Thursday 26 May 2016

कविता कृष्णन से एक अपील

कविता कृष्णन से एक अपील
आजकल सोशल मीडिया में 'फ़्री सेक्स' पर अनेकों बुद्धिजीवियों की अनेकों टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं। निम्न मध्यवर्गीय तो वैसे भी राजनैतिक-आर्थिक समस्याओं से संबंधित विषयों पर विमर्श करने में बहुत कम रुचि रखते हैं, पर शोषण व्यवस्था  की समाप्ति के लिए कटिबद्ध कविता कृष्णन जैसी महिला के लिए, सैद्धांतिक विमर्शों से ध्यान हटाकर, 'फ़्री सेक्स' जैसे सतही विषयों को इतना महत्वपूर्ण बना देना समझ नहीं आता है। अपनी बेटी के बचाव में उतरकर, श्रीमती लक्ष्मी कृष्णन द्वारा की गयी स्वीकारोक्ति तो समझ आती है, नहीं तो यौनक्रिया तो दो या कुछ व्यक्तियों के बीच का व्यक्तिगत मसला है, और उस पर  सार्वजनिक बहस का कोई औचित्य नहीं। करोड़ों वयस्क स्त्री पुरुष विवाहेतर या विवाह पूर्व जो भी यौनक्रिया करते हैं, सिवाय बलात्कार के, वह 'फ़्री सेक्स नहीं है तो क्या है। वे सब उसकी सार्वजनिक स्कीरोक्ति करते फिरें इसकी न कोई जरूरत है न औचित्य है। जो लोग करोड़ों पारंपरिक रूप से शादी शुदा पति पत्नी के बीच होने वाले यौन संबंधों के फ़्री सेक्स न होने का दावा करते हैं, उन्हें ऐसा करने का न अधिकार है और न उन्हें करना चाहिए। यौन क्रिया आपसी सहमति तथा स्वेच्छा से की गयी है, यह तय करने का अधिकार उस क्रिया में संलग्न लोगों तक ही सीमित होना चाहिए।
मानव में यौनक्रिया, अन्य पशुओं की यौनक्रिया से भिन्न है। निचले स्तर पर पशुओं में यौनक्रिया केवल प्रजनन के लिए होती है और उसमें स्वेच्छा जैसी कोई चीज नहीं होती है। पर विकास के उच्च स्तर यौनक्रिया का मकसद प्रजनन के साथ-साथ मनोरंजन भी होता गया है। पूरी तरह विकसित सभ्यता के स्तर पर मानव के लिए यौनक्रिया का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन हो गया है और प्रजनन गौण हो गया। यौनक्रिया तथा यौनतुष्टि के दो आयाम हैं, एक भौतिक शारीरिक संतुष्टि और दूसरा वैचारिक मानसिक संतुष्टि। जहाँ तक शारीरिक संतुष्टि का सवाल है, उसका दायरा बहुत सीमित है, पर मानसिक संतुष्टि का आयाम असीमित है। जब दोनों पक्षों के बीच यौनक्रिया आपसी सहमति के साथ केवल शारीरिक संतुष्टि के लिए होती है तो वह फ़्री सेक्स कहलाने के बावजूद मानवीय क्रिया न हो कर पाशविक क्रिया ही होगी। उसके फ़्री सेक्स होने का क्या औचित्य है।
मानसिक संतुष्टि के लिए आपसी सहमति से की गयी यौनक्रिया फ़्री सेक्स ही कही जायेगी, पर क्या वह हर हाल में उचित ठहरायी जा सकती है? मार्क्सवादी होने के नाते कविता कृष्णन को अच्छी तरह मालूम होना चाहिए कि मानवीय चेतना एक सामाजिक उत्पाद है और उसके विकास का स्तर उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर पर निर्भर करता है। व्यक्तियों के बीच सामाजिक संबंध, उनके बीच उत्पादन संबंधों पर निर्भर करते हैं। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के कुशलता आधारित श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण, सामंतवादी चेतना में स्त्री का सामाजिक दर्जा पुरुष के सामाजिक दर्जे से नीचे होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था मशीन आधारित होने के कारण, विकसित पूँजीवादी व्यवस्था में कुशलता आधारित श्रम विभाजन समाप्त हो जाता है और इसी कारण पूँजीवादी चेतना में लिंगभेद तथा जातिभेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं। सामंतवादी चेतना के बीच, सामाजिक संबंधों में स्त्रियों तथा दलितों की स्वेच्छा भी सही मायने में स्वतंत्र इच्छा नहीं कही जा सकती है और ऐसे में फ़्री सेक्स पर बहस करना बेमानी है।
कविता कृष्णन एक मार्क्सवादी पार्टी के पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं और उनके कंधों पर दायित्व है मजदूर वर्ग को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का तथा उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद करने का। और इसके लिए ज़रूरी है कि वे अन्य मार्क्सवादियों के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के निवेश को सुगम बनानेवाली नीतियों का समर्थन करें और साथ ही सुनिश्चित करें कि उत्पादन किये गये अतिरिक्त मूल्य में  तुलनात्मक रूप से मजदूरों की भागीदारी भी बढ़े। 

Friday 20 May 2016

सोसायटी फ़ॉर साइंस के सोशल मीडिया ग्रुप के साथियों से अपील

सोसायटी फ़ॉर साइंस के सोशल मीडिया ग्रुप के साथियों से अपील

फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर ग्रुप बनाये हुए लगभग दस महीने हो गये हैं और सदस्य संख्या 250 पार कर चुकी है, पर जिस उद्देश्य के लिए ग्रुप बनाये गये थे उसको हासिल करने की दिशा में नाममात्र की भी प्रगति नहीं हुई है। सैद्धांतिक विमर्श को आगे बढ़ाने के मक़सद से मार्क्सदर्शन के ब्लॉग, फेसबुक तथा व्हाट्सएप पर पोस्ट की गयी मेरी लगभग सौ टिप्पणियों पर इक्का दुक्का प्रश्नों को छोड़ कर सारा विमर्श 'लाइक' तक सीमित रह गया है। अधिकतर सदस्यों की अपनी-अपनी टाइमलाइन पर उनके अपने-अपने तरीके के पोस्ट नजर आते हैं जिनमें सेल्फी, कटाक्ष, चुटकुले, आंदोलन तथा समस्याओं आदि से संबंधित समाचार, इस या उस पार्टी की आलोचना, नसीहतें, गरियाना आदि सभी कुछ नजर आता है, सिवाय सोसायटी फ़ॉर साइंस के मंच पर विमर्श में सक्रिय भागीदारी तथा सैद्धांतिक समझ विकसित करने के किसी भी गंभीर प्रयास के।
अंसंवेदनशीलता, अमीर ग़रीब के बीच बढ़ती खाई, दलितों तथा स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा, निर्बल पर सबल द्वारा अत्याचार, सरकार की उदासीनता, भ्रष्टाचार, साम्राज्यवाद आदि विषयों पर गर्मागर्म बहसें हर जगह सुनायी देती हैं, और कुछ न कर सकने की बेबसी के बीच युवावर्ग की छटपटाहट और बेसब्री भी हर जगह महसूस की जा सकती है। समस्याओं के कारणों तथा समाधान की रणनीति के ऊपर मतैक्य से अधिक मतभेद नजर आते हैं, बावजूद इसके कि बहुत बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि मार्क्सवाद के द्वारा ही इन सामाजिक समस्याओं का निदान किया जा सकता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत - द्वंद्वात्मक भौतिकवाद - को मैंने व्यावहारिक जीवन में हर व्यक्तिगत तथा पारिवारिक मसले को समझने-सुलझाने में सक्षम पाया है, और जो प्रकृति का मूलभूत नियम होने के कारण हर प्रकार के पूर्वाग्रहों को बेनकाब करने में सक्षम है, वह लोगों के बीच मतभेद दूर कर एकजुटता क़ायम करने तथा उन्हें सामाजिक समस्याओं को हल कर सकने में मदद नहीं कर पा रहा है क्योंकि हर किसी का (पूर्व)आग्रह है कि मार्क्सवाद के नाम से जाने जानेवाले सिद्धांत की उसकी अपनी समझ, तथा उसकी अपनी कल्पना का समाजवाद तथा उसकी राह ही सही है और सभी को उसके द्वारा सुझाये रास्ते पर लामबंद हो जाना चाहिए। मार्क्सवाद की मूलभूत अंतर्वस्तु को समझने समझाने के विमर्श से हर कोई कतराता है। शायद मार्क्सवाद के बारे में, अपनी समझ की कमी को स्वीकारने में मूर्धन्यों का अहं आड़े आ जाता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अनगिनत नेताओं के अनगिनत पूर्वाग्रहों के चलते, वामपंथी आंदोलन अनगिनत शाखाओं में बँटा हुआ है।
ऐसे में सीमित पर अत्याधिक महत्वपूर्ण उद्देश्य में सोसायटी द्वारा एक क़दम भी आगे न बढ़ पाने का दोष सदस्यों के ऊपर थोपना सही नहीं होगा। ग्रुप के इन 250 सदस्यों की महत्वाकांक्षा नेता बनने की हो ऐसा नहीं है। वे सभी आम निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी हैं जो उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुके हैं जहाँ नेतृत्व कर सकने की क्षमता विकसित कर सकने के उनके अवसर निकल चुके हैं। पर जो लोग थोड़ा बहुत वक़्त निकाल कर फेसबुक तथा व्हाट्सएप पर गंभीर टिप्पणियों को पढ़ने तथा लाइक करने का समय निकालते हैं क्या यह उनका अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग होना नहीं दर्शाता है? पर वे सब, कुछ एक को छोड़कर, सोसायटी फ़ॉर साइंस के मंच पर वैचारिक विमर्श में सक्रिय भागीदारी क्यों नहीं निभाना चाहते हैं? चूँकि सोसायटी फ़ॉर साइंस का गठन मेरी पहल पर किया गया है, इसलिए कारण और निदान ढूँढने का दायित्व भी मेरा ही बनता है।
किसी संगठन की कार्य प्रणाली तथा गतिविधि का सही आंकलन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर ही किया जा सकता है। विश्लेषण करते समय किसी भी संगठन को एक जैविक चैतन्य संरचना के रूप में देखा जाना चाहिए जिसकी सांगठनिक चेतना उसके अपने सदस्यों की व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होती है। संगठन और व्यक्तियों की चेतना के बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है अर्थात वे एक ही समय पर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। व्यक्ति के लिए उसकी अपनी चेतना मुख्य होती है पर संगठन के लिए व्यक्तिगत चेतना गौण होती है तथा उनके बीच का संबंध करणात्मक न होकर द्वंद्वात्मक होता है। संगठन, व्यक्तियों के समूह से भिन्न होता है।
व्यक्ति एक दूसरे के साथ वैचारिक स्तर पर किसी उद्देश्य को हासिल करने के उद्देश्य से ही जुड़ते हैं। उद्देश्य स्पष्ट होना तथा उद्देश्य प्राप्ति की प्रक्रिया में लोगों का एक दूसरे का पूरक होना, दीर्घकालीन एकजुटता के लिए ज़रूरी है अन्यथा समूह संगठन बनने से पहले ही बिखर जाता है। उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले निरंतर प्रयास के दौरान ही लोगों की सामूहिक चेतना विकसित होती है और एक स्तर पर आकर सामूहिक चेतना संगठन की चेतना का रूप ले लेती है। बड़ी संख्या में लोगों के जुड़ने तथा साझा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर किये जाने वाले प्रयास से ही सामूहिक चेतना, गुणात्मक रूप से भिन्न, संगठन की चेतना में परिवर्तित होती है। यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के, मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के नियम के अनुरूप ही होता है। यही विचार और व्यवहार का द्वंद्वात्मक संबंध है।
इस गुणात्मक परिवर्तन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयाम है जिसे आम तौर पर लोग, मार्क्सवादी चिंतन के अभाव में नजरंदाज कर देते हैं। निम्न स्तर पर समूह में विशिष्ट व्यक्ति या नेतृत्व की सोच ही समूह की सोच को नियंत्रित करती है, पर गुणात्मक परिवर्तन के बाद संगठन की चेतना स्वायत्त हो जाती है। नेतृत्व, उस स्वायत्त चेतना का प्रतीक मात्र होता है। नेतृत्व स्वयं संगठन की चेतना के नियंत्रण में होता है। इसी सिद्धांत के आधार पर मार्क्स ने निम्न स्तर की बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था तथा उच्च स्तर की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के अंतर को समझाया था। पर हमारे वामपंथी बुद्धिजीवी मार्क्सवाद की सही समझ के अभाव में समझ ही नहीं पाते हैं कि विकसित पूँजीवाद में पूँजीपति पूँजी का मालिक नहीं रह जाता है बल्कि पूँजी का वाहक बन कर रह जाता है। पूँजी के लिए जब माल्या जैसा व्यक्ति काम का नहीं रह जाता है तो निकाल कर फेंक दिया जाता है।      
ढाई सौ से ज्यादा लोगों द्वारा सोसायटी के ग्रुप के साथ जुड़ना अपने आप में उनकी सदिच्छा को दर्शाता है। यह सही है कि कुछ लोग केवल अपने अहं तथा समाज में अपनी विशिष्ट पहचान की अभिलाषा तुष्ट करने के लिए ही सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, पर अधिकांश दुविधाग्रस्त हैं। अपनी सामाजिक आर्थिक परिस्थिति के कारण निम्न मध्यवर्गीय हमेशा ही हर सामाजिक क्रांति का अभिन्न अंग होता है पर उसका रवैया भी अक्सर ढुलमुल ही रहता है। वह विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी होता है और संपन्नों की संपन्नता से ललचाया भी। निम्न मध्यवर्गीय एक ही समय पर समाजवादी भी होता है और अर्थवादी भी। दूरदर्शिता के अभाव में, वह अपने हित को सामूहिक हित के साथ जोड़कर नहीं देख पाता है। इसी वर्ग से वे लोग भी निकलते हैं जो जागरूक होकर, नये विचारों का निर्माण कर, तथा परिवर्तनकारी शक्तियों को एकजुट कर क्रांतिकारी परिवर्तनों को अंजाम देते हैं।
सोसायटी फ़ॉर साइंस की परिकल्पना इस समझ के आधार पर की गयी है कि वामपंथी आंदोलन में बिखराव का एकमात्र कारण है, बुद्धिजीवियों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव होना तथा मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ का संशोधनवाद से प्रदूषित होना, जिसके कारण लोग अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा नहीं पा पाते हैं। सिद्धांत में संशोधनवाद की व्याप्ति को दूर करने का तथा वामपंथी आंदोलन में एकजुटता सुनिश्चित करने का एकमात्र उपाय है, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धियों के बीच सैद्धांतिक विमर्श के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना। सोसायटी फ़ॉर साइंस का गठन इसी सीमित उद्देश्य के साथ किया गया है। सोसायटी का नाम - Society for Socially Conscious Intellectuals ENlightenment and CEphalisation (सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के ज्ञानोदय तथा एकजुटता के लिए) - सोसायटी के उद्देश्य तथा कार्यनीति को स्पष्ट करता है।
सोसायटी फ़ॉर साइंस ने अपने लिए बहुत सीमित उद्देश्य चुना है, और मुझे इसके लिए हर तरफ से आलोचना भी झेलना पड़ती है। वामपंथी साथियों का कटाक्ष होता है, दार्शनिकों ने व्याख्या तो बहुत की है, सवाल तो बदलने का है। सदस्यों का प्रश्न होता है कि यथार्थ के धरातल पर क्या करना है। हर कोई किसी न किसी प्रकार की राजनैतिक दख़ल के लिए उतावला है। ' सिद्धांतहीनता तथा अतिसक्रियता का चोली-दामन का साथ है ' इसलिए सिद्धांतविहीन परिवेश में इस प्रकार की आलोचना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। यह बात तय है कि व्याप्त संशोधनवाद से छुटकारा पाये बिना एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता है और संशोधनवाद से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है एकाग्र विषय-केंद्रित विमर्श। आमतौर पर बुद्धिजीवियों के बीच होनेवाले विमर्श शीघ्र ही विषय से भटक जाते हैं और विमर्श वाद-विवाद का रूप ले लेते हैं। हर कोई अपने पूर्वाग्रह से अनभिज्ञ, अपनी ही समझ को सही मानते हुए हर तरह के आँकड़ों तथा तथ्यों से अपनी बात को सही सिद्ध करने में अपना ध्यान विषय की अधिरचना पर ही केंद्रित किये रहता है। जाहिर है ऐसे में विषय की अंतर्वस्तु को नियंत्रित करने वाले द्वंद्वों की पहचान नजरंदाज हो जाती है।
क्योंकि सामाजिक संरचना का अस्तित्व वैचारिक है, इसलिए आवश्यक है कि सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करने में रुचि रखने वाले बुद्धिजीवी अपनी अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित करें, तथा पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने के लिए सामाजिक-आर्थिक कोटियों - वर्ग तथा वर्गचरित्र, राज्य, राजसत्ता, उत्पादन संबंध, वर्ग-संघर्ष, अंतर्विरोध आदि - को उनके मूल अर्थात चेतना-अस्तित्व, मूल्य, मुद्रा, पूँजी आदि में निहित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों के आधार पर समझने का प्रयास करें, न कि तथ्यों तथा आँकड़ों के आधार पर। व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना की विकास प्रक्रिया पर लागू होनेवाले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुसार, अमूर्त चिंतन विकसित करने का एकमात्र उपाय है, चीजों के दार्शनिक आयाम पर विमर्श करना, तथा पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करने का एकमात्र उपाय है, चीजों को उनके मूल से पकड़ना। इसी को ध्यान में रखते हुए सोसायटी ने अपना उद्देश्य तथा कार्यनीति निर्धारित की है। सोसायटी अपने ब्लॉग तथा सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर किसी भी सामाजिक विषय के एक आयाम पर केंद्रित लेखों के जरिए सदस्यों को विमर्श के लिए आमंत्रित करती है।
सोसायटी द्वारा की जानेवाली पहल तो ठीक है, पर सदस्य विमर्श में सक्रिय भागीदारी क्यों नहीं कर रहे हैं। उनकी भागीदारी उदासीन 'लाइक' से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है, यह अहम प्रश्न है। उनकी उदासीनता का कारण तथा उसका निदान दोनों ढूँढना ज़रूरी है।
सोसायटी के फ़ेसबुक ग्रुप से लगभग ढाई सौ लोग जुड़े हैं, पर जहाँ मार्च के महीने तक लगभग 180 सदस्य, ग्रुप के पोस्ट को देखते थे वहाँ अब बमुश्किल पंद्रह-बीस लोग ही किसी पोस्ट को देखने की ज़हमत उठाते हैं। जाहिर है लगभग एक तिहाई लोगों को सामाजिक सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। वे केवल आत्मतुष्टि के लिए ज्यादा से ज्यादा ग्रुपों में अपनी सदस्यता दिखाकर और मीडिया में मित्रों की संख्या बढ़ाकर अपने विशिष्ट व्यक्ति होने की लालसा पूरी कर लेते हैं। बाकी में से  पच्चानबे प्रतिशत ऐसे रहे होंगे जिनकी अपनी परिस्थितियों के कारण किसी भी प्रकार की सक्रिय भागीदारी की इच्छा मर चुकी है और जिनकी अभिलाषा है कि समस्याओं का समाधान कोई और ढूँढ दे और निदान भी कोई और कर दे। वे पाँच साल में एक बार वोट डालने वाले मतदाता की तरह किसी भी हस्तक्षेप में अपने लिए कोई भी सक्रिय भागीदारी नहीं देख पाते हैं।
पूरी संख्या में से पाँच प्रतिशत ही हैं जो लाइक करने की ज़हमत उठाते हैं या फिर छोटी मोटी टिप्पणी करने की हिम्मत जुटा पाते हैं। किसी समुदाय की पाँच प्रतिशत आबादी ही, समुदाय की तर्कबुद्धि की वाहक होती है जो समूह की कार्यनीति की दिशा को निर्धारित करती है, या यूँ कहें कि सामूहिक रूप से यही सदस्य उन विचारों का निर्माण करते हैं जो उनके बीच उस एकजुटता का कारण बनते हैं जो समुदाय को गुणात्मक रूप से भिन्न, चेतन संरचना अर्थात संगठन का स्वरूप प्रदान करती है।
ये दस बारह सदस्य, अपनी व्यक्तिगत सजग चेतना के बावजूद, सोसायटी के ग्रुप को उस स्तर तक क्यों नहीं पहुँचा पा रहे हैं जहाँ ग्रुप, सुरेश श्रीवास्तव के नियंत्रण तथा दिशा निर्देश के स्तर से ऊपर उठकर एक स्वायत्त संरचना के रूप में अपनी दिशा स्वयं निर्धारित करने लगे। इसके दो कारण हैं। एक तो उन्हें अपनी क्षमता पर यह विश्वास नहीं है कि वे सिद्धांत को बिना किसी जानकार अग्रणी की मदद के भी समझ सकते हैं। दूसरा उन्हें आसपास वह परिवेश नजर नहीं आता है जिसके बीच रहकर वे अपनी अमूर्त चिंतन की, तथा पूर्वाग्रहों को हटाकर वस्तुपरक विश्लेषण कर सकने की, क्षमता को विकसित कर सकें। वे गण्यमान्य लेखकों, आलोचकों, वक्ताओं, सिद्धांतकारों आदि के लेखन तथा वक्तव्यों के जरिए सिद्धांत को परिभाषित करना तथा समझना चाहते हैं। इसी के कारण वे अंतहीन चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं। लेखकों तथा वक्ताओं का संवाद एकतरफ़ा तथा पूर्वाग्रह ग्रसित होता है। वक़्ता तथा श्रोता के पास अपनी शंकाओं के समाधान का अवसर नहीं होता है। शंकाओं का समाधान न हो पाने के कारण उनका आत्मविश्वास कमजोर होता जाता है।
ग्रुप पर, सजग सदस्यों से मेरा अनुरोध है कि वे हर लेख पर अपना विचार बिना किसी झिझक अपनी भाषा में अवश्य व्यक्त करें चाहे वे लेख में निहित विचार से सहमत हों या न हों। इससे दो फ़ायदे होंगे, एक तो वह माहौल बनेगा जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक विकास के लिए ज़रूरी है, यही चेतना तथा अस्तित्व का द्वंद्वात्क संबंध है। दूसरा आपसी विमर्श के जरिए उन पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सकेगा, जिनको एकतरफ़ा संवाद के जरिए दूर करना असंभव है। सही विचार के विकास के लिए विपरीत विचारों का संघर्ष आवश्यक है यही द्वंद्वात्मक विकास का नियम है।
मूर्धन्यों की हताशा तथा आत्ममुग्धता के नये दौर में, नई पीढ़ी के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ।

सुरेश श्रीवास्तव
20 मई, 2016

Monday 9 May 2016

सुधी साथी,
मार्क्स दर्शन के ब्लाग से आपको मार्क्सवाद को समझने में मदद मिली यह जानकर ख़ुशी हुई, और आभार व्यक्त करने के लिए आपका धन्यवाद।
आपने मुझ से, बर्न्सटाइन तथा कॉत्स्की से लेकर ग्राम्शी तथा मार्क्यूज़ जैसे विचारकों की सैद्धांतिक आलोचनाओं पर प्रकाश डालने का आग्रह किया है। मैं निवेदन करना चाहूँगा कि मार्क्स के समय से ही अनेकों मूर्धन्य आलोचक मार्क्सवाद में संशोधन कर उसको विकसित करने का दावा करते रहे हैं और मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन ने विस्तार से समझा दिया था कि इस प्रकृति की अंतर्वस्तु अर्थात मूलाधार ही मार्क्सवावाद है और वही अंतिम सत्य है। मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु, प्रकृति के अंतहीन अस्तित्व और उसमें होने वाले अंतहीन परिवर्तन की मूलभूत समझ, अर्थात द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ही है। प्रकृति में किसी भी स्तर पर होने वाले किसी भी परिवर्तन की सही-सही व्याख्या केवल द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर ही की जा सकती है। किसी परिघटना के आंतरिक प्राकृतिक द्वंद्वों को नकार कर, सुविधानुसार अपने पूर्वाग्रहों को उस परिघटना के प्राकृतिक द्वंद्व घोषित करते हुए, उस परिघटना की व्याख्या करना गलत ही होगा। किसी सामाजिक परिस्थिति या प्रक्रिया की सही-सही मार्क्सवादी समझ, मार्क्सवाद के मूलभूत नियम और उस पर आधारित सह-सही समझ के आधार पर ही, विकसित की जा सकती है। किसी सामाजिक परिस्थिति या प्रक्रिया की समझ, उस परिस्थिति या प्रक्रिया का विश्लेषण मार्क्सवाद के अपरिवर्तनीय नियमों के आधार पर न करके, अपने पूर्वाग्रहों को संशोधित मार्क्सवाद घोषित करते हुए, उनके आधार पर किया गया विश्लेषण गलत की होगा। और गलत समझ के आधार पर ही आगे का ज्ञान विकसित करने की परंपरा, अर्थात मार्क्सवाद को संशोधित करते जाना, निम्न मध्यवर्गीय विचारकों ने तभी से शुरू कर दी थी जब मार्क्स तथा एंगेल्स सहित मार्क्सवादियों ने, वैज्ञानिक समाजवाद को सर्वहारा चेतना में ला दिया था। संशोधनवादियों की दलील कि 'मार्क्स ने स्वयं कहा था कि सब कुछ निरंतर बदल रहा है, विकसित हो रहा है, कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है, इसलिए मार्क्सवाद को भी परिस्थिति के अनुसार विकसित किया जाना आवश्यक है', इस तरह है जैसे कि कोई कहे कि, ' प्रकृति का नियम है कि जो कुछ अस्तित्व में आया है वह एक दिन समाप्त भी अवश्य होगा और इसलिए इस प्रकृति का भी किसी दिन अंत अवश्य होगा।' संशोधनवादियों की यही दलील उन्हें भाववादियों के साथ खड़ा कर देती है।
संशोधनवाद के प्रारूप अनगिनत हो सकते हैं और अनेकों संशोधनवादियों ने संशोधित मार्क्सवाद के अपने-अपने प्रारूपों का अंबार खड़ा कर दिया है। मुझे उन पर टिप्पणी करने और बहस में उलझने में न कोई रुचि है और न कोई बुद्धिमानी नजर आती है।
अगर एक त्रिभुज की तीनों भुजाएं, अलग अलग, दूसरे त्रिभुज की संगत भुजाओं के बराबर हों तो दोंनो त्रिभुज सर्वांगसम होते हैं। उनके संगत कोण भी बराबर होंगे तथा उनके अन्य सभी गुण तथा माप जैसे कि, क्षेत्रफल, परिमिति, भुजाओं के अनुपात आदि भी बराबर होंगे। पर यह कह देना गलत होगा कि अगर एक त्रिभुज के कोण दूसरे त्रिभुज के संगत कोणों के बराबर हैं तो भुजायें भी बराबर होंगी। सर्वांगसम त्रिभुजों के गुणों में तथा समरूप त्रिभुजों के गुणों में कुछ समानताएँ तो हो सकती हैं, पर इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि सर्वांगसम होना तथा समरूप होना एक ही बात है।
मैं सोसायटी फ़ॉर साइंस के माध्यम से, तथा व्यक्तिगत स्तर पर भी सभी से आग्रह करता रहा हूँ कि, मौजूदा दौर की जरूरत है कि सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवी हालात और उनमें वांछित हस्तक्षेप का विश्लेषण करते समय विमर्श सिद्धांत तथा सैद्धांतिक नियमों के आधार करें, न कि व्यक्तियों के नामों तथा उनके लेखन के संदर्भ से। मार्क्स की मृत्यु के बाद जब किसी ने एंगेल्स से पूछा, "आप मार्क्सवादी किसको कहेंगे" तो एंगेल्स का उत्तर था, " मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी भी परिस्थिति में उसी तरह सोचे जैसे उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता"।              आशा है सार्थक विमर्श के द्वारा आजकल के हालात को मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर समझने में हम एक दूसरे की मदद कर सकेंगे।
आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
सुरेश श्रीवास्तव
2 मई, 2016

पाठकों के मुखातिब




पाठकों के मुखातिब
(त्रैमासिक पत्रिका मार्क्स दर्शन के वर्ष 1 अंक 4, जुलाई-सितम्बर 2011 का संपादकीय)

            पचीस साल पारिवारिक तथा सांसारिक दलदल में संघर्ष करने के बाद उबरने पर पाया कि चारों ओर अफरा-तफरी मची है, हर तरफ हालात को कोसने तथा बदले जाने की मांग का प्रलाप सुनाई दे रहा है। लगा यह आसन्न क्रांतिकारी परिवर्तन का ऊषाकाल है। सामाजिक दायित्व के निर्वहन की उत्कट इच्छा अपनी भूमिका तलाशने के लिए मजबूर कर रही थी। मार्क्सवादी सोच ने समझाया कि, उम्र के इस पड़ाव में मेरी जैसी समझ के लिए तार्किक रूप से काले-सफेद अक्षरों की दुनिया में ही सर्वाधिक उपयुक्त भूमिका मिल सकने की संभावना है।
            पर शीघ्र ही समझ आ गया कि हिंदी लेखन-पठन का जो माहौल पिछले साठ सालों में विकसित हुआ है उसमें मुझ जैसे के लिए कोई जगह नहीं है। जिसे मैं ऊषाकाल समझ रह था वह तो अनंतकालीन दीर्घ रात्रि थी जिसके ऊषाकाल का दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं था। चारों ओर मची अफरा-तफरी और हर तरफ हालात को कोसने तथा बदले जाने की मांग का जो प्रलाप सुनाई दे रहा था वह तो पूंजीवाद के वितान तले, उसी की दौलत की रोशनी में, उसी के निदेशन में खेली जाने वाली नाटिकाएं हैं जो दर्शक-दीर्घा में हाशिये पर बैठी 90 करोड़ की शोषित जनता को मुदित और भ्रमित करने के लिए खेली जा रही हैं। सारे किरदार जो कुछ भी कर रहे हैं वह इस शोषण व्यवस्था को बरकरार रखने तथा मजबूती प्रदान करने के लिए ही कर रहे हैं और उनके अपने आर्थिक हितों की पूर्ति भी 90 करोड़ की आबादी की लूट के एक हिस्से से पूरी हो रही है। यथार्थ से सभी बेखबर हैं और कुछ इस भ्रम में जी रहे हैं कि वे 90 करोड़ की आबादी की लूट में शामिल नहीं हैं बल्कि उसे शोषण से निजात दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। हाशिये पर बैठी जनता न तो मुदित है और न ही भ्रमित, हां सारे किरदार जरूर, अपनी-अपनी अक्ल की कमी और सन्निपात के अनुसार, मुदित भी हैं और भ्रमित भी। सारी भीड़ में इक्का-दुक्का हैं जो पूरी तरह जागरूक हैं, सारे रंगकर्म को अच्छी तरह समझ रहे हैं पर न तो इस नक्कारखाने में उनकी तूती की आवाज सुनने वाला कोई है और न ही उनके पास एकजुट होने का कोई रास्ता है।
            किरदारों को निदेशित तथा नियंत्रित करने की प्रक्रिया भी बड़ी ही सरल है।
            पूंजीवाद के वितान तले व्याप्त है वैचारिक व्योम जिसकी अंतर्वस्तु है निजी स्वार्थ जो अदृश्य डोरियों से कठपुतलियों को नियंत्रित करता है, तथा व्याप्त है मुद्रा तथा पूंजी की जगमग जो किरदारों को निरंतर सम्मोहन की अवस्था में रखती है। यह तो है परोक्ष वातावरण। प्रत्यक्ष में होता है प्रजातंत्र का आवरण जो आभास देता है कि हर एक आजाद है और कोई किसी डोर से नियंत्रित नहीं है, हर एक को समान अधिकार हैं, बिना किसी भेद-भाव के, और ऊंच-नीच का भेद प्रारब्धजन्य है उसके लिए न ही पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है और न ही कुछ किया जा सकता है।
            केंद्र में शीर्ष पर एक समूह है (राजसत्ता) जिसके जरिये सारी व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है और जो स्वायत्तता तथा निरपेक्षता के आवरण से ढंका रहता है। प्रजातंत्र के जाल का विस्तार हाशिये पर बैठी जनता तक जाता है तथा यह भ्रम पैदा करता है मानो इस समूह का नियंत्रण हाशिये पर बैठी जनता के हाथ में है। यथार्थ का आभास कराने के लिए कभी-कभी जनता के सुझावों के अनुरूप इसकी साज-सज्जा में कुछ सतही परिवर्तन भी कर दिये जाते हैं पर मूल संरचना में कोई परिवर्तन नहीं होता है। रंगमंच पर मौजूद 20 करोड़ की आबादी अपने-अपने किरदारों के आधार पर विचार श्रंखलाओं से बंधी भिन्न-भिन्न समूहों के रूप में अपना किरदार निभाती रहती है। सर्वाधिक संपन्न केंद्र के सबसे नजदीक के घेरे में अपना खेल खेलते हैं और घटती संपन्नता के साथ खेल का दायरा भी केंद्र से दूर होता जाता है। चूंकि संपन्नता केंद्र की नजदीकी से सीधी-सीधे जुड़ी हुई है इस कारण जाने-अनजाने हर किसी का प्रयास केंद्र के अधिक से अधिक नजदीक के दायरे में पहुंचने का होता है और इस प्रयास में वह अपने सभी मूल्यों के अवमूल्यन की कीमत चुकाता चला जाता है।
            पटकथा भी बड़ी सीधी-सादी सपाट है।
            समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान तो किया नहीं जा सकता है क्योंकि समस्याएं उसी व्यवस्था की प्राणवायु हैं जो उन्हें जन्म देती है या यूं कहें कि पूंजीवादी व्यवस्था को अपनी निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए समस्याओं को पैदा करना जरूरी है। पर 90 करोड़ की आबादी को गुमराह करने के लिए बलि के बकरों यानि कि समस्या के लिए जिम्मेदार लोगों और समूहों की पहचान जरूरी है। इस कारण सभी के लिए एक रंगकर्म सुनिश्चित कर दिया गया है। अपनी तुलना में केंद्र के अधिक नजदीक समूहों की आलोचना करना तथा केंद्र से अधिक दूर समूहों की आलोचना सुनना। सारा रंगकर्म इसी आलोचना प्रत्यालोचना पर आधारित है।
            चूंकि समाज के गठन का आधार है लोगों के बीच विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया इस कारण ऐसे लोगों, जो विचारों तथा सूचना के विस्तार में संलग्न हैं, के समूह सर्वव्यापक हैं। यही वे समूह हैं जो सही विचारों के विस्तार के जरिए 90 करोड़ की आबादी को जागरूक कर संगठित होने तथा पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। विडम्बना यह है कि इन समूहों का सदस्य गलतफहमी में है कि इसी व्यवस्था द्वारा लिखी पटकथा के अनुसार नाटक खेलते हुए भी केंद्र के नजदीक पहुंच कर तथा उस पर काबिज हो कर व्यवस्था को बदला जा सकता है। वह यह भूल जाता है कि केंद्र के नजदीक पहुंचने की प्रक्रिया और नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन एक दूसरे के पूरक हैं और केंद्र के नजदीक पहुंचने तक उसके सारे मूल्यों का अवमूल्यन हो चुका होता है। केंद्र में होने के लिए अनिवार्य शर्त है मूल्यों की पूर्ण आहुति।
             लेनिन ने कहा था, 'राजनीति में लोग हमेशा ही छलावे तथा गलतफहमी के शिकार रहे हैं, अज्ञानी होने के कारण, और होते रहेंगे जब तक कि वे सभी नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वक्तव्यों, घोषणाओं तथा वायदों के पीछे एक या दूसरे वर्ग के हितों की पड़ताल करना नहीं सीख लेते हैं। सुधार तथा संशोधनों के पैरोकार, पुरानी व्यवस्था के ठेकेदारों के द्वारा, हमेशा ठगे जायेंगे जब तक कि वे यह नहीं समझ लेते हैं कि हर पुरानी व्यवस्था, चाहे कितनी भी असभ्य तथा सड़ी हुई नजर क्यों न आती हो, विशिष्ट शासक वर्गों की ताकतों के द्वारा ही अस्तित्व में बरकरार रखी जाती है। और उन वर्गों के प्रतिरोध को ध्वस्त करने का सिर्फ एक ही रास्ता है, और वह है, हमारे चारों ओर के इसी समाज में उन शक्तियों, जो उस क्षमता, जो पुरातन को बुहार कर नये का निर्माण कर सकने में सक्षम है, का गठन कर सकती हैं तथा, जिन्हें अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण, करना चाहिए, को ढूंढ़ निकालना और संघर्ष के लिए उन्हें जागरूक तथा संगठित करना। (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 14)। लेनिन के ही शब्दों में, 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है।' (माक्र्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 17)। विचार-विमर्श के मंच के रूप में सैद्धांतिक लेखों के जरिए मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को समझने तथा मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर आज कल के हालात की पड़ताल करने के व्यावहारिक ज्ञान का अवसर अपने पाठकों-लेखकों को हासिल कराने को ही मार्क्स दर्शन ने अपना कर्म निर्धारित किया है। आशा है हमारे लेखक तथा पाठक मार्क्स दर्शन के उद्देश्य में निहित इस द्वंद्व को समझ कर, सैद्धांतिक तथा आज के हालात पर आलोचनात्मक, अपने लेखों तथा टिप्पणियों से मार्क्स दर्शन के इस अभियान को सफल बनाने में भरपूर सहयोग प्रदान करेंगे।
            इस बार 'विमर्श' में हमने अनिल राजिमवाले के लेख पर पाठक के रूप में दिनेश बैस की टिप्पणी, फिर उस पर लेखक का स्पष्टीकरण और अंत में सारांश संपादकीय हस्तक्षेप के रूप में छापा है, लेखक-पाठक के रूप में जी.पी. मिश्र के लेख पर बिंदुवार प्रतिक्रिया ' मार्क्सवादी नजर से' के अंतर्गत छापी है, तथा सीताराम येचुरी का एक पुराना प्रकाशित लेख तथा उस लेख पर सुरेश श्रीवास्तव की प्रकाशित प्रतिक्रिया भी ' मार्क्सवादी नजर से' के अंतर्गत छापी है ताकि पाठकों को मार्क्स दर्शन के उद्देश्य का व्यावहारिक रूप समझ आ सके। 'इस दौर में जब अवसरवाद के प्रवचन का रिवाज तथा अति संकीर्ण व्यावहारिक सक्रियता के प्रति आसक्ति का चोली दामन का साथ है, इस विचार (क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है) का आग्रह, बार-बार जितना भी किया जाये, कम है।' (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1 अंक 3, पृ 17)। मार्क्स दर्शन के उद्देश्य के लिए पाठकों का सक्रिय योगदान हमारे लिए अत्यंत बहुमूल्य है।  

सुरेश श्रीवास्तव
संपादक