने अपनी नियति को मुक्ति में बदला' जाहिर करती है कि आपको दलित मुक्त नजर आते हैं क्योंकि कुछ दलित 'नक्सली होकर अपने सदियों पहले के आतातायी मालिकों के गले काट रहे हैं। संसद और विधान सभाओं में उनसे गले मिल रहे हैं, अफसर अधिकारी बनकर उनके गलों पर सवार हैं।' - मैं चमार की बेटी, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हूं - 'कहकर ललकारने की आवाजें सुनाई देती हैं' और इसीलिए आपको लगता है कि 'अब वे हमारी दया और सहानुभूति पर निर्भर नहीं हैं।' यह आपका पूर्वाग्रह, कि व्यक्तियों से समाज बनता है, ही है जिसके कारण आपको चंद सक्षम सबल दलितों की सम्पन्नता और सबलता में सारे दलित समाज की मुक्ति नजर आती है। आपको उत्तर प्रदेश सहित सारे देश में विपन्न निर्बल दलितों की गुलामी और उन पर सामूहिक रूप से हो रहा अत्याचार नजर नहीं आता है। और शायद इसी रूप में आप चंद स्त्रियों की आजादी में सारी स्त्री जाति की आजादी भी देखते हैं। जिस तरह आप उत्पादन संबंधों को विचार, कला, साहित्य और संस्कृति का आधार मानने के लिए तैयार नहीं हैं उसी प्रकार आप यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि आर्थिक आजादी के बिना, न दलित जातियों का उद्धार है और न औरत जाति का।
अगर अतार्किक मान्यताओं और अवधारणाओं को आधार बनाकर कोई विश्लेषण या आंकलन किया जायेगा तो उसके सही होने की आशा नहीं की जा सकती है। आपने मान लिया है कि आज चंद दलितों की आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक संपन्नता एक क्रांतिकारी सामाजिक रूपांतरण है और इसी परिप्रेक्ष्य में आप स्त्रियों की स्थिति को समझने का प्रयास कर रहे हैं।         
आज के नारी-विमर्श का आपका आंकलन आपकी चंद मान्यताओं पर आधारित है।
- जिस चीज को सबसे अधिक कुचला, नियंत्रित और अनुशासित किया गया वह (है) उसकी यौनिकता।
- पुरुष अपनी मर्दानगी के लिए बीस जगह मुंह मार सकता था......उसकी मर्दानगी इसी में थी कि वह कितनी औरतों से अपने संबंध रख सकता था।
- सारे धर्मशास्त्र, सामाजिक मर्यादायें, बंधन, संस्कृति, लक्ष्मण रेखाएं सिर्फ स्त्री के लिए थीं।
- वेश्या स्वतंत्र नारी है पर पत्नी नहीं क्योंकि पुरुष जब चाहे उसके साथ सेक्स कर सकता था पर उसके स्वयं के लिए अपनी स्वतंत्र यौनिकता की बात सोचना पाप और अपराध था।
- जब स्त्री ने स्वयं अपनी कहानी कागज पर लिखनी शुरु की वे उसके कन्फेशन्स थे।
- कथा साहित्य में हजारों कहानियां, उपन्यास और आत्मकथाएं अवैध संबंधों की या उनके लिए ललकती स्त्री की कहानियां हैं। झ्र्और ये कहानियां नारी-विमर्श तथा नारी-मुक्ति की प्रतिनिधि कहानियां हैं। पर फिल्मों तथा टीवी सीरियलों की सारी नायिकाएं जिस तरह अपने शरीर और मुद्राओं का प्रदर्शन करती हैं वे हमारे बीच की नहीं हैं इस कारण कसी हुई जीन्स और छोटे कपड़ों में सड़कों पर घूमती लाखों लड़कियां आपको बेशर्म नजर आती हैं।
            - आत्मविश्वास से खिलखिलाती, छातियां ताने बिंदास लड़कियां जो छोटे-छोटे कस्बों और वर्गों में भी हर जगह नजर आती हैं, आम मध्यवर्गीय परिवारों का ही हिस्सा हैं पर आपके अनुसार वे बहू-बेटी के रूप में परिवार में स्वीकार्य नहीं हैं।
            व्यक्ति के जीवन और अस्तित्व का आधार है जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति - भोजन तथा शारीरिक सुरक्षा सहित यौनिच्छा की पूर्ति - और भोजन तथा शारीरिक सुरक्षा के लिए आवश्यक, सामूहिक उत्पादन ही मानवसमाज के गठन का आधार है। जहां विचार, भाषा, संस्कृति आदि, सामूहिक उत्पादन-वितरण को अधिक सुगम बनाने के लिए विकसित हुई अधिरचना है वहीं उत्पादन-वितरण में अंतर्निहित संघर्ष ही एक समूह द्वारा दूसरे समूह की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति पर नियंत्रण के लिए विकसित अधिरचना के लिए उत्तरदायी है। इस प्रक्रिया में जिसे सबसे अधिक कुचला, नियंत्रित और अनुशासित किया गया है वह है पेट की भूख न कि पेट के नीचे की भूख। (आपके संपादकीय के अंत में दी गई आपकी टिप्पणी मेरी बात का समर्थन है।) जिन पुरुषों के बीस जगह मुंह मारने की बात आप कर रहे वे चंद साधन संपन्न पुरुष ही हो सकते हैं व्यापक पुरुष समाज नहीं, और साधन संपन्न पुरुष ही क्यों, स्त्रियां भी तो। आप स्वयं ही वाइफ-स्वैपिंग तथा जिगोलो की बात कर रहे हैं। और आज तो रक्तदान की जगह युवावर्ग में वीर्यदान का भी प्रचलन हो चला है पर वे वीर्यदान अपनी यौनक्षुधा को शांत करने के लिए नहीं करते हैं बल्कि अपने आर्थिक हित की पूर्ति के लिए करते हैं। करोड़ों लोग अपनी मर्दानगी की सार्थकता
इसमें नहीं देखते हैं कि वे कितनी औरतों से संबंध रख सकते हैं बल्कि इसमें देखते हैं कि अपने तथा अपने परिवार के लिए दो जून का भोजन जुटा पाते हैं या नहीं।
            सारे धर्मशास्त्र, सामाजिक मर्यादायें, बंधन, लक्ष्मण रेखाएं सिर्फ स्त्री के लिए नहीं वरन साधनविहीन सारी मानवजाति के लिए बने हैं चाहे वे पुरुष हों या स्त्री या बच्चे, क्योंकि नियंत्रण करनेवाले साधन संपन्न लोग होते हैं। जन्म लेने से पहले से लेकर मरने के बाद तक मनुष्य अनेकों मर्यादाओं से बंधा है जिनमें अधिकांश उसको निरंतर उस स्वतंत्रता तथा उन चीजों से वंचित रखती हैं जो, एक सभ्य समाज के अंग के रूप में उसे हासिल होना चाहिए। सारी वर्जनाए साधनविहीनों के लिए होती हैं साधन संपन्नों के लिए नहीं। सारी सामजिक मर्यादाएं एक वाक्य से परिभाषित होती हैं - समरथ को नहीं दोष गुसार्इं।
            वर्ग विभाजित समाज में न ही वेश्या और ना ही पत्नी स्वतंत्र नारी है क्योंकि जहां वेश्या को अपने और अपने बच्चे के लिए जीवन के साधन टुकड़ों-टुकड़ों में जुटाने के लिए अपनी यौन सहमति का ढोंग करते हुए बार-बार अलग-अलग पुरुषों का बलात्कार सहना पड़ता है वहीं पत्नी को अपने और अपने बच्चे के लिए जीवन के साधन एकमुश्त जुटाने के लिए अपनी यौन सहमति का ढोंग करते हुए बार-बार एक ही पुरुष का बलात्कार सहना पड़ता है। और आम स्त्री अपने ये कन्फेशन्स, कुछ संपन्न स्त्रियों के द्वारा कागज पर लिखे जाने से बहुत पहले से दर्ज करती रही हैं। उसे पढ़ने और समझने के लिए जरुरत होती है उस दृष्टि और संवेदना की जो सामाजिक सहिष्णुता के लिए अनिवार्य शर्त है।
            नारी-मुक्ति की मेरी अवधारणा आपकी अवधारणा से भिन्न है। जहां तक देह की आजादी का प्रश्न है तो उसमें कुछ हजार कहानियों या आत्मकथाओं का योगदान नगन्य है। लाखों मध्यवर्गीय युवतियां जो अपनी देह को आजादी से प्रदर्शित करती हैं उनमें से अधिकांश ने न तो वे कहानियां पढ़ी होंगी और ना ही वे आत्मकथाएं। उनकी ढिठाई (Bravado) में योगदान है आज के मनोरंजन के दृश्य श्रव्य माध्यमों में दिखाई जानेवाली नारी देह तथा कंडोम व विभिन्न प्रकार के अंतर्वस्त्रों के विज्ञापनों का और उनकी अभिप्रेरणा का आधार है विवाह का बाजार जिसमें कपड़ों में ढंकी लजाई सिकुड़ी सिमटी कन्या का मोल लगाने वाला आज के पढ़े लिखे युवकों के बीच में मिलना बहुत मुश्किल है। और युवकों की मजबूरी भी उसी बाजार के कारण है जिसमें सेक्सी पत्नी का आधिपत्य और उसका प्रदर्शन प्रतिष्ठा प्रतीक माना जाता है। आप मानें या न मानें आज के समाज में नारी-मुक्ति और देह-मुक्ति के मानदंड तय होंगे उन्हीं उत्पादन संबंधों तथा उसी अर्थव्यवस्था से जो स्त्री या स्त्री देह को एक पण्य उत्पाद के रूप में ही देखती है न कि कुछ काल्पनिक कहानियों या आत्मकथाओं से।   
सादर, शुभकामनाओं सहित
सुरेश श्रीवास्तव

(9810128813)