Tuesday 13 December 2016

मुद्रा तथा करेंसी का विमुद्रीकरण

मुद्रा तथा करेंसी का विमुद्रीकरण
(9 नवंबर 2016 के बाद अनेकों साथी अनेकों प्रश्न पूछते रहे हैं, शायद उनकी शंका के समाधान में मदद मिले)

प्र. अर्थव्यवस्था का आधार क्या है?
उ. मनुष्य का निजी जीवन तथा सामूहिक जीवन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन की निरंतरता के लिए, प्राकृतिक पदार्थों को, व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम के द्वारा उपभोग योग्य वस्तुओं में बदलना तथा उपभोग करना ही मानव जीवन का मूल आधार है। श्रम विभाजन आधारित समाज में, उपभोग योग्य वस्तुओं का उत्पादन तथा विनिमय ही अर्थव्यवस्था का आधार है।
प्र. अर्थव्यवस्था में मुद्रा की क्या भूमिका है?
उ. राज्य द्वारा सत्यापित मुद्रा, मूल्य का मानक होती है। जीवन के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुओं का विनिमय ही, श्रम विभाजित समाज की अर्थव्यवस्था का आधार है और विनिमय में उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच भौतिक वस्तुओं का आदान प्रदान विनिमय-उत्पादों के रूप में होता है न कि उपयोगी उत्पादों के रूप में। उत्पादों के रूप में आदान प्रदान का अर्थ है, अलग-अलग वस्तुओं की मात्राओं का, निश्चित अनुपातों में व्यक्तियों के बीच हस्तांतरण होना, और यह अनुपात निर्धारित होता है उनके उत्पादन में खर्च किये गये उस समरूप औसत श्रम के आधार पर जिसे मूल्य कहा जाता है, न कि उस विशिष्ट श्रम के आधार पर जो चीज़ों को उनका उपभोग योग्य स्वरूप प्रदान करता है। चूँकि मूल्य का, उत्पाद से अलग कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है, इस कारण उसे नापने का कोई प्रत्यक्ष तरीका नहीं हो सकता है। सामाजिक विकास के साथ, व्यावहारिक तौर पर, सोने जैसी बहुमूल्य धातु की एक निश्चित मात्रा का मूल्य स्वत: ही, मूल्य की इकाई के रूप में सामाजिक रूप से सर्वमान्य हो गया था। सोने की मात्रा को बार-बार तौलने की परेशानी तथा अन्य समस्याओं के समाधान के रूप में, राज्य सोने की निश्चित मात्रा पर अपनी मुहर लगा कर उसे सत्यापित करने लगा जिसने कालांतर में मुद्रा का रूप ले लिया। इंग्लैंड में धातुओं के वज़न की इकाई पौंड होती थी, जो आज भी कई जगह प्रचलन में है और इसीलिए एक पौंड सोने के सिक्के पर राज्य की मुहर लगाये जाने के कारण ब्रिटेन की मुद्रा का नाम ब्रिटिश पौंड पड़ा है। इसी प्रकार ब्रैटनवुड एग्रीमैंट, जिसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अमेरिकी डालर को सर्वमान्य मुद्रा स्वीकार किया गया था, के समय 1 डालर का मूल्य 1/35 आउंस सोने के बराबर होता था। कालांतर में आम जनता की चेतना में राज्य द्वारा ढाले गये सिक्कों में सोने की मात्रा कम होने तथा छापे गये करेंसी नोटों में कोई भी उपभोग योग्य वस्तु न होने के बावजूद, सरकार द्वारा प्रत्याभूत होने के तथा सभी प्रकार के लेन-देन में कानूनी रूप से बाध्यकारी होने के कारण, मूल्य की इकाई के रूप में मुद्रा सर्वमान्य बन गई। मूल्य की तरह मुद्रा का स्वरूप भी वैचारिक है पर व्यावहारिक जरूरतों के अनुरूप, राज्य के आश्वासन के साथ एक सिक्का या करेंसी नोट मूल्य की इकाई का पर्याय बन जाता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण मुद्रा का चरित्र भी बदल गया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हर राष्ट्र की मुद्रा स्वयं एक विनिमय उत्पाद बन गयी है। राज्य की सीमाओं के अंदर सभी उत्पादों का मूल्य राज्य की मुद्रा के सापेक्ष ही दर्शाया जाता है तथा राज्य द्वारा जारी की गई मुद्रा अभी भी राज्य प्रत्याभूति के रूप में आम जनता के लिए मान्य तथा बाध्यकारी है पर अपनी सीमाओं के बाहर दूसरे राज्यों की सीमाओं में वह बाध्यकारी नहीं है। अब सभी देशों की मुद्राओं का सापेक्ष मूल्य तथा सोने का औसत मूल्य, पूंजीधारक अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख बैंकों तथा व्यापार प्रतिष्ठानों के समूहों के द्वारा, अंतर्राष्ट्रीय सकल उत्पाद तथा विनिमय के आधार पर तय किया जाता है। इस प्रकार जैसे-जैसे पूँजी का वर्चस्व बढ़ता जाता है, लोगों की बीच मूल्य के  हस्तांतरण में क़रार-वायदों के रूप में, सरकार द्वारा प्रत्याभूत मुद्रा का स्थान, बैंकों के पी नोट, क़रार पत्र, चेक, प्रतिभूतियां और इलेक्ट्रॉनिक हस्तांतरण आदि ले लेते हैं।  
प्र- राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में राज्य की क्या भूमिका है?
उ- जीवन के रख-रखाव तथा पुनर्जीवन के लिए आवश्यक चीज़ों के दिन भर के उपभोग के रूप में औसत में एक व्यक्ति जितना मूल्य खर्च करता है, उससे अधिक मूल्य वह उपयोगी चीज़ों के उत्पादन के रूप में पैदा कर सकता है, यह मानव का प्रकृति प्रदत्त गुण है। इसी गुण के कारण हजारों सालों में मानव समाज द्वारा पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य संचित की गई संपत्ति के रूप में पृथ्वी पर नजर आता है। ऐतिहासिक कारणों से वर्गों में विभाजित हो चुके मानव समाज में, सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के निजी बँटवारे के लिए होनेवाले संघर्ष जब विकराल होने लगे तो संघर्षों को नियंत्रण में रखने तथा सामाजिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए, समाज के अंदर ही राज्य व्यवस्था विकसित हुई है। संघर्ष को नियंत्रण में रखने के लिए राज्य व्यवस्था क़ानून बनाती है तथा अपनी हिंसक शक्ति की ताक़त के बल पर उन क़ानूनों को बाध्यकारी बनाती है। व्यवस्था को सहज स्वीकार्य बनाने के लिए राज्य, उत्पादन तथा वितरण के लिए ऐसे नियम क़ानून बनाता है जो वर्ग निरपेक्ष तथा जनहितकारी नजर आयें ताकि पैदा किये गये मूल्य का व्यक्तिगत बँटवारा, खर्च किये गये श्रम के अनुपात में उचित नजर आये। इसीलिए सार्विक मताधिकार आधारित जनवाद, राज्य के सर्वोच्च स्वरूप के तौर विकसित हुआ है। अपनी सेवाओं के बदले राजसत्ता टैक्स वसूलती है जिसे वह व्यवस्था बनाये रखने तथा सामूहिक सुविधाओं पर खर्च करती है।
प्र- अर्थव्यवस्था तथा राज्य-व्यवस्था की अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे में क्या भूमिका है?
उ- अर्थव्यवस्था, उत्पादन के साधनों तथा तकनीक से परिभाषित नहीं होती है बल्कि मानवीय श्रमशक्ति की भूमिका से परिभाषित होती है क्योंकि, मानवीय श्रमशक्ति, उत्पादन प्रक्रिया में न केवल कच्चे माल, मशीनों, श्रम के औजारों तथा श्रम (स्वयं) पर खर्च किये गये मूल्य की भरपाई करती है, बल्कि अतिरिक्त मूल्य भी पैदा करती है। अतिरिक्त मूल्य पैदा तो उत्पादन के स्रोत पर होता है, पर हासिल अंतिम रूप से उपभोक्ता द्वारा उत्पाद का उपभोग कर लेने पर ही होता है। उत्पादन-उपभोग प्रक्रिया को पूरी करने में पूँजी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उत्पादन के लिए, कच्चे माल, उत्पादन के साधनों तथा श्रम को एकजुट करने के लिए हर स्तर पर, विनिमय के लिए मूल्य के सार्वजनिक रूप से मान्य स्वरूप अर्थात मुद्रा की आवश्यकता होती है। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था में श्रमिक स्वयं उत्पादन के साधनों को जुटा कर व्यक्तिगत श्रम द्वारा उत्पाद पैदा करता है इस कारण उत्पाद के साथ उसके अंदर अंतर्निहित अतिरिक्त मूल्य भी उसी के क़ब्ज़े में होता है पर प्राकृतिक  संसाधन तथा वितरण व्यवस्था का नियंत्रण संपन्न वर्ग के हाथों में होता है इस कारण श्रमिक को अपना उत्पाद वितरण के लिए संपन्न वर्ग के हाथों में, बाजार की शर्तों पर सौंपना पड़ता है। एक ही प्रकार के उत्पादों का लागत मूल्य अलग अलग उत्पादकों के लिए अलग अलग हो सकता है पर उन सभी उत्पादों का औसत विक्रय मूल्य एक ही होता है। व्यापारी उपभोक्ता को उत्पाद उसके उपयोगी मूल्य पर बेच कर, अपना लागत मूल्य निकालने के साथ ही अतिरिक्त मूल्य भी मुनाफे के रूप में हथिया लेता है। उत्त्पादन-वितरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए, मुद्रा के रूप में जुटाया गया लागत मूल्य ही पूँजी कहलाता है जो मुनाफे के रूप में अतिरिक्त मूल्य को समेट कर उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा करती है। प्राकृतिक संसाधनों को जुटाने से लेकर उत्पादों को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए अनेकों चीज़ों का अनेकों क्रेताओं-विक्रेताओं के बीच विनिमय होता है जिसके लिए आवश्यक पूंजी मुद्रा के रूप में अलग-अलग तरह से सक्रिय होती है जो उत्पादन-वितरण का चक्र पूरा कर अतिरिक्त मूल्य के साथ वापस होती है। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के अंतर्गत पूंजी मुख्य तौर पर वाणिज्यिक गतिविधि के जरिये एकत्रीकरण करती है। एकत्रीकरण के जरिए स्वविस्तार के एक स्तर पर पूँजी, वितरण के साथ-साथ उत्पादन में भी पैर पसारने लगती है। बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था पूँजी-मजूरी आधारित होती है। बुर्जुआ-पूँजीपति पूँजी के आधार पर उत्पादन के सभी साधन हासिल कर लेता है तथा मजदूरी के रूप में कीमत चुका कर मजदूर की श्रमशक्ति भी पूरे दिन के लिए ख़रीद लेता है। ख़रीदी गई श्रम शक्ति के द्वारा पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य उद्योगपति-पूँजीपति के नियंत्रण में होता है, पर वितरण व्यवस्था वाणिज्यिक पूँजीपतियों के नियंत्रण में होती है। वितरित सामंतवादी अर्थव्यवस्था में अधिकांश विनिमय व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग उद्योगपतियों तथा व्यापारियों के हाथों में होता है इस कारण बिखरी हुई पूँजी मुद्रा के भौतिक स्वरूप, करेंसी की शक्ल में होती है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था विकसित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था का रूप ले लेती है जिसमें एकीकृत पूंजी, बैंकों तथा स्टॉक एक्स्चेंजों के जरिए पूरे उत्पादन-वितरण चक्र को नियंत्रण में ले लेती है। बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था में पूँजी पूंजीपति के नियंत्रण में होती है, पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूंजीपति स्वयं पूँजीवादी चेतना का वाहक बन जाता है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होती जाती है, अधिक से अधिक विनिमय एकेंद्रित पूँजी के नियंत्रण में आता जाता है और विनिमय, मुद्रा की जगह लेखा पुस्तकों के जरिए होने लगता है। विकसित पूँजीवादी व्यवस्था में, परिसंपत्तियों तथा मुद्रा के रूप में निष्क्रिय मूल्य, निजी स्वामित्व के रूप में अलग-अलग सरमायेदारों के नियंत्रण में होता है, पर एकेंद्रित पूँजी के रूप में मूल्य सक्रिय होकर एक स्वायत्त चेतन शक्ति बन जाता है और पूँजी-धारक पूँजीपतियों के माध्यम से सभी तरह की वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा वितरण और उनके द्वारा पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य का नियंत्रण करने लगता है। विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, उत्पादन-वितरण का चक्र पूरा होने तक हर व्यक्ति को उसका लागत मूल्य पूरी पारदर्शिता के साथ मिल जाता है। कच्चा माल देनेवाले को उसका भुगतान तथा मजदूर को उसकी श्रमशक्ति का मूल्य मजदूरी के रूप में, बाजार की दर पर मिल जाता है। अचल संपत्ति के मालिक को किराया तथा मुद्रा मुहैया कराने वाले को ब्याज मिल जाता है। प्रबंधकों को भी उनकी तनख्वाहें पारदर्शी तरीके से मिल जाती हैं। आधारभूत सुविधाएँ जुटाने तथा क़ानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सरकार को भी टैक्स के रूप में उसका उचित हिस्सा मिल जाता है।
पर सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का, व्यक्तिगत रूप में बँटवारा समस्या पैदा करता है, और इसके बँटवारे में लुका-छिपी का खेल चलता है। अतिरिक्त मूल्य के नियंत्रण तथा बँटवारे को प्रभावित कर सकने वाला हर व्यक्ति, अपनी क्षमता तथा हैसियत के अनुसार येन केन प्रकारेण, अपनी भूमिका को अधिक महत्वपूर्ण दर्शा कर, अतिरिक्त मूल्य का अधिक से अधिक हिस्सा हड़पने का प्रयास करता है। पूँजीपति बही-खातों में हेरा-फेरी के जरिए ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने की कोशिश करता है जो राजसत्ता के अनुमोदन के बिना संभव नहीं हो सकता है। ब्याज और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों की दरें तय कर के राज्य, अतिरिक्त मूल्य के बंटवारे को संतुलित करने का प्रयास करता है। बुर्जुआ जनवाद में राज्य को प्रत्यक्ष तौर पर बिना किसी भेदभाव के शासन करने का दिखावा करना होता है इसलिए प्रत्यक्ष में शासकवर्ग हर निर्णय आमजन के लिए हितकारी दर्शाने का प्रयास करता है। पर पूँजी, परोक्ष में राजसत्ता को नियंत्रित करनेवाले जनप्रतिनिधियों तथा कर्मचारियों को रिश्वत के जरिए हिस्सा-बाँट में शामिल कर लेती है। जाहिर है राजसत्ता के नियंत्रण में जो जितना महत्वपूर्ण होता है रिश्वत के रूप में अतिरिक्त मूल्य में उसको उतना ही बड़ा हिस्सा मिलता है  
प्र- राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में काले धन का स्वरूप तथा स्रोत क्या है?
उ- मानवीय श्रम द्वारा निर्मित वे चीज़ें जो भविष्य में उपभोग के लिए संचित की गयी हैं या उपभोग योग्य चीज़ों में परिवर्तित की जा सकती हैं, संपत्ति कहलाती हैं। सामाजिक व्यवहार के दायरे में लोग चीज़ों को निजी उपभोग के लिए इस्तेमाल करते हैं इस कारण सामाजिक व्यवहार के दायरे में संपत्ति का आंकलन उसकी वर्तमान या भविष्य के लिए उपयोगिता के आधार पर होता है न कि विनिमय मूल्य के आधार पर। पर राजनैतिक अर्थव्यवस्था के दायरे में संपत्ति का उपयोग विनिमय के लिए किया जाता है, इसलिए संपत्ति की पहचान उसके विनिमय मूल्य के आधार पर धन के रूप में की जाती है। विनिमय पूरी तरह एक सामाजिक प्रक्रिया है इसलिए किसी चीज का एक समय पर संपत्ति के रूप में उपभोग किया जा सकता है, तो उसी चीज को उसमें कोई बदलाव किये बिना, किसी और समय, धन के रूप में विनिमय के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। किसी संपत्ति की धन के रूप में पहचान केवल उसके मूल्य के वैचारिक स्वरूप से होती है, पर उसी संपत्ति की उपभोग योग्य वस्तु के रूप में पहचान उसके भौतिक स्वरूप से होती है। अमूर्त चिंतन की कुशलता न होने के कारण, आमजन द्वारा संपत्ति को ही धन का पर्याय मान लिया जाता है। मूल्य की ही तरह धन का भी अपना कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है, उसका स्वरूप भी पूरी तरह काल्पनिक होता है। लोगों के बीच मूल्य के आदान प्रदान के लिए भौतिक चीजों की जरूरत होती है जो उत्पादों या करेंसी के रूप में होती हैं। इस प्रकार धन, जिसकी अंतर्वस्तु मूल्य है, उसकी भौतिक अधिरचना संपत्ति या करेंसी कुछ भी हो सकता है।
जनवादी जनतंत्रिक राज्य में अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे के लिए नियम क़ानून बनाने तथा उन्हें लागू करवाने का  दायित्व तथा अधिकार जनप्रतिनिधियों द्वारा गठित की गई सरकार के पास होता है। सामूहिक रूप से पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य, जो धन के रूप में, पारदर्शी तरीके से लोगों के बीच आम सहमति के साथ, नियम क़ानून के अनुसार हस्तांतरित होता है, वह सफ़ेद धन कहलाता है। पर जो अतिरिक्त मूल्य, धन के रूप में, आम जनता की नज़रों से ओझल, नियम क़ानून की हेरा-फेरी के साथ हस्तांतरित होता है, वह कालाधन कहलाता है। पैदा होते समय अतिरिक्त मूल्य पूँजी के नियंत्रण में होता है पर उसके बँटवारे की नीतियों का नियंत्रण राज्य के नियंत्रण में होता है। जाहिर है कि अतिरिक्त मूल्य का, किसी भी स्तर पर हेरा-फेरी के साथ बँटवारा, पूँजीपतियों, जनप्रतिनिधियों तथा सरकारी कर्मचारियों की साँठ-गाँठ के बिना असंभव है। अर्थव्यवस्था में कोई भी धन, आदान प्रदान की अनेकों प्रक्रियाओं से गुज़रता रहता है जब तक कि उसका अस्तित्व उपभोग के कारण या अन्य किसी कारण से समाप्त नहीं हो जाता है। करेंसी, सरकार द्वारा प्रत्याभूत मूल्य का आश्वासन दर्शाता है जिसका उपयोग केवल विनिमय के लिए किया जा सकता है न कि किसी व्यक्तिगत उपभोग के लिए इस कारण धन के रूप में उसका अंत केवल सरकार द्वारा आश्वासन वापस लेने या अन्य किसी कारण से नष्ट हो जाने पर ही हो सकता है, न कि उपभोग के द्वारा।
इस प्रकार किसी भी धन की अंतर्वस्तु, उसका मूल्य या मुद्रा के सापेक्ष उसकी कीमत होती है, और उसकी अधिरचना संपत्ति या करेंसी कुछ भी हो सकती है। संपत्ति या करेंसी के रूप में किसी भी धन को काले धन या सफ़ेद धन के रूप में चिन्हित कर पाना असंभव है। उसका काला या सफ़ेद होना उस प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिस प्रक्रिया के द्वारा उसे हासिल किया गया है। अगर हासिल करने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी है तथा नियम क़ानून का सही पालन किया गया है तो हासिल किया गया धन सफ़ेद माना जाता है और अगर हासिल करने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी नहीं है तथा नियम क़ानून का सही पालन नहीं किया गया है तो हासिल किया गया धन काला माना जाता है।
प्र- क्या 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों का विमुद्रीकरण काले धन को समाप्त करने में मददगार होगा?
उ- 8 नवंबर 2016 की रात से अचानक 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि यह क़दम काले धन को पकड़ने तथा सरकार के क़ब्ज़े में लाने के लिए उठाया गया है। प्रधानमंत्री का दावा कितना प्रभावी होगा यह समझने के लिए विमुद्रीकरण के लिए अपनाई गई प्रक्रिया तथा धारणाओं का तथ्यपरक विश्लेषण करना होगा। सबसे पहले यह मानना कि अधिकांश काला धन 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों के रूप में मौजूद है, गलत है। धन अर्जन की प्रक्रिया पर ध्यान दिये बिना आम जनता के बीच विनिमय के लिए 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को खर्च करना ग़ैरक़ानूनी घोषित करना, पर साथ ही कुछ घोषित प्रतिष्ठानों की सेवाएं खरीदने के लिए उन्हीं करेंसी नोटों को कानूनी घोषित करना दर्शाता है कि करेंसी नोटों की पहचान काले-धन या सफ़ेद-धन के रूप में नहीं की जा सकती है। 31 दिसंबर 2016 के बाद 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोट पूरी तरह अमान्य हो जायेंगे। नोटबंदी से पहले 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोट जो सर्कुलेशन में थे उनका मूल्य 14 लाख करोड़ रुपये है तथा पहले वित्त मंत्रालय का अनुमान था कि लगभग 12 लाख करोड़ रुपये के मूल्य के करेंसी नोट रिज़र्व बैंक के पास सफ़ेद-धन के रूप में वापस आ जायेंगे जिसके बदले रिज़र्व बैंक को नये करेंसी नोट जारी करने पड़ेंगे। जो 2 लाख करोड़ रुपये मूल्य के नोट वापस नहीं आ पाएँगे, उनके बदले सरकार 2 लाख करोड़ की देनदारी से मुक्त हो जायेगी अर्थात सरकार को 2 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफा हो जायेगा। पर वापस न हो पाने वाली रक़म का कितना हिस्सा काला धन है और कितना हिस्सा ग़रीब मेहनतकशों की ईमानदारी की कमाई का है, यह कभी पता नहीं लग पायेगा। अगर नये नोटों को छापने और पुराने नोटों को ठिकाने लगाने पर कुछ हज़ार करोड़ का खर्च भी आयेगा तो भी सरकार फ़ायदे में रहने वाली थी। पर नये अनुमान के अनुसार पूरे चौदह लाख करोड़ रुपये के नोट वापस आने की संभावना है और अगर कैशलेस इकॉनॉमी के उद्देश्य के अनुरूप रिज़र्व बैंक उससे कम मूल्य के नोट जारी करता है, तो सरकार को उतने मूल्य की कमी की भरपाई करनी होगी क्योंकि सरकार ने वापस की गई करेंसी का मूल्य अदा करने का वायदा किया है। इसके लिए सरकार को अपना विदेशी मुद्रा भंडार घटाना पड़ेगा या अपनी परिसंपत्तियां बेचनी पडेंगीं। विशेषज्ञों के नये आंकलन के अनुसार 500₹ तथा 1000₹ के पुराने करेंसी नोट लगभग सारे वापस हो जायेंगे और सरकार को कालेधन के रूप में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। सरकार के नोटबंदी के क़दम के कारण सरकार की जमाखर्च तालिका में, शायद जमा के नाम पर कुछ ख़ास न हो, पर खर्च के हिस्से में, नई करेंसी छापने में आनेवाले खर्च तथा कैशलेस करेंसी के कारण होनेवाले खर्च के कारण, कम से कम दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान जुड़ जायेगा।


प्र- अर्थव्यवस्था में करेंसी की जरूरत का आंकलन किस प्रकार किया जाता है?
उ- करेंसी, उपभोग योग्य वस्तुओं के विनिमय का माध्यम है। उत्पाद, एक उत्पादन केंद्र से निकल कर अनेकों उपभोक्ताओं के बीच बँटता है तो करेंसी अनेकों उपभोक्ताओं से एकत्र होकर केंद्रीयकृत बैंकों में पहुंचती है जो पुन: उत्पादन केंद्रों में पहुँच कर   उत्पादन को गति देती है। करेंसी राजसत्ता के उस आश्वासन का भौतिक स्वरूप है जिसके भरोसे लोग विनिमय के दौरान, एक दूसरे से अनजान, अपना उत्पाद एक दूसरे को सौंपते हैं जो पूँजी के लागत-वसूली के उस चक्र को पूरा करता है जिसके जरिए लोगों के भौतिक जीवन की ज़रूरतें पूरी होती हैं और पूँजी अतिरिक्त मूल्य को बटोरती है। करेंसी में लोगों का भरोसा, उस आश्वासन को पूरा कर सकने की राज्य की संगठित शक्ति के बरसों के अनुभव के बाद पैदा हुआ है। पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था में, जहाँ एकेंद्रित पूँजी बैंकों के जरिए उत्पादन तथा विनिमय के हर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लेती है, करेंसी का स्थान बैंकों के चेक, क्रेडिट कार्ड, पी नोट जैसे प्रपत्र लेने लगते हैं जो एकीकृत पूँजी के आश्वासनों का भौतिक स्वरूप हैं। बैंकों के प्रपत्रों में भी भरोसा पैदा होने में बरसों लगते हैं और उस भरोसे का विस्तार एकीकृत पूंजी के विस्तार पर निर्भर करता है। भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था में 45% से ज्यादा उत्पादन असंगठित क्षेत्र में सामंती तथा बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था के अनुरूप होता है जिसमें 80% से अधिक आबादी कार्यरत है। इस क्षेत्र में पूँजी पूरी तरह विस्तरित है और इसमें करेंसी का स्थान बैंक के प्रपत्र नहीं ले सकते है। असंगठित क्षेत्र में विनिमय करेंसी के माध्यम से ही होता है तथा उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने तक पूँजी करेंसी के भौतिक स्वरूप में ही रहती है। अगर यह चक्र पूरा होने में तीन महीने लगते हैं तो असंगठित क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1/4 हिस्से या 25% मूल्य की करेंसी की आवश्यकता होगी। भारत का कुल सकल घरेलू उत्पाद लगभग 130 लाख करोड़ रुपये का है जिसका 45% अर्थात लगभग 60 लाख करोड़ रुपये होता है। इस हिसाब से मौजूदा दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 15 लाख करोड़ रुपये की करेंसी की जरूरत है।
केंद्रीयकृत बैंकों में करेंसी के जमा-निकासी के आधार पर रिज़र्व बैंक बाजार में करेंसी की जरूरत का आंकलन करता है तथा करेंसी सर्कुलेशन से वापस लेकर या सर्कुलेशन में डाल कर मांग-आपूर्ति संतुलित करता है। रिसर्व बैंक यह एक निर्धारित सीमा के अंदर ही कर सकता है। उस सीमा को बदलने के लिए सरकार को बांड जारी करने पड़ते हैं।
प्र- क्या सरकार का विमुद्रीकरण का निर्णय विवेकपूर्ण है?
उ- समाजवाद दो तरह का होता है, काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद। काल्पनिक समाजवाद, निम्न मध्यवर्गीय चेतना की समतामूलक समावेशी समाज की कल्पना पर आधारित है। निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समझता है कि उत्पादन संबंधों के भौतिक आधार को बदले बिना, राजनैतिक हस्तक्षेप के जरिए सामाजिक संबंधों को बदला जा सकता है। मौजूदा विमुद्रीकरण का फ़ैसला इसी समझ पर आधारित है कि विकसित देशों की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को भी कैशलेस बनाया जा सकता है। काल्पनिक समाजवादियों का मानना है कि कुछ दिन कष्ट सहने के बाद लोग कैशलेस व्यवस्था के आदी हो जायेंगे। वैज्ञानिक समाजवादी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि पूँजीवाद के विकास के बिना न तो उत्पादन संबंधों को बदला जा सकता है और न ही भारतीय अर्थव्यवस्था को कृत्रिम तरीके से कैशलेस बनाया जा सकता है। जिस तरह से अचानक 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया था तथा नये नोटों की सीमित आपूर्ति सीमित रही है, अनुमान लगाया जा सकता है कि असंगठित क्षेत्र का उत्पादन लगभग पंद्रह दिन पिछड़ गया है जिसका अर्थ है राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद के 45% के 1/24वें हिस्से का नुकसान अर्थात सकल घरेलू उत्पाद में 2% की कमी। इस कमी की भरपाई किसके हिस्से में जायेगी ये तो बताना मुश्किल है।

सुरेश श्रीवास्तव                
11 दिसंबर, 2016